(1)
ज़रूरी जितना है उतना बना हुआ है वो
मेरा सफ़र है तो रस्ता बना हुआ है वो
अंँधेरी रातों में ज्यादा चमकने वाला कुछ
मेरी ही आंँखों का सपना बना हुआ है वो
कोई उम्मीद जहांँ आज भी बसेरा है
उजाड़ शहर में घर- सा बना हुआ है वो
वो ख़्वाब मर चुका है मुझमें लोग कहते हैं,
सचाई ये है कि ज़िन्दा बना हुआ है वो
बुरे को कौन बुरा कह के अपनी शामत ले
सो ऐसे लोगों में अच्छा बना हुआ है वो
उसे मैं भूल चुका हूंँ ये कैसे कहता जब
मेरी ही याद का नगमा बना हुआ है वो
थकन से प्यास से मरना ही था, गनीमत है
बला की धूप में साया बना हुआ है वो
कहांँ नहीं है अभी भी, तभी तो लगता है
मेरे वजूद का हिस्सा बना हुआ है वो
नज़र तो आए कहीं ढूंँढ़ते हुए मुझको
मुझी में मैंने ये माना बना हुआ है वो
(2)
नदी के अगर बहते पानी ने पूछा
मुझे यूंँ लगा ज़िंदगानी ने पूछा
तनों का रहा पूछता हाल सूरज
जड़ों को मगर खाद पानी ने पूछा
अमीरों की खातिर अमीरों के मेले
ग़रीबों को कब राजधानी ने पूछा
बिका मोलभावों में ईमान दिल का
यूँ बाज़ार की बेईमानी ने पूछा
कलम चल पड़ी मेरी फिर से यहांँ जब
कहांँ तक है चलना कहानी ने पूछा
जो आनी है उस मौत पर क्या बहस है
जो है कितनी है एक ज्ञानी ने पूछा
कोई मिल गया है ठिकाना मैं खुश हूंँ
मुझे राह चलते वीरानी ने पूछा
(3)
एक उजाला रह जाना है क्या कम है
हमने जो मन में ठाना है क्या कम है
हंँसने से मुट्ठी में आ जाता है वक़्त
रोते-रोते यह जाना है क्या कम है
बच जाता है कुछ सब कुछ जाने के बाद
यह जो थोड़ा – सा पाना है क्या कम है
उम्मीदों की धरती पर ही उड़- उड़कर
मेरा जो वापस आना है क्या कम है
कितने आंँसू कितनी चीख़ों में बदले
मुझमें दुख का पैमाना है क्या कम है
मैंने अपने जीवन में जो कुछ भी है
सब कुछ तेरा ही माना है क्या कम है
इन गहरी ख़ामोशी की आवाज़ों से
यह जो मेरा बतियाना है क्या कम है
(4)
कैसे कहूंँ कि दर्द में डूबा नहीं कभी
बस ये हुआ कि हौसला टूटा नहीं कभी
यादों के धुंँधलके में भी सूरज बना रहा
मैं अपने घर का रास्ता भूला नहीं कभी
कैसी फ़सल हुई है तुम्हें क्या बताएंँ जब
बादल खुशी का खेत में बरसा नहीं कभी
इक आम रास्ता है जिधर सोचता हूंँ मैं
क्या ख़ास बात है कि वो खुलता नहीं कभी
उतरा हूँ एक ऐसी नदी के बचाव में
बहते हुए जिसे यहांँ देखा नहीं कभी
उंँगली रखी है उसने मेरे होठों पे’ मगर
आया है उसका सामने चेहरा नहीं कभी
ऐ ज़िन्दगी मैं तुझसे बिछड़नेके बावजूद
महसूस कर रहा हूंँ अकेला नहीं कभी
(5)
सच कहूंँ तो उन उजालों पर बहस
इक अंँधेरी रात- सा किस्सा है बस
फैसले में क्यों है मेरे सिर गुनाह
दिल से जाती ही नहीं है ये खुनस
एक- सा ही मेरा दोनों को सलाम
ज़िन्दगी जब मौत से है एकरस
और कसना चाहता हूंँ बेबसी
हाथ में है ख़ामोशी के पेंचकस
मौत से ऊंँचे हैं ये दुख के शिखर
आ तुझे दिखलाऊँ मन का एटलस
मेरे आंँसू आज भी खारे हैं पर
उनकी खुशियांँ कितनी मीठी और सरस
इन खिलौनों को दिखा बच्चों को तू
मेरे मालिक इनसे मुझको तो बकस
घुल गया है रक्त में होकर ज़हर
एक डर का एक अद्भुत काव्य रस
(6)
जो नहीं आया नज़र दिल में रहा
एक ऐसा भी सफ़र दिल में रहा
दिन का सूरज डूबता जाता हुआ
इक समंदर में उतर दिल में रहा
जितनी मीठी है सियासत की ज़ुबान
उतना ही मीठा ज़हर दिल में रहा
बदहवासी में भी मुझको याद है
दो घड़ी मैं भी ठहर दिल में रहा
मुर्दनी थी मुर्दनी है हर तरफ़
फिर भी इक ज़िंदा शहर दिल में रहा
मेरी बातों से धुआंँ- सा तो उठा
आग का कुछ तो असर दिल में रहा
था सुबह के रंग में डूबा हुआ
रास्ता जो रात- भर दिल में रहा
(7)
मैं सुनता हूंँ ये दूर तक बोलती है
अकेले सफ़र में सड़क बोलती है
नई बिल्डिंगों में लगी हो जो तुलसी
पुराने घरों की महक बोलती है
कृपादृष्टि पाने को आतुर प्रजा से
सियासत की केवल ठसक बोलती है
भले मुंँह से बोले न बोले कभी पर
उदासी हमेशा छलक बोलती है
अगर दृष्टि हो एक पाषाण में भी
किसी देवता की चमक बोलती है
यहाँ मेरे जीवन के आंँगन में कोई
मेरे मन की मैना फुदक बोलती है
सदी बीसवीं में तो थोड़ी हिचक थी
ये इक्कीसवीं बेहिचक बोलती है
(8)
सब कुछ बिखर गया है सँवारा नहीं गया
अपना ही बोझ सिर से उतारा नहीं गया
उस घर से कितनी यादें जुड़ी हैं मैं क्या कहूँ
जिस घर में लौटकर मैं दुबारा नहीं गया
कुछ भीगे पल रहे हैं हमेशा हमारे साथ
मौसम हमारी आंँखों का खारा नहीं गया
माना बहुत है सस्ता ये सौदा जमीर का
जीते जी मुझसे मौत से हारा नहीं गया
गर्माहटें नहीं तो भी दिल के अलाव से
बुझती उदासियों का सहारा नहीं गया
अपने दुखों की राख से जनमा हूंँ बार-बार
लपटों के हाथ मैं कभी मारा नहीं गया
होने लगी जो भोर तो ग़ज़लों ने दी चहक
हालात से मैं करके किनारा नहीं गया
(9)
*वो जो अपना- सा लगता है*
*क्या बतलाऊंँ क्या लगता है*
*जब भी झुकता है जाने क्यों*
*वो मुझसे ऊंँचा लगता है*
*इतना सादापन है उसमें*
*जैसा है वैसा लगता है*
*एक अधूरा सपना ही तो*
*नींदों में पूरा लगता है*
*कोई अंत नहीं है दुख का*
*हर दुख रोज नया लगता है*
*दिल की बेचैनी का बादल*
*आंँखों से बरसा लगता है*
*किन फूलों की खातिर तू भी*
*काँटों में उलझा लगता है*
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संक्षिप्त जीवन परिचय
विनय मिश्र
जन्मतिथि :12 अगस्त 1966, देवरिया, उ.प्र.
पिता का नाम: श्री चंद्रशेखर मिश्र
मांँ का नाम: श्रीमती उर्मिला मिश्र
काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में पीएचडी (सन् 1996)
प्रकाशन:-
कृतियांँ:
– ग़ज़ल संग्रह “सच और है” सन् 2012 में प्रकाशित
– गीत संग्रह “समय की आंँख नम है” सन् 2014 में प्रकाशित
– कविता संग्रह “सूरज तो अपने हिसाब से निकलेगा” सन् 2015 में प्रकाशित
– दोहा संग्रह “इस पानी में आग “सन् 2016 में प्रकाशित
– ग़ज़ल संग्रह “तेरा होना तलाशूँ” सन् 2018 में प्रकाशित
– ग़ज़ल संग्रह “लोग ज़िंदा हैं” सन् 2021 में प्रकाशित
– ग़ज़ल संग्रह ‘ ज़िन्दगी आने को है ‘ सन् 2023 में प्रकाशित
संपादन
– “दीप ज्योति” पत्रिका के तुलसी विशेषांक का सन् 2001 में संपादन
-“शब्द कारखाना” पत्रिका के समकालीन हिंदी ग़ज़ल पर केंद्रित विशेषांक का सन् 2007 में संपादन
– “पलाश वन दहकते हैं” स्वर्गीय मंजु अरुण की रचनावली का सन् 2009 में संपादन
– “जहीर कुरेशी : महत्व और मूल्यांकन” का सन् 2010 में संपादन
– “अलाव ” पत्रिका के समकालीन हिंदी ग़ज़ल की आलोचना पर केंद्रित विशेषांक का सन् 2015 में विशेष संपादन सहयोग
– “बनारस की हिंदी ग़ज़ल” का सन् 2018 में संपादन
– वरिष्ठ कवि आलोचक नचिकेता द्वारा संपादित 8 प्रतिनिधि ग़ज़लकारों के महत्वपूर्ण संग्रह “अष्टछाप” में शामिल
– वरिष्ठ जनधर्मी आलोचक डॉ. जीवन सिंह की पुस्तक “आलोचना की यात्रा में हिंदी ग़ज़ल” में प्रतिनिधि ग़ज़लकार के रूप में शामिल
– लब्धप्रतिष्ठ आलोचक डॉ जीवन सिंह द्वारा दस प्रतिनिधि ग़ज़लकारों की संपादित पुस्तक – – “दसखत “में शामिल
– “संवदिया ” समकालीन ग़ज़ल के युवा लेखन केंद्रित विशेषांक का सन् अगस्त 2021 में संपादन
अन्य संकलनों में रचनात्मक उपस्थिति
ग़ज़ल संदर्भ – ‘ग़ज़ल दुष्यंत के बाद’, ‘हिंदी ग़ज़ल की नयी चेतना’, समकालीन हिंदी ग़ज़लकार :एक अध्ययन (प्रथम खंड), ‘समकालीन हिंदी ग़ज़ल संग्रह’ आदि अनेक संग्रहों एवं ग़ज़ल विशेषांकों में सहस्राधिक ग़ज़लें प्रकाशित
गीत संदर्भ- ‘सहयात्री समय के’, ‘शब्दायन’ , ‘गीत वसुधा’ , ‘समकालीन गीतकोश’, ‘नवगीत कोश’, ‘नयी सदी के नवगीत’, ‘नवगीत के नए प्रतिमान’ , ‘नवगीत:नई
दस्तकें’, ‘नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्य बोध’ जैसे अनेक महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकों में अनेक समकालीन गीत, नवगीत और जनगीत प्रकाशित
दोहा संदर्भ – ‘समकालीन दोहा कोश’ में चयनित दोहे प्रकाशित
पत्र पत्रिकाएंँ
नया ज्ञानोदय, आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य,हंस, वागर्थ ,शब्दिता, समावर्तन,कथादेश, युग तेवर,ककसाड़़,मधुमती, साहित्य अमृत, साक्षात्कार, चिंतन दिशा,बया,बनास,अनभै,अक्षत, संवदिया, शब्द कारखाना, समय के साखी, प्रेरणा,पहला अन्यथा,अग्रिमान, अक्सर,भाषा, समकालीन अभिव्यक्ति, इंद्रप्रस्थ भारती,अविलोम, गीत गागर, अभिव्यक्ति, हिन्दी जगत, आधारशिला, कादम्बिनी, नवनीत, कृति ओर, संबोधन,अलाव, आकंठ ,पाठ, सेतु, प्रतिश्रुति, अभिनव कदम, सबके दावेदार,मरु गुलशन,जनपक्ष,कथाबिंब,समन्वय,संवेद,भाषा-सेतु, अनभै साँचा, सार्थक,नए पाठक, शुक्रवार,शोध दिशा,आरोह अवरोह,शिवम्,हिमप्रस्थ,गूँज, अद्यतन, अभिनव प्रयास,उद्भावना,लोक गंगा,सृजन लोक, पुनः, ग़ज़ल के बहाने, ग़ज़ल गरिमा, युगीन काव्या,शेष, समांतर, अभिनव प्रसंगवश,आर्द्रा, शब्द, तटस्थ,नई ग़ज़ल, समकालीन स्पंदन, अक्षर पर्व,समर लोक आदि अनेक पत्रिकाओं और जनसत्ता, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा,आज आदि अनेक समाचार पत्रों में कविताएंँ एवं आलेख प्रकाशित
अन्य
‘समकालीन ग़ज़ल और विनय मिश्र'(सन् 2020)
– संपादक – डॉ लवलेश दत्त
‘विनय मिश्र का रचना कर्म: दृष्टि और मूल्यांकन'(सन् 2023)
– संपादन – श्रीधर मिश्र
संप्रति राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अलवर (राजस्थान) के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत
वर्तमान पता-
बी – 161
हसन खाँ मेवाती नगर ,
अलवर ,राजस्थान, पिन 301001
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