– रेणु नियतिवादी नहीं थे :
हिन्दी साहित्य के जिन थोड़े से रचनाकरों में शास्त्रीयता है, उनमें रेणु का नाम प्रमुख है, जिनकी रचनाएं हिन्दी साहित्य की धरोहर हैं। अतः नए रचनाकारों को रेणु से प्रेरणा लेनी चाहिए किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि रेणु की नकल की जाए। रेणु महान रचनाकार इसलिए नहीं बने कि उन्होंने किसी दूसरे रचनाकार के शिल्प और कथ्य की नकल की, बल्कि अपनी रचनाओं का स्वप्नलोक जो रेणु ने खड़ा किया, उनमें निजी अनुभूतियों का रंग -रूप और अपने प्रतिभा की कारीगरी है।
वस्तुतः रेणु के जन्मदिन 4, मार्च के उपलक्ष्य में, लेखक प्रेमकुमार मणि के द्वारा रेणु को याद करते ‘रेणु का लोक’ शीर्षक से एक आलेख लिखा गया है। इस लेख में जहाँ उन्होंने रेणु को एक उत्कृष्ट रचनाकार माना है, वहाँ मेरी कोई आपत्ति नहीं किंतु उनकी महानता सिद्ध करने के लिए जो तर्क दिए हैं, मेरा सवाल उनपर है। रेणु इसलिए महान नहीं हैं कि वे समाजवादी थे। विचारधारा की विवेचना अलग विषय है, रेणु महान इसलिए हैं कि उनकी रचनाएं महान हैं।
जिस समाज में हम पैदा लेते हैं, उनसे कुछ शील-अश्लील का बोध, कुछ व्यावहारिक ज्ञान और कुछ संस्कार मिलते हैं, किंतु निजी गुण और प्रतिभा इनसे नहीं मिलती।
उदाहरण के लिए, ‘ एक दशरथ के विपुल कुमारा, पृथक-पृथक गुण शील अपारा’। एक और उदाहरण सिद्धार्थ और देवदत्त का है। राज पुत्र होते हुए देवदत्त में बहेलिए का गुण आया किंतु सिद्धार्थ उसके प्रतिकूल अहिंसा पूजक बन गए। देवदत्त ने अपने संस्करों को नियति समझ ग्रहण किया, सिद्धार्थ उसका अतिक्रमण कर गए।
वस्तुतः वाह्य यथार्थ से रचनाकार केवल कच्चा माल लेता है, उससे रचना की बाहरी ठठरी बनती है, किंतु जिस मंत्र से रचना में प्राण-प्रतिष्ठा होती है, वह विचारधारा और सामाजिक स्थिति पर निर्भर नहीं है बल्कि वह रचनाकार का बेहद निजी अंशदान है।
यही करण है कि स्त्री, दलित और आदिवासी जीवन पर केन्द्रित रचनाएं जो पुरूष, गैर-दलित और गैर-आदिवासियों ने की हैं, वे कहीं से भी इस वर्ग के रचनाकारों द्वारा रचित रचनाओं से कमतर और कम प्रामाणिक नहीं हैं। बल्कि कई बार उनको पढ़ने से स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों की वेदना के प्रति जैसी सहानुभूति पैदा होती है, वैसी इन वर्गों के लेखकों व लेखिकाओं की रचनाओं से नहीं होती। वस्तुतः कौन कितना सवेदनशील है तथा किसकी चेतना कितनी उदात्त और रूहानी है, वह सामाजिक-आर्थिक ऊंच-नीच के धरातल पर निर्भर नहीं है।
इस अन्तर्विरोध को एक जमीनी उदाहरण से समझा जा सकता है। ऐसा क्यों है कि जब तथाकथित सर्वहारा वर्ग से जुड़ी कोई पार्टी सत्ता में आती है तो वह बुर्जुआओं के राज-काज से भी अधिक दमनकारी और उत्पीड़क बन जाती है?
उदाहरण के लिए जारशाही के बाद का कम्युनिस्ट शासन तंत्र। भारतीय राजनीति में भी ऐसे उदाहरण हैं। ऐसा क्या है कि सत्ता में आने के बाद, उन्हें अपने पूर्व के भोगे गए यथार्थ ( यदि वह त्रासद पूर्ण है) क्यों नहीं याद रहते ? निष्ठा और उदारता की वह मिशाल क्यों नहीं दे पाते, जो किसी तथाकथित बुर्जुआ से अपेक्षा रखते हैं? उनका लोक चित्त इतना जल्दी बदल क्यों जाता है?
दुनिया में कुछ विचारक हुए हैं जिन्होंने व्यक्ति की चेतना कैसे बनती है, उसके सूत्र (?) बताए है तथा उसका संबंध रचना से भी जोड़ा है। इन्हीं नामों में से एक नाम रूसी विचारक चेर्नीशस्व्स्की का हैं। किंतु रेणु और चेर्नीशव्स्की में कोई साम्य नहीं है।
रेणु एक यथार्थवादी रचनाकार हैं किंतु चेर्नीशव्स्की इसके उलट एक यूटोपियन आदर्शवादी हैं। वे अपने सपनों को ईश्वर की वाणी जैसा सच मानते हैं और उसे भावी पीढ़ी पर थोंपने की चेष्टा करते हैं, किंतु रेणु ऐसा नहीं करते।
चेर्नीशव्स्की एक नियतिवादी और यूटोपियन विचारक थे। इन्होंने एक उपन्यास ‘ ह्वाट शूड भी डन ’ लिखा है जो इनके नियतिवाद और यूटोपियन विचारों का दस्तावेज है। उपन्यास की नायक/ नायिकाओं को रात में इलहाम होता है, कुछ स्वप्न देखते हैं और ‘ उसे सच मानकर जीवन में उतारने का प्रयत्न करते हैं। यह यूटोपिया वस्तुतः चिर्नीशव्स्की की है। जो अपनी पुस्तक में जगह-जगह उपस्थित होकर एक पैगम्बर की तरह फरमान जारी करते हैं।
इस उपन्यास का भाव पक्ष कहीं कहीं बहुत मजबूत है किंतु उसकी नियतिवादी पक्ष इतना प्रबल है कि वह एक विचारधारा की निष्पत्ति होकर रह जाता है। इस उपन्यास के बारे में मात्र इतना कहना पर्याप्त है कि इससे क्षुब्ध होकर दोस्तोव्स्किी को एक उपन्यासिका ” नोट्स फ्रोम अन्डग्राउंड “ लिखनी पड़ी।
वे एक क्रांतिकारी विचारक थे, जो हेगेल, फायर बाख और फोरियर के विचारों से प्रभावित थे। वे मार्क्स के समकालीन थे, किंतु वे न तो मार्क्स को जानते थे और न मार्क्स उन्हें।
चेर्नीशव्स्की का मामना है कि लेखक अपने जगतवृत्त ( यूटोपियन लोक वृत्त ) को ही शब्दों द्वारा व्यक्त करता है तथा यह जगतवृत्त उसके सामाजिक-आर्थिक परिवेश से निर्मित होता है।
हालांकि मणि जी का प्रतिपद्य ‘ रेणु का लोक’ है किंतु उन्होंने अपने कथन की प्रामाणिकता के लिए चेखव, गोर्की, तुर्गनेव, दोस्ताविस्की और लियो तोल्स्तोय के रचना जगत की आपसी तुलना भी की है।
कहा गया है कि चूंकि चेखव और गोर्की सर्वहारा थे, इसलिए उनका लोकवृत्त तुर्गनेव, दोस्तोव्स्किी और तोल्स्तोय से भिन्न था। जरूर भिन्न था, पर सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि सर्वहारा वर्ग से नहीं होने के कारण क्या तुर्गनेव, दोस्तोव्स्की और तोल्स्तोय कहीं से भी चेखव और गोर्की से कम संवेदनशील रचनाकर हैं? क्या उनकी रचनाओं का गुण स्तर चेखव और गोर्की की रचनाओं से निम्न कोटि का है?
यदि कोई कहे कि ‘चेखव और गोर्की की रचनाओं का गुणस्तर तुर्गनेव, दोस्तव्स्की और तोलस्ताय की रचनाओं से बेहतर था, ( जिसे चेखव और गोर्की स्वयं भी नहीं मानते थे) तो मूल्यांकन कर्ता की अपनी कसौटी समझ, इसे भी मान लिया जा सकता है। और थोड़ी देर के लिए यह भी मान लिया जो सकता हैं कि वह इसलिए संभव हो सका क्योंकि चेखव और गोर्की सर्वहारा थे।
पर प्रश्न यह नहीं है बल्कि सीधा प्रश्न यह है कि यदि सर्वहारा होने भर से व्यक्ति श्रेष्ठ रचनाएं करने लगता है तो हिन्दी जगत के तथाकथित सर्वहारा जीवन से उद्भूत लेखकों में दूसरा चेखव और गोर्की क्यों नहीं पैदा ले लेता? इतना ही नहीं, रेणु के सामाजिक-आर्थिक जीवन और उनकी समाजवादी विचारधारा वाले भी तो बहुतेरे हैं, उनमें से कोई रेणु या रेणु के तुल्य क्यों नहीं बन जाता?
रेणु जी धार्मिक व्यक्ति नहीं थे किंतु उनका व्यक्तित्व आध्यात्मिक था। जैसा कि गोर्की का था। हमें शायद पता न हो कि गोर्की सर्वहारा जरूर थे किंतु चेखव की तरह भौतिकवादी और भोगवादी नहीं थे जो मरने के दिन तक सैंपेन पीते रहे। किंतु क्या इसलिए चेखव की रचनाओं को हम धता बता देंगे।
गोर्की द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के विरूद्ध थे। वे नास्तिक भी न थे। वस्तुतः गोर्की दकियानूसी रूसी चर्च के खिलाफ जरूर थे किंतु ईश्वर की अवधारणा के खिलाफ नहीं थे। लोगों के आपसी जुड़ाव के लिए ईश्वर सरीखी एक आध्यात्मिक चेतना की उनमें उत्कट अभिलाषा और तलाश थी, जो उनके ‘ दि कनफेशन’ और अन्य रचनाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है। पश्चिम में देवत्व की स्थापना ( ‘गाॅड बिल्डिंग’ ) नाम से यह अवधारणा बहुत प्रचलित है। दोस्तोवस्की के ब्रदर्स कारमाजोव में भी यह विचार उपस्थित है। दरअसल हम गोर्की और सोवियत शासनतंत्र के बारे में हम बहुत अधिक नहीं जानते और जानना भी नहीं चाहते।
वोल्शेविक तंत्र और गोर्की के क्या रिश्ते रह गए थे, यह भी शायद हम न जानते हों। और यह भी नहीं जानते होंगे कि गोर्की के पुत्र मैक्सीम पेश्क्वोव की हत्या सोवियत खूफिया एंजेसी ने 1932 में करवा दी थी।
अत: रेणु जैसे एक सजग रचना धर्मी की रचनाओं को चेर्नीशव्स्की के नियतिवादी फ्रेम में कसने से उनकी स्वायत्त छवि ही धुमिल होगी। कोई आश्चर्य नहीं यदि मणि जी को नियतिवाद और इसके परिणाम की समझ न हो।
नियतिवादी अपने कर्मों की नैतिक जवाबदेही स्वयं पर नहीं लेते। उदाहरण के लिए मार्क्सवादी जब किसी बुर्जुवा की हत्या करते हैं तो यह कहकर नहीं करते कि वे बुर्जुआ से घृणा करते हैं बल्कि इसलिए करते हैं कि ऐसा करना इतिहास के नियम के अनुकूल है। कर्म हमारा जवाबदेही इतिहास की। नियतिवाद की स्वभाविक परिणति इसी रूप में होती है।
दूसरों के रचे हुए स्वप्नलोक के अनुकूल खुद का ढालने की चेष्टा , वैसे ही है जैसे कोई भांड़ दूसरे की लिखी नौटंकी और लीलाओं का मंचन करते हैं। सभी साजो सामान , मुकुट और तलवार वगैरह भाड़े के होते हैं। हिन्दी जगत के कतिपय रचनाकारों की रचनाए इसी सूत्र को चरितार्थ करती हैं।
जहाँ तक बात तुलसी और कबीर के लोक मानस और इनकी रचनाओं की है, तो जब ये भक्त कवि पैदा हुए तब समाज आधुनिक नहीं बना था, और न व्यक्ति मुखर हुआ था। लोक की आवाज ही तब व्यक्ति की आवाज थी। और तब भारत प्रायः प्रायः लोक संस्कृति वाला यथस्थितिवादी समाज था।
लोक समाजों में भी परिवर्तन होते हैं किंतु घड़ी के सुई की तरह धीरे-धीरे, इतना धीरे कि वह परिवर्तन लंबे अंतराल के बाद दिखता है। अतः लोक संस्कृति के गायक कबीर और तुलसी का मूल्यांकन प्रगतिशील जैसे आधुनिक राजनीतिक पदावली के आधार पर करना बिल्कुल नासमझी और नाइंसाफी है।
तुलसी और कबीर का लोकचित्त एक दूसरे से अलग नहीं था। दोनों के चित्त भारतीय धार्मिक परंपरा और संस्कृति से निर्मित थे। तुलसी और कबीर भारतीय जीवन दृष्टि और मूल्यों के प्रवक्ता थे। चूंकि कबीर समय के साथ-साथ आए बदलाव और विसंगतियों में सुधार की बातें ऐसी भाषा में बोल रहे थे, जिसकी आधुनिक मन को जरूरत थी, इसलिए कबीर को अलग पायदान पर रखने की चेष्टा हुई।
परंतु कबीर ने कभी भारतीय मूल्यों का विरोध नहीं किया। वस्तुतः वह चेतना, जिसे पश्चिम के लोग विरोध और जन क्रांति का नाम देते हैं, वह भारतीय चित्त में तब थी ही नहीं। वस्तुतः तुलसी का रामराज्य और कबीर के अमरदेश में वह फर्क नहीं था कि तुलसी को यथास्थतिवादी कहें और कबीर को प्रगतिशील!
यदि ऐसा होता तो कबीर न तो ‘गुरू गोबिंद दोउ खड़े/ काको लागूं पाय/ बलिहारी गुरू आपकी/ गोबिंद दियो बताय’ लिखते और न ही यह लिखते कि ‘ सती डिगै तो नीच घर, सूर डिगै तो क्रूर; साधु डिगै तो सिखर ते, ….गिरिमय चकनाचूर‘ । भारतीय परंपरा की दो विसंगतियों की चर्चा प्रायः होती है, गुरू-शिष्य परंपरा और सती प्रथा। मुगलों के शासनकाल में ये दोनों परंपराएं शिथिल हो रही थी । किंतु कबीर दोनों को बनाए रखना चाहते थे।
ऐसे में तुलसी और कबीर की व्याख्या के अलग-अलग मानदंड रखना क्या संदेहास्पद नहीं है? माना कि रामराज्य एक वर्णवादी पतित ( ?) समाज की निशानी है किंतु अमरदेश जहाँ स्त्रियां जिंदा जलाई जाएं, वह कैसे प्रगतिशील कहलाएगा ?
जहां तक सगुण और निर्गुण परंपरा का सवाल है, एक ही जीवन दृष्टि से उद्भूत दोनों परंपराएं हैं। एक ज्ञान तो दूसरी भक्ति परंपरा है। किंतु दोनों का साधन ‘कर्मफल का सिद्धांत’ और साध्य मोक्ष है। यदि आधुनिक संदर्भ में कबीर क्रांतिकारी होते तो सर्वहारा के लौकिक मुक्ति की बात करते , नफरत फैलाकर, क्रांति का मार्ग प्रशस्त करते न कि जीवन मरण के बंधन से मोक्ष के लिए निर्गुण राम की धुन में लगने और ‘ढाई अक्षर प्रेम’ की महिमा बताते।
लेखक प्रेमकुमार मणि के कथन पर अचरज हुआ कि कबीर यदि ‘ राम के सगुण उपासक हो जाते तो वर्ण व्यवस्था का समर्थन उनकी मजबूरी हो जाती, इस सतर्कता से वे निर्गुण ही बने रहे’। यदि यही तर्क है तो कबीर अपने पंथ में ब्राह्मण और क्षात्रियों को शामिल भी तो नहीं करते! उनके पंथ में तथाकथित वर्णवादी ब्राह्मण भी उतनी ही संख्या में थे, जिस संख्या में दूसरी जातियों के लोग।
कबीर ने जाति व्यवस्था का विरोध नहीं किया बल्कि जाति आधारित ऊँच-नीच का विरोध किया। वस्तुतः जातियाँ समाप्त नहीं होतीं और न कहीं संसार में हुई हैं, ऊँच-नीच के भेद ही मिटाए जा सकते हैं।
उदाहरण के लिए दास ( मामलुक) भारत में बादशाह बने मगर इस बिना पर शेख और सैयद नहीं कहलाए, मामलुक ही कहलाए। प्राचीन भारत के राजा विभिन्न जातियों के थे किंतु इससे उनकी जाति न बदली। वस्तुतः ‘ हरि का भजे सो हरि का होई’। केवल कबीर ही नहीं, तमाम भक्त कवि भी जाति आधारित भेदभाव का विरोध कर रहे थे। भक्ति आंदोलन अपने स्वभाव से ही सुधारवादी था।
भेदभाव मिटाने के बहुत से तरीके हो सकते हैं, बहुत से अपनाए भी गए हैं। अब किसी को उच्च राजनीतिक व शासकीय पदों पर जाने की पाबंदी नहीं है। कोई पेशा अख़्तियार करने की मनाही भी नहीं। उत्पादन प्रणाली के साथ उत्पादन संबंध भी बदल गए हैं। हासिए के लोगों के लिए राजनीति और नौकरी तक में आरक्षण है। अंतर्जातीय विवाह पर भी केई रोक-टोक नहीं। ऐसे में कबीर और तुलसी में जातिवाद की जड़ें खोजना यदि नफरत फैलाने का बौद्धिक उपक्रम नहीं है तो और क्या है?
विस्मय होता है कि लेखक प्रेम कुमार जी ने अपनी स्थापनाओं के समर्थन में चेर्नीशव्स्की का नाम लिया, किंतु मार्क्स और एंगेल्स का नहीं। जबकि सर्वहारा उन्हीं के बैचारिक शब्दकोश का मुहावरा है। मार्क्स के अनुसार व्यक्ति की चेतना उसकी आर्थिक स्थिति और उत्पादन प्रणाली पर निर्भर है। मार्क्स को उद्धृत करने में कठिनाई यह आती कि तब कबीर और तुलसी दोनों का लोक वृत्त एक ही ठहर जाता, क्योंकि दोनो के माली हालात एक से थे, और उत्पादन प्रणाली भी तब एक ही थी, कृषि आधारित।
यानी लेखक को एक ऐसे विचारक की जरूरत थी, जिसको उद्धृत करने से कबीर और तुलसी के लोक को भिन्न दिखाकर विवाद को एक वैचारिक जमीन दी जा सके। नाम भी ऐसा हो जिससे हिंदी का पाठक अनभिज्ञ हो और खौफ खाए, बेहतर हो यदि रूस-चीन का हो।
किंतु आपधापी में वे यह भूल गए कि चेर्नीशव्स्की का समाजवाद लेनिन और वोल्शेविकों वाला नहीं था। वे अमेरिका के जनतंत्र और वहाँ की क्रांति से बेहद प्रभावित थे। उनका समाजवाद ‘फोरियर’ वाला था। चेर्नीशव्स्की जारों द्वारा एक समय में समाप्त कर दी गई कम्युन व्यवस्था की वापसी और सहकारिता आधारित उत्पादन चाहते थे। वे वस्तुतः रूस में जारशाही से मुक्त जनतांत्रिक समाजवाद चाहते थे। इन विचारों का ही प्रतिपदन उन्होंने अपने उपन्यास ‘ह्वाट इज टु बी डन‘ में किया है। वे बदलाव अंदर से चाहते थे।
किंतु लेनिन उनके समाजवादी माॅडल से सहमत नहीं थे। लेनिन प्रतिबद्ध लोगों की एक पार्टी बनाकर तख्ता पलटना चाहते थे जो मार्क्स का माॅडल था। इसलिए लेनिन ने ‘ह्वाट इज टु बी डन‘ नाम से एक अलग किताब लिखी। नतीजा यह हुआ कि रूस की सोशल डेकमोक्रेटिक लेबर पार्टी, वोल्शेविक और मेन्शेविक दो भागों में बंट गई।
चेर्नीशव्स्की ने यह जरूर कहा है कि कला को लेखक के जीवन का पाठ होना चाहिए। यदि इसे सही माने तो मारे गए गुलफाम (तीसरी कसम) के हिरामन और हीराबाई का संबंध रेणु के जीवन से होना चाहिए। बेशक रेणु ने भी लतिका से प्रेम किया किंतु इस प्रेम की उनके तीसरे विवाह में तब्दीली भी हो गई।
मनुष्य का चित्त कब किससे क्या प्रभाव ग्रहण करेगा कहना मुश्किल है। एक तरफ रेणु के जीवन में एक प्रेमीका के रूप में लतिका ( तीसरी पत्नी ) के आगमन से उन्हें ऐसी प्रेरणा मिलती है कि वे मैला आंचल, परती परिकथा जैसे उपन्यास और मारे गए गुलफाम (तीसरी कसम) जैसी कहानी लिख डालते हैं; वहीं एक बंगला फिल्म के क्रांतिकारी निर्देशक जिन्होंने ‘चोख’ जैसी अभूतपूर्व फिल्म दी, एक सुंदरी के जीवन में प्रवेश से रचना विमुख हो जाते हैं ( ऐसा कहा जाता है) ।
वस्तुतः की सामाजिक स्थिति को जानना आलोचना का एक विषय हो सकता है किंतु यह प्रस्तावना कि रचनाकार के सामाजिक जीवन और उसके लोक वृत्त को समझे बगैर किसी उसकी विवेचना नहीं की जा सकती, बेबुनियाद है।
लेखक के सामाजिक धरातल का ऊंच-नीच होना महत्वपूर्ण नहीं होता, आप शिखर से देखें या नदी के किनारे से, महत्वपूर्ण यह है कि आप वहाँ से देखते क्या हैं तथा किस भाव से देखते है, देखने की मंशा क्या हैं! नफरत फैलाने की या प्रेम बाँटने की, विभाजन की या समन्वय की!
दूसरी ओर अधिकांश अच्छी रचनाए विभिन्न पात्रों के आपसी विमर्श यानी डायलौग पर आधारित होती है, जिसमें बहुत से पात्र होते हैं; पात्रों का अपना जीवन वृतांत होता है, सबकी अलग-अलग विचारधाराएं होती है, रचनाकार इन पात्रों के जीवन में ‘ पर काया’ प्रवेश कर उन्हें जीता है- वैसी स्थिति में रचना को समझने के लिए रचनाकार के जीवन के अध्ययन की क्या अर्थवत्ता रह जाऐगी!
और फिर रचनाकार का जीवन इतना इकहरा नहीं होता कि आसनी से पढ़ लिया जाए। यह भी आवश्यक नहीं कि व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन एक ही हो। एक लेखक अलग-अलग क्षणों में अपनी अलग अलग राय रख देता है। तात्पर्य है कि जैसे मनुष्य के शारीरिक अवस्था को पढ़ने के लिए डीएनए जांच है, वैसा कोई यंत्र व्यक्ति के मन को पढ़ने के लिए नहीं है। टालस्टाय और दोस्तोव्स्किी के उपन्यासों में इतने अधिक पात्र हैं जितने कि सिर में बाल किसका किसका लोक वृत्त पढ़ेगे और कैसे!
रचना में जो कुछ है, उसे रचनाकार का कथन और विचार मान लेना और संदर्भ से काटकर देखना इसी धारणा से उपजी विसंगति है। राम चरित मानस के बहुत से प्रसंग की व्याख्या में यही किया जा रहा है।
तात्पर्य है कि कबीर या तुलसी के अपने बहुत से आग्रह हो सकते है किंतु काव्य-कला की गुणवत्ता का मानक लेखक के वैचारिक आग्रह नहीं हो सकते। विचारधारा के गुणदोष का आकलन अलग मुद्दा है। हम तुलसी के राम चरित मानस को केवल रस लेकर इसलिए नहीं पढ़ते यहाँ अवतार लीला और देवताओं की महिमा गाई गई है, या कि वर्णवाद का समर्थन है, बल्कि इसलिए कि पिता-पुत्र, भाई-भाई, पति-पत्नी तथा विजातीय मानवीय संबंधों का चित्रण जिस अनुराग से यहाँ किया गया है, वह आसक्ति हमें प्रीतिकर लगती है। तुलसी, कबीर भावोद्वेलन पैदा करने के अपने रचनात्मक कौशल के लिए पढ़े जाते हैं।
रेणु की राजनीतिक प्रतिबद्धता को समझने के लिए लेखक प्रेमकुमार मणि के द्वारा 18वी. सदी के अंत में फ्रांस में समाजवादी विचारों के उदय और फ्रांस की क्रांति का उल्लेख किया गया है। उनके अनुसार रेणु जी उसी से प्रेरणा लेकर समाजवादी बने थे।
यह सही है कि आधुनिक समाजवाद फ्रांस में ही उपजा था। किंतु समाजवाद के तब भी कई कई रूप और कई कई धड़े थे। एक रोब्सपियरे वाला समाजवाद था, जिसने हमें गुलेटिन दिया। आदमी को बराबर करने का नायाब तरीका! दूसरा जनतांत्रिक समाजवाद था जिसकी परिणति में हमें हिटलर और उसका गैस चैंम्बर मिला, तीसरा मार्क्सवाद वाला समाजवाद था जिसके परिणाम में हमें स्टेलिन -लेनिन का लेबर कैंप मिला और बेरिया जैसे मास मर्डरर और बलात्कारी पुलिस का मुखिया मिला। और भी बहुत सारे समाजवाद के शेड्स थे। एनार्किस्ट और सिन्डिकलिस्ट इत्यादि भी थे। फैबियन भी थे जिसके सदस्य हमारे माननीय प्रधान मंत्री नेहरू जी थे।
रेणु जी इनमें से किस समाजवाद से प्रभावित थे, इसबारे में कोई रोशनी मणि जी के लेख से नहीं मिलती। रेणु जी ने भी इसे कहीं अपनी रचनाओं में व्यक्त नहीं किया है। रेणु जी के सहज, सरल , संकोची स्वभाव और बात-बात में बच्चों सा खिलखिला कर हँस देना, यह सब देख-सुनकर तो नहीं लगता कि इनका संबंध फ्रांस की खूनी क्रांति वाले समाजवाद से रहा होगा। उनके लेखन से भी नहीं लगता। फिर फ्रांस की क्रांति को बेवजह उद्धृत करने का क्या मतलब? आखिर इस समाजवादी झुनझुने की क्या रूप-रेखा और क्या माॅडल है जो हर कोई बजाते चलता है। दूसरे देश का ही सही कोई दृष्टांत!!
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मणि जी की प्रस्तुति का सैद्धांतिक पक्ष दिग्भ्रमित करनेवाला है। रेणु जी की रचनाओं पर की गई टिप्पणी भी इस भ्रम का शिकार हैं।
मैला आंचल की आंचलिकता पर उनकी दृष्टि भी उलझी हुई है। उपन्यास आंचलिक हो, शहरी हो ,ग्रामीण हो, ऐतिहासिक हो या पौराणिक हो, ये रचना के स्थूल तत्व हैं। ये स्थितियाँ आज हैं कल नहीं भी रहेंगी। पर मानवीय संवेदना चिरंतन और स्थायी है। स्थिति बदल भी जाए तो रचना की अर्थवत्ता कम नहीं होगी। रचना का मकसद किसी अंचल या वर्ग विशेष की पीड़ा को संसूचित करना भर नहीं होता, बल्कि अभिधेय के सहारे मानव सत्य को अपनी समग्रता में अभिव्यंजित करना होता है। रेणु ने इसका सर्वथा ख्याल रखा है।
रेणु का व्यक्तित्व व्यक्तित्व रूहानी था, जिस्मानी नहीं । यदि ऐसा नहीं होता तो मारे गए गुलफाम (तीसरी कसम) में हीरामन और हीराबाई के प्रेम संबंधों की निष्पत्ति उस रूप में नहीं हो पाती, जिस रूप में हुई है। वस्तुतः रेणु जी ने अपने कहानियों और उपन्यासों में अनुभूत वेदना की निष्पत्ति इस रूप में की है कि उसके प्रति केवल वर्ग और जाति विशेष की संवेदना नहीं उमड़ती, बल्कि सार्वभौमिक रूप से सबमें उमड़ती है। सब अपनी अपनी सहृदयता के अनुरूप रचना के भाव सम्मोहन में बंधे रहते हैं।
विगत वर्षों में कुछ लेखक-आलोचकों की शिकायत रेणु जी से यही रही है कि रेणु जी सर्वग्राही और सर्वभौमिक क्यों हैं। वे खुलकर किसी वर्ग का पक्ष क्यों नहीं लेते। वे वर्ग संघर्ष का माॅडल क्यों नहीं अपनाते। क्यों कुछ छोड़ देते हैं। तो भई , रचनाकार इस मायने में स्वायत्त होता है ! और जो जितना स्वायत्त होता है, उसकी ग्राह्यता उतनी ही व्यापक होती है।
मैला आंचल हो या परती परिकथा वे समाज के सामाजिक-राजनैतिक नाजुक हिस्सों पर उंगली जरूर रखती हैं किंतु सूत्रबद्ध तरीके से राजनीतिक मुक्ति का नारा नहीं लगातीं। उनमें अनावश्यक चीख-पुकार नहीं है जो दूसरे लेखकों की रचनओं में है।
अंत में निवेदन यह है कि रचनाकार किस वर्ग से आता है, उसकी विचारधारा क्या है, वह खिचड़ी खाता है या गेहूं की रोटी, किस स्कूल में पढ़ा है, पजामा पहनता है या कोट, अथवा वह ‘मी टू’ में संलिप्त था या ‘सी टू’ में, इनसे रचना के गुण दोष का कोई लेना देना नहीं।
रचना में यह भी महत्वपूर्ण नहीं कि क्या कहा गया है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि कैसे कहा गया है। रचना कौशल किस प्रकार का है। भाषा कैसी है। क्या रचना में कुछ सृजन भी है, या वह केवल अखबारी रिपोर्ट है।
वस्तुत: रचना के मूल्यांकन का आधार श्रोता के मन पर पड़ने वाले प्रभाव से ही आंका जाना चाहिए। और यह भी कि वह कितना व्यापक, कितना गहरा और कितना स्थायी है। रेणु जी कि रचनाएं , कहानियां हो या उपन्यास उनका प्रभाव यही है कि वे भुलाए नहीं भूलतीं।
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रामचंद्र ओझा, रांची।
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आज रेणु जी का जन्मदिन है
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रेणु का लोक
रेणु का लोक
प्रेमकुमार मणि
हर व्यक्ति की एक दुनिया होती है, कुछ चीजों से उसकी सापेक्षता होती है और यही उस व्यक्ति का लोक होता है। यहाँ लोक का अर्थ अंग्रेजी के फोक या भारतीय अर्थों में गैर-नगरीय और गैर -शास्त्रीय नहीं, बल्कि परिवेश के वृहत अर्थ में होना चाहिए; जिस में आंतरिक और बाह्य दोनों जगत शामिल हों। अंग्रेजी का पब्लिक -स्फीयर अथवा उसका ठेठ हिंदी तर्जुमा लोक -वृत्त या लोक -दायरा शब्द कुछ ही अंश तक इसका आभास देता है, पूरी तरह नहीं। इसलिए मैं यह मान कर चलूँगा कि लोक की कल्पना पश्चिमी साहित्य में उस तरह नहीं है, जैसे हमारे यहां है।
ऊपर परिवेश के वृहत अर्थ की जब बात मैंने की, तब इसका तात्पर्य है कि केवल दृश्यमान बाह्य परिवेश ही लोक नहीं है, कुछ अलग भी है। लोक में बहुत कुछ अर्जित भी होता है , परिवेश में अर्जित कुछ भी नहीं है। इसीलिए जब हम किसी के लोक की बात करते हैं, वह भी साहित्य के सन्दर्भ में, तब यह सामान्य नहीं, एक जटिल सवाल होता है। इसमें सब कुछ स्पष्ट नहीं होता। किसी व्यक्ति का परिवेश तो आप के सामने स्पष्ट हो सकता है, लेकिन लोक के अस्पष्टता की पूरी संभावना हो सकती है। इसलिए लोक की विवेचना बहुत सहज नहीं है। किसी एक व्यक्ति का लोक दूसरे का प्रतिलोक भी हो सकता है। इसलिए सब का एक ही लोक हो, यह केवल वर्गविहीन समाज में ही कुछ हद तक संभव है।
एक ही समय में और एक ही परिवेश में होते हुए भी बहुत संभव है किन्ही दो व्यक्तियों का लोक अलग हो। जैसे तुलसी और कबीर मध्य -काल में कुछ आगे -पीछे हुए और एक ही शहर बनारस में रहे; लेकिन तुलसी और कबीर का लोक एक नहीं था। इस पर बहुत बातें हुई हैं और आगे भी होती रहेंगी।
तुलसी और कबीर के लोक की भिन्नता क्या थी ? एक ही समय में दोनों की सोच यदि परस्पर विरोधी है, तो इसके कारण क्या हैं ? ऊपर से दोनों भक्त कवि हैं। दोनों राम -भक्त। लेकिन क्या दोनों के राम भी एक हैं? नहीं हैं। और क्यों नहीं हैं ? इसलिए कि दोनों के लोक भिन्न हैं। तुलसी का जो लोक है वह कबीर के लोक से भिन्न है। इन दोनों लोकों के सामाजिक -स्वार्थ ( कलेक्टिव इंटरेस्ट ) भी भिन्न हो जाते हैं। यही कारण है कि तुलसी उस रामराज की कामना करते हैं, जिसमे वर्णाश्रम व्यवस्था सुरक्षित हो। इसके विपरीत कबीर ऐसे अमरदेस की प्रस्तावना करते हैं, जिसमे जाति -बरन का कोई स्थान नहीं हो। एक ही शहर में और लगभग एक ही काल में, दो महाकवियों के लोक की इस भिन्नता को प्रतिपादित किये बिना जब हम इन दोनों की रचनाओं को एक ही निकष पर परखना आरम्भ करते हैं, तब हम गलती कर जाते हैं। यह भौतिक और लौकिक उपादानों की अहेलना कही जाएगी। तुलसी के राम यदि सगुन हैं , मूर्त हैं ,तो इसके लौकिक कारण हैं। तुलसी प्रश्रयप्राप्त उस समाज से आते थे, जहाँ मंदिर प्रवेश की मनाही नहीं थी। यदि वे दलित-समाज से होते और मंदिर -प्रवेश की उन्हें मनाही होती तब भी क्या वे सगुन राम के ही उपासक होते? इसकी संभावना अत्यंत न्यून हो जाती, अपवाद ही ऐसा होता है। यदि तुलसी को हम उनके लोक के दायरे में रख कर देखेंगे, तब उनकी विवशताओं का भी ध्यान हमें होगा और ऐसे में उनकी आलोचना करते समय हम उनके साथ अधिक न्याय कर सकेंगे। इसीलिए किसी लेखक के लोक का अध्ययन आवश्यक हो जाता है, इसके बिना हम उस लेखक -रचनाकार का सम्यक विवेचन नहीं कर सकते।
उन्नीसवीं सदी के रूसी साहित्यालोचक चेर्नीशेव्स्की ( निकोलाई गावरीलोविच चेर्नीशेव्स्की; 1828 -1889 ) ने कहा था कि किसी रचनाकार की रचना का अध्ययन करने के पूर्व उसके जीवन को देखना आवश्यक होता है, क्योंकि इसके बिना पर उस लेखक की रचना का हम सम्यक विवेचन नहीं कर सकते। रचनाकारों अथवा कवि -लेखकों का जगत -वृत्त अत्यंत महत्वपूर्ण इसलिए है कि वह इसे ही शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करता है। चेर्नीशेव्स्की कहता है ‘ काव्य में वर्णित छवि और और वास्तविक जीवन की छवि में ठीक वैसा ही संबंध होता है जैसा शब्द में और उस पदार्थ में जिसका कि वह बोध कराता है। यह शब्द वास्तविक पदार्थ का एक क्षीण ,सामान्य ,अस्पष्ट आभास अथवा प्रतीक मात्र होता है। ‘ चेर्नीशेव्स्की यह भी स्पष्ट करता है कि ” वास्तविक जीवन से हमारा तात्पर्य केवल बाह्य जगत के तत्वों और जीवों से ही मानव का सम्बन्ध नहीं, वरन उसके आंतरिक जीवन से सम्बन्ध भी है। कभी -कभी मानव स्वप्न में भी विचरता है और तब उसके लिए स्वप्न का महत्व, किसी हद तक और किसी समय तक, बाह्य वस्तु जैसा ही हो जाता है। इससे भी अधिक, मानव बहुधा अनुभूति जगत में विचरता है, इन अवस्थाओं को भी ,यदि वे रोचक हैं ,कला चित्रित करती है ।”
( दर्शन , साहित्य और आलोचना )
चेर्नीश्वेस्की के मुल्क रूस में ही तुर्गनेव ,दोस्तोयेवस्की, तोलस्तोय के लोक और चेखब, गोर्की के लोक में स्पष्ट भिन्नता है। चेखब और गोर्की ने जिस तरह का जीवन जिया और जैसे दुनिया को अनुभूत किया, वैसे तुर्गनेव, दोस्तोयेव्स्की और टॉलस्टॉय ने नहीं किया था। चेखब और गोर्की दोनों सर्वहारा पृष्ठभूमि से आते थे, लेकिन बावजूद इसके दोनों की दुनिया में तनिक फर्क है। यह फर्क उनके साहित्य पर असर डालता है।
सभी रचनाकारों की तरह फणीश्वरनाथ रेणु का भी एक लोक है। इसमें उनकी वह दुनिया है ,जिसमे वह जन्मे, पले -बढे और अपनी समझ विकसित की। इसमें उनकी वह दुनिया भी शामिल होती है, जिससे उनका सरोकार रहा और जिसका उन्होंने स्वप्न देखा। अमरदेस, बेगमपुरा और रामराज केवल कबीर,रैदास और तुलसी के यहाँ ही नहीं है. हर लेखक का एक स्वप्नलोक होता है। अपने लेखन से वह उसकी प्रस्तावना करता है। लगभग वैसे ही जैसे पौराणिक विश्वमित्र ने एक सामानांतर सृष्टि सृजित करने की कोशिश की थी।
रेणु के लेखन में उनके लोक को हम देख सकते हैं। इसमें केवल वह दुनिया नहीं है, जिस में रेणु का पार्थिव जीवन था, वह दुनिया भी है, जो उनका स्वप्न था। मैला आँचल को प्रायः सभी लोगों ने उनके इलाके पूर्णिया की कथा कहा है। एक अँचल की कहानी। . आँचलिक कथा। इस आँचलिकता का इतना शोर हुआ कि स्वयं रेणु ने भी अपने लेखन को ऐसा ही मान लिया था। लेकिन लेखक के मानने और नहीं मानने से क्या होता है। उनके पाठकों और उनके साहित्य की व्याख्या करने वालों को यह तो देखना ही पड़ेगा कि रेणु वस्तुतः हैं क्या। रेणु रूढ़ अर्थों में आँचलिक लेखक अवश्य हैं; लेकिन इतने भर ही नहीं हैं। उनके उपन्यास, उनकी कहानियाँ और रिपोर्ताज एक अँचल विशेष की कथा कहते हुए भी पूरी दुनिया के पिछड़े इलाकों की प्रतिनिधि -गाथा बन जाती हैं और उसकी समस्याओं और पीड़ा को आप तक सम्प्रेषित करती हैं। आप में निहित संवेदना आपको रेणु -साहित्य के प्रति उत्सुक बनाती है। पूर्णिया अंचल में जो धूसरता, व्यथा और पीड़ा है , तनिक भेद के साथ दुनिया के अन्य हिस्सों में भी है। यदि यह नहीं होता तो अपने प्रकाशन के मात्र छह साल बाद ही रुसी जुबान में इस उपन्यास का अनुवाद नहीं होता। रेणु को लगभग पूरी दुनिया में पढ़ा गया है। अनेक भाषाओं में उनके साहित्य के अनुवाद हुए हैं। उन सभी जुबानों के पाठकों में यदि रेणु के प्रति आकर्षण है, तो इसका मतलब यह है कि रेणु के सरोकार इलाकाई नहीं, वैश्विक है। उनका लोक व्यापक है। वह किसी तंग दुनिया के लेखक नहीं हैं। एक इलाके की कथा कहने का अर्थ यह नहीं हुआ कि उनका लोक पूर्णिया तक सीमित है। लेखन में ऐसा नहीं होता। रामायण अयोध्या के एक राज परिवार की कहानी है। अवध या साकेत एक छोटा -सा इलाका है। लेकिन वह इतना व्यापक क्यों हुआ। इस पर कभी विचार किया गया है ? महाभारत बीते जमाने के एक संयुक्त परिवार की कथा है, लेकिन वह पूरे भारत की कथा बन जाती है और आज भी अनेक अर्थों में प्रासंगिक है। रेणु का वर्ण्य एक पिछड़ा इलाका ,उसके निवासी और उनकी पीड़ा जरूर है ; लेकिन अपने चरित्र में वह पूरे हिंदुस्तान और तनिक अर्थभेद के साथ पूरी दुनिया के पिछड़े समाजों की कथा है। वह समय में भी बंधा नहीं है। यदि होता तो लगभग आधी सदी गुजर जाने के बाद हमें आकर्षित नहीं करता। हम उन्नीस सौ पचास के दशक की घटनाओं को समझने के लिए रेणु को नहीं पढ़ते। वह हमें आज भी बहुत करीब प्रतीत होते हैं। यदि नहीं होता तो आज की युवा पीढ़ी उनके साहित्य में ऐसी दिलचस्पी नहीं लेती।
मोटे तौर पर,अथवा रूढ़ अर्थों में, रेणु की दुनिया अथवा लोक है पुराने पूर्णिया जिले का वह इलाका, जो उनके ही शब्दों में :
-‘ धूसर ,वीरान , अंतहीन प्रांतर।
पतिता भूमि, परती जमीन , वन्ध्या धरती ..
धरती नहीं, धरती की लाश, जिस पर कफ़न की तरह फैली हुई है बालूचरों की पंक्तियाँ। उत्तर नेपाल से शुरू होकर, दक्षिण गंगातट तक, पूर्णिया जिले के नक़्शे को दो असम भागों में विभक्त करता हुआ –फैला -फैला यह विशाल भूभाग। लाखों एकड़ भूमि ,जिस पर सिर्फ बरसात में क्षणिक आशा की तरह दूब हरी हो जाती है। ‘
( ‘परती -परिकथा ‘ की आरम्भिक पंक्तियाँ )
यह है रेणु का भौगोलिक लोक। अपने प्रथम उपन्यास ‘मैला आँचल ‘ में भी वह इसी प्रकार इस इलाके को रखते है :
‘ ऐसा ही एक गांव है मेरीगंज। रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब ,बूढी कोशी को पार कर के जाना होता है। बूढी कोशी के किनारे -किनारे बहुत दूर तक ताड़ और खजूर के पेड़ों से भरा हुआ जंगल है। इस अँचल के लोग इसे ‘नवाबी तड़बन्ना ‘ कहते हैं। किस नवाब ने इस ताड़ के वन को लगाया था, यह कहना कठिन है, लेकिन वैशाख से लेकर आषाढ़ तक आस -पास के हलवाहे -चरवाहे भी इस वन में नवाबी करते हैं। ….तड़बन्ना के बाद ही एक बड़ा मैदान है, जो नेपाल की तराई से शुरू होकर गंगाजी के किनारे खत्म हुआ है लाखों एकड़ जमीन ! वन्ध्या धरती का विशाल अँचल . इसमें दूब भी नहीं पनपती है।. ….’
( मैला आँचल , रेणु रच -2 ,पृष्ठ 26 )
वह आगे इस गांव के सामाजिक समीकरण को बस एक पंक्ति में रखते हैं –
‘ मेरीगंज एक बड़ा गांव है ; बारहो बरन के लोग रहते हैं।’
दरअसल यह निलहे साहब की कोठी वाला गांव है; जो रेणु के कोसी जनपद में जमींदारों की ठेठ पैठ का प्रतीक भी है। एक साक्षात्कार में रेणु ने अपने इलाके में देशी -विदेशी जमींदारों की ऐसी पैठ का विस्तार से वर्णन किया है। जर्मनी में रासायनिक विधियों से नीले रंग की खोज के उपरान्त नील की खेती बंद हो गयी और निलहे जमींदारों की कोठियां रेणु के शब्दों में ‘ अरराकर ‘ गिरने लगीं और ‘ मैला आँचल ‘ का मेरीगंज तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद का मेरीगंज हो गया। जिसमें ‘ राजपूतों और कायस्थों के मन -मुटाव और झगडे होते आये हैं। ब्राह्मणों की संख्या कम है, इसलिए वे हमेशा तीसरी शक्ति का कर्तव्य पूरा करते रहे हैं। अभी कुछ दिनों से यादवों के दल ने भी जोर पकड़ा है। जनेऊ लेने के बाद भी राजपूतों ने यदुवंशी क्षत्रिय को मान्यता नहीं दी … ‘
ऐसा ही है मेरीगंज ,जो जात-पात की डोर पर टंगा है। जातियों के ताने -बाने को रेणु ने बहुत सूक्ष्मता से समझा है। वह ग्रामीण यथार्थ की परतों को साफ़ -साफ़ ,रेशे -रेशे उभार कर रखते हैं और हमें हैरान करते हैं, अचरज में डालते हैं। गांवों के सामाजिक यथार्थ को इतनी समझदारी से समाजशास्त्रियों ने भी नहीं प्रस्तुत किया है।
लेकिन रेणु के मेरीगंज में सब कुछ यथार्थ ही नहीं है। क्या प्रशांत जैसा पात्र यथार्थ है ? ऐसे गांव में जहाँ बारहो बरन के लोग रहते हैं, एक अज्ञातकुलशील प्रशांत, जो जाति-वर्ण के व्याकरण में निर्जात है, रेणु का नायक कैसे और क्यों बनता है ? यह सोचने की बात है। इसीलिए मैंने जैसा कि ऊपर कहा, रेणु का लोक केवल वही नहीं है ,जो उस इलाके में है। उनके लोक में प्रशांत और कमली भी हैं ,नए युग के नायक ,जो जाति-बरन और पारम्परिक रूढ़ियों को नकारते हैं। रेणु के लोक में जित्तन भी शामिल है, जो सचमुच एक नई दुनिया गढ़ने में लगा है। सोशलिस्ट कार्यकर्त्ता कालीचरण है,जो भ्रष्ट नागासाधु को खदेड़ता है और दुखी लछमिन कोठारिन के पक्ष में तन कर खड़ा हो जाता है । ‘तीसरी कसम ‘ कहानी का नायक हिरामन या ‘जुलूस ‘ उपन्यास की पवित्रा दी, जैसे अजूबे पात्र शायद यथार्थ रूप में नहीं हों, लेकिन रेणु के लोक के प्रमुख अवयव हैं। इन्हें ख़ारिज कर या बाहर कर हम रेणु का लोक तय नहीं कर सकते।
रेणु के लोक में उनके इलाकों के लोकरंग और राग हैं, कतिपय प्राकृतिक छटा और उसकी कल -कल ध्वनियाँ हैं। लेकिन यह सब उनके लोक का परिधान है ; वास्तविक लोक उनकी चेतना है , जिसके राजनैतिक और सामाजिक ताने – बाने हैं। इसका केंद्रीय तत्व वह समाजवादी आदर्श है ,जिसे अठारहवीं सदी के आखिर में हुए फ़्रांसिसी -क्रांति ने उछाला था – समानता , भाईचारा और आज़ादी का आदर्श जो उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उत्पीड़ित समाजों का राजनीतिक कार्यक्रम बन गया।
रेणु ने उसी धूसर भूमि पर बसे एक गाँव औराही -हिंगना में जन्म लिया और एक समाजवादी कायकर्ता के रूप में जीवन का आरम्भ किया था। जैसे कबीर और तुलसी प्राथमिक रूप से भक्त आध्यात्मिक थे; वैसे ही रेणु प्राथमिक रूप से सोशलिस्ट थे; केवल वैचारिक स्तर पर नहीं, बल्कि सोशलिस्ट पार्टी के बजाप्ता कार्यकर्त्ता थे। उन्होंने भारत और नेपाल के स्वतंत्रता संग्राम में खुल कर हिस्सा लिया था। जेल गए थे। यह सब कुछ खुला सच है, जिसे जाने बिना आप उनके लोक को नहीं समझ सकते। शायद यही कारण है कि उनके लोक में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भरमार है। कांग्रेसी हैं ,समाजवादी हैं, कम्युनिस्ट हैं ,सब हैं। अनेक राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पीड़ा को उन्होंने अत्यंत ही संवेदनात्मकता के साथ कथारूप दिया है।
उनका लोक इतना आधुनिक और लोकतान्त्रिक है कि हमें हैरानी होती है कि किस तरह वह अपने समय से बहुत आगे की देख और सोच रहे थे। समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने भारत में दलविहीन जनतंत्र की अवधारणा को पहली दफा शिद्दत से उछाला। जयप्रकाश आज़ादी और लोकतंत्र की मुश्किलों को समझ रहे थे। उन्होंने यह बात 1974 के छात्र -आंदोलन के बीच रखी। लेकिन रेणु इसके बहुत पहले लोकतंत्र के सवाल को दल-विहीन स्वरुप में देखने लगे थे। राजनीतिक कार्यकर्ताओं को वह उसी तरह महत्व देते थे जैसे आद्योगिक ढांचे में मजदूर तबके को मिलता है। वह अनुभव कर रहे थे कि कारखानों में श्रमिकों, खेतों में किसानों और राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं की स्थिति का कमजोर होते जाना ठीक नहीं है। राजनीतिक कार्यकर्ताओं के कमजोर होते जाने का मतलब है, अंततः लोकतंत्र का कमजोर होते जाना। लोकतंत्र का कमजोर होना सामंतवाद का मजबूत होना है। सामंतवादी समाज में वह सामाजिक -न्याय की संभावना नहीं देख रहे थे। इसलिए उनकी कोशिश हर हाल में जनतंत्र को मजबूत करने की थी।
रेणु का लोक समाजवादी आदर्शों का है। उनके साहित्य में जाति और उसके टंटों के यथेष्ट वर्णन है, लेकिन उनके साहित्य का स्वर जाति -वर्ण मुक्त समतावादी समाज है, जहाँ मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण संभव नहीं है। रेणु का लोक एक परिष्कृत , सुशिक्षित , स्वतंत्रता -प्रेमी ऐसा लोक है, जहाँ लोग छोटी-छोटी बातों पर खुश होते हैं। मिहनतक़श तबके ,किसानों ,दस्तकारों , स्त्रियों और हासिये के सभी लोगों की पीड़ा को रेणु पूरी आत्मीयता से समझना चाहते हैं और यही कारण है कि उनकी दुनिया में ‘तीसरी कसम’, ‘आत्मसाक्षी’ ,’ठेस ‘ , ‘रसप्रिया ‘और ‘लालपान की बेगम’ जैसी अविस्मरणीय कहानियां संभव हुईं। ये रचनाएँ रेणु के लोक की इंद्रधनुषी झांकी हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं।