रचना आधारित साहित्य चिन्तन आलोचना,समालोचना या समीक्षा के रुप में देखा, समझा या पढ़ा जाता है और साहित्य के मर्मज्ञ अपनी विवेचनाएं करते हैं। यह भी उतना ही जरुरी व महत्वपूर्ण पक्ष है,रचना की तरह और ऐसे चिन्तन की अपनी प्रक्रिया होती है। हिन्दी साहित्य में इस दिशा में बहुत कुछ किया जा रहा है फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। जयपुर,राजस्थान के वरिष्ठ लेखक,साहित्यकार रमेश खत्री के आलोचनात्मक लेखों का संग्रह “आलोचना का जनपक्ष” मेरे सामने है। वे कवि,कहानीकार,उपन्यासकार,नाटककार के साथ-साथ आलोचक भी हैं। उन्होंने लोककथाओं पर भी काम किया है और उन्हें अनेक साहित्यिक सम्मानों से सम्मानित किया गया है। वे आकाशवाणी से सेवानिवृत्त हुए हैं और सतत साहित्य साधना में लगे हुए हैं।
प्रकाशक की ओर से ‘आलोचना का जनपक्ष’ पर सार्थक परिचयात्मक टिप्पणी की गयी है जिसे उद्धृत करना उचित ही है। उन्होंने लिखा है-”आलोचना का जनपक्ष’ कतिपय ऐसे लेखों का संग्रह है जिनमें साहित्य के सामूहिक अनुभूत समय की धड़कन को महसूस किया जा सकता है। इनमें साहित्य के वर्तमान समय की सान्द्र छवियों को आसानी से पकड़ा जा सकता है।” प्रकाशक ने आगे लिखा है-“रमेश खत्री ने रचना के सारतत्व को पकड़ते हुए उनकी समयसापेक्षता को चिन्हित करने का प्रयास किया है जिसके लिए वो आलोचना के नवीन मानदण्डों का प्रयोग करते हुए कविता,कहानी के लिए साहित्य के प्रति भिन्न और स्वायत्त ट्रीटमेंट अपनाते हुए कृति का विवेचन करते हैं।‘’
सुखद है,रमेश खत्री जी ने निराला,नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल,अज्ञेय,महादेवी वर्मा,चन्द्रकान्त देवताले, लीलाधर मंडलोई,ऋतुराज,अम्बिकादत्त,विजेन्द्र,नंद चतुर्वेदी,श्रीराम दवे,जयप्रकाश मानस और किरण अग्रवाल जैसे समकालीन व आधुनिक कवियों के लेखन पर चिन्तन किया है। उन्होंने लघुकथा और डायरी लेखन पर भी विचार किया है। इस तरह यह संग्रह समकालीन काव्य साहित्य की दशा-दिशा पर व्यापक चिन्तन करता है और रोशनी डालता है। ‘आलोचना का जनपक्ष’ रमेश खत्री जी के 25 आलोचनात्मक लेखों का संग्रह है जिन पर समीक्षात्मक चिन्तन करना मेरे लिए सुखद है और मेरे ज्ञान को बढ़ाने वाला भी है।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी के साहित्य पर बहुत कुछ लिखा गया है,आज भी लिखा जा रहा है और यह चिन्तन-प्रवाह रुकने वाला नहीं है। रमेश खत्री ने अपने तरीके से निराला को समझने-समझाने का प्रयास किया है,वे लिखते हैं-“निराला के साहित्य में मानव,क्रान्ति,स्वाधीनता,सवर्ण,राष्ट्र,समाज,जातीय व्यवस्था,छुआछूत,नारी स्वाधीनता तथा समाज और साहित्य में व्याप्त पाखण्ड जैसे चिन्तन के अनेक बिन्दु हैं।” वे अपने पात्रों में संवेदनाएं तलाशते हैं। रामकृष्ण परमहंस,रवीन्द्रनाथ टैगोर और विवेकानन्द का उन पर प्रभाव था। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के साहित्यिक नेतृत्व के उत्कर्ष काल में निराला जी का साहित्यिक जीवन शुरु होता है। तत्कालीन समाज की स्थिति, मुक्ति-संग्राम की उत्कट भावना, आर्थिक विपन्नता,साम्राज्यवाद,सामंतवाद,सामाजिक रुढ़ियाँ,कुसंस्कारों व गलित परम्पराओं से मुक्ति की कामना कवि को थी। बाल्यावस्था में माता की मृत्यु,युवावस्था में पत्नी,फिर पुत्री की मृत्यु,निराला के लिए परिस्थितियाँ कभी अनुकूल नहीं रही। लड़ते रहना,जूझते रहना,संघर्षरत होना उनका मूलमंत्र रहा। रमेश खत्री लिखते हैं-आचार्य शुक्ल,बनारसीदास चतुर्वेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि ने उनके सृजन की आलोचना की। ‘कुकुरमुत्ता’ को प्रभाकर माचवे निराला-काव्य में महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु मानते हैं तो नंदकिशोर नवल इसे सम्पूर्ण आधुनिक कविता का नया प्रस्थान-बिंदु स्वीकार करते हैं। केदारनाथ सिंह प्रगतिशील कविता,नई कविता,प्रयोगवाद व समकालीन कविता का बीज निराला की कविता में पाते हैं। अशोक बाजपेयी,अरुण कमल आदि के विचारों पर भी निराला के सन्दर्भ में रमेश खत्री ने लिखा है। उनमें मुक्ति की एकल नहीं बल्कि सामूहिक चेतना है। निराला अपनी भाषा की चिंता कर रहे थे,इसके लिए उन्होंने नेहरु से भी संवाद किया था। उनकी अवधारणाओं में हमारी प्राचीन कथाएं पुनर्रचित होती हैं। ‘राम की शक्ति-पूजा’ सिर्फ पौराणिक नहीं है। वे नवता के आग्रही हैं,केवल स्वयं के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण काव्य-संसार के लिए। रमेश खत्री जी लिखते हैं-‘निराला में आत्म-मुग्धता नहीं आने पाती और अपने को अपनी ही बनायी कसौटी पर परखते हुए अपनी बची-खुची पुरातन-प्रियता को नष्ट करना चाहते हैं।’ निराला भारतीय साहित्य के निर्माता हैं। कवि ने जैसा जीवन व्यतीत किया,जो अनुभव हुए उसकी ईमानदारी से अभिव्यक्ति की है। वे बाह्य और आंतरिक स्वतन्त्रता की बात करते हैं। उनके आदर्श तुलसी हैं,उन्हें अपना आराध्य माना है। वे विद्रोही,अति-क्रान्तिकारी चेतना के लिए भी ख्यात हैं। वे राष्ट्रीय आंदोलन के भी रचयिता हैं। उनके जागरण गीत इसके प्रमाण हैं। निराला संघर्ष करना चाहते हैं। रमेश खत्री जी लिखते हैं-‘शक्ति पूजा’ के बाद भी साहित्य-जगत में उनकी उपेक्षा होती रही। विरोध तो उनकी परछाई बनकर सदा रहा। कहीं वे अस्वीकृत हुए तो कहीं अपमानित। अपने जीवन के विषाद,विष, अंधेरे को निराला ने जिस तरह से करुणा और प्रकाश में बदला,वह हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है। उन्होंने अपने कष्टों को करुणा के अमृत में बदल दिया। इस तरह देखा जाय तो रमेश खत्री ने महाप्राण निराला का बहुत बेबाकी से चिन्तन किया है।
नागार्जुन के कविता संग्रह ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ की कविताओं को रमेश खत्री ने अलग तेवर का बताया है। नागार्जुन अलग तेवर के कवि हैं ही। उनकी कविताओं में भारतीय जन की आवाज की सुगबुगाहट है। वे प्रकृति और जीवन की गतिविधियों से भली भाँति परिचित हैं,तत्कालीन समाज की हलचल व देश की राजनीतिक उफान को अनुभव करते हैं और यही उनकी ताकत है। खत्री जी लिखते हैं-‘उनकी कविता की गति ही उन्हें जनकवि,विद्रोही और प्रतिबद्ध कवि के रुप में हमारे सम्मुख प्रस्तुत करती है।’ समय के साथ प्रतिबद्धता,अपनी सभ्यता-संस्कृति और इतिहास को कविताओं में ढालना उनकी विशेषता है। नागार्जुन सीधी बातें करते हैं और उनका सृजन बहुआयामी है। वे फक्कड कवि हैं और गहरी चोट करते हैं। उनके मार्क्सवाद का मतलब स्थानीय समस्याओं और निकट के संघर्षों से जुड़ना है। उनका विद्रोह वैयक्तिक नहीं है,उसमें हाशिये के लोगों का दुख दर्द,उत्पीड़न और संत्रास की कड़ियाँ समाहित हैं। वे घोर यथार्थवादी कवि हैं। इस तरह खत्री जी ने नागार्जुन के संग्रह की व्यापक विवेचना की है और इसे महत्वपूर्ण पड़ाव माना है।
आलोचना या समीक्षा पर चिन्तन करना सहज भी है और कठिन भी। रमेश खत्री केदारनाथ अग्रवाल को प्रेम की विराटता का कवि मानते हैं,अपने पक्ष में नाना तर्क देते हैं और उदाहरण स्वरुप उनकी अनेक कविताएं प्रस्तुत करते हैं। वे लिखते हैं-उनकी कविताओं में छलका भावबोध वैविध्यता लिए हुए है जो कवि की प्रतिभा, प्रज्ञा,प्रेम,प्रकृति,प्रगतिवाद और परिवेश को रेखांकित करते हुए पाठकों के मन में अपनी पैठ जमाता जाता है। वे वस्तुतः प्रेम के कवि हैं। ‘जमुन जल तुम’ को आधार बनाकर खत्री जी लिखते हैं-इस संग्रह की मूल भावना प्रेम के प्रस्फुटन की ही है,कवि प्रेम के क्षणों में असीम सुख की अनुभूति करता है और इसके विरुद्ध कुछ भी करने को प्रकृति के विरुद्ध मानता है। वे प्रेम को जीवन मूल्य मानते हैं,कविता की पंक्ति लिखते हैं-”गया ब्याह में युवती लाने,प्रेम ब्याह कर संग में लाया।” प्रेम मानवीय चेतना की परम उपलब्धि है जिसे प्राप्त कर आदमी मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। ‘कहें केदार खरी-खरी’ केदारनाथ अग्रवाल जी का दूसरा काव्य संग्रह है जिसकी विवेचना खत्री जी ने बेबाकी से करते हुए लेखन में राजनीति की स्थिति पर भी विचार किया है। ये कविताएं शाश्वत हैं क्योंकि इनमें मेहनत करने वालों की आत्मा की पुकार है,उनकी झुंझलाहट,तिलमिलाहट, खिसियाहट, उनकी संकल्प शक्ति और स्वार्थी,शोषक,सत्तालोलुपों को उनकी फटकार और ललकार है। उनकी कविताओं में राजनीतिक पैनापन है,कविता की पंक्तियाँ देखिए-राजनीति नंगी औरत है—ऐसा पागल लड़वाती है,आबादी में बम गिरते हैं,दल की दल निर्दोष जनता,गिनती में लाखों मरती है। खत्री जी नागार्जुन से तुलना करते हैं, रामविलास जी के विचार का सहारा लेते हैं और सुंदर विवेचना करते हैं। उनकी कविताओं की धरती मानवता के प्रेम की धरती है। उनके बिंब समाज के भीतर से उभरते हैं और संवेदनाएं प्रगट होती हैं। केदार जी की कविताओं को लेकर तत्कालीन आलोचकों द्वारा प्रस्तुत आलोचनाओं का खत्री जी चिन्तन करते हैं और सार्थक निष्कर्ष निकालते हैं।
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की ‘हरी घास पर क्षण भर’ जैसी प्रयोगवादी पुस्तक पर चिन्तन करते हुए रमेश खत्री जी लिखते हैं-अज्ञेय की कविता यहाँ तक आते-आते क्षण भर के लिए रुक सी गयी है जैसे शबनम की बूँद गुलाब की पंखुड़ियों पर ठहर सी जाती है।’शरणार्थी की भाँति’ बिंब प्रयोग करते हैं रमेश जी। इसी शीर्षक से लम्बी कविता है और दूसरी ‘नदी के द्वीप’। इस संग्रह का ध्येय शहर की बाजारु संस्कृति से उबे हुए मानव की मनःदशा चित्रित करना है। अज्ञेय ने प्रयोगवाद को हवा दी है ताकि कविता में नवीनता,आधुनिकता और व्यक्तित्व की तटस्थता आये। उनपर यौन के प्रतीकों में उलझने का आरोप लगता है। यह संग्रह स्मृतियों का चलचित्र-सा है। नाना प्रसंगों,बिंबों और अनेक साहित्यिकों के विचारों के साथ अज्ञेय के काव्य संसार पर रमेश खत्री जी अपने तरह से प्रकाश डालते हैं।
रमेश जी लिखते हैं-‘नारी मन की कोमलता और गोपनता को गीतों में गूढ़ता से उतारने वाली महादेवी वर्मा हैं’ और उन्हे प्रसाद,पंत,निराला के साथ खड़ा करते हैं। वे अपनी समीक्षा-आलोचना में विवेच्य रचनाकार को समग्रता में समझना और समझाना चाहते हैं, दूसरों के मतों का उल्लेख करते हैं और कवि की भाव-भूमि तक पहुँचते हैं। समीक्षा-धर्म का यह बड़ा दायित्व है और इसी कसौटी पर उन्होंने महादेवी वर्मा के कविता संसार पर व्यापक चिन्तन किया है। उनकी विवेचना में चिन्तन का हर पक्ष उभरता है,चमत्कृत करता है और प्रभाव डालता है। अंत में वे लिखते हैं-महादेवी वर्मा की काव्य यात्रा में प्रवेश करना पीड़ा के घने बादलों से होकर गुजरना है जहाँ भावनाओं का आलम्बन और उद्दीपन रुप कड़कड़ाती बिजलियों की तरह आपका स्वागत करता है और प्रेमगत प्रकृति की घनी छाँव आपके सिर पर हमेशा तनी रहती है। इस तरह की भावभूमि उनके समकालीन अन्य कवियों में दुर्लभ है।
रमेश खत्री के पास समर्थ भाषा व शब्दावली है जिससे उनके निष्कर्षों का आलोक उभरता है,विवेच्य पुस्तकों,उनके रचनाकारों के प्रति ध्यान खींचता है और समझना सहज हो जाता है। चन्द्रकान्त देवताले की कविताओं का संसार अपने समय के संकट का सामना करता है। उनकी कविताओं में स्थानीय-मालवा का भूगोल,भाषा, संस्कृति और वातावरण दिखाई देता है। उनमें नदी,पहाड़,हाट-बाजार,सड़कों पर खड़े मवेशी,साधारण लोग,स्त्रियाँ,भीड़,बरसात सब कुछ चित्रित होता है। मन की संवेदनाएं उभरती हैं,आदमी के जीवन के सूक्ष्म ब्यौरे उनकी कविता में हथियार की तरह प्रयोग होते हैं। रमेश जी की ऐसी विवेचना के बाद कवि देवताले को समझना कठिन नहीं रह जाता। अमृत लाल नागर के उपन्यास ‘मानस का हंस’ पर चिन्तन करते हुए रमेश खत्री विमल मित्र और पाश्चात्य विचारक वाल्टन एलैन को रेखांकित करते हैं। ‘मानस का हंस’ में नागर जी ने तुलसी दास के जीवन के विविध पक्षों का सजीव चित्रण किया है। उन्होंने तुलसी की भक्ति के परिप्रेक्ष्य में ‘काम और राम’ के द्वन्द्व को गहनता से उभारा है। यह उनका प्रौढ़ और परिष्कृत उपन्यास है। रमेश जी ने विस्तार से इसकी विवेचना की है और लिखते हैं-यह जीवन चरित्र होते हुए भी औपन्यासिक कलात्मकता का सुष्ठु संयोजन है। ऐसी सम्यक आलोचना पाठक को प्रेरित करती है आलोच्य ग्रंथ पढ़ने के लिए और उसे उचित मार्ग-दर्शन मिलता है।
रमेश खत्री लीलाधर मंडलोई को लेकर लिखते हैं-”लीलाधर मंडलोई हिन्दी के वर्तमान कवियों में प्रमुख हैं जिन्होंने जो कुछ लिखा वह स्व-अनुभूत यथार्थ की गहराई से चीथते हुए लिखा और इसीलिए गहन अनुभूति के असंख्य प्रमाण उनकी रचनाओं में चीख-चीखकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं।” उनके सात कविता संग्रहों से चुनी हुई कविताओं का संग्रह महत्वपूर्ण है जिस में आदिवासी पीड़ा, औद्योगिक मजदूर का संघर्ष,खेतों में सांती,कुटकी व बाजरे की जगह सोयाबीन,बस स्टैंड पर कोने में दुबका अशक्त,उदास बूढ़ा,उसकी आँखों में लम्बी दास्तान, पस्त,बेदम चिड़िया,सूरज का ताप आदि फैला हुआ है। खत्री जी की इन पंक्तियों से मंडलोई जी को समझना सहज हो जाता है,वे लिखते हैं-” संग्रह की कविताओं में हमें स्त्री और प्रकृति अपनी खास पहचान में नजर आती है,कवि न केवल इनके प्राकृतिक सौन्दर्य का बखान करता है अपितु उसके मन में चल रहे उद्दाम विचारों को भी चित्रित करता चलता है और कविता अपनी गति से आगे बढ़ती जाती है।” उनकी कुछ कविताएं साम्प्रदायिक और वामपंथ सोच के साथ सामाजिक सरोकार भी दर्शाती हैं। ”आशा नाम नदी’ ऋतुराज के कविता संग्रह की विवेचना उन्होंने की है। कवि में दृढ़ इच्छा-शक्ति और आस्था है। उनकी कविताएं सहज,सरल मनुष्य का अन्वेषण करती हैं और मनुष्य होने के गुण-धर्म की ओर खींचती जाती हैं जहाँ जीवन,संवेदन,रुप,बिंब,लय और विचार के स्तर पर कई तरह के प्रयोग दिखाई देते हैं। घोर निराशा और विकल्पहीन समय में भी ऋतुराज आशा का दामन नहीं छोड़ते और अपनी कविताओं में बड़ी सहजता से समस्याओं का निदान खोज लाते हैं। आशावाद के एक और कवि अम्बिकादत्त के कविता संग्रह ‘आवों में बारहों मास’ की बिंबों से भरी कविताओं का सामना सीधे-सीधे भविष्य में देखने वाली आँखों की चमक से होता है। उनमें लोहा ले रहे लोगों का चित्रांकन है,विरल दुख चित्रित होता है और आमजन की पीड़ा है। रमेश खत्री जी लिखते हैं-”असल में समीक्ष्य संग्रह की कविताएं जीवन के अनेक संदर्भों को उजागर करने के सायास रूपक की ही छवियाँ हैं जो जीवन के विनियोग और जिन्दगी के गीत को मुक्त छन्द में पिरोती हैं और जीवन के खाली कैनवास पर विरल चित्रों को चित्रांकित करती हैं। उनके बिंब सम्प्रेषणीय और विचारपरक हैं। वे लिखते हैं-”इन कविताओं का मूल स्वर अबूझ,अमूर्त नहीं है अपितु वे संवेदना की धीमी आँच में तप रही है जैसे तैयार होती है जीवन की ईंटें अनुभव के भट्टों में मुसुर-मुसुर जलते हुए तैयार हो रही हैं।” इस तरह रमेश खत्री ने समकालीन कवियों की बड़ी जबरदस्त विवेचना की है जिससे कवियों और उनकी कविताओं को समझना सरल हो जाता है।
वैसे ही विजेन्द्र के चौदहवें कविता संग्रह ‘भीगे डैनों वाला गरुड़’ को लेकर रमेश खत्री जी लिखते हैं-”इन कविताओं में तपा जीवन लम्बे अनुभव की आँच से दमकता दिखाई देता है और बगैर किसी बयानबाजी के कवि की आंतरिक बेचैनी को दर्शाता है। कवि वर्तमान समय की असंवेदनशील दुनिया से लोहा लेता है और अभिव्यक्ति के माध्यम से अपने गुस्से को दर्शाता है।” हर कवि के मर्म तक वे पहुँचते हैं और अपनी विवेचना में प्रस्तुत करते हैं। विजेन्द्र में गहन जीवन दृष्टि है,वे हाशिए के लोगों के लिए समानता,स्वतंत्रता और न्याय के मसले बेबाकी से उठाते हैं। कवि समस्याओं की जड़ तक पहुँचना चाहता है और छटपटाता रहता है। रमेश जी की आलोचनात्मक भाषा और शैली की अपनी ताकत है और उनकी दृष्टि कविताओं की भावना उकेरती है। अपनी समीक्षाओं के शीर्षक से भी रमेश जी चमत्कृत करते हैं। ऐसा ही शीर्षक है ‘उजाले की ओर देखती कविताएं”। कविता-कहानी में चित्र खींचे जाते हैं,समीक्षा में खत्री जी कुछ वैसा ही दृश्य खींचते हैं और सम्मोहित करते हैं-”समकालीन कविता के परिप्रेक्ष्य में नंद चतुर्वेदी का कविता संग्रह उस स्निग्ध लहर की तरह है जो हौले-हौले अपने किनारों को चूमती है और लौट आती है अपने माझी की ओर,वह किसी तरह की चिंघाड़ नहीं करती और न ही कोई शोर मचाती है अपने होने के लिए।” वे आगे लिखते हैं-इस संग्रह की अधिकांश कविताएं मानव मन की बारीक संवेदना को उकेरती है। कवि के बिंबों पर खत्री जी की अद्भुत पकड़ है और बड़ी सहजता से उसका निरुपण करते है। कवि में उत्सुकता है,सवाल है जो पाठक को चिन्तन के लिए प्रेरित करते हैं। रमेश खत्री के वक्तव्य कई बार दुरुह हो उठते हैं और उसका अपना महत्व है।
‘एकादश की ताल के साथ’ रमेश खत्री का अगला लेख है जिसमें लीलाधर मंडलोई और अनिल जनविजय के संयुक्त संपादन में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘कवि एकादश की विवेचना की गई है। यह एक तरह से तार सप्तक की विचार भूमि पर आधारित प्रयास है जिसमें विष्णुचन्द्र शर्मा,मलय, चन्द्रकांत देवताले,विजेन्द्र,विनोद कुमार शुक्ल,भगवत रावत,नरेश सक्सेना,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, ऋतुराज,वेणुगोपाल और सुदीप बनर्जी शामिल हैं। संपादक द्वय लिखते हैं-”हमारा बल कवियों के वैविध्यपूर्ण जगत पर रहा है,इंसानी आजादी के लिए कवियों के संघर्ष को जहाँ हमने सामने रखने का यत्न किया वहीं पृथ्वी से अंतरिक्ष तक उनके सरोकारों को नुमाया करने की बात केन्द्र में रखी।” रमेश खत्री ने बड़े साहस के साथ सर्वांग रुप से सभी कवियों को समझने और समझाने का प्रयास किया है। उन्हें लगता है-”हम सभी आधी सदी की यात्रा कर रहे हों और कविताओं के पार्श्व से आती सुदीर्घ आवाज की पतली लकीर के सहारे हम निकल जाते हैं अनंत कालखण्डों की यात्रा पर।” इस समीक्षा में उन्होंने हर कवि को अपनी तरह से समझा है और उन्हीं का निष्कर्ष देखिए-”समीक्ष्य कृति को पढ़ते हुए एक केन्द्रीय रुपक उभर कर आता है,वर्तमान समय के दोगलेपन की भयावह फैंटेसी से दो-दो हाथ करते कविता के कोमल स्वरों में लिथड़ा हुआ यथार्थ और इसी से इसमें संग्रहित कवि अपने संघर्ष की धार को पैना करते हैं, उनके हथियार हैं बच्चे की भोली मुस्कान,सहज सरल मानव का कोमल मन और विश्वास का अजस्र स्रोत जिसे वे बारूद की तरह बचाकर रखना चाहते हैं अंतिम युद्ध के लिए। वे अपनी असफलताओं का भी उतनी ही बेबाकी से बयान करते हैं जितनी बेबाकी से सच का चित्रण।”
समीक्षक ने ऋतुराज के संग्रह ‘कवि ने कहा’ पर चिन्तन करते हुए लिखा है-”शब्दों की सवारी करते भावों के विलक्षण रुपों का समुच्चय है कविता।” उन्होंने आगे जबरदस्त बात लिखी है-”कविता व्यक्ति से लेकर व्यक्ति,आत्मा से परमात्मा और व्यष्टि से लेकर समष्टि तक की यात्रा करते हुए वर्तमान समय की चुनौती और मानव जीवन के खतरों को जब उठाती है तो वह धारदार होती है।” ऋतुराज खामोश रहकर वर्तमान समय को पकड़ते हैं,हाशिए पर धकेले गए आम आदमी की चिन्ता करते हैं और कविता का परिपक्व चित्र प्रस्तुत करते हैं। उनके पास खांटे बिंब हैं और उनका प्रयोग उन लोगों के लिए करते हैं जिनके साथ कोई खड़ा नहीं होता। मानवीय सरोकार और संवेदनाओं से भरी है ऋतुराज की कविताएं। समीक्षक ने भी अपने चिन्तन में बिंबों का खूब प्रयोग किया है कविता की तरह और यह संग्रह बड़े कालखण्ड को समेटे सार्थक इतिहास प्रस्तुत करता है। उन्होंने ”पसीने की महक से सराबोर कविताएं” लेख में श्रीराम दवे के कविता संग्रह ”आग तुम रहस्य तो नहीं” पर स्पष्ट चिन्तन किया है। इसमें मालवा की मिट्टी की सोंधी महक है,कवि के जरुरी प्रश्न हैं,अन्तर्विरोध व विसंगतियों की परत उतर रही है,कवि का आहत मन है, चित्रात्मकता के साथ मन का संत्रास है,अपने समय का बनैलापन है और ये कविताएं वैचारिक विमर्श को आँच देती सी जान पड़ती है। समीक्षक की गहन दृष्टि ही है जो कविताओं के पीछे के मर्म को पकडती है और संग्रह का आलोक फैलाती है। ‘अबोलेपन की सान्द्रता को तोड़ते हुए’ लेख में रमेश खत्री ने जयप्रकाश मानस की कविताओं पर विचार किया है। कवि दुनियादार है इसलिए उनकी कविताओं में दुनियावी छल-छद्म से जूझते मानव जीवन की छवियाँ खूब उभरती हैं। इनमें झरने सी सहजता है,जीवन की सहज सच्चाइयाँ हैं और नाना बिंबों में उभरता जीवन संघर्ष और संवेदनाएं हैं। कवि नरसंहार पर कविता लिखता है,साथ ही मानव मन की कोमल भावनाओं की भी चिन्ता करता है। वैसे ही चन्द्रकांत देवताले के काव्य संग्रह ”आकाश की जात बता भइया” को लेकर खत्री जी ने बेबाकी से चिन्तन किया है। इन कविताओं में जीवन के अनुभव और सशक्त भाषा है। खत्री जी लिखते हैं-”परिस्थितियाँ व्यक्ति को भयग्रस्त मानसिकता में धकेल देती हैं,कवि इन परिस्थितियों से लगातार जूझता है। दुश्चिन्ताएं और दुःस्वप्न कवि से रागात्मकता, सृजनशीलता और सामूहिकता जैसी मानवीय शक्तियाँ छीनने का प्रयास करती है किन्तु कवि इनके सम्मुख अपनी कविताओं का अभेद्य संसार रच देता है और उसमें पकती रहती है मानवीयता।” इस संग्रह की कविताएं राजनीतिक अन्तर्वस्तु, सामाजिक चेतना और गहन मानवीय संस्पर्शिता की भावना पर केन्द्रीत है।
‘नारी मन की ठिठकी कविताएं’ शीर्षक से रमेश खत्री ने किरण अग्रवाल के दूसरे कविता संग्रह ”रुकावट के लिए खेद है” पर सम्यक विवेचना की है। वे लिखते हैं-इन कविताओं से गुजरते हुए कवि के नारी मन को पकड़ा जा सकता है। इन कविताओं में समय के सवाल से टक्कर लेते नारी मन की विरल छवियाँ अंकुरित होती नजर आती हैं। ये कविताएं कवि की पारदर्शी दृष्टि को प्रतिबिम्बित करती हैं और स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की चीरफाड़ करती हैं। इनमें मानवीय दृष्टि,निश्चल संवेदना और प्रकृति के उपादान हथियार की तरह प्रयोग होते दिखाई देते हैं। कवयित्री चालू मुहावरों से बचते हुए जीवन मूल्यों की स्थापना में लगी हुई है। यहाँ उनके बिंब चमत्कृत करते हैं और रमेश जी ने कवयित्री के भावों को बड़ी बारीकी से समझा है। वे लिखते हैं-”किरण अग्रवाल की कविताएं स्त्री मन की उदासी को छूते हुए उन अकेले रास्तों पर ले जाती हैं जहाँ जीवन के सिलसिले प्रतीक्षारत हैं मन की गाठों को खोलने के लिए।
अपने सम्पूर्ण चिन्तन में हर कवि की सशक्त कविताओं के उद्धरण रमेश खत्री की पकड़ दिखाते हैं। उन्होंने अपने निष्कर्ष के पक्ष में कविताओं के अंश यथानुरुप प्रस्तुत किए हैं जिससे उनकी प्रभावशाली समीक्षकीय दृष्टि स्पष्ट होती है,उनकी गहन भाव-चेतना उभरती है और वे कवि के मूल सरोकार को दिखा देते हैं। एक साथ इतने कवियों पर विस्तार से उनके द्वारा चिन्तन सराहनीय है। यह सब तभी संभव है जब समीक्षक स्वयं में परिपूर्ण हो,भाषा,शब्द सामर्थ्य से भरा हो,लेखन की परिपक्व शैली हो और साहित्य-इतिहास की समझ रखता हो। कहने में कोई संकोच नहीं है,रमेश खत्री जी में ये सारे तत्व स्वतः विराजमान हैं और उनमें सम्यक विवेचना का धैर्य भी है।
अपने संग्रह “आलोचना का जनपक्ष” के अंत में रमेश खत्री जी भालचन्द्र जोशी के कहानी संग्रह ”चरसा” पर विचार करते हुए लिखते हैं-” मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है वह अपनी उत्पत्ति के साथ ही विकास की प्रक्रिया आरम्भ कर देता है,इसी के वशीभूत उसने सारे सृजन की निर्मिति अपने आसपास की और इस निर्मिति में उसे लम्बे समय तक पापड़ बेलने पड़े तब जाकर एक संस्कृति निर्मित हो पाई।” इस संग्रह की कहानियों की एक ही अन्तर्धारा है और वह है. हाशिए पर धकेले गए लोगों की जीवन स्थितियों को प्रकाश में लाना,अल्पसंख्यक समुदाय की मानसिकता को उजागर करना और इसके बनिस्पत संवेदनशीलता की सान्द्रता को घनीभूत करना। चरसा,राजा गया दिल्ली, पहाड़ों पर रात,जंगल,कहीं भी अंधेरा और कोई एक धुन जैसी सशक्त कहानियों के इस संग्रह के भालचन्द्र जोशी समर्थ कथाकार हैं। वे अपने समय की भाषा को जादुगरी से पकड़ने की कोशिश करते हैं और सफल होते हैं। वे फैंटेसी बुनते हैं और शब्दों को रंगों की तरह इस्तेमाल करते हैं। जोशी जी जहाँ वर्ग भेद के लिए जगह बनाते हैं वहीं धर्म की राजनीति करने वालों पर भी निशाना साधते हैं। इस तरह रमेश खत्री ने जोशी जी के कथा संग्रह की गहन पड़ताल की है और प्रमाणित किया है,वह एक समर्थ समीक्षक-आलोचक हैं।
इस संग्रह में कुछ महत्वपूर्ण लेख ऐसे भी हैं जैसे समकालीन हिन्दी कविता,उत्तर औपनिवेशिक समय-आलोचना का आत्म संघर्ष,लघुकथा की चुनौतियाँ,पत्रकारिता की नई राह-रिपोर्ताज आदि-आदि जिस पर समीक्षक ने विस्तार से चिन्तन-मनन किया है। समकालीन शब्द साहित्य में वर्तमान के बोध के साथ उभरता है। कवि अपने समय और समाज को चित्रित करते हैं,संगतियों-विसंगतियों को रेखांकित करते हैं और मनुष्य को केन्द्र में रखते हैं। रमेश खत्री जी लिखते हैं-आज हिन्दी कविता अधिक व्यापक,गहन और शिल्पगत उत्कृष्टता की कविता के रुप में उभर कर आई है। कवियों और कविता को लेकर गहरी छानबीन करके उन्होंने बहुत कुछ खोजा व समझाने का प्रयास किया है तथा साहित्य की सभी धाराओं, उपधाराओं और अन्तर्धाराओं पर चिन्तन किया है। वैसे ही ”उत्तर औपनिवेशिक समयःआलोचना का आत्म संघर्ष” लेख में खत्री जी ने विशद चिन्तन किया है। उन्होंने लिखा है-आलोचना तभी अर्थवान होती है जब वह समय के भीतर मौजूद सत्य को न केवल पहचानती है बल्कि उसका उपयोग मानवता को बचाने में भी करती है। डायरी लेखन को लेकर “डायरी कला भीःइतिहास भी” शीर्षक से रमेश खत्री ने सम्यक विचार किया है और निष्कर्ष निकाला है। उन्होंने एक महत्वपूर्ण लेख ”लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता के सम्मुख चुनौतियाँ” शीर्षक से लिखा है। एक लेख पत्रकारिता की नई राहःरिपोर्ताज पर है।
इस तरह रमेश खत्री की समीक्षात्मक-आलोचनात्मक दृष्टि में कवि हैं,उनके कविता संग्रह हैं,कविताएं हैं और उन्होंने गहराई से साहित्य के सन्दर्भ को रेखांकित किया है। ”आलोचना का जनपक्ष’ कोई महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह है जिससे कवि,लेखक,पाठक,शोधार्थी सभी लाभान्वित होने वाले हैं। उन्होंने गहन चिन्तन किया है और अपने विचारों को बेबाकी से सामने रखा है। ऐसा भी हो सकता है,साहित्य के विद्वतजन कहीं-कहीं सहमत-असहमत हो सकते हैं,कोई नई समझ बता सकते हैं और प्रश्न उठा सकते हैं,इससे बहुत अंतर पड़ने वाला नहीं है और उनके लेखन-चिन्तन को स्वीकारा ही जायेगा।
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समीक्षित कृति आलोचना का जनपक्ष
आलोचक/समीक्षक रमेश खत्री
मूल्य रु 67/-
प्रकाशक मन्थन प्रकाशन,जयपुर
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विजय कुमार तिवारी
(कवि,लेखक,कहानीकार,उपन्यासकार,समीक्षक)टा
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