हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा पर बात करें , उस से पहले इस ऐतिहासिक परिवेश को भी जान लेना ज़रूरी है। अमीर खुसरो की इस ग़ज़ल पर ध्यान दें ….
ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़ ओ रोज़-ए-वसलत चूँ उम्र-ए-कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ
यानी 13 वीं -14 वीं शताब्दी में ही अमीर खुसरो ने एक ऐसी भाषा से ग़ज़ल का आगाज़ किया था , जो क्लिष्ट फ़ारसी और हिंदी की खांटी लोकभाषा की ज़ुबान में तराशी गयी थी। इसके पीछे अमीर खुसरो की कोई सोच ज़रूर रही होगी। यह अमर ग़ज़ल, हिंदू और मुसलमान को भाषाई स्तर पर और क़रीब लाने की एक कोशिश रही होगी। इस ग़ज़ल को लिखकर अमीर खुसरो ने संदेश दिया था कि “ हिंदुस्तानी ग़ज़ल “ ऐसी होनी चाहिए। इसे गंगा जमुनी तहज़ीब की एक वेशक़ीमती मिसाल कहें तो ज़्यादा उपयुक्त होगा। 1985 में गुलज़ार ने अपनी फ़िल्म ” गुलामी ” में भी इस ग़ज़ल को पेश किया था।
यह भी सही है कि उस समय हमारी भाषा संस्कृत थी , और लिपि देवनागरी।
विदेशी आक्रांता ख़ास तौर से मुगल अपने साथ अपनी भाषा भी लाये थे। 1526 में स्थापित मुगल साम्राज्य लगभग 1857 तक रहा। चूंकि मुगलों को यहाँ लंबे समय तक राज करना था और यहाँ की अवाम को संवाद हेतु अपनी भाषा सिखानी थी और उनकी भाषा सीखनी भी थी, इसलिए संस्कृत और फ़ारसी के आसान शब्दों का आपस में खूब विलय हुआ और दो नयी भाषाओं का जन्म हो गया। देवनागरी लिपि में हिंदी बन गयी और फ़ारसी लिपि में उर्दू। अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ के कार्यकाल में ये दोनों भाषाएँ खूब फूलीं फली। इतना ही नहीं मुगलकाल में चूंकि तमाम हिन्दू , इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिए इसलिए वो उर्दू सीखने के लिए और लालायित हो गए और उर्दू समृद्ध होने लगी। साथ ..साथ हिन्दुओं की हिंदी भी चलती रही लेकिन उसमें फा़रसी शब्दों का समावेश भी होने लगा था। इस प्रकार से हिन्दू और मुसलमान दोनों के यहाँ एक खिचड़ी भाषा तैयार हो गयी , जिसे कुछ लोगों ने बोलचाल की भाषा में “ हिन्दुस्तानी ज़ुबान “ कहना शुरू कर दिया | लिखने की लिपि अलग -अलग ज़रूर रही लेकिन बोली बानी में काफी साम्यता दिखने लगी।
थोड़ा और आगे बढ़ें। औरंगजेब ने भाषा के स्तर पर भी भेदभाव और कट्टरता बरतनी शुरू कर दी थी। जबकि उसका बड़ा भाई दाराशिकोह संस्कृत का बड़ा विद्वान था। फिलहाल औरंगजेब की कट्टरता से हिंदी को बड़ा नुक्सान हुआ। उसने उर्दू को प्राथमिकता प्रदान की और हिंदी को पीछे ढकेलने का काम किया। इस व्यवहार से हिंदी वालों के मन में काफी खटास आ गयी। नतीज़तन हिंदी वालों ने वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीतिकाल में जो काम हिंदी में हुआ था उसे आगे बढ़ाना ही उचित समझा। धीरे ..धीरे हिंदी. भारतेंदु युग से होती हुई खड़ी बोली में प्रवेश कर गयी। वह ब्रिटिश शासन काल था। अब हिंदी स्वतंत्र रूप से फलने – फूलने लगी। छायावाद, रहस्यवाद, आधुनिक कविता, छंद मुक्त कविता आदि कमोवेश इसी समय की देन हैं। यहाँ पहुँच कर , हिंदी पूरी तरह से देवनागरी लिपि और संस्कृतनिष्ठ शब्दों के दम पर आत्मनिर्भर हो गयी थी। दूसरी तरफ़ उर्दू वाले फ़ारसी लिपि में ग़ज़ल और नज़्म लिखते रहे। वह भी हिंदी से मुक्त रहे। लेकिन यहाँ एक बात और समझनी जरूरी है। चूंकि उस समय प्रायमरी स्कूलों में हिंदी और उर्दू साथ .साथ पढ़ाई जाती थी इसलिए फिर दोनों भाषाओं में साम्यता दिखने लगी। मुसलमानों के अलावा भी लोग उर्दू में पारंगत होने लगे। हिन्दू भी उर्दू में शायरी करने लगे। परन्तु फिर वही विडंबना सामने आने लगी। मुसलमान शायर , हिन्दू शायरों से ईर्ष्या करते थे उनको शायर ही नहीं मानते थे। वह उर्दू शायरी पर एकाधिपत्य जताते थे। इसका जिक्र ,पं ० रामनरेश त्रिपाठी की पुस्तक ” कविता कौमुदी ” भाग 4 में देखा जा सकता है। इस पुस्तक की प्रस्तावना में कविता के मर्मज्ञ पं०अमरनाथ नाथ झा, पूर्व वाइस चांसलर , इलाहाबाद विश्वविद्यालय लिखते हैं कि – ऐतिहासिक और शब्द -वैज्ञानिक दृष्टि से शब्द चाहे कुछ भी हो, पर हिंदी और उर्दू दो भिन्न भाषाएँ हैं। उर्दू- काव्य का समस्त वातावरण विदेशीय है। हिन्दू कवि / शायर उदार रहा है वह मज़ार और कब्र का जिक्र करता है। वह ईश्वर की जगह खुदा लिखता है। वह अपनी शायरी में भूल से भी सावित्री और सत्यवान, नल और दमयन्ती के जि़क्र नहीं लाता। लेकिन शीरी और फ़रहाद, यूसुफ़ और जुलेखा, लैला और मजनूं का नाम लेने में नहीं झिझकता। यहाँ तक कि उसने अपने नाम के साथ मुसलमानी कल्चर का उपनाम भी लगाने लगा। जैसे पं बृज नारायण उर्फ़ “चकबस्त “, रघुपति सहाय उर्फ़ “फ़िराक़ गोरखपुरी” , पं0 रामप्रसाद उर्फ़ “ बिस्मिल “| यहां यह भी ग़ौर करने वाली बात है कि किसी मुसलमान शायर ने अपने नाम के साथ हिंदी में उपनाम नहीं रखा। कविता कौमुदी में एक और तंज़ किया प्रोफेसर अमर नाथ झा ने। कहा कि -तीन सौ वर्षों के शायरी के इतिहास में सत्ताइस बडे शायरों का अध्ययन किया गया है। वे नाम हैं – वली, आबरू, एकरंग, आरज़ू, फ़ुगां, सौदा, सोज,दर्द, मीर, जुरअत, हसन, इन्शा, मसहफ़ी , नासिख़, आतिश, मोमिन, जौक़, ग़ालिब, अमीर, अनीस, दबीर, दाग़, आसी, हाली, अकबर, इक़बाल, चकबस्त। इसमें अंतिम एक नाम हिंदू का है | इस प्रकार हिन्दू शायरों की उपेक्षा की गयी। ऐसे में ग़ज़ल या शायरी की कोई “ मुश्तर्का ज़ुबान “ बन ही नहीं पायी और हिंदी उर्दू के बीच वैषम्य देखने को मिलता रहा।
अब हम अपना वर्तमान समय खंगालने की कोशिश करते हैं। यानी साहित्य में आज हिंदी उर्दू के बीच कैसा रिश्ता है ? वही पुराना हाल देखने में अभी भी आ रहा। हिंदी वाले कविता पर ज़ोर दे रहे हैं तो दूसरी तरफ़ उर्दू वाले ग़ज़ल और नज्म पर। इधर कुछ कवि ऐसे जरूर हुए हैं जो ग़ज़ल और नज़्म लिखने में भी माहिर हुए। यहाँ यह जानना बहुत ज़रूरी है कि हिंदी भाषा भाषियों को फिर से ग़ज़ल और नज़्म लिखने की जरूरत ही क्यों पड़ी ? वास्तव में बाज़ारवाद के इस युग में उन्हें पता है कि हिन्दी कविताओं के पाठक बहुत कम हो गये हैं। बहुधा देखा यह जा रहा कि हिन्दी कविताओं में वैचारिकी बहुत अधिक है। रवानी और लयात्मकता अपेक्षाकृत कम है। हिंदी की लंबी और छंद मुक्त कवितायें दिनोदिन उबाऊ होती जा रही। ऐसी कविताओं को पढ़ने और सुनने का समय ही शायद लोगों के पास नहीं। लोग कम समय में ज़्यादा पाना चाहते हैं। इससे इतर ग़ज़ल जो जनमानस में सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य विधा बनकर उभरी है उसमे गजब की सम्प्रेषणीयता है। आज सबसे ज़्यादा लिखी, पढी और सुनी जाने वाली काव्य – विधा गज़ल बन गयी है। वजह यह है कि ग़ज़ल के एक शेर में बहुत कुछ कहने की क्षमता होती है। यानी गागर में सागर भरने की कला ग़ज़ल के पास है। हिंदी ग़ज़ल की नींव तो कबीर ने ही डाल दी थी। लेकिन एक लंबे समय तक कवियों ने उसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। आधुनिक युग के कुछ कवियों जैसे निराला, त्रिलोचन, शमशेर ने हिंदी में फिर से ग़ज़ल की शुरुआत की। पर, उस दौर में ज्यादा ग़ज़लें प्रकाश में नही आयीं। वास्तव में दुष्यंत कुमार ने अपनी ग़ज़ल की क़िताब ” साये में धूप ” से हिंदी ग़ज़ल को एक नयी पहचान दी। आज आलम यह है कि जिसे देखिए वही खुद को ग़ज़लकार होने का दावा कर रहा। सोशलमीडिया पर ग़ज़लकारों की बाढ़ -सी आ गयी। लेकिन वास्तव में ग़ज़ल जितनी आसान दिखती है, उतनी होती नहीं। ग़ज़ल का अलग व्याकरण और अंदाजे बयां है, जिसे सीखना और पढ़ना पड़ता है। ग़ज़ल को साध पाना एक मुश्किल काम है। यह हुनर सबको नहीं आता। फिर भी ग़ज़ल की चमक को देखते हुए जिसे देखिए वही ग़ज़ल लिखने लगा है। एक मोटे तौर पर आकलन है कि पांच हज़ार से अधिक लोग ठीक ठाक ग़ज़लें कह रहे। ग़ज़लें पत्र -पत्रिकाओं में भी खूब छप रही। इस समय सबसे ज्यादा ग़ज़ल के ही विशेषांक छप रहे। इसलिए ग़ज़ल के प्रति कवियों / पाठकों /श्रोताओं का जबदस्त रुझान देखने को मिल रहा। देखने में यह भी आ रहा है कि इस समय तीन प्रकार की ग़ज़लें लिखी जा रही। मंचीय ग़ज़लें, पारंपरिक ग़ज़लें और जनवादी ग़ज़लें। कभी मंचों पर काव्य पाठ का उच्चस्तर हुआ करता था। जब कवि सम्मेलन के मंचों पर मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, महादेवी वर्मा, श्याम नारायण पांडेय, बच्चन जैसे कवि काव्य पाठ करते थे। तब कविसम्मेलन और मुशायरे अलग -अलग हुआ करते थे। अब अमूमन मुशायरे और कवि सम्मेलन एक साथ होने लगे। उर्दू शायर जब आमफ़हम जुबान में मंचों पर शायरी सुनाने लगे तो अवाम उसमें ज्यादा रूचि लेने लगी। हिंदी और उर्दू दोनों के जानकार ऐसी शायरी के दीवाने होने लगे। यहाँ तक कि मुशायरों में धाक जमाने वाले इन शायरों को मुंह मांगी फ़ीस भी मिलने लगी। इस प्रकार तमाम हिंदी वाले कवि, कविता छोड़कर ग़ज़ल कहने लगे और मुशायरों में भाग लेने लगे और अपनी आमदनी और पहचान बनाने लगे। बलवीर सिंह रंग, रामावतार त्यागी, दुष्यंत कुमार , नीरज ,कुंवर बेचैन जैसे हिंदी के और मजरूह , खुमार , अजमल , बशीर बद्र , वसीम बरेलवी , निदा फाजली , मुनव्वर राणा जैसे तमाम उर्दू के शायर इसी राह के राही हुए। शलभ श्रीराम सिंह , अदम गोंडवी की गजलों ने भी मंचों पर खूब धूम मचा रखी था। अदम गोंडवी के साथ तो मैंने खुद अनेक कवि सम्मेलन के मंचों को साझा किया है इसलिए यहाँ भी मैंने उनका मेयार देखा है।
पारम्परिक गजलों की बात करें तो यह कहना लाजिमी होगा कि हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में एक से बढ़कर एक परम्परावादी गजलकार हुए। यानी हजारों साल से चली आ रही गजल की वही जुबान और वही शैली देखने को मिलती रही। हिंदी वाले उर्दू वालों के पीछे पीछे चलते रहे और नकल करते रहे। आलम यह हुआ कि हिंदी गज़ल पर उर्दू गज़ल का जबरदस्त आग्रह देखने को मिला। उर्दू ग़ज़ल के व्याकरण को निभाने की बात यहाँ सबसे ज्यादा की जाती है। अगर ग़ज़ल पूरी तरह से बहर और अरुज़ पर खरी नहीं उतरती तो वह मुकम्मल ग़ज़ल नहीं मानी गयी। भले ही तमाम ग़जलों की अंतर्वस्तु में कोई दम नहीं था। लोगों का ध्यान मात्र गज़ल के व्याकरण और तक़्ती तक सीमित रहा। कुछ ग़ज़लकार, ग़ज़ल के इस उद्देश्य से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने आम जनता की समस्याओं को ग़ज़ल में उठाना चाहा। जिसमें ग़ज़ल की अंतर्वस्तु पर अधिक ध्यान दिया गया। थोडी़ बहुत अगर बहर इधर -उधर हुई तो इन शायरों ने परवाह नहीं की। इनका उद्देश्य था बात आम आदमी तक पहुंचनी चाहिए। भाषा भी बोलचाल की रखी , ताकि शब्दकोश की जरूरत न पड़े। इसे समकालीन ग़ज़ल भी नाम दिया गया।
साहित्य की विशिष्ट पत्रिका * आजकल * के अगस्त 2020 , * हिंदी ग़ज़ल के सरोकार * में जीवन सिंह सिंह लिखते हैं –
कहना न होगा कि दुष्यंत कुमार के बाद ग़ज़ल को एक नयी भूमि पर लाने वाला एक किसानी नाम सामने आया अदम गोंडवी का , जो ग़ज़ल को मध्यवर्गीय शहरी आवासों से निकालकर गाँवों की झौंपड़ियों और किसानों के घरों में ले गया। दुष्यंत और अदम के बीच में हिंदी ग़ज़लकारों की एक समृद्ध कड़ी मौजूद है लेकिन वह ग़ज़ल को मध्यवर्ग की संकीर्ण और सिकुड़ी हुई भूमि पर ही अपने शैल्पिक अंदाज़ में घुमाने का काम ज्यादा करती है। शिल्प—संरचना और नवीन कल्पनाओं की दृष्टि से दुष्यंत की परम्परा में आने वाले इन ग़़ज़लकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है किन्तु जन—सरोकारों के मामले में वह मध्यवर्गीय सरोकारों की गिरफ़्त से बाहर नहीं निकल पाती। वह उन बुनियादी जीवन-सरोकारों तक ग़ज़ल को नहीं ला पाते जहां अदम उसको लेकर आ जाते हैं। इसके बावजूद ये मध्यवर्गीय गज़लकार ग़ज़ल को नए नए अंदाज़ देते हैं, उसको नया शिल्प देते हैं। इन ग़ज़लकारों में गोपालदास नीरज, सूर्यभानु गुप्त , भवानी शंकर, ज्ञान प्रकाश विवेक, देवेन्द्र आर्य , हरेराम समीप , ज़हीर कुरेशी , इंदु श्रीवास्तव , सुलतान अहमद , माधव मधुकर, महेश अश्क, शेरजंग गर्ग, वशिष्ठ अनूप, माधव कौशिक , हस्तीमल हस्ती ,विज्ञानव्रत, कमलेश भट कमल, ओम प्रकाश यती , कुमार विनोद, विनय मिश्र , मृदुला अरुण , पुरुषोत्तम प्रतीक , रामनारायण स्वामी , अशोक अंजुम, वर्षा सिंह, गोपाल गर्ग, सुरेन्द्र चतुर्वेदी , दिनेश सिंदल आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिन्होंने ग़ज़ल को मध्यवर्गीय संवेदनशीलता के दायरे में खूब बरता है।
कहना न होगा कि अदम गोंडवी ने ग़ज़ल को इस दिशा में लाकर उसे एक नयी धरती और नये आकाश की नयी दुनिया में लाते हैं जहां नए जन—सरोकारों का एक खुला आकाश मिलता है। खुशी की बात यह है कि जीवन के इस नए क्षेत्र की संस्कृति और जीवन—मूल्यों से सम्बद्ध अनुभवों को ग़ज़ल में लाने वाले कई गज़लकार भी सामने आते हैं इनमे कमल किशोर श्रमिक, रामकुमार कृषक , डी एम मिश्र, बल्ली सिंह चीमा ,महेश कटारे सुगम ,राम मेश्राम , नूर मुहम्मद नूर आदि प्रमुखतः ग़ज़ल को इस नई दिशा में ले जा रहे हैं।
कुछ व्यावहारिक समस्याएं भी हैं जो दोनों भाषाओं के व्याकरण ,भाषिक संरचना, उच्चारण भिन्नता, व लिपि के कारण उत्पन्न होती हैं। इसीलिये कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी और उर्दू गज़ल में संस्कारगत भिन्नता है। जिससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि उर्दू में बहुत कुछ ऐसा है जो हिंदी में है ही नहीं। मसलन पहले नुक्ता ही ले लीजिये। उर्दू में नुक़्ता बहुत महत्वपूर्ण है। हिंदी में नुक़्ता होता नहीं। नुक़्ता का शाब्दिक अर्थ बिंदु होता है। बिंदु जो में, नहीं, कहीं आदि में लगाया जाता है। जिन दिनों हिंदी -उर्दू विवाद जोरों पर था और अदालतों की भाषा भी उर्दू हो गयी थी। तब हिंदी वालों के सामने समस्या खड़ी हो गयी थी। मजबूरी थी कि वह उर्दू सीखें। जो इतना आसान नहीं था। तब राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद ने सुझाव दिया कि बोलने की ज़ुबान उर्दू ही रहे लेकिन फ़ारसी की सभी ध्वनियाँ देवनागरी लिपि में व्यक्त होनी चाहिए। बाद में उन्हें पता चला कि फ़ारसी की पांच ध्वनियाँ क, ख, फ, ग, ज देवनागरी में नहीं है तो उन्होंने उन अक्षरों के नीचे नुक़्ता लगाने का प्रस्ताव दिया। नुक़्ता लगाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। आपने कहावत सुनी होगी – नुक़्ते के हेर फेर से खुदा ज़ुदा हुआ। आप खुद फ़ैसला कीजिये जहाँ ज़रुरी है, वहाँ नुक़्ता लगाना कितना लाजिमी है। नहीं तो अर्थ का अनर्थ होने में देर नही लगती। कुछ उदाहरण से समझिये -ज़माना का अर्थ युग, काल, जमाना का अर्थ किसी चीज़ को जमाना जैसे दही जमाना, ख़ाना का अर्थ घर, या आलमारी आदि के ख़ाने, खाना का अर्थ भोजन करना, ख़ुदाई का अर्थ सृष्टि खुदाई का अर्थ कुछ खोदना। जलील कहते हैं प्रतिष्ठित को और ज़लील कहते हैं अपमानित को। खुद ग़ज़ल शब्द में भी ग और ज के नीचे नुक़्ता है।यह सब हिंदी ग़जलकारों के सामने दिक़्क़तें हैं। इसी तरह उर्दू वाले बहुत को बहोत, मेरा को मिरा, ज़्यादा को ज़ियादा आदि लिखते हैं। इसे हिंदी वाले अपने अनुसार लिखें तो भी दोष नहीं। यहाँ शब्द का वज़न गिरा कर काम चलाया जा सकता है। उर्दू लफ़्ज़ों की नाजुकी और कहन शैली भी हिंदी से कुछ न कुछ भिन्न होती है। उर्दू की बहर और हिंदी के गण भी पूरी तरह समान नहीं। हिंदी वर्णमाला के कई शब्द उर्दू में हैं ही नही। जैसे घ, छ, झ , थ, भ,ष आदि। यानी दोनों के व्याकरण में बहुत अंतर है। इस तरह के शब्द -युग्म भी हिंदी में नहीं होते -दिले नादां , हुस्ने अदा, ख़्वाबे ताबीर आदि।
इसी से हिंदी उर्दू गज़ल का विवाद भी उठ खड़ा हुआ। कुछ लोगों का मानना है ग़ज़ल, ग़ज़ल है उसे हिंदी, उर्दू ग़ज़ल कहने की ज़रूरत नही है ? ऐसी बात कहने वालों में हिदी के गजलकार ज्ञान प्रकाश विवेक का नाम भी आता है। वहीं हरेराम समीप हिंदी ग़ज़ल की परंपरा, समकालीन हिंदी ग़ज़लकार, जैसी किताबें लिखकर यह बताने की कोशिश करते हैं कि हिंदी और उर्दू ग़ज़ल अलग -अलग है। यही हाल मंचों का भी है। यदि आयोजक हिंदू है दो तिहाई कवि होंगे और शायर एक तिहाई बा मुश्किल से। इसके उलट मुसलमान आयोजक होगा शायर तो कितने भी हो सकते हैं लेकिन कवि दो या तीन।
इस प्रकार हम देखें तो आज ग़ज़ल की मुस्तर्का जुबान नहीं बन पायी और अमीर खुसरो का सपना अधूरा ही है
———————–
सम्पर्क: डॉ. डी एम मिश्र 604 सिविल लाइन , निकट राणा प्रताप पी जी कालेज
सुल्तानपुर 228001, उत्तर प्रदेश , मो: 7985934703