मार्खेज का उपन्यास” एकांत के सौ वर्ष” न केवल लैटिन अमरीकी सभ्यता के इतिहास का बल्कि पूरे मानवीय इतिहास का पुनर्लेखन है। उसकी शैली को जादुई यथार्थवाद कहना उस पूरी दुनिया के निर्माण की प्रक्रिया, उसके आश्चर्य और कौतुक को नहीं समझ पाने की विवशता है।असल में सभ्यता के विकास और उसके साथ आविष्कारों की प्रक्रिया में सन्निहत मानवीय श्रम और चेतना के क्रमिक विकास को समझना भी आवश्यक है।
कहना नहीं होगा कि “मोकोन्दो ” की सभ्यता की स्थापना और विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रम है,।आर्कादियो बुएनदीया की यह सभ्यता अन्य सभ्यताओं के सम्पर्क में आकर समुन्नत होती है।जैसे- जैसे उसका समागम दूसरी सभ्यता के लोगों से/वैज्ञानिक आविष्कारों से होता है, उसकी दुनिया बदलती चलती है। इस समागम का वाहक मेल्कीयदिस है।
मार्खेज की औपन्यासिक शैली की खूब चर्चा हुई है। लेकिन जहाँ तक मेरी समझ है, यह आश्चर्य, विस्मय और कौतुक कथानक से उत्प्रेरित है। इस दृष्टि से यह उपन्यास कतई महान नहीं है,भले इसका उपस्थापन विलक्षण हो ।मानवीय सभ्यता का विकास आश्चर्य और कौतूहल का विषय रहा है। मोकोन्दो मेंं जब नई औऔद्योगिक सभ्यता का जन्म होता हैै,तो तब मार्खेज़ जिन परिवर्त्तनों का विवरण देते हैं,, वे बिल्कुल स्वााभाविक हैं।ज़ाहिर है मशीनीकरण की प्रक्रिया के विकास के बााद सबसे अधिक क्षति मनुष्य की स्मृति की हुई।इस वजह से ‘चीजों ‘की याद्दाश्त को सुरक्षित रखने के लिए लेखनी का ईजाद हुआ।।फोटो और चित्रकारी जैसी कलाओं को मशीन नेे संभव बनाया।मशीन की इस उपस्थिति से मनुष्य की स्मृति की दुनिया संकुचित हुई, जिसका विस्ताार मशीन नेे दूूसरी तरह से किया।क्या आज सूचना प्रेद्योगिकी के विस्फोट के इस दौर में यह खतरा औऔर नहीं बढ गया है? अब सब कुछ रेडीममेड यानि बना-बनाया उपलब्ध है। यहाँ तक कि सूक्ष्म से सूक्ष्म इलेक्ट्रोनिक्सस उपकरणों के प्रचक्र ने मनुष्य से उसके चिंतन-मननन और कल्पना के लोक को छीन लिया है या छीन लेगा।
मार्खेज के उपन्यास का यह संदर्भ अत्यंत लाक्षणिक है,ठीक उसी तरह जैसे उनसे पहले काफ्का ने” मेटामोफोर्सिस ” में मनुष्य की दुर्दशा का वर्णन किया है।वह कहानी भी आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में मनुष्य के अमानवीकरण की पीड़ा को व्यक्त करती है, जहाँ व्यावसायिक भाग-दौड़,परस्पर उपेक्षा, तनाव, और स्वार्थपरक प्रतिस्पर्द्धा के अमूर्त्त संत्रास से चूर-चूर होकर आदमी भुनगे में तब्दील हो जाता है।इसी तरह इस उपन्यास में भी स्मृति का ह्रास उस दुखद परिवर्त्तन की ओर इशारा करता है, जिसे आनेवाले समय मे उसे भोगना है।
वास्तव में यह उपन्यास सामाजिक प्रतिबिम्बों का इतिहास है! साहित्य के इतिहास में अद्वितीय गाथा ,जिसका श्रेय मार्खेज को जाता है। पर मोकोन्दो के विकास में बुधवार /सोमवार का चलन तो होता है, पर पूर्वार्द्ध में धार्मिक क्रिया -कलापों का कोई विवरण नहीं है।मोकोन्दो में ईश्वर के लिए कुछ नहीं हो रहा है और न धर्म के लिए। न पूजागृह हैं वहाँ और न श्मशान।आश्चर्यजनक रूप से वहाँ पहले कानून आता है और फिर स्टेट के जरिए बाद में धर्म और ईश्वर। फिर ईसाईकरण की प्रक्रिया। साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद का छद्म। पादरी न्यायाधीश ओपेलिनार माॅस्कोते की बेटी की शादी में आता है और वहीं मोकोन्दो में रुक जाता है।
चुनांचे,आप या हम इस औचित्य को कैसे स्वीकार सकते हैं? सामाजिक नियंत्रण के लिए कानून और धर्म के नियमन से पहले” मोकोन्दो” में ज्ञान और तर्क की दुनिया है और इसी प्रतिरोध की संस्कृति में , इतिहास और साहित्य में लातीनी देशों की आत्मा छिपी हुई है। अस्मिता विखण्डन की यह त्रासदी मारक है।
स्टेट का हस्तक्षेप ।स्टेट माने राज्य धर्म और ईश्वर का उपस्थापन।ऐसा ही होता है मोकोन्दो में। वस्तुत: बहुत मायने में महत्तर है यह उपन्यास, जो दुनिया के वैविध्य को सर्वग्रासी साम्राज्यवादी सत्ता-संस्कृति के समाहार से बचाने का उपक्रम करता प्रतीत होता है। मोकोन्दों एक प्रतीक और प्रतिरूप है।सचमुच विचारोत्तेजक है यह उपन्यास, यहाँ यथार्थ की एक दुनिया रची गयी है, जिसे भूल से जादुई यथार्थवाद कहकर पाश्चात्य आलोचना के संजाल में फंसाकर विचलित किया जाता रहा है। मोकोन्दो के यथार्थ को आलोचना में जादुई यथार्थ कहना बेमानी है। यह एक तरह से वि-स्थापन है। तर्क और ज्ञान की एक आश्चर्य और विस्मय से भरी दुनिया है वह। वहाँ कल्पना -लोक और निर्दोष स्मृति की एक अपनी दुनिया , जो तथाकथित हस्तक्षेप से धीरे-धीरे कुत्सित और विकृत हो रही है।
स्टेट और धर्म का खेल मोकोन्दो में चलता है। पूरी चालाकी, साँठ-गाँठ, छल-छद्म और दगाबाजी के साथ अपोलिन मोस्कोते उदारवाद और कट्टरवाद के चुनावी संघर्ष में मीनारतेर्नेरा की तरह कार्ड खेलता है। और लाल कार्ड की हेराफेरी कर देता है। अमूमन यही हुआ होगा पूरी दुनिया में राज्य – सत्ता की स्वघोषित न्याय प्रक्रिया के नाम पर-अलग-अलग प्रकल्पों में। जाहिर है स्टेट नीले कार्ड वाले ईसाइयों का है।इसकी एक आदिम स्मृति रियोआया की है, जब तोप के गोले फटते हैं…और अब यह विधायक रूप में पूरे मोकोन्दो में प्रकट हुआ है। मतलब साम-दाम दण्ड, भेद की वही नीति। फूट डालो, राज करो यानि लैटिन अमेरिकी देशों की सभ्यता को सामरिक और धार्मिक दृष्टि से संदूषित करती हुई… चाल।शायद इस उपन्यास का मर्म यही है। पृषठभूमि में उस समय-समाज के विवरण हैं, जो सभ्यता- वैविध्य की स्वायत्तता की दृष्टि से अर्थपूर्ण हैं, जो अपनेे हिसाब से इस उपन्यास को विश्वसनीयता का धरातल प्रदान करते हैं। इस वैविध्य में ही दुनिया की सभ्यताओं का बहुरंगी सौंदर्य और उसकी अस्मिता की पहचान है।उन पात्रों और चरित्रों के व्यक्तिगत और सामाजिक क्रिया -कलापों में हमारी रूचि पाठकीय संस्कारों और प्रबोध के कारण होती है, जो हमारे भीतर बहुआयामी वैचारिक प्रकल्पों को जन्म देती है।इस तरह के विशिष्ट और विलक्षण पात्र भरे पड़े हैं इस उपन्यास में।आर्कादियो बुएनदीया, उर्सुला, और उनके दोनों बेटों के अलावे उनकी बेटिया तो हैं ही।साथ ही रेमोदियोस, अपोलिन और डाॅक्टर आदि।
कथासार यह कि मोकोन्दो में पहले मदारी,जादूगर आते हैं आविष्कृत चीजें लेकर, फिर बाहर से कानूनगो, पादरी फिर स्टेट और धर्म। ” एकान्त के सौ वर्ष” केवल लैटिन अमरीकी देशों के ऐतिहासिक आत्म-संधर्ष का दस्तावेज ही नहीं है बल्कि कई मायने में विचारधाराओं की टकराहट वाला उपन्यास है।रूढ़िवादी और उदारवादी जीवन-मूल्यों और आदर्शों को परिभाषित कर लेने के बाद रूढ़िवादियों द्वारा फैसले थोपने पर जो विरोध होता है, वह इस उपन्यास में वहाँ के लोगों के संघर्ष और जिजीविषा का अकूत परिणाम है।
औरेलियानो बुएनदीया इस संघर्ष का सबसे प्रदीप्त प्रतीक है। मोकोन्दो से लेकर उन तमाम इलाकों में जहाँ उदारवादियों की आबादी है।लोकप्रियता की दृष्टि से वह शिखर पर है, जो अतुलनीय है…पर ऐसी लड़ाइयों और क्रांतियों की दीर्घजीविता के परिणाम भी कम भयंकर नहीं होते। मोकोन्दों की विडम्बना यह भी है।इसका अहसास तब होता है,जब आर्कादियो खोसे निरंकुश हो जाता है और रूढ़िवादी प्रतिशोध में निरर्थक हत्याएँ करते हैं।
उपन्यास का सबसे मूल्यवान क्षण वह है, जब उर्सुला औरेलियानो सैनिक अदालत द्वारा जनरल मोकोन्दा को दी जाने वाली फाँसी का विरोध करती है। नृशंसता और क्रूरता का चरम यह कि वर्दी पहना हुआ उसका बेटा भावनात्मक संबंधों से अलग बिल्कुल भिन्न धरातल पर सम्बोधित होता है।यह ट्रैजिक है कि ज.मोकोन्दा (रूढ़िवादी संस्थापक) के पक्ष में उतनी प्रबल गवाहियों के बाद उसके कुशल प्रबंध और सद्भाव को भुलाकर इसलिए फाँसी दी जानेवाली है कि वह रूढ़िवादी है। उर्सुला के लिए यह अमानवीयता और निर्दयता की पराकाष्ठा है। यह मोकोन्दो के महत्तर आत्म-संघर्ष और उस जनांदोलन के उद्देश्य की त्रासदी है।लैटिन अमरीकी देशों की खनिज सम्पदा के बाहुल्य के कारण साम्राज्यवादी संदोहन के औपनिवेशिक संजाल के चक्रव्यूह में— गृह युद्ध को इनकी अनिवार्य नियति बना दी गयी। खैर यह प्रसंग केवल समझने के लिए। उक्त प्रसंग में उर्सुला के दुख और आक्रोश को इन शब्दों में महसूस किया जा सकता है, जब वह कहती है,” माँओं का पतलून खोल कर चूतड़ों पर बेतें लगाने का हक बरकरार है।”
आकस्मिक नहीं कि अपनी ही औलादों की निरंकुशता के प्रति यह एक माँ की प्रतिक्रिया है,जिसके सामने इस तरह के संघर्षों की क्रूरता और नृशंसता, जो अंतत: उसी तरह के जीवन मूल्यों के निरंतर अभ्यास और दबाव से पैदा होती है, उसके पथ-विपथन और लक्ष्य-भ्रष्टता को द्योतित करती है।खुद जनरल मोकोन्दा का जवाब भी औरेलियानो के वक्तव्य से बड़ा नहीं है,जिसमें वह कहता है,”- मैं नहीं क्रांति यह दण्ड दे रही है…आपकी पक्षधरता के कारण ऐसा हो रहा है। यह उदारवाद भी एक अर्थ में कट्टरता की सीमाएँ लाँघ जाता है…” बकौल जनरल मोकोन्दा,”.. कि फौजियों से इतनी नफरत करके, उनसे इतना लड़कर और उनके बारे में इतना सोचकर तुम आखिरकार उन्हीं के जैसा बन गए हो..और जिन्दगी कोई ऐसा उसूल नहीं ,जो इस नीचता के योग्य हो… तुम केवल हमारे इतिहास के सबसे ज्यादा आततायी और खूनी तानाशाह बन जाओगे बल्कि अपने जमीर की आग को ठंढा करने लिए मेरी प्रिय मित्र उर्सुला को भी गोली मार दोगे…पर , नहीं तुम्हें फटकारने के लिए यहाँ नहीं बुलाया गया था।” पेज नं.153 ।”यहाँ अगर अलग से चिली के क्रांतिकारी नेता सल्वादोर ओर्लेन्दो की तख्ता-पलट और अपनी ही सेना के एक धड़े के द्वारा हत्या के घटना क्रम को अवधान में लेकर इस उपन्यास को पढ़ा जाए, तो उपन्यास की तथाकथित काल्पनिकता का विखण्डन स्वत: हो जाता है और इस मिथ की अभिरचना के संश्लिष्ट रूप को भी समझना आसान है। चिली का यह विद्रोह औपनिवेशिक साम्राज्यवादी सत्ता-संस्कृति के परोक्ष उत्प्रेरण का परिणाम नहीं तो क्या था? जहाँ तक मुझे याद आ रहा है फिदेल कास्त्रो ने किसी क्रांतिकारी नेता को राइफल भेंट में दी थी। ज्ञातव्य हो कि कास्त्रो मार्खेज के परम मित्रों में से एक थे।ताजुब्ब होता है कि मार्खेज के इस उपन्यास को प्राय: काल्पनिक अतिरंजना की तरह पढ़ा गया है,जैसे आप समुद्र को पार करें, पर उसके नीचे धधकते ज्वालामुखी को न देखें।, जो इसके यथार्थ को नकारने की सोची – समझी चाल है। जादुई यथार्थवाद का ठप्पा लगाकर बुएनदीया परिवार के कौतुक पर ज्यादा फोकस कर इसे हास्यास्पद बनाया गया है,जबकि यह जीवन-शिल्प वहाँ की जातियों की अपनी विशेषता मात्र है। इस कौतुक से हमारा सामना मेरीगंज में भी होता है। मगर मार्खेज के इस उपन्यास को इतिहास की तरह पढ़ना मेरी अपनी समझदारी है। इतना ही नहीं समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी यह एक महागाथा है, जो किसी भी सभ्यता-संस्कृति की अस्मिता बनकर फलित होती है। इस उपन्यास का कण्टेण्ट लातीनी अमरीकी देशों का वास्तविक यथार्थ है।इसमें किस्सागोई का अद्भुत फन है, जो कथा-रस सृष्ट करता है।रोचकता,उत्सुकता और संक्षिप्तता की दृष्टि से भी यह एक संतुलित कृति है।कथा का ताना-बाना औपन्यासिक विधान के अनुकूल है। पारदीप्ति और पूर्वदीप्ति की टेकनीक इसे खालिश इतिहास नहीं रहने देती अथवा यह कहना उचित होगा कि मनुष्य के जीवन का इतिहास विलक्षण होता है।सचमुच उतना ही विलक्षण विभिन्न सभ्यताओं और जातियों का जीवन-शिल्प! मोकोन्दो का यह जादुई यथार्थ क्या है काश इसे उपन्यास के अन्तिम उद्धरण के आशय से समझा जाता ,जो लाक्षणिक यंत्रणा, उदासी और त्रासदी की ओर संकेत करता है-“………..मोकोन्दो तब तक बाइबिलीय तूफान के से आक्रोश से चक्क खाते धूल और रोड़े का भयानक बवण्डर बन चुका था।, जब औरेलियानो ने सर्वज्ञात विवरण पर अधिक समय न खोने के लिए ग्यारह पन्ने छोड़े और उस पल को खेजने लगा, जो वह जी रहा था,…, चर्मपत्रों के अन्तिम पन्ने का कूट खोलने के कृत्य में स्वयं अपना भविष्य-कथन करते ,मानो वह खुद को बोलते आईने में देख रहा हो। फिर उसने भविष्यवाणियाँ जानने व अपनी मृत्यु की तिथि व परिस्थितियाँ पता करने हेतु कुछ और पन्ने छोड़े । लेकिन अन्तिम पंक्ति तक पहुँचने से पहले ही वह समझ गया कि वह उस कमरे से कभी बाहर न निकलेगा क्योंकि वह पूर्वदर्शित था कि आईनों (या मरीचिकाओं) वह शहर हवा से धवस्त हो जाएगा और मनुष्य के स्मृति-पटल से मिट जाएगा और औरिलियानो चर्मपत्र( भविष्य के आलेख) को पूरा पढ़ लेगा और उसमें लिखा सभी कुछ सदा से और सदा के लिए फिर नहीं दोहराया जा सकेगा क्योंकि एकान्त के सौ वर्षों से दंडित वंशों को पृथ्वी पर दूसरा अवसर नहीं मिलता।” पेजनं.375-76 । इतना ही नहीं पूर्व की एक पंक्ति और -” सर फ्रांसिस डेक ने रिओआचा पर सिर्फ इसलिए हमला किया था ताकि वे खून की सबसे जटिल भूलभुलैयों में से होते हुए एक-दूसरों से मिल पाएँ और उस पौराणिक जानवर को जनें, जिससे वंश का अन्त होना था।” पेज नं.वही।यह कहीं से भी ओझल नहीं कि इस रूपक के भीतर का सच ही इस उपन्यास के औचित्य-प्रतिपादन के उद्देश्य को सिद्ध करता है।
संजय कुमार सिंह, प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला काॅलेज पूर्णिया-854301
9431867283