सांवले चेहरे की हँसी
दीवारों पर पक्के ईंटों के रंग का फैलाव.
असमतल सीढ़ियों के नीचे ठहरी नालियां.
मटमैले आसमान का थोड़ा सा हिस्सा …
आते जाते इंसानों के बीच
पीठ पर बस्ता लादे
एक स्कूली लड़की का प्रवेश.
नीली स्कर्ट घिसी पीटी हरी कमीज ..
दो चुटिया कन्धों पर ठहरी..
अनायास उसकी नज़र मुझसे मिलती है..
आदतन मैं मुस्कुरा देता हूँ..
और जवाब में वो मुस्कुराती चलती
गली की टक्कर से ओझल..
सांवले चेहरे की हंसी ठहर जाती हैं वहीं..
..यहाँ पत्थर बाज़ी हुई थी
गोलियां हवा में थी अब भी.
दरवाजे तोड़े गये थे.घर जले थे
हवा में काले धुएं के कण बरक़रार .
रह रह धमाके झेल रहे
दीवारों के पीछे लोग
वक़्त बीतने का इंतज़ार कर रहे थे..
दंगाईयों के दफ्तर ने सुनिश्चित कर रखा था –
अमन चैन नहीं ही रहने चाहिए…
नहीं रहनी चाहिए
नाले की ऊपर सीढ़ी पर आरामतलब औरतों की गप्पें.
लडकें कैसे शांति से रेहड़ी पर पानी के डब्बों संग दूकान लगाने जा रहे हैं!! ..
फैशन की दुकानों की रंगीनियत में खिले चेहरे उनके स्वाभाविक शत्रु.
….आज लड़की की हंसी सब पर भारी थी.
हवा में टंगी सांवले चेहरे की हंसी
जैसे उड़ते पतंग की डोर थाम
चमकता सितारा टंग गया हो
चमकता और चमकाता…
पुल वजीराबाद
अँधेरे के आगोश में रहता है
यमुना का पानी और रेतीला विस्तार
एकाध बार
चंचल जल तरंगें
चन्द्र किरणों से कर सांठगांठ
चमचमा उठती हैं
अँधेरे में
कितना पानी बह चुका
…कोई नहीं जानता.
हवाओं में
अफवाह है कि
मरने के बाद तमाम आत्माएं
यमुना के काले जल में
जलक्रीड़ा करती हैं
उत्सव खूब जमता है
नृत्य होते हैं और \संगीता की मारी हुई तान गूंजती है
बहुत दूर से आती
गुरूद्वारे की सफ़ेद रोश्ने की परछाई
नहीं दिखा पाती
इंसानी आँखों को
दुर्घटना में मरी
मार दी गई बलात्कृत आत्माएं
यह झूठ नहीं है
सच! उतना ही
जितना यह कि शहर आज बम फटे हैं
गोलियां चली हैं और
आत्महत्या वाली सूची में
सुबह मेरा नाम नहीं होगा!
हकीकत यह है कि
पुल का हर हिस्सा
सुबह और शाम
गुजरने वालों के लहू से रंगा है
पुल की हर डीअर मारी हुई इच्छाओं
सूनी आँखों
इंसानी टुकड़ों पर है टिकी.
सुबह और शाम
गुजरने वाला हर एक
और फिंचता है !
और निचुड़ता है!
और सूखता है !
इस तरह जिंदा है
पुल वजीराबाद!
मैं
ठहरी बसों की कतार
कर पार
आगे बढ़ता हूँ
नृत्यरत आत्माओं की याद हो आती है
आत्महत्या को उद्धत लोग
घसीट लेना चाहते हैं
मुझे भी …
कोई है
जो कानों में पिघला मंत्र डालता है
… मर जाओ
सपनों को मार डालो
सपना कुछ नही
सिर्फ गहराते अँधेरे का आभास है
कुछ नहीं कर पाओगे तुम
कुछ नहीं कर पायेगा कोई …
सब के सब
इतिहास के गड्ढों में फंसे हैं
गाँधी! तिलक ! भगत सिंह!
विचार कहीं नहीं हैं!
है सिर्फ बम और बंदूकें
इन्हीं की भाषा है कारगर
… और जिस सुबह की लाली
तुम देखना चाहते हो
बम और बंदूकों का धुआं
उसे सात सात समुद्रों के नीचे दबा चुका है …
इनकार करने पर
गाल पर पड़ते हैं तमाचे!
अदृश्य शक्ति कोई
धकेलना चाहती है
अँधेरे में नृत्यरत आत्माओं के बीच!
दरअसल
वे आत्माएं नहीं
मरी हुई इच्छाओं का
पाताल छूता दलदल है
ढोंग का कचड़ा है
और सभ्यता की गर्त है …
हर शाम
बाईपास से ससरती है
रोशनियों की कतारें
बस्तियां आबाद हो उठती हैं
बसें रुक जाते हैं
और
अँधेरे में
बहता जाता जमुना का जल
रोज ही
उलझता
अधनुचा
अकुशल ….. मैं!
कविताएं लिखती छात्राएं
क्लास की खिड़कियाँ और दरवाजे खुले होते हैं
बेरोकटोक आवाजाही करती हवाएं.
डेस्क और बेंच की ओर मचलते से हरियायी पत्तों वाली डालें
गलियारे गहन गंभीर शब्दों की चहलकदमी से गूँजते.
शब्दों को जन्म देते शब्द
विचारों से प्रेरित होती विचारों की गंगा – जमुनी धाराएँ
रचना रचना को उत्प्रेरित करती.
खुली आँखें , सजग और चौकस कान
ग्रहण करती हुई कविताओं के मर्म.
कविताओं की व्याख्याओं – चर्चाओं से
भाव- धाराएँ एकदम से निकलते जल स्त्रोत बन जाते..
देखे गये दुःख भोगे गये तिरस्कार .
मां के चेहरों की रेखाएं –
हाट – बाज़ार करती माँओं के मुड़े तुड़े चंद नोट.
बच्ची का हाथ थाम स्कूल जाती माँएं.
दूध की कुछ बूंदों के लिए संघर्ष करती माँएं.
माँएं बेटियों का इंतज़ार करती हैं ..
कुशल रहने की कामना..
और कुछ नहीं तो पूजा पाठ ही सही
किसी देवता पीर औलिया की मनौती ही सही..
यूँ ही छात्राओं की पहली कविता मां पर नहीं होती..
मटकों में ढँक कर रखे गये गुप्त खजाने की मानिंद
आर – पार हिलोरे लेती नदी बाँध तोड़ती है..
..इस तरह कविता कविताओं को जन्म देती है
रचना रचनाओं को ..
प्रेम और साहचर्य का दरिया बह निकालता है..
एक नये तरह का विश्वास जन्म लेता है
जन्म के बाद की पहली किलकारी.
महाकाव्य का एक नया सर्ग.
ऐसे ही मौसम में मगहर
एक बड़ा सा तालाब.
ख़ामोशी का रंग ओढ़े
बाहर – भीतर पानी का विस्तार…
गुजरते जा रहे पानी के बड़े बड़े टुकड़े
कुछ फूस के घर
बहुत दूर नज़र आ रही एक बस्ती ..
पेड़ों की झुरमुटों
पानी के इलाकों के बीच से गुजरती एक पगडण्डी .
बनारस को धता कर
कबीर यहाँ आये होंगे
क्या ऐसे ही मौसम में आये होंगे
चौमासा बीत जाने के मुहूर्त में
आदतन परम्पराओं को अंगूठा दिखाते ?
इसी पगडण्डी से गुजरे होंगे ?
अकेले तो पक्का नहीं रहे होंगे –
सत्संग की आदत जो ठहरी ..
रेल शताब्दियों की मानिंद गुजर रही.
शताब्दियों के झरोखों से दिख से रहे
ठीक से न पकड़ में आने वाले दृश्य —
कबीर तेज कदमों से पगडंडियां नापते हुए.
संग धूल धूसरित झीनी झीनी चदरिया ताने लोग.
न्याय नीर क्षीर विवेक की तरह धवल
श्वेत हंस मुक्त आत्माओं की तरह उड़ान भरते.
हँसता हुआ चाँद..
कबीर के चेहरे पर मुस्कान.
ये ठगों -पाखंडियों से मुक्त धरती का अंश.
घनघोर बारिश !
बिजली की भयंकर कड़क में
एक पांत में बैठ
सत्संगी साथ भोजन कर रहे ..
कबीर के चेहरे पर मुस्कान.
बहुत मुफीद धरती है ये.
ध्यानमग्न से खूब बड़े बड़े पेड़
पंछियों के घोंसले
चूजे माँओं के इंतज़ार में शोर मचाते
सुंदर अंदाज़ देते
वृक्षों की उम्रदराज़ डालें , पत्ते , जटाएं
हवा में लटक गयी है
हँसते बच्चों की सी शक्लें.
हल चलाता किसान कुछ गा रहा –
मृत्यु गीत नहीं
रसीली भुरभुरी माटी की खुशबू.
मरने के लिए एकदम सही जगह.
ऐसी जगह देह का अंत किया जा सकता है
शरीर को बीज की तरह रोपा जा सकता है.
इस जमीन से उग सकते हैं
प्रेम के ढाई आखर.
ज्यों की त्यों चदरिया धरी जा सकती है
मौलवी – पंडों के आतंक की जगह नहीं ये ..
यहाँ सिर्फ पनिहारिनें होंगी
लयबद्ध अंदाज़ में
औंधे कुएं से डोल खींच रही ..
शताब्दियों की गति से भागती रेल
झुटपुट से दृश्य दिखाती
मगहर से गुजर जाती है ..
रेल की बिछी पटरियां
साफ़ सुथरी काया बन
आगे बढ़ती चली जाती है ..
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परिचय
मनोज मल्हार
मूलतः समस्तीपुर , बिहार से .
आलोचना, हंस, वाक्, कथादेश, अनभै सांचा, परिंदे , विश्व रंग , जनसत्ता, प्रभात खबर , समालोचन , जानकी पुल, जनचौक.कॉम इत्यादि पत्र पत्रिकाओं/ ब्लॉग में पुस्तक समीक्षा, फिल्म समीक्षा , कवितायें एवं लेख प्रकाशित
वामपंथ की राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी .
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘बिहार का सामाजिक- सांस्कृतिक संक्रमण और हिंदी की साहित्यिक अभिवृत्तियां (1990 – 2005)’ विषय पर पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त, 2011
फिल्म एवं नाटक के निर्माण और अध्ययन में अभिरुचि. यात्राओं का शौक़ीन.
सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरु कॉलेज में अध्यापन
संपर्क manoj.hrb@gmail.com 8826882745