*1.*
छोड़ कर हम प्रेम गाथा अब सितम को होड़ दें।
इन्क़लाबी हो क़लम या शायरी ही छोड़ दें ।
इस सियासत ने हमारी थालियाँ ही छीन लीं,
रोटियों के हक़ की ख़ातिर बंदिशें सब तोड़ दें।
फिर किसी मँझधार में कश्ती न फँस जाए कोई,
हाथ में पतवार ले तूफान के रुख मोड़ दें ।
झोपड़ी को बेदख़ल कर हैं खड़े जितने महल,
हाथ में लेकर हथौड़ा वो कँगूरे फोड़ दें।
हम तुम्हारा हाथ थामें तुम बग़ल के हाथ को,
मिल के सारे हाथ इस हिन्दोस्ताँ को जोड़ दें।
*2.*
एक डाल पर फूल कई हैं रंगत सबकी जुदा-जुदा ।
बिकते हैं हर जगह खिलौने क़ीमत सबकी जुदा-जुदा ।
पतवारों के दम पर भिड़ते बहुत नाख़ुदा सागर से,
हार-जीत लहरें तय करतीं हिम्मत सबकी जुदा-जुदा ।
हर दर पर सर झुका रहे हो हर दर साथ नहीं देता,
दर दर जाकर देख लिया है रहमत सबकी जुदा-जुदा ।
कहीं लुटी तो सुर्ख़ हो गये हफ्तों तक अखबार सभी,
कहीं लुटी चर्चा न हुई, क्या अस्मत सबकी जुदा-जुदा ?
खेत लबालब कहीं भरे ‘रवि’ कहीं ज़मीनें प्यासी हैं,
काली घटा बरस के निकली नेमत सबकी जुदा-जुदा।
*3.*
अब कहाँ वो ख़त – क़िताबत का ज़माना रह गया ।
ज़िक्र भर को सिर्फ़ अब रिश्ता पुराना रह गया ।
बोल वो मिसरी के जैसे गुम कहाँ पर हो गए,
सच के नग्मे खो गए झूठा तराना रह गया ।
बुलबुलों के आशियानों पर खड़ा सैय्याद है,
अब चमन में क़ातिलों का ही ठिकाना रह गया ।
डूबने वाले को अब बढ़ कर सहारा कौन दे,
आज मक़सद डूबते को ही डुबाना रह गया ।
डालता कोई नहीं ख़ुदकी ख़ताओं पर नज़र,
ग़ैर के ऐबों पे ही उँगली उठाना रह गया।
चन्द लफ़्ज़ों में कोई पढ़ ले मेरे क़िरदार को,
ज़िंदगी जीने को ‘रवि’ अब ये बहाना रह गया ।
*4.*
तुम्हें कोई ग़ज़ल कह दूँ या तुमको गीत समझूं मैं ।
तुम्हें कविता कहूँ कोई या मन का मीत समझूं मैं ।
तुम्हारे लट झटकने से बदल जाता है झट मौसम,
दुपहरी जेठ की तपती शरद की शीत समझूं मैं ।
तुम्हारी सुरमयी आँखों में ढलती शाम का डेरा,
उठें जब मदभरी पलकें प्रकृति की जीत समझूं मैं ।
नज़र भर देखने से ही थकन मिट जाये अंतस की,
सुमन की पंखुड़ी जैसे अधर नवनीत समझूं मैं ।
गगन के दमदमाते ‘रवि’ सरीखा तेज मुखड़े पर,
खनकते पायलों की धुन मधुर संगीत समझूं मैं ।
*5.*
झूठ पर उँगली उठाने को कहूँगा
आइने से सच दिखाने को कहूँगा ।
जिनकी आँखें मुद्दतों से ग़मज़दा हैं,
उनसे हँसने मुस्कुराने को कहूँगा ।
नफ़रतों का शोर होता हो जहाँ पर,
प्रेम का दीपक जलाने को कहूँगा ।
आफ़तों की आँधियों में घिर गया हो,
घर पड़ोसी का बचाने को कहूँगा ।
जब तरक्की की कोई बातें करेगा,
भूख को पहले मिटाने को कहूँगा ।
छा गया जन्नत में सैलाबी अँधेरा,
हौसलों से जगमगाने को कहूँगा ।
आसमाँ को चाँद ने धोखा दिया गर,
‘रवि’ से मैं अम्बर सजाने को कहूँगा ।
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रवि प्रताप सिंह
राष्ट्रीय अध्यक्ष
‘शब्दाक्षर’