पुस्तक : परमवीर अल्बर्ट एक्का
समीक्षक : हिमकर श्याम
लेखक : संजय कृष्ण
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 158
मूल्य : 300/-
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हमारा इतिहास विषयक दृष्टिकोण, हमारे वर्तमान विषयक दृटिकोण को विकसित करता है। 18 वीं सदी के व्रिटिश विचारक एडमंड वर्क ने इतिहास के अध्ययन को बेहतर वर्तमान और बेहतर भविष्य के लिए आवश्यक माना है। इतिहास का तात्पर्य, अतीत में हुई घटनाओं की उत्पत्ति का अन्वेषण करना, उनका अंतर्सम्बन्ध समझना तथा उनकी एक-दूसरे से तुलना करना होता है। झारखंड के अमर शहीदों, वीरता पुरस्कार से सम्मानित योद्धाओं के जीवन और उनके साहस के विषय पर शोध एवं अध्ययन बहुत कम हुआ है। वरिष्ठ पत्रकार संजय कृष्ण इस कार्य को जिम्मेवारी के साथ निभा रहे हैं। वह झारखण्ड के इतिहास पर खोजी दृष्टि रखने वाले सजग पत्रकार हैं और लगातार शोध कार्य कर रहे हैं। उन्होंने कई बेहतरीन पुस्तकें भी लिखीं हैं जो मूलतः झारखंड की कला-संस्कृति, पर्यटन आदि जैसे विषयों से संबंधित हैं। कुछ पुराने अनुपलब्ध पुस्तकों का पुनर्मुद्रण भी कराया है।
संजय कृष्ण ने संजीव चट्टोपाध्याय के ऐतिहासिक यात्रा-वृत्तांत ‘पालामी’ का हिंदी में ‘पलामू’ नाम से संपादन किया है। साथ ही हिंदी के पहले जासूसी कथाकार गोपालराम गहमरी के संस्मरण, झारखंड के मेले, यात्राओं में झारखंड, गोपालराम गहमरी की प्रसिद्ध जासूसी कहानियाँ, गोपालराम गहमरी पर मोनोग्राफ, महावीर पत्रिका का संपादन-प्रकाशन, भवानी दयाल संन्यासी की पुस्तक सत्याग्रही महात्मा गांधी का संपादन-प्रकाशन किया है। हाल ही में उनकी दो किताबें ‘झारखण्ड के 50 क्रांतिकारी’ और ‘परमवीर अल्बर्ट एक्का’ प्रभात प्रकाशन से छप कर आयी हैं। संजय कृष्ण ने ‘परमवीर अल्बर्ट एक्का’ के जरिए 1971 युध्द के हीरो, बांग्लादेश बनाने में सहायक रहे जाबांज परमवीर अल्बर्ट एक्का की रोमांचक, प्रेरक कहानी, उनकी कुर्बानी से नई पीढ़ी को वाकिफ कराने की एक कोशिश की है। इस पुस्तक को उन्होंने बहुत शोध, गहन अध्ययन और परिश्रम के बाद तैयार किया है। यह पुस्तक अल्बर्ट एक्का के जीवन के कई अनकहे किस्सों पर प्रकाश डालती है, जिनसे जनसाधारण अभी तक अनभिनज्ञ रहा है।
इस पुस्तक में भूमिका के साथ सात आलेख हैं- ‘गुमला की कहानी’, ‘1971 का युद्ध’, ‘लांस नायक अल्बर्ट एक्का’, ‘गुरबत में बीता जीवन’, ‘44 साल बाद…‘ और ‘राँची में तो लग गई…’। प्रत्येक आलेख अल्बर्ट एक्का के संघर्ष गाथा का सजीव चित्रण करता है। इसके परिशिष्ट में भी आठ महत्वपूर्ण लेख हैं- ‘भारतीय सेना का कमाल’, ‘भारतीय सेना पर भरोसा’, ‘जो अब याद नहीं रहे’, ‘थाक-थाक तोमार घोड़ागाड़ी आमरा हेंटे इ जाबो’, ‘मुक्त क्षेत्रे युद्ध क्षेत्रे’, ‘मैं लुटी बार-बार…’, ‘लांस नायक अल्बर्ट एक्का’ और ‘मुक्ति-योद्धाओं के शिविर में’। अल्बर्ट एक्का के साथ युद्ध में शामिल सहयोगी के संस्मरण को भी परिशिष्ट में संलग्न किया है। इसमें डॉ शिवप्रकाश सिंह का एक लेख, धर्मवीर भारती का चर्चित यात्रा-वृतांत और एक रिपोर्ट भी है। उन दिनों चर्चित पत्रिका धर्मयुग में प्रकाशित प्रो विष्णु कांत शास्त्री के युद्ध भूमि से भेजे गए रपट को भी शामिल किया गया है।
लांस नायक अल्बर्ट एक्का, 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। तब वे महज 29 साल के थे। एकीकृत बिहार में मरणोपरांत परमवीर चक्र का सम्मान पाने वाले वे पहले वीर सपूत थे। झारखण्ड की राजधानी रांची के बीचोंबीच अल्बर्ट एक्का की आदमकद प्रतिमा लगी है। यह जगह अल्बर्ट एक्का चौक के नाम से प्रसिद्ध है। 1971 का युद्ध पाकिस्तान द्वारा अपने ही देश के एक हिस्से पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को प्रताड़ित एवं शोषित करने का नतीजा था। पूर्वी पाकिस्तान में 1971 की शुरुआत में हुक्मरानों के जुल्म इतने बढ़ चुके थे, कि वहाँ की जनता का इस जुल्म को सहना क्षमता से बाहर हो गया था और वह भारत की ओर पलायन करने लगे। लाखों बांग्लादेशी भारत भागकर भारत आ गए। मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय और त्रिपुरा जैसे राज्यों में क्योंकि ये राज्य बांग्लादेश के सबसे करीबी राज्य हैं। विशेष रूप से पश्चिम बंगाल पर शरणार्थियों का बोझ बढ़ने लगा और राज्य ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी सरकार से भोजन और आश्रय के लिये सहायता की अपील की। इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थियों के आने से हमारे देश में तरह-तरह की समस्याएं पैदा हुईं। इसके कारण युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई। इसने भारत को पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्रवाई शुरू करने के लिये प्रेरित किया। मार्च महीने में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उस समय के सेना प्रमुख को बुलवाया और कहा पाकिस्तान में घुस जाओ और आक्रमण कर दो। सेना प्रमुख थे सैम मानेकशॉ। सैम जानते थे कि युद्ध के लिए तैयारी पूरी नहीं है, ऐसे में उन्होंने इंदिरा को लड़ने के लिए मना कर दिया था। इससे इंदिरा गांधी नाखुश थीं, लेकिन सैम ने कहा, ‘अभी हमारी सेना की तैयारी नहीं है, यदि अभी युद्ध लड़ा तो हार जाएंगे’। इंदिरा गांधी को मना करने के सात महीने के बाद सैम मानेकशॉ ने युद्ध के लिए हामी भरी थी। उन्हीं के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ जीत हासिल की थी। पाकिस्तान ने भारत के सामने अपने 93,000 सैनिकों के साथ घुटने टेक दिए थे। यह लड़ाई जितनी बड़ी थी, उतनी ही बड़ी इसकी जीत की भूमिका है। 16 दिसंबर 1971 को भारतीय सेना के सामने पाकिस्तानी सेना के सरेंडर के साथ ही युद्ध में भारत को ऐतिहासिक जीत मिली थी। मात्र 13 दिनों के इस छोटे से युद्ध से एक नए राष्ट्र का जन्म हुआ। पाकिस्तान टूट गया और बांग्लादेश नाम से एक नए देश का जन्म हुआ।
1971 की भारत-पाकिस्तान की लड़ाई को आज भी स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है। इस युद्ध में शहादत पाने वाले वीर शहीदों से आज की युवा पीढ़ी अनजान है। सेना की इस ऐतिहासिक जीत में झारखंड के वीर सपूत अल्बर्ट एक्का ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। लांस नायक अलबर्ट एक्का ने असाधारण साहस का परिचय दिया था। गंगासागर की लड़ाई में उन्होंने जान हथेली पर रखकर अपना बलिदान देते हुए पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाए। इसी शौर्य के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र प्रदान किया गया था। उन्हें हासिल प्रशस्ति पत्र पर भारत-पाक युद्ध में उनकी वीरगाथा लिखी है। भारत सरकार ने साल 2000 में इस वीर सपूत की याद में एक डाक टिकट भी जारी किया था। दुख की बात है कि इतिहास की किताबों में इनके संघर्ष और बलिदान की गाथा नहीं मिलती। यह किताब अल्बर्ट एक्का की देशभक्ति, साहस और बलिदान की कहानी कहती है। इसमें उनके जीवन के अनछुए पहलुओं, उनके परिवार, गांव और समाज को भी चित्रित किया गया है।
अल्बर्ट एक्का का परिवार : झारखंड की राजधानी रांची से 160 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल गुमला जिले में पहाड़ों-जंगलों से घिरा अल्बर्ट एक्का का गांव जारी है। उनके पिता का नाम जूलियस एक्का और माँ का नाम मरियम एक्का था। जूलियस भी सेना में थे। जब वो रिटायर हुए तो, उनकी इच्छा थी कि उनका पुत्र अल्बर्ट भी सेना में भर्ती हो। एक्का बचपन से ही काफी साहसी थे। प्रारंभिक पढ़ाई गांव के ही सीसी पतराटोली व मिडिल स्कूल की। इसके बाद वह भारतीय सेना में शामिल हुए। 20 वर्ष की उम्र में अल्बर्ट ने 1962 में चीन के खिलाफ युद्ध में अपनी बुद्धि और बहादुरी का लोहा मनवाया था। दायित्व क्षमता, अनुशासन, कर्तव्य निर्वहन को देखते हुए उन्हें ट्रेनिंग में ही लांस नायक का पद हासिल हो गया। एक्का का विवाह 1968 में बलमदीना एक्का से हुआ। बलमदीना से शादी के बाद 1969 में एक बेटा हुआ, जिसका नाम विनसेंट एक्का है। लंबे संघर्ष के बाद विनसेंट को लिपिक की नौकरी लगी। पत्नी बलमदीना एक्का अब नहीं रहीं। अल्बर्ट एक्का की समाधि के पास ही उन्हें दफनाया गया है। चार पोते-पोतियां हैं, जो पढ़ रहे हैं। पुश्तैनी मकान धीरे-धीरे ढह रहा है और परमवीर का परिवार संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ रहा है।
गंगासागर का वह युद्ध : 1971 के युद्ध में एक्का के बटालियन को भी एक बेहद अहम गंगासागर के युद्ध में तैनात किया गया। वह 14 गार्ड्स के लांस नायक थे। गंगासागर ही वह इलाका था जहां से भारतीय सेना बांग्लादेश में आगे बढ़ी थी। गंगासागर पर कब्जा करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। एक्का के साहसिक शौर्य ने इस युद्ध में न केवल पाकिस्तानी सैनिकों को धूल चटाई बल्कि अपनी वीरता से देश के सैनिकों का मान भी बढ़ाया। युद्ध के दौरान परमवीर अलबर्ट एक्का ने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे। 20-25 गोलियां लगने के बाद भी एक्का ने पाक सेना के बंकर को उड़ा दिया था। बमबारी के साथ गोलियों की भारी बौछार का मुकाबला किया था। अल्बर्ट एक्का सैकड़ों भारतीय सैनिकों को बचाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। साथ ही उनकी बटालियन के सिर विजयश्री का सेहरा बंधा। झारखण्ड के वीर सपूत एक्का का अंतिम संस्कार अगरतला में किया गया था और वहीं उनकी समाधि स्थल बनाई गई थी। वर्ष 2015 में अल्बर्ट एक्का की शहादत के 44 साल बाद समाधि स्थल से वहां की मिट्टी उनके गांव पहुंची। अंडमान निकोबार के एक द्वीप का नाम परमवीर अल्बर्ट एक्का के नाम पर रखा गया है।
इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों और इतिहास पढ़ने वाले छात्रों के लिए सहेजने लायक है। इस पुस्तक से गुजरते हुए पाठक उस समय के कराह, द्वंद्व, संघर्ष और नरसंहार को भीतर तक महसूस कर सकेंगे। एक ही धर्म के माननेवाले कैसे एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे। दुनिया में यह अकेला युद्ध था, जिसकी पृष्ठभूमि में धर्म नहीं, भाषा थी। धर्म के आधार पर बँटा यह देश भाषा के कारण अलग हो गया। इस युध्द के जाबांज योद्धा अल्बर्ट एक्का की कहानी प्रेरणादायक है। सुनी-अनसुनी कथाओं और घटनाओं को शब्दों में पिरोकर एक किताब का रूप दिया गया है। प्रत्येक देशवासी, विशेषकर झारखंड के युवाओं को इस किताब को अवश्य पढ़ना चाहिए।
हिमकर श्याम, राँची