‘रहेगी ख़ाक में मुंतजिर’ संजय कुमार सिंह का पहला उपन्यास है। दैनन्दिनी शैली में लिखा गया यह एक यथार्थवादी उपन्यास है। यथार्थवाद एक ऐसी विचार-प्रक्रिया है जो वृहत्तर सामाजिक जीवन की घटनाओं से अभिन्न रूप से जुड़ी है। वस्तुतः कोई भी उपन्यास परिवेशगत अथवा वृहत्तर यथार्थ की ओर पीठ करके न तो प्रामाणिकता को प्राप्त कर सकता है और न तो उसकी प्रासंगिकता ही होती है। उदाहरणस्वरूप प्रेमचन्द के उपन्यास इतने वर्षों बाद भी प्रासंगिक हैं क्योंकि उनमें वह मानवीय दृष्टि सन्निहित है जो रचनाकालीन समय-समाज के यथार्थ को आज के संदर्भ में व्यापक रूप से प्रतीति कराती है। प्रेमचन्द ने जनसामान्य के जीवन-सत्य को पहले-पहल अपने उपन्यासों में चित्रित किया। यही उपन्यास का लोकतंत्र है।
प्रश्न है कि क्या यथार्थ और कल्पना परस्पर विरोधी हैं? डॉ. रामविलास शर्मा का कथन है कि “थथार्थ चित्रण और कल्पना – इन दोनों में भी परस्पर विरोध नहीं है। मनुष्य आज जो कुछ है, वह अपने समस्त पूर्व विकास का परिणाम है। इसमें उसका प्राग्मानवीय प्राणिरूप भी विकास में शामिल है। उसका इन्द्रियबोध, उसकी कल्पना – सभी यथार्थवाद के अंतर्गत आते हैं। यथार्थवादी लेखक कल्पना द्वारा टाइप रचता है, अपने अनुभव की सामग्री से काम की चीजें चुनता और सजाता है और उसमें ऐसी घटनाएँ, पात्र आदि जोड़ता है जो ऐतिहासिक रूप से सत्य न होकर भी यथार्थ के अनुरूप होते हैं।”
उपन्यास के विवेचन-विश्लेषण में हमें डॉ. शर्मा के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखना होगा। यथार्थवादी उपन्यासकार वास्तविक जीवन से जूझते ही हैं, लेकिन वस्तुनिष्ठ तथ्य की जानकारी के बावजूद उसे अपनी सर्जना में कल्पना की छौंक लगानी ही पड़ती है। उपन्यास के पात्रों के चरित्र-चित्रण में उपन्यासकार के अनुभव, आग्रह और दृष्टि का प्रभाव पड़ता ही है, किन्तु कभी-कभी उपन्यास के पात्र ‘टाइप’ में कैद होकर रह जाते हैं। इसी प्रवृत्ति को लक्ष्य करके डॉ. नामवर सिंह ने कहा था कि यथार्थवाद को उपन्यास के निर्धारक तत्व के रूप में स्वीकार कर लेने का परिणाम यह है कि लोग जगबीती को ही उपन्यास मानते हैं। उपन्यास की चर्चा भी होती है तो सामाजिक यथार्थवाद, क्रांतिकारी यथार्थवाद को लेकर ही। यानी उपन्यास ‘जगबीती’ तो हो सकता है लेकिन ‘आपबीती’ नहीं। इस प्रकार नामवर सिंह ने उपन्यास में जगबीती के साथ आपबीती पर बल दिया है। यह कथन बिल्कुल सही भी है। स्पष्ट है कि नामवर सिंह उपन्यास में बाह्य यथार्थ के साथ व्यक्ति के आंतरिक यथार्थ और उसकी बुनावट में कल्पना के महत्व को स्वीकार करते हैं।
यथार्थवाद के संदर्भ में जार्ज लुकाच की दृष्टि भी ध्यातव्य है। लुकाच यथार्थवाद की चर्चा के प्रसंग में समग्रता और संपूर्णता को महत्व देते हैं। उनके अनुसार पात्रों एवं स्थितियों को खण्ड-खण्ड में देखने अथवा चित्रित करने वाली दृष्टि यथार्थवाद के लिए सही नहीं है। ‘गोदान’ का ‘होरी’ एक क्षेत्र विशेष के किसान की समस्याओं, जीवन-संघर्षों, सपनों और आशा-आकांक्षाओं की जगह सम्पूर्ण ग्रामीण जीवन का प्रतिनिधि किसान बन जाता है।
‘रहेगी ख़ाक में मुंतजिर’ उपन्यास उच्च शिक्षा-जगत में गिरावट का एक मुकम्मल दस्तावेज है। इसमें बिहार के एक कॉलेज की कहानी है जिसमें मुख्य चरित्र के रूप में कॉलेज का प्रिंसिपल ही है। यह प्रिंसिपल अन्य कोई नहीं, उपन्यासकार ही है। इसलिए यह आत्मकथात्मक चरित्र है। पूरे उपन्यास में कथा-पात्र प्रिंसिंपल अपने कॉलेज एवं अपने व्यक्तिगत जीवन में ताल-मेल बिठाने की कोशिश करते दिखाई देते हैं लेकिन कितना सफल हो पाते हैं, इसके लिए नैरेटर की इन पंक्तियों की गहराई में उतरना होगा – “एक दिन सुख के चमकीले पंख झरते हैं तो दूसरे दिन दुख के पीले पंख भी। असल बात है कि आप याद क्या करते हैं।” (पृ. 26) उपन्यास में अफसरशाही, प्रशासनिक दाँव-पेंच, कुर्सी की अहमियत, कुर्सी की बेबसी, बड़े अधिकारी की संवेदन-शून्यता, व्यवस्था की विसंगतियाँ, राजनीतिक-सामाजिक विद्रूपता, जातिवाद, भाई-भतीजावाद, संप्रदायवाद, बाजारवाद, वृद्धों की उपेक्षा, दियाद-गोतिया की जमीन-जायदाद हड़पो नीति इत्यादि को लेखक ने मार्मिकता एवं कलात्मकता से उजागर किया है।
उपन्यास में वर्णित कॉलेज की समस्याएँ, जिनसे प्रिंसिपल रोज जूझता है, किसी एक कॉलेज से संबंधित नहीं है, बिहार के सभी कॉलेजों में लगभग यही स्थिति है। इसीलिए उपन्यासकार ने पुरोवाक् (रोती हुई नदी को सुनकर) में लिखा है, “इस उपन्यास में कोई नायक नहीं है। इस खंडित समय का कोई नायक हो ही नहीं सकता।” इस प्रकार जार्ज लुकाच का कथन यहाँ सार्थक सिद्ध हो जाता है।
लेखक डॉ. संजय कुमार सिंह का जन्म 1968 ई. को नयानगर, मधेपुरा (बिहार) में हुआ था। उन्होंने पी-एच.डी. तक की उपाधि प्राप्त की है। उनके शोध का विषय था – ‘डॉ. काशीनाथ सिंह की कहानियों का पाठ-भेद’। हंस, कथादेश, वर्तमान साहित्य, वागर्थ, दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जनसत्ता इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ, कविताएँ, समीक्षाएँ, टिप्पणियाँ इत्यादि प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके द्वारा सृजित ‘टी.वी. में चंपा’ शीर्षक कहानी-संग्रह की काफी चर्चा हुई थी। उनके दो कहानी-संग्रह, दो उपन्यास, एक कविता-संग्रह एवं एक आलोचना की पुस्तक प्रकाशित हैं। संप्रति वे पूर्णिया महिला कॉलेज में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।
प्रस्तुत उपन्यास में कथा-दृष्टि, समय के अंतराल से नहीं, स्मृतियों की अपनी दुनिया से भी प्रतिध्वनित होती है, जिनकी संवेदनशीलता, जीवन, घर-परिवार, समाज और सिस्टम से जोड़कर रेखांकित किया जाना आवश्यक है। यहाँ प्रिंसिपल की पीड़ा हमें विजड़ित कर देती है। वे अक्कू जी से हमेशा बेसाख्ता टूटकर पूछते हैं, “कॉलेज हटता क्यों नहीं जहन से? क्या मैं आदमी नहीं हूँ, क्या दोस्त-मित्र, घर परिवार नहीं? कॉलेज से इतर क्या कोई फर्ज नहीं? हरदम अश्वारोहण! पैर रकाबी में, हाथ में चमकती हुई शमशीर और आँखों में अधीर उत्तेजना। गाँव का क्या हाल है? विपिन… सटहा… ये सब लोग कहाँ हैं? रामू काका, गौरीशंकर जी, बुद्धू मियाँ हैं कि नहीं! वह नदी जो गाँव से पश्चिम बहती थी, सुनते हैं सूख गयी? बरगद का पेड़ भी गिर गया? कैसे गिरा उतना विशाल पेड़?” (पृ. 53)
कॉलेज में पढ़ाई-लिखाई का जब वातावरण ही नहीं हो तो छात्र क्या करे? प्रिंसिपल की खीझ स्वाभाविक है – “इस तोड़-फोड़, हिंसा-उत्पात के लिए जिम्मेवार कौन है? क्या यही है विश्वविद्यालय का मतलब? परीक्षा और नामांकन? नामांकन और परीक्षा!! हम किस पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं और क्यों? एक सप्ताह में तीन सेशन खत्म? फिर गुणवत्ता की बात क्यों? बाँकी रिपोर्टें किसलिए? दिखावा नहीं तो क्या है यह? मजाक है यह सिस्टम! परीक्षा हो ही क्यों? वह भी इस तरह से?” (पृ. 54) प्रिंसिपल का यह द्वन्द्व ही उपन्यास का मूल तनाव है। मानसिक संघर्ष की ऐसी स्थिति में किसी शायर की ग़ज़ल या किसी गीतकार का कोई गीत उसके मन को सुकून देता है –
“इस जहन में तुम आग लगा दो तो सही!
रहेगी खाक में मुंतज़िर, जुस्तजू तो वही।
हिना के रंग मुझ मज़लूम से क्या पूछते हो
लब-ओ-लहू में है अभी आरजू तो वही!” (पृ. 67)
सोशल एक्टिविस्ट रागिनी पूछती है, ‘कॉलेज में मानक स्तर पर पढ़ाई-लिखाई क्यों नहीं हो पाती है महोदय?’ प्रिंसिपल विवश होकर जवाब देते हैं, “1980 ई. में कॉलेज का सरकारीकरण हुआ, तब आबादी क्या थी? बच्चे कितने थे? 41 टीचर्स और 51 नन टीचिंग्स स्टाफ थे। आज आबादी का दबाव तीन गुणा बढ़ गया है… हम 8 और 21 रह गये हैं! आप किस गुणवत्ता की बात सोच रही हैं रागिनी जी?” (पृ. 49) रागिनी जब कुल शैक्षणिक दिवस के बारे में जानना चाहती हैं तो प्रिंसिपल साहब नोट कराते हैं, “लिखिये छुट्टी छोड़कर बाढ़ में दो महीना… लोकसभा में 20 दिन और विधानसभा में ट्रेनिंग और पुलिस बल के आवासन को लगाकर 30 दिन वर्ग स्थगित!” (पृ. 50) विश्वविद्यालय की कार्य-शैली कैसी है, इसकी भी स्थिति द्रष्टव्य है, “जी.एन.एम.यू. में खुशी की बाढ़ आ गयी! कल करो सो आज! सभी परीक्षाओं के डेट पर डेट। फार्म भराओ, रजिस्ट्रेशन कराओ, एडमिट कार्ड बाँटो। आग के हवाले कैसे किया जाता है सिस्टम को, कोई इनसे सीखे! अब जलो, जिसे जलना हो!” (पृ. 52) और इन समस्त अफरा-तफरी का कारण एक ही है कि सेशन को रेगुलर करना है। फिर ‘मानक स्तर की पढ़ाई-लिखाई’ की बात क्यों? कुल ‘शैक्षणिक दिवस’ की चर्चा क्यों?
कॉलेज के संदर्भ में ‘छात्र संघ’ के चुनाव पर लेखक द्वारा की गई टिप्पणी भी व्यापक सच्चाइयों का साक्षात्कार करवाती है, “वही हुआ जिसका डर था। 27 वर्षों के बाद एक बार फिर से राजनीति की पहली फसल बिहार में उग आयी। एक ऐसी फसल जिसमें फिर से लालू, नीतीश, राम विलास, मोदी, नंदकिशोर, गफूर सिद्दिकी की आँखों में वही सपने मचलने लगे!” (पृ. 50)
उपन्यास बिहार में गत तीस वर्षों में उच्च शिक्षा में जातिवाद के वर्चस्व को भी रेखांकित करता है। जातिवाद ने बिहार में शिक्षा-व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। सरकारी संसाधनों में हिस्सेदारी के लिए सोची-समझी एक राजनीतिक साजिश के तहत शिक्षा-व्यवस्था पर हमला किया गया। इसके पीछे की मानसिकता उच्च जाति के एकाधिकार को खत्म करने की थी, शायद। परन्तु एक लकीर की बगल में एक बड़ी लकीर खींचने के बदले उस लकीर को ही मिटा देने की मानसिकता के तहत ही समस्त शिक्षा प्रतिष्ठानों को पंगु बना दिया गया। जाति के वर्चस्व के लिए विश्वविद्यालय बनाए गए और उस विश्वविद्यालय को एक टूल (tool) की तरह इस्तेमाल किया गया। बिना पढ़ाई के ही परीक्षाएँ आयोजित की गईं।
कॉलेज की जमीन पर होने वाले भ्रष्टाचार का विवरण देते हुए प्रिंसिपल की तल्ख टिप्पणी है, “तंत्र क्या होता है, यह समझा उन्होंने। कॉलेज की जमीन पर जिनकी गिद्ध नजर थी, उमें कुछ स्थानीय नेता, कलक्टर, पूर्व एस.पी. शामिल थे। लैंड माफियाओं से करोड़ों की डील हुई थी, इस डील में पूर्व वी.सी. भी अपना शेयर तलाश रहे थे, प्रत्यक्षतः उन पर कार्रवाई हो रही थी। पीछे से हिस्से की माँग।” (पृ. 59) प्रिंसिपल का दिमाग काम नहीं कर रहा था। विजिलेंस की धमकी अलग। लैंड माफियाओं के खिलाफ राजभवन, सरकार, विश्वविद्यालय से लेकर हर जगह लिखा था उन्होंने, पर लैंड माफियाओं के सामने वे बेबस थे। दारोगा ने एस.डी.एम. को फँसाते हुए लिखा थे, ‘कॉलेज के आस-पास मारवाड़ी कॉलेज के प्रिंसिपल की दखलंदाजी से भूस्वामियों में बड़ा रोष है, अतः वहाँ किसी भी समय कोई अप्रिय घटना घट सकती है।’
प्रिंसिपल अकेले क्या करे? एस.पी. मित्र चौधरी साहब ने आश्वस्त किया था, किन्तु उस अफसर का ट्रांसफर हो गया। फिर नये एस.पी. आये। उन्होंने भी निश्चिंत रहने के लिए कहा। बॉडीगार्ड भी दिया। लेकिन उनका भी ट्रांसफर हो गया। अब? प्रिंसिपल साहब आत्मग्रस्त तो होते हैं लेकिन आत्म-किरण की तलाश भी करते हैं।
अपने कॉलेज जीवन की शुरुआत में ही उन्हें प्रिंसिपल बनने का सौभाग्य मिल गया। उन्होंने अपनी कर्मठता से किशनगंज के मारवाड़ी कॉलेज के सब प्रकार से विकास किया। उन्हें अपने कर्म से प्रेम है। उनका अस्तित्व जैसे कॉलेज के साथ ही जुड़ा हुआ है। वे लगातार काम करते हैं। कॉलेज में उठने वाले सभी तूफानों और झंझावातों को वे झेलते रहते हैं… यहाँ तक कि नींद में भी वे कॉलेज से दूर नहीं रहते हैं। परन्तु द्वन्द्व तो चलता ही रहता है। उनके भीतर का व्यक्तित्व जो कवि भी है, पूरे उपन्यास में बार-बार उभरकर सतह पर आ जाता है। मन जब भागना चाहता है सब कुछ छोड़-छोड़कर, तब कोई कविता आकर हाथ थाम लेती है और एक भरोसा देती है… गुनगुनाकर थपकियाँ देती है और वे पूरे जोश-खरोश के साथ फिर से लड़ने के लिए उठ खड़े होते हैं – “क्या कोई रास्ता होता है/ जो मैं बीच से कहीं निकल जाऊँगा/ उन्होंने मुझे चारों ओर से घेर रखा है/ मैं लडूँगा!/ चाहे इस कुरुक्षेत्र में/ मेरी जीत हो या हार/ आप साक्षी रहना!” (पृ. 62)
उपन्यास का कथानक बिहार के सीमांचल में स्थित किशनगंज के मारवाड़ी कॉलेज से लेकर अररिया कॉलेज तक फैला हुआ है। पहले प्रिंसिपल किशनगंज में कार्यरत थे। वहाँ उन्होंने कर्मठता से मारवाड़ी कॉलेज में सुधार किया। वहाँ के लोग खुश थे और उन्हें अच्छा भी लग रहा था कि उनका स्थानान्तरण मुस्लिम बहुल जिला से अररिया कर दिया गया। प्रिंसिपल और उनके परिवार के लिए यह तबादला एक भूकम्प की तरह था… यह भूकम्प और भी तीव्र हो जाता है जब पता चलता है कि तबादला अररिया हुआ है। यह डर अकारण भी नहीं है… वहाँ का वर्तमान एम.एल.ए. कहता है… “विकास एक दिन में नहीं होता है… एक वो था, क्या नाम था… जमाल… मेरे लोग उसे पीट देते, पर मैंने मना कर दिया… शहर की बदनामी होती, फिर कोई अच्छा आदमी आना नहीं चाहता।” (पृ. 43)
वस्तुतः यह उपन्यास बिहार के बदरंग उच्च शिक्षा का आईना है। लेखक के अनुसार यह एक ऐसा प्रदेश है जहाँ के रहनुमाओं के लिए शिक्षा कोई मुद्दा नहीं है। बिहार में विकास का मानदंड सड़क एवं भवन का विकास करना है… सड़क किनारे बड़ी-बड़ी इमारतें बनाई जा रही हैं ताकि जनता विकास के साकार रूप को देख सके।
लेखक को कई शुभचिंतक सलाह देते हैं कि प्रिंसिपल की कुर्सी छोड़ देने में भलाई है लेकिन यह सुखद है कि उपन्यासकार का आशावाद उन्हें टूटने नहीं देता – “परेशानियाँ हैं, पर कहाँ सब कुछ आसान है?” (पृ. 58) वे समय-समाज के यथार्थ पर चिंतन करते हुए आत्म-निरीक्षण भी करते हैं, “मेरी दुविधा ये है, कि जो सामने दिखता है, उसका ब्लू-प्रिंट वैसे नहीं है। यह बात किससे कही जाय? भीतर की सच्चाई बहुत भयावह है। इतना अमानवीकरण, दबाव और दमन कि दिमाग की सर तड़क जाय। अगर मैं मुँह खोल दूँ, तो आजादी के मायने बदल जायें… रात के अँधेरे में किन लोगों के गठजोड़ को देखकर मुक्तिबोध का नैरेटर, देख लिया, देख लिया कि आवाज सुनकर बदहवास भागा था? कोई आवाज मेरा भी तो पीछा नहीं कर रही?” (पृ. 66)
जो लोग हिन्दू-मुसलमान के बीच दूरी की बात करते हैं, नैरेटर को उनसे घोर आपत्ति है। नैरेटर का यह विरोध सही, समीचीन और बिल्कुल स्वाभाविक है, “क्या किशनगंज और क्या अररिया, मुसलमान दीवार की तरह उनके आगे खड़े रहे। मजाल किसकी, जो ऊँची आवाज में बोल ले। एक बार किशनगंज में एक विधायक ने उल्टा-सीधा कहा, तो बड़े भाई गुलरेज साहब ने सामने ही धो दिया। चाहे अबूलेस बाबू हों, या सलाम साहब या मतीन साहब या अफजाल हुसैन सिद्दिकी साहब! सबसे उनके रिश्ते बड़े करीबी रहे।” (पृ. 119)
उपन्यासकार ने निजी अनुभूति के धरातल पर बाजारवाद के यथार्थ को भी स्पष्ट किया है। राधे बाबू से बातचीत में वे कहते हैं, “बाजार मुझे बाजार में अच्छा लगता है, घर में नहीं। बाजार आज अगर आपसे पैसे के बल पर कहे, तो अखलाक और ईमान की कौन कहे, आह, आँसू, प्यार-वफा, रिश्ते-नाते, आग-पानी, जिस्म और जाँ सब बेच देंगे आप… घर, शहर, साँस, ख्वाब और नजर सब बेच देंगे, पर जब एक दिन इस बार में कोई खरीदार नहीं, सब बेचनेवाले रह जायेंगे आपकी तरह, तब आप किसे और क्या बेचेंगे राधे बाबू?” (पृ. 98) प्रिंसिपल साहब को यह सोचकर अफसोस होता है कि बाजार पैसे के कुछ टुकड़े फेंककर आदमी को तोड़कर कैसे आत्म-विच्युत कर रहा है। राधे बाबू से धोती-कुर्ता छीनकर उन्हें अपना यूनिफार्म ही नहीं दे रहा, बल्कि अपने उत्पाद बेचने के लिए उसके मानस को बदलकर उसमें अपना चिप भी फिट कर रहा है।
उपन्यास में लेखक ने पर्यावरण चिन्ता के संदर्भ में अमेरिकी नीति की भी वस्तुनिष्ठ आलोचना की है। उनकी बेटी जब उनसे पूछती है, ‘पापा, किम जोंग से अधिक खतरा है कि पर्यावरण विनाश से?’ तो वे कहते हैं कि किम जोंग तो अमेरिका के लिए खिलौना है, जब चाहे खेलकर तोड़ दे सकता है। असल संकट पर्यावरण विनाश का है लेकिन यहाँ भी वह तीसरी दुनिया को डरा रहा है क्योंकि तीसरी दुनिया को वह अपना आर्थिक उपनिवेश मानता है। इस तथ्य को बड़ी सूक्ष्मता से वे अपनी एक कविता में व्यक्त करते हैं –
“तीसरी दुनिया में अलर्ट है/ यह पृथ्वी अब बहुत दिनों तक नहीं बचेगी/ इसलिए इसे बचाने की मुहिम में लग गई सरकारें/ काफी लम्बा-चौड़ा बजट है/ भूख, गरीबी, हारी-बीमारी/ और शिक्षा की पेट काटकर/ बगैर उनसे पूछे कि दुनिया की ऐसी हालत किसने की है/ किसकी पूँजी धुआँ उगल रही है/ कौन बेच रहा है हथियार/ किसकी ताकट के परीक्षण से हिल रही है दुनिया/ …हमारे हाथ में में झाड़ू और पेड़ देकर/ समझते हो कि दुनिया बच गयी/ और तुम बच गये उस फर्ज से/ जिसका कर्ज चुकाने के लिए/ तुम नहीं/ तुम्हारा यह उपनिवेश है/ जिसे पहले पूँजी और फिर विचार से रौंदते हो।” (पृ. 33)
एक मनुष्य अपने जीवन में घटने वाली असंख्य घटनाओं का साक्षी होता है। इन्हीं से इनके चरित्र का विकास होता है… कमजोर या साहसी! प्रिंसिपल का भी चरित्र-निर्माण इन्हीं घटनाओं-प्रघटनाओं के साथ होता है। प्रिंसिपल के जीवन में घटने वाली हृदय-विदारक घटना है उनके बड़े लड़के गोविंद की मृत्यु। हृदय हाहाकार कर उठता है, “जब मुझे जागना चाहिए था, मैं सो गया… अब मैं सोऊँगा कैसे? खुद को माफ कैसे करूँगा…? मैं उसे पकड़कर छाती पीट रहा था… लगभग पागल हो गया था… लोग जमा हो रहे थे… लोगों…?” (पृ. 151)
उपन्यास में एक और चरित्र है सटहा का। प्रिंसिपल साहब के बचपन का मित्र था। वह मस्तमौला, दुःसाहसी और बहादुर था। प्रिंसिपल को इस चरित्र से बेहद लगाव है।… “बचपन के खिलंदडेपन की घटनाएँ हैं… जिनमें उसके दुस्साहस और बहादुरी को यादकर उन्हें आज भी रोमांच होता है। गाँव में इस दोस्ती की चर्चा थी।” एक तरफ लिख-लोढ़ा सटहा, दूसरी तरफ उच्च शिक्षा-प्राप्त शिक्षाधिकारी यानी प्राचार्य। गाँव के लोग इनकी मित्रता पर हँसते। उपन्यास में सटहा के चरित्र को उभारने के लिए लेखक कुछ घटनाओं का भी उल्लेख करते हैं… एक घटना नेपाल की है बारातियों वाली… मरखण्डा सटहा… मारकर भागने में तेज! वही सटहा पंजाब जाकर मर गया और प्रिंसिपल साहब को दुःख के सैलाब में छोड़ गया।
निष्कर्षतः उपन्यासकार संजय कुमार सिंह ने इस उपन्यास में उच्च शिक्षा में व्याप्त असंगतियों और उनके दूरगामी प्रभाव को बड़ी ही संजीदगी और यथार्थपूर्ण ढंग से उभारा है। लेखक ने अपनी सूक्ष्म पर्यवेक्षण-क्षमता, वर्णन-कौशन, मनोवैज्ञानिक पैठ और अभिव्यंजना-शक्ति का यहाँ सुन्दर परिचय दिया है। उपन्यास की भाषा सरल और प्रवाहमयी है तथा शैलीगत रोचकता आद्योपांत बनी रहती है। किन्तु आंचलिक शब्दों का प्रयोग देखकर ऐसा लगता है जैसे उपन्यासकार आंचलिकता के व्यामोह से अपने को बचा नहीं पाया है।
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समीक्षित कृति : संपर्क
रहेगी ख़ाक में मुंतजिर (उपन्यास) प्लाट नं.- 4/383
लेखक : संजय कुमार सिंह (प्रथम तल)
अधिकरण प्रकाशन, खजूरी खास, सेक्टर- 3, वैशाली
दिल्ली-94 (गाजियाबाद)-201010
प्रथम संस्करण : 2019
मूल्य : 225 रु.