अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़ की धरती मुझे नहीं मालूम न जाने कितनी उर्वर है , लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि वहाँ के साहित्यकारों के चित्त अवश्य उर्वर है।
प्रमाण के लिए एक नाम ही पर्याप्त होगा और वह नाम है शाइर जनाब देववंश दुबे का।
हाँलाकि अभी तक इनके खाते में कुछ ज़्यादा नहीं , बस एक मात्र ग़ज़ल – संग्रह ‘ चंद क़तरे ओस के ‘ ही है जो अभी हाल ही में मंज़रे आम पर आया है।
इसके पूर्व देश की प्रमुख पत्र – पत्रिकाओं में हम दुबे जी की ग़ज़लें पढ़ते रहे हैं और भीतर तक प्रभावित होते रहे
हैं ।
‘ चंद क़तरे ओस के ‘की तमाम ग़ज़लों से गुज़रने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि शाइर देववंश दुबे किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध नहीं हैं , बल्कि वे सिर्फ़ और सिर्फ़ ग़ज़ल की रचनात्मकता से ही प्रतिबद्ध शाइर हैं ।
इसलिए मैं इनकी ग़ज़लों में संवेदना की बड़ी धरती और सोच का व्यापक आकाश देखता हूँ ।
फ़िकरोफन के नज़रिए से इनकी ग़ज़लों के अश’आर सीधे दिल के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं और बड़ी आसानी से भीतर प्रवेश कर जाते
हैं।
जीवन – जगत का ऐसा कोई इलाक़ा नहीं है जिसको देववंश दुबे ने नापा न हो ।
अंदाज़ेबयाँ के हवाले से भी यदि इन ग़ज़लों को देखें तो ये ग़ज़लें ख़ुश्बू से महकती और इन्द्रधनु के सात रंगों में नहाती नज़र आती हैं। दुबे जी ठीक लिखते हैं :
ओस के चंद क़तरों से होता भी क्या
तिश्नगी जैसी थी वैसी ही रह गयी ।
एक अनबुझी प्यास है दुबे जी का ग़ज़ल – संग्रह ‘ चंद क़तरे ओस के’।
एक जगह यह शाइर बड़ी ही शिद्दत से कहता है :
रंग कुछ ज़िन्दगी
में भरने दो
मैं हूँ ख़ुश्बू , मुझे बिखरने दो।
देववंश दुबे की ग़ज़लों को मैं पिछले अनेक बरसों से पढ़ता आया हूँ और बेहद प्रभवित होता रहा हूँ।
आजकल रिश्तों में आई दरार को देख कर यह शाइर तड़प उठता है । ऐसे वक्त में इनकी
क़लम से तंज़िया शेर की आमद होती है ।
इनके तंज़िया अश’आरों की ज़रा तल्ख़ी तो
देखिए :
ख़ून के रिश्तों के तेवर देखिए
सबके हाथों में है पत्थर देखिए ।
बढ़ते हुए बाज़ारवाद पर यह तंज़ देखिए :
अब तो इंसान का भी दुनिया में
दोस्तों , मोल – भाव होता है ।
शाइर दुबे अपनी शाइरी करने के दौरान एक जुनून को जीते हैं । यह जुनून किसी को आबाद भी कर सकता है और बर्बाद भी ।
लेकिन शाइर है कि इस बात की क़त्तई परवाह नहीं करता :
वो जो हद से अपनी गुज़र गया
या बिखर गया या
संवर गया।
रदीफ़ ,काफ़िया ,रूक्न , अरकान , बह्र , मिसरों की रिवानी , फ़िक़्र फ़न , शरीयत जैसी बातों का दुबे जी पूरा पूरा ख़्याल रखते हैं ।
इन्होंने बहुत भोलेपन में यह स्वीकार किया है
कि गूगल इनका उस्ताद है । जो कुछ सीखा इसी से सीखा ।
क्या करे कोई अग़र कोई उस्ताद सिरफोड़ी या यूँ कहें मग़ज़पच्ची करने के लिए तैयार ही न हो । ऐसे हालात में तो गूगल देव ही गुरु है। इस बात को लेकर किसी ने कहा भी है कि गुरु से भी बढ़कर आज गूगल देव हैं :
गुरु , गूगल दोनों खड़े काके लागूँ पाँव ।
बलिहारी गूगल आपकी गुरु से पिण्ड छुड़ाय ।।
एक बात और ।
ग़ज़ल के नाज़ उठाना हरेक के बूते की बात नहीं है , इसके नाज़ुक मिज़ाज के क्या कहने !
लेकिन लगता है इस खुश फ़िक़्र शाइर ने ग़ज़ल को भी अपने हक़ में मना लिया या
कहूँ राज़ी कर लिया है।
दुबे साहब अपने एक शे’र में फ़रमाते हैं :
वो उड़ान दिल की थमी कहाँ
मेरे पर भले वह कतर गया।
समाज में फैल रहे दंगा फ़साद के पीछे कोई तो है , शाइर इस बात को अच्छी तरह समझता है :
है बदस्तूर दिलों में नफ़रत
कोई तो है जो हवा
देता है ।
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राह – ए – नफ़रत वो छोड़ दे शायद
आओ संवाद कर
के देखते हैं ।
जुल्म का प्रतिरोध बहुत
ज़रूरी है ।अम्न की राह तभी मिल पाएगी । दुबे जी बहुत सही कहते हैं :
जुल्म पर मौन रहना , बड़ा जुर्म है
हर ज़बां को ये बातें बता दीजिए।
कुल मिलाकर यह बड़े यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि ग़ज़ल की दुनिया में शाइर देववंश दुबे के ग़ज़ल – संग्रह का दिल खोल कर स्वागत किया जाएगा ।
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– डॉ. रमाकांत शर्मा, राजस्थान
मो: 94144 10367