1.
अँधेरा है घना फिर भी ग़ज़ल पूनम की कहते हो
फटे कपड़े नहीं तन पर ग़ज़ल रेशम की कहते हो।
ग़रीबों को नहीं मिलता है पीने के लिए पानी
मगर तुम तो ग़ज़ल व्हिसकी गुलाबी रम की कहते हो।
चले जब लू बदन झुलसे सुना तुमको मगर तब भी
हवायें नर्म लगती हैं ग़़ज़ल मौसम की कहते हो।
तुम्हें मालूम है सूखे हुए पत्तों पे क्या गुज़री
गुलों के नर्म होंठों पर ग़ज़ल शबनम की कहते हो।
तुम्हारे हुस्न के बारे में हमने भी है सुन रक्खा
हमारा जख़्म भी भर दो ग़ज़ल मरहम की कहते हो।
2.
भेदे जो बड़े लक्ष्य को वो तीर कहाँ है
वो आइना है किन्तु वो तस्वीर कहाँ है।
कविता में तेरी छंद-अलंकार बहुत हैं
कविता में आदमी की मगर पीर कहाँ है।
इस देश में सब कुछ है अगर यह बताइये
इस देश में मज़लूम की तकदीर कहाँ है।
वह फ़िक्रमंद है फ़क़त कुर्सी के वास्ते
हालात पे इस देश के गंभीर कहाँ है।
दावे विकास के हैं मगर खोखले सभी
तालाब तो बहुत हैं मगर नीर कहाँ है।
देखा ज़रूर था कभी मैंने भी एक ख़़्वाब
देखा नहीं उस ख़्वाब की ताबीर कहाँ है।
3.
सत्ता की कामयाबियों में देखिये उसे
जनता की परेशानियों में देखिये उसे।
जनता को सिर्फ़ आँकडे़ दिखा रहा है वो
यूँ झूठ की उपलब्धियों में देखिये उसे।
धनवान देश के मेरे कंगाल दोस्तो
दौलत है मगर कोठियों मे देखिये उसे।
कहने को तो वो माननीय हो गया मगर
इस मुल्क की बरबादियों में देखिये उसे।
अपराधियों में कल तलक उसका शुमार था
अब कर्णधार मंत्रियों में देखिये उसे।
लेागों के वास्ते वो था इक देवता समान
जब राज़़ खुला सुर्खि़यों में देखिये उसे।
4.
रोज़ किसी की शील टूटती पुरूषोत्तम के कमरे में
फिर शराब की बोतल खुलती पुरूषोत्तम के कमरे में।
गाँव की ताज़ी चिडिया भून के प्लेट में रखी जाती है
फिर गिद्धों की दावत चलती पुरूषोत्तम के कमरे में।
अंदर में अँगरक्षक बैठे बाहर लगे सुरक्षाकर्मी
हवा भी आने से है डरती पुरूषोत्तम के कमरे में।
बड़े -बडे़ नेता और अफ़सर यहाँ सलाम बजाते हैं
क़िस्मत बनती और बिगड़ती पुरूषोत्तम के कमरे में।
घपला और घोटाला वाली भले तिजोरी कहीं रहे
चाभी मगर यहीं पर रहती पुरूषोत्तम के कमरे में।
फिर क्या गरज़ पड़ी रावण को सीता का वह हरन करे
उसे यहीं हर सुविधा मिलती पुरूषोत्तम के कमरे में ।
5.
राजनीति में आकर गुंडों के भी बेड़ापार हो गये
धीरे -धीरे करके जनता को भी सब स्वीकार हो गये।
लूटतंत्र में काले कौए उड़कर कहाँ से कहाँ हैं पहुँचे
बड़ी- बड़ी कुर्सी हथिया कर देश के खेवनहार हो गये।
ये सब फ़ितरत की बातें हैं पर हम जैसे क्या समझ्रेंगे
जिन पर था रासुका लगा वो बंदी पहरेदार हो गये।
जनता में पैसे बँटवाकर कैसे वोट ख़रीदा जाता
बूथ लूटकर बने विधायक फिर भी इज़्ज़तदार हो गये।
बड़ी- बड़ी बातें करते थे बड़े-बडे़ मंचों से कल तक
ऐसा क्या मिल गया कि अब वो बिकने को तैयार हो गये।
उसने तो चारा डाला था मगर हमीं धोखा खा बैठे
सेाने की कँटिया में फँसकर अपने आप शिकार हो गये।
अख़बारों में नाम छपे ये किसको नहीं सुहाता भाई
चार मुफ़्त का कंबल बॉँट के लेकिन वो करतार हो गये।
पढे़-लिखे उन बच्चों को कुछ भी करने को नहीं मिला जब
तो वो मौत के सौदागर के हाथों का औज़ार हो गये।
6.
इक तरफ़ हो एक नेता इक तरफ़ सौ भेड़िये
पर, पडे़गा कौन भारी सोच करके बोलिए।
खु़दबख़ुद हर चीज़ घर बैठे हुए मिल जायेगी
रामनामी ओढ़कर कंठी पहन कर देखिये।
रात भर मुँह कीजिये काला किसी का डर नहीं
दिन में फिर रंगे सियारों की तरह से घूमिये।
आज का जल्लाद है वो बात भी हँसकर करे
आप अपने हाथ से अपना गला ख़ुद रेतिये।
अब दलानों में नहीं मिलती पुरानी खाट वो
अब शहर जैसी कहानी गाँव में भी देखिये।
गाँव का तालाब फिर सूखा मिलेगा आपको
गाँव से उस व्यक्ति को फिर चुन के जाने दीजिये।
जो सियासत कर रहे हैं आइये उन से कहें
मोम की बस्ती हमारी आग से मत खेलिये ।
7.
हम भारत के भाग्य -विधाता मतदाता चिरकुट आबाद
लोकतंत्र की ऐसी -तैसी नेता जी का ज़िंदाबाद।
वो भी अपना ही भाई है मजे करै करने दे यार
तू जिस लायक़ तू वह ही कर थाम कटोरा कर फ़रियाद।
बड़े – बड़े ऊँचे महलों से पूछ रहा है मड़ईलाल
मेरा सब कुछ पराधीन है, किसका भारत है आज़ाद।
हर दल का अपना निशान है , मगर निशाना सब का एक
पहले भरो तिजोरी अपनी मुल्क -राष्ट्र फिर उसके बाद।
कफ़नचोर खा गये दलाली वीर शहीदों का ताबूत
फटहा बूट सिपाही पटकैं रक्षामंत्री ज़िंदाबाद।
सच्चाई का पहन मुखौटा ज्ञान बताने निकला झूठ
मेरी जेब कतरने वाला सिखा रहा मुझको मरजाद।
उससे क्या उम्मीद करोगे उसको बस कुर्सी से प्यार
जनता जाये भाड़ में वो बस अपना मतलब रखता याद।
दारू बँटने लगी मुफ़्त में लगता है आ गया चुनाव
जा जग्गू जा तू भी ले आ कहाँ मिलेगी इसके बाद।
नेताओं ने वोट के लिए बाँट दिया है पूरा मुल्क
फिर भी जिंदाबाद एकता बेमिसाल कायम सौहार्द।
8.
बहुत तलाशा मैंने लेकिन मिला न कोई बेईमान
जो जितना ही झूठा होता वो उतना ही बने महान।
कौन आकलन कर पायेगा किस दामन पर कितने दाग
मेरा गाँव , तुम्हारी दिल्ली भ्रष्टाचार में एक समान।
लेाकतंत्र का मज़ा लूटते दिल्ली में तुम बैठ के यार
गाँव में बैठके धूल फाँकते लेकिन हम करके मतदान।
किसकी ओर उठायें उँगली ज़िम्मेदार तो पूरा गाँव
उलट -पलट कर लूटन सिंह का ही परिवार रहे परधान।
छापा पड़ा तो उतर गया कितने चेहरों से आज नक़ाब
भरा पड़ा है काला धन अफ़सर, नेता सोने की खान।
जिसको देखेा परेशान है, जनता की ही सबको फ़िक्र
भेाली-भाली जनता को ही ठगना है सबसे आसान।
9.
सुनता नही फ़रियाद कई हुक्मरान तक
शामिल है इस गुनाह में आलाकमान तक।
मिलती नही ग़रीब को इमदाद कहीं से
इस मामले में चुप है मेरा संविधान तक।
फूटे हुए बरतन नहीं लोगों के घरों में
उसके यहाँ चाँदी के मगर पीकदान तक।
उससे निजात पाने का रस्ता बताइये
जो बो रहा है विष जमी से आसमान तक।
ये और बात है कि कोई बोलता नही
पर , शान्त भी नहीं है कोई बेजु़बान तक।
जनता जो चाह ले तो असंभव नहीं है कुछ
इन पापियों का खत्म हो नामोनिशान तक।
10.
मंत्री-अफ़सर दोनों भोग-विलास में डूबे हैं
जनता से बोलें हैं मगर विकास में डूबे हैं।
परदे के पीछे ये क्या -क्या खेल खेलते हैं
आँख मूँदकर लोग मगर विश्वास में डूबे हैं।
मेरे पूरे देश में जब पतझर ही पतझर है
मुगल गार्डेन के भँवरे मधुमास मे डूबे हैं।
कहाँ गये जो मासूमों के हक़ में लड़ते थे
बड़े-बडे़ कवि भाषा में , अनुप्रास में डूबे हैं।
आप सदन में बैठ के वहाँ मलाई काट रहे
सत्तर फ़ीसद लोग यहाँ संत्रास में डूबे हैं।
डी एम मिश्र, सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश