रानीखेत से विमल सती एवं राजेंद्र पंत की रिपोर्ट
खूबसूरत पर्यटक नगरी रानीखेत (उत्तराखंड) में दिनांक 22 जून 2024 को रानीखेत सांस्कृतिक समिति एवं कविजन हिताय द्वारा साहित्य समागम का आयोजन किया गया। इस विमर्श गोष्ठी में “उपन्यास में युवा चिंतन की दिशा” विषय पर किताबघर प्रकाशन से वर्ष 2023 में प्रकाशित दीर्घ नारायण के उपन्यास “रामघाट में कोरोना” पर विशेष चर्चा संपन्न हुई। समागम के दूसरे सत्र में कवि-गोष्ठी भी सम्पन्न हुई। उपन्यास की विमर्श-गोष्ठी में हिंदी साहित्य के प्रखर आलोचक डॉ कर्ण सिंह चौहान, डॉ वैभव सिंह, डॉ पंकज कुमार शर्मा (पाखी के पूर्व कार्यकारी संपादक, असिस्टेंट प्रोफेसर बीएन मंडल विश्वविद्यालय मधेपुरा, डॉ दिनेश कुमार ( असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय), डॉ शैलेश (असिस्टेंट प्रोफेसर, रूद्रपुर महाविद्यालय, कुमाऊँ विश्वविद्यालय) डॉ दिनेश कर्नाटक (हिंदी प्रवक्ता, नैनीताल), डॉ कपिलेश भोज (से. नि. हिंदी प्रवक्ता, अल्मोड़ा) ने उपन्यास के विभिन्न आयामों पर गहन विमर्श किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता अल्मोड़ा स्नातकोत्तर महाविद्यालय से सेवानिवृत हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ दिवा भट्ट ने किया। साहित्य समागम का शुभारंभ विशिष्ट अतिथि कुमायूं रेजीमेंट सेंटर के कमांडेंट ब्रिगेडियर संजय कुमार यादव ने किया और धन्यवाद ज्ञापन छावनी परिषद रानीखेत के उपाध्यक्ष श्री मोहन नेगी जी ने किया। श्री विमल सती का बेहतरीन मंच संचालन ने श्रोताओं को सम्मोहित किया।
मुख्य वक्ता डॉ कर्ण सिंह चौहान ने अपने वक्तव्य में कहा कि इस उपन्यास की जो संरचना है वो एक बाहरी ताना बाना है और उसका एक आंतरिक ताना बाना भी है जिसको समझने की जरूरत है। जिन प्रश्नों को लेकर हमारा पिछले पचास-साठ साल का साहित्य जूझता रहा है, जिन मुद्दों को लेकर हम बौद्धिक रूप से उनमें अटक गए हैं यह उपन्यास हमें वहाँ से बाहर ला खड़ा करता है। उपन्यास की युवा पीढ़ी तमाम वर्जनाओं तमाम बाधाओं तमाम मुसीबतों को मानसिक रूप से अपने व्यवहार में पहले से ही पार कर चुकी है और अब वे एक बड़े विजन के साथ वहाँ से आगे बढ़ती है। बुद्धिजीवी वर्ग आंख बंद करके जो अवधारणा पाले चला आ रहा है उसको दीर्घ नारायण ने बड़े साहस के साथ चुनौती देने का काम किया है। जो सामंतवादी सोच हैं, ज्ञान जो घेरा ये युवकगण उससे मुक्त होने की तरफ बढ़ रहे हैं। उपन्यास में कोरोना कैबिनेट के जो प्रस्ताव हैं वो किसी राजनीतिक दल के प्रस्ताव नहीं हैं, बल्कि जिस सोच के अंदर हमारा जो मानस कैद है बुद्धिजीवी वर्ग का जो मानस कैद हुआ है उसको तोड़ करके स्वतंत्र रूप से कुछ चीजों की तरफ ध्यान ले जाने वाली भविष्य की एक नई दृष्टि है।
स्वागत वक्तव्य में डॉ कपिलेश भोज ने रानीखेत की ऐतिहासिक साहित्यिक पृष्ठभूमि श्रोताओं के सामने रखी। उपन्यास पर विमर्श आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा कि यह दीर्घ जी का पहला उपन्यास है, 832 पेज का एक बड़ा उपन्यास होता है और उसमें जैसा कि लिखा है कि कोरोना कालीन महागाथा, तो सच में महागाथा को समेटे हुए उपन्यास है। उपन्यासकार द्वारा रचित पात्र सेवानिवृत शिक्षक जेड सर की भूमिका को उसने पूरे उपन्यास के केंद्र बिंदु के रूप में उद्घाटित किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि पिछले दो दशक में जितने भी उपन्यास मैंने पढ़ा है यह पहला उपन्यास है जो स्तब्ध कर देता हैऔर पाठक को सोचने के लिए मजबूर कर देता है। यह पिछले दो दशक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है।
उपन्यास की विशिष्टता पर प्रकाश डालते हुए डॉ वैभव सिंह ने कहा कि यह उपन्यास अपने समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है, अपने अन्दर कला और सौंदर्य के कई-कई आयाम समेटे हुए हैं। इसमें जीवंतता है और संवाद कला में पात्रों की धड़कनें बाहर आती हैं। एक महाकाव्यात्मक उपन्यास के रूप में यह बाहरी दुनियाँ की सच्चाई सामने लाती है। कहा जाता है कि उपन्यास उस दुनियाँ की कहानी होती है जिसे ईश्वर ने छोड़ दिया है। उपन्यास में रामघाट नगर की संकल्पना उपन्यास की संरचना के लिए एक बेजोड़ कल्पना है। इसमें कोरोना महामारी ही खलनायक है, जहां युवा टोली की श्रेष्ठ आत्माएँ संघर्ष कर रही हैं और बेचैन मनुष्य की कथा प्रकट होती चलती है। उपन्यास में कई-कई प्रसंग हैं, हर प्रसंग प्रासंगिक है जिसे लेखक ने धैर्य के साथ ठहराव देकर पूर्णता दी है, इन्हें अधूरा नहीं छोड़ा है। लेखन के दौरान लेखक ने पात्रों की पीड़ा को असीम धैर्य के साथ झेला होगा। युवा कैसे तदर्थ मूल्यों और सामाजिक मान्यताओं से बग़ावत करते दिखते हैं। प्रेम के साथ-साथ सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते पात्र नये युवा वर्ग की एक नई पहचान सामने लाते हैं। यह उपन्यास न्याय की अवधारणा पर आधारित है और आशा के कई-कई बिंदु सामने लाते हैं।
डॉ शैलेय ने बारीकी से उपन्यास का परीक्षण करते हुए पाया कि इसमें मुख्य कथा के अन्दर बहुत सारी अंतर्कथाएँ कलात्मकता के साथ समावेशित हैं, जिनके कई मनोवैज्ञानिक पहलू हैं। इसकी कथा प्रवाह उपन्यास की ख़ूबसूरती है। पूरे उपन्यास में श्रम का सौंदर्यशास्त्र झलकता है। कोरोना कैबिनेट के कई प्रस्ताव भविष्य में क्रांतिकारी परिवर्तन की पृष्ठभूमि-सी हैं, मसलन सरकार के कैबिनेट गठन के बाद मंत्रिगण को अपनी पार्टी से विलग हो जाना होगा, हर तीसरे टर्म में अनिवार्य रूप से महिला को ही भारत का प्रधानमंत्री बनाना आदि। यह उपन्यास धार्मिक अनुष्ठानों, तमाम विद्रुपताओं, चारों तरफ़ डावाँडोल जीवन का संगीतमय चित्रण करता है। निष्कर्षतः उपन्यास में प्रतिक्रियावादी शक्तियों का दमन और परिवर्तनगामी शक्तियों का पुरज़ोर संघर्ष दिखाया गया है, जो भविष्य के लिए कुछ संकेत छोड़ गए हैं।
डॉ दिनेश कुमार ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि उपन्यास कोरोना काल का एक बड़ा जन इतिहास है, जनता की तरफ से लिखा गया है, जिसमें में जन-जन की पीड़ा दुःख-दर्द की बेजोड़ अभिव्यक्ति है। रामघाट जैसे बड़े शहर की कल्पना करके उसे कथानक का केंद्र बिंदु बनाना एक बेजोड़ लेखकीय टेक्निक है, जिससे स्थानियता की महत्ता सामने आती है। कोरोना काल की हर घटनाएं कथा सूत्र के जरिये जुड़ती जाती हैं। विस्थापन व पलायन की पीड़ा और हर प्रकार की घटनाओं प्रसंगों की कलात्मक डिटेलिंग है। सारे पढ़े-लिखे युवाओं के बीच कम पढ़ पाए रामू को नायकत्व प्रदान करना एक बड़ी लेखकीय दृष्टि है। जाति-धर्म जैसे दुराग्रह से ऊपर उठ चुके जेड सर को मर्गदर्शक के रूप में गढ़ना लेखक की औपन्यासिक दृष्टि का प्रमाण है। कोरोना कैबिनेट एक वैकल्पिक मॉडल के रूप में सामने आता है। इसमें जनता से जुड़े मुद्दे बार-बार उठते हैं, स्वाभाविक ही यह एक राजनीतिक उपन्यास बन पड़ता है। इतना बड़ा उपन्यास पढ़ते हुए भी आप बोझिल नहीं महसूस करते हैं, बल्कि इसके साथ यात्रा करने लगते हैं।
डॉ पंकज कुमार शर्मा उपन्यास की तह में जाते हुए उद्घाटित किया कि उपन्यास में युवा चिंतन की जो दिशाएं है वो वस्तुतः स्त्री चिंतन की दिशा है। उपन्यास में युवतियाँ ही सबको मोटिवेट करती हैं संगठन बनाती है। ऐसे समय में युवा अपने देश के लिए अपने समाज के लिए पूरी दुनिया के लिए सोचता है इसलिए इस उपन्यास से उम्मीद बनती है। युवाओं का वो समूह दुनिया को बदलना चाहते हैं, दुनिया जैसी है वैसी दुनिया उन्हें नहीं गवारा है, जहां जाति है धर्म है क्षेत्र है नहीं चाहिए उन्हें ऐसी दुनिया, नहीं चाहिए उन्हें धर्म की दुनिया। जब हम महामारी पर लिखते हैं किसी युद्ध पर लिखते हैं तो चीज बड़ी हो जाती है और उसके लिए धैर्य रखना पड़ता है। दीर्घ नारायण के लेखन पर मुझे भरोसा है, एक अधिकारी होने के बावजूद इनका जो मन है, जो इनकी संवेदनाएं हैं, लोगों के प्रति दुनिया के प्रति जो समझ है वो बहुत गहरी है और एक लेखक को गहरा होना चाहिए, उथले लेखकों से दुनिया भरी पड़ी है। यह उनका पहला उपन्यास है, अब वह कुछ ना भी लिखेंगे तब भी वह अमर रहेंगे।
डॉ दिनेश कर्नाटक ने उपन्यास शैक्षणिक दृष्टिकोण को सामने रखते हुए कहा कि उपन्यास में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने वाला एक सरकारी स्कूल गांधी हाई स्कूल केंद में दिखता है। इस जमाने में जब चारों ओर निजी स्कूलों का बोलबाला है, गांधी स्कूल के जेड सर युवकों में ससुप्त मानवीय मूल्यों को माँजने में लगे हैं। इससे युवाओं का विवेक मज़बूत होता है और वे बदलाव की दिशा में बढ़ने लगते हैं। वे स्वतंत्रता समानता और बंधुता के बीच संतुलन-समन्वय का प्रश्न सामने रख देते हैं। उपन्यास की शुरुआत में युवा वर्ग अपने-अपने जीवन यानि प्रेम-प्रणय, पढ़ाई-करियर आदि में मग्न हैं, परंतु कोरोना महामारी आते ही उनके अन्दर ससुप्त पड़ा सार्वजनिक विवेक प्रस्फुटित होने लगता है और कोरोना-मण्डली के साथ उपन्यास की दिशा रफ़्तार पकड़ती जाती है। उपन्यास में संतुलित विस्तार है और कई-कई उपाख्यान जैसे अयोध्या भूमि पूजन, गलवां घाटी का बलिदान आदि पूरी रोचकता के साथ प्रकट होते जाते हैं। प्रेमचंद के लेखन की गूंज इस उपन्यास में सुनाई पड़ती है। देश की राजनीति और लोकतंत्र जिस दिशा में आगे बढ़ रही है, उपन्यास उस दिशा में एक संकेत कर गया है।
उपन्यास की रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए लेखक दीर्घ नारायण ने बताया कि उसने 25 मार्च, 2020 की अर्ध रात्रि को उपन्यास लिखना आरम्भ किया था, जिस दिन भारत में लॉकडाउन लगा था। भले ही इसका कथानक कोरोना की नींव में खड़ा किया गया हो, पर वस्तुतः यह सम्पूर्ण भारतीय जन-जीवन और उसकी जीवन दृष्टि का उपन्यास है। जीवन के विविध रंग, उसकी जीवंतता और जीवटता विविध वर्णी पंख रूप में उपन्यास में समावेशित हैं। विशेषतः इस सदी की युवा पीढ़ी के अंदर अपने अस्तित्व की जो खोज-प्रक्रिया उभर रही है वह इस उपन्यास के मुख्य ‘विजन’ है।
समागम की अध्यक्षता कर रहीं डॉ दिवा भट्ट ने उपन्यास पर अपना मत रखते हुए बताया कि कोरोना काल-खंड पर इतनी वृहद् रचना को जीवंत बना देना एक बड़ी चुनौती भरा काम रहा होगा। इसमें मानव जीवन के अस्तित्व और उसके अर्थ को आगे रखा गया है, जिसमें निज जीवन से आगे की सोच समाहित है। इतने वृहद् उपन्यास को रोचक बनाने में लेखक सफल हुए हैं जो असाधारण कार्य है। लेखक की खुद की शैली है और भाषा में नया प्रयोग है। दिल्ली से रामघाट पैदल पलायन कर रहे प्रवासी मजदुरों के साथ चल रहे रामू के कथन, “घर के रास्ते कभी अंधकारमय नहीं होते” में डॉ भट्ट ने एक बड़ा जीवन-दर्शन का बोध होना बताया। कई दिनों की पैदल यात्रा से पस्त हो रहे साथियों के मनोबल को बनाए रखने हेतु रामू के वाक् “हम सभी रामघाट की ओर बढ़े जा रहे हैं तो लग रहा है उधर से रामघाट भी हमारी ओर बढ़े आ रहा है” को डॉ भट्ट ने एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अनुभूतियाँ बतायीं। समापन करते हुए उसने मंतव्य दिया कि शासन-प्रशासन के क्षेत्र से जुड़े होने के बावजूद लेखक एक संवेदनशील और चिंतनशील रचना कर पाने में सफल हुए हैं।
समागम के दूसरे सत्र में काव्य-गोष्ठी सम्पन्न हुई जिसका मंच संचालन अल्मोड़ा से आए श्री नीरज पन्त ने किया। त्रिभुवन गिरी, विमल सती, नरेन्द्र रौतेला, राजेन्द्र पन्त, नरेश डोबरियाल, अंकिता पंत, गीता पवार, सारिका वर्मा, मीना पाण्डे, शगुफ्ता, ज्योति साह, विनीता खाती, प्रीती पंत, सीमा भाकुनी, मीथिलेश, और डो . एन. पाण्डे ने स्व-रचित कविताओं का पाठ किया और श्रोताओं को बांधे रखा।