बस नम्बर -185
चढ़ता है दिल्ली के सीने पर दौड़ती
एक सौ पचासी नम्बर की बस में
भूमंडलीकरण के प्रति सम्पूर्ण उदासीन
एक किशोरवय कृशकाय बालक
फँसाकर दो पत्थरों को अपनी उँगलियों के बीच
गाता है खटपट राग में “परदेशी, परदेशी जाना नहीं”
तिर्यक मुस्कान बिखेरते हैं उसे देखकर पहले
फिर कर लेते हैं अपना मुँह खिड़की की ओर
मुखर्जी नगर और सिविल लाइन्स से बस पर सवार
ब्राण्डेड कपड़ों में लिपटे तथाकथित सभ्य लोग
वह बालक इन लोगों को तो नहीं पहचानता
पर पहचानता है अवहेलना और अहमन्यता को
वे लोग इस बालक को तो पहचान लेते हैं अक्सर
पर वे नहीं पहचान पाते उस विपुल शक्ति को
जो पत्थरों से भी पैदा कर लेती है संगीत
नत्थूपुरा से चली बस उन्हें पहुँचाती है सचिवालय के करीब।
परिवर्तित
घर लौट रही है हरिणी गोकुल
गारमेंट फैक्ट्री से नाइट ड्यूटी के बाद
उसकी चाल से हो रहा है थकावट का आभास,
बोझिल हैं उसकी दोनों आँखें तन्द्रा से
उसकी पाँव के नीचे की जमीन है असमतल
चलायमान हैं रात्रि के इस अन्तिम प्रहर भी
सड़कों पर तीव्र गति वाहन लगातार
सावधान हरिणी! अभी तुम्हें ढोना है नींद को
अपनी अलसाई पलकों पर तनिक और देर
और करना है पार घर तक का बाकी रास्ता तुम्हें
स्मरण रहे कि निद्रा मृत्यु का ही परिवर्तित रूप है
जरा सर उठाकर आसमान की ओर देखो
जाग रहे हैं चाँद और समस्त नक्षत्र राशि
सिर्फ इसलिए कि तुम्हें घर तक पहुँचा सके
फिर चले जायेंगे वे सभी अवकाश पर
तुम नहीं देख पा रही हो उन जुगनुओं को
जो मंडरा रहे हैं वृताकार घुंघराले
तुम्हारी बालों में लगे पीले गुलबहार पर
क्या तुम महसूस कर पा रही हो हरिणी इस क्षण
कि प्रकृति भी तुम्हारे साथ कर रही है नाइट ड्यूटी
कि तुम हो उसी का एक परिवर्तित रूप !
हलधर
मेरे देवता के हाथों में नहीं है
शंख, चक्र, गदा और पद्म
उसके हाथों में है हल
नहीं दमकती सुनहरी आभा
उसके माथे के पीछे
तना रहता है सूरज माथे पर
नहीं होती पद्म-पंखुड़ियाँ
उनके चरणों के नीचे
सना रहता है पाँव भर कीचड़
नहीं रहता खड़े तनकर
अभय मुद्रा में
झुककर उगाता है अन्न
महाशताब्दीकाल से
बस इतना सा परिचय
है मेरे ईश्वर का
करुणा
चारों ओर जलाए जा रहे पटाखों के शोर के बीच
कांप रही है लिली, मेरी पालतू कुतिया
उसके शरीर के कम्पन से कांप रहे हैं कुछ शब्द मेरे भीतर
जिन शब्दों का कोई अर्थ नहीं मिलता इस युग के अभिधान में
उन शब्दों के बरअक्स कुछ स्मृतियाँ तैरती हुई आ पहुँची हैं
विकास युग से बहुत पहले के किसी आदिम युग से मुझ तक,
जब करते थे संवाद पृथ्वी के समस्त प्राणी एक ही भाषा में !
नए जमाने की बोधगम्यता सिखाती है रहना निश्चुप
एक के लिए जो यन्त्रणा है, दूसरे के लिए है हास्यकर!
हताशा
चीख रही हैं अपने बच्चों की लाशों से लिपटी माएँ
फिजाओं में तैर रही है महमूद दरवेश की माँ के लिए लिखी नज्में
इजराइली हमले में मारे गए रेफ़ात अलारेर
खामोश पड़े हैं कब्रिस्तान के वीराने में अपनों के बीच
मैं उछाल देती हूँ कुछ लफ्ज़ उनकी जानिब
लफ्ज़ राह भटक जाते हैं, नज़्म नहीं बनती
मेरे कानों तक आ रही हैं मुसलसल चीखें
मैं सोचती हूँ अपने नर्म मुलायम बिस्तर पर पड़े
कि भटके हुए वे तमाम लफ्ज़ आ सकते हैं कभी भी
किसी भी पल मेरा टेंटुआ दबाने
और ज़ेहन पे तारी यह बात लिए-लिए
ज़ेहन पे तारी यह भारी बात लिए-लिए
आँखों से उतर आती है नींद
बिना बन्द किये पलकों के दरवाजे
ठीक जैसे खुली हैं आँखें उन मासूम लाशों की
अपनी-अपनी माँ की गोद में आसमान तकते हुए।
सोऽहम्
आज दोपहर मैंने लिखी एक कविता
कविता ने अपनी जमीन पर उगाई दूब
एक लड़की दुर्वादलों के मध्य औंधे लेटकर लिखने लगी कविता
रह-रहकर प्रेमिल नयनों से निहारती रही दूब को
ओ लड़की! तुम्हारी कविता का शीर्षक क्या है?
“मैं कविता की जमीन पर उगी दूब हूँ”
पर दूब तो बस हुआ करती है, हवा के झोंके से हिला करती है
वह कुछ भी तो नहीं कहती?
दूब दरअसल अरण्य के समस्त सबुज के एक हो जानेवाली
एक हजार कविताओं की वयःसंधि है
वह कुछ नहीं कहती, पर अगोरकर रखती है हर बार
किसी विध्वस्त शहर के मानचित्र पर तनिक सबुज
सम्भालकर रखती है अपना हरित रक्त और हरित आलोक
पृथ्वी पर जीवन को आशीर्वाद देने के लिए
युगों-युगों से शीश उठाकर कर रही है पूरा पृथ्वी की जैविक माँगों को
आलोकित कर रही है पृथ्वी को अपने पौराणिक सबुज प्रकाश से
लिखो लड़की, लिखो
लिख ही डालो अब यह कविता
वह लड़की कौन है?
वह लड़की मैं हूँ।
वह दूब कौन है?
वह दूब मैं हूँ।
वह कविता कौन है?
वह कविता मैं हूँ
आज दोपहर
कविता में मैं हो गयी मैं
कविता में मैं हो गयी दूब
कविता में मैं हो गयी कविता।
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सुलोचना वर्मा
जन्म : ३ अक्टूबर १९७८
जन्मस्थान : जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल, भारत
शिक्षा : कॅंप्यूटर अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
सम्प्रति : आई टी कम्पनी में निदेशक के पद पर कार्यरत।
प्रकाशन : ‘अंधेरे में जगमग’ (कहानी संग्रह) नेशनल बुक ट्रस्ट, ‘बचे रहने का अभिनय’ (कविता संग्रह) सेतु प्रकाशन, ‘नायिका’ (उपन्यास) सेतु प्रकाशन, ‘सोनामणि’ (संजय भट्टाचार्य की बांग्ला कविताओं का हिन्दी अनुवाद)
सम्मान / पुरस्कार : १६वाँ शीला सिद्धांतकर सम्मान (कविता संग्रह ‘बचे रहने का अभिनय’ के लिए)
रचनाएँ नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, इन्द्रप्रस्थ भारती, कथादेश, शुक्रवार, सदानीरा, छपते-छपते, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, दुनिया इन दिनों, नया प्रतिमान, बहुमत, पाठ, स्त्रीलोक, हिंदी समय, रविवाणी, देशज समकालीन, सृजनलोक, जनादेश, पंजाब टुडे (पंजाबी), कोशी (नेपाली), बांग्ला (खनन, बांग्लादेश जर्नल, बांग्लाबाज़ार, देयांग, रुपाली आलो) आदि में प्रकाशित | नवभारत टाइम्स के “एकदा” स्तम्भ के लिए लेखन |
बांग्ला के नए पुराने २३ कवियों के शताधिक कविताओं के अनुवाद के अतिरिक्त असमिया (नवकांत बरुआ) और अंग्रेजी (अमिय चटर्जी) की कई कविताओं का हिन्दी में अनुवाद
पढ़ने लिखने के अतिरिक्त छायाचित्रण व चित्रकारी में रुचि है तथा संगीत को जीवन का अभिन्न अंग मानती हूँ।
ई मेल : verma.sulochana@gmail.com