पुस्तक – ‘ हिन्दुत्व : एक विमर्श ‘
लेखक: इंदुशेखर तत्पुरुष
दृष्टि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य: 250
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यह भारतवर्ष की विशेषता है कि विविध विषयों पर यहां युग – युग से खुला विमर्श होता रहा है। ‘ विमर्श ‘ करना हमारे यहां ‘ फैशन’ नहीं बल्कि हमारी ‘ संस्कृति ‘ रही है। सदियों से लेकर आजतक हम विभिन्न मुद्दों पर देशहित, समाजहित एवं विश्वहित के लिए चिन्तन – मनन एवं विवेचन करते आए हैं। इंदुशेखर तत्पुरुष लिखित यह पुस्तक भी विवेचन / विमर्श की अगली कड़ी के रूप में देखी जा सकती है।
प्रश्न यह भी उठना स्वाभाविक है कि सदियों से हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दुस्तान शब्द को लेकर विवेचन/ विमर्श होते रहे हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे परिभाषित कर दिया है तो फिर इन बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए एक अलग पुस्तक की क्या आवश्यकता थी ? निश्चय ही अभी तक हिन्दू, हिन्दुत्व के भावार्थ को हमने कहीं इस प्रकार उलझा रखा है कि उसे सुलझाने के साथ तत्पुरुष जी को आगे आना पड़ा है। बहरहाल, पूरी पुस्तक 18 शीर्षकों में बंटी हुई है। भारतीयता, राष्ट्रबोध, संस्कृति, साहित्यबोध, समासिक संस्कृति,, भारतीय राष्ट्रीयता आदि पर विद्वानों के विचार के साथ- साथ लेखक ने अपने विचारों एवं निष्कर्षों से विषय की गुरुता को समान्य समझ तक पहुंचाने का प्रयास किया है।
सर सैयद अहमद खां ने सन 1884 ई में कहा था कि – ‘ हिन्दुस्तान का प्रत्येक निवासी अपने को हिन्दू कह सकता है। मुझे खेद है कि आपलोग मुझे हिन्दू नहीं समझते हालांकि मैं भी हिंदुस्तान का ही निवासी हूं।’ आशय स्पष्ट है कि सर सैयद मुस्लिमों को भी हिन्दू कहे जाने के पक्ष में थे। और तब उनके अनुसार अन्य धर्मावलंबी जो हिंदुस्तान में रहते हैं, हिन्दू कहे जाएंगे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हिन्दुत्व संबंधी विचारों को भी लेखक ने यहां स्पष्ट किया है जिससे ज्ञात होता है कि इस संबंध में आर एस एस और सर सैयद के विचार आपस में मिलते हैं। आर एस एस की नीतियों से अनभिज्ञ लोगों ने अपने राजनीतिक एजेंडे के तहत यह भ्रम फ़ैला रखा है कि हिंदुस्तान केवल हिंदुओं के लिए है।
इसी के समानांतर राष्ट्रीयता शब्द को भी लोगों ने काफ़ी भ्रमपूर्ण अर्थ लगाया। भारतीय राष्ट्रीयता को जर्मनी और इटली की नाजी और फासीवादी शक्तियों से जोड़कर देखा जाने लगा। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रीयता को अंतरराष्ट्रीयता का बाधक माना। गांधीजी इसके विपरीत भारतीय राष्ट्रीयता को किसी प्रकार से बाधक नहीं मानते थे।
आज की समाज व्यवस्था राजनीति द्वारा संचालित हो रही है। वोट की राजनीति हमें बांट रही है, धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर। राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को फासीवाद के रूप में देखने का षड्यंत्र जोरों पर है।
सारांश यह है कि परस्पर विरोधी विचारधाराओं का उल्लेख करते हुए आलोच्य पुस्तक में तत्पुरुष जी ने शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के प्रति अपनी आस्था प्रकट की है। अपने राष्ट्र को समझने के लिए यह पुस्तक काफी उपादेय एवं आवश्यक है।
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हरेराम पाठक, दिल्ली