“संस्कृति” सामाजिक पारिवारिक विरासत है जो संचय से बढ़ता है। मानव का वह गुण जिसमें दया करूणा, परोपकार के भाव हैं, संस्कृति का हिस्सा है।
ब्रह्मर्षि संस्कृति ऋषि-मुनियों एवं साधकों के तप-बल के सहारे परम्पराओं के साथ विकसित हुआ है। यह एक कृर्षि संसकृति है। इस संदर्भ में प्राचीनतम ऋग्वेद में कहा गया है- अन्न-अन्न के मंत्र जाप से अन्न नहीं पैदा होता है। अन्न पुरुषार्थ से पैदा होता हैं, अन्नदाता के रूप में ब्रह्मर्षि समाज का परंपरागत पहचान है।
कृषि कार्य में व्यक्ति एवं समाज के संयुक्त एवं समन्वित प्रयास महत्वपूर्ण है कारण खेत एवं खलिहान जगाने में एक नहीं अनेक समुह जाति एवं वर्ग का संयुक्त होना जरूरी है।
आर्यों ने अन्न को भोज्य पदार्थ के रूप में जाना था। भगवान परशुराम का अवतरण संक्रमण काल में हुआ था। जब मनुष्य सामाजिक जीवन को अपनाने लगे थे। अखेटक साधन से अच्छा “हल” मानने लगे थे। वनों से हटकर गाँव बसने लगे थे। लोग पर्णकुटीर बनाकर प्राणियों को भी अपना सहयोगी बनाने लगे थे। जल संचय करने लगे थे। भगवान परशुराम ने भूमि का विभाजन किया और विभिन्न जातियों को उनकी क्षमता पहचानकर भूमि प्रदान किया था। हम इसी को ब्रह्मर्षि संस्कृति मानते हैं।
आज जिस नदी का चिन्ह तक अवशेष नहीं, उस विद्वता की जननी सरस्वती के विशाल तट पर वशिष्ठ, विश्वामित्र, भृगु और कण्व के आश्रम फैले हुए थे, वैदिक काल में भृगुवंश एक महाप्रचंड शक्ति था। इसी वंश के ऋषि जमदग्नि थे। वैदिक काल में नृचीक जमदग्नि, शुनशेष, परशुराम और कवि चायमान, और्य और मार्कण्डे ऐ सबल महाप्रतापी व्यक्ति थे। गाधी के जामाता ऋचीक और सरस्वती से जमदग्नि उत्पन्न हुए। जमदग्नि और विश्वामित्र ने साथ ही जन्म लिया और साथ ही उनका पालन-पोषण हुए। इन भांजे और मामा ने आर्यावर्त के ऊँचे आर्य संस्कार प्रापत किये। ऋचीक ऋषि के आत्मज जमदग्नि सात्विक वृति के थे।
सरस्वती नदी विलुप्त हो गयी थी। आर्य लोग नरमदा से मगध तक फैले हुए थे, इन दो समयों में बहुत हेर-फेर हुए। इन दोनों कालों का संकलग्न करने पर एक ही पराक्रम की बात प्रतीत होती है वह है, परशुराम का पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन करना एवं उपस्थित सभासदों के बीच क्षमता देख भूमि प्रदान करना। यह संक्रान्ति काल था। इस काल के अधिष्ठाता परशुराम थे। महर्षि धर्म का अभ्युदान करने के लिए शिवावतार परशुराम थे। परशुराम ने भीष्म, बलदेव और कर्ण को शास्त्र विद्या सिखाई। ऋषियों में यदि ईश्वर अवतार स्वीकृत हुआ है तो वह केवल भगवान परशुराम थे। हिमालय से निर्मित परशुराम श्रृंग से लेकर त्रावनकोर तक के स्थान इनके पुण्य संस्मरण अंकित है। ज्ञात होता है परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन हुआ था। वे सर्वशास्त्र सम्पन्न थे, उनके नसों में जगद्विगयी अग्निपूजनक भृगुओं का प्रतापी रूधिर बह रहा था।
मगध सम्राट राजा जरासंध वैदिक धर्म मानते थे। वासुदेव श्रीकृष्ण ने वैदिक पूजा को रोका। जरासंध ने संकल्प लिया था कि व्रात्यों एवं वासुदेव श्रीकृष्ण के सहयोगियों को मार दूंगा या मगध से भगा दूँगा।
महाभारत एवं भागवत महापुराण में जरासंध की चर्चा मनुष्य के रूप में एवं मगध के राजा के रूप में किया गया, वहीं वासुदेव श्रीकृष्ण को देवता या भगवान के रूप में वर्णन किया गया है। महाभारत काल में आर्यावर्त में दो शक्ति केन्द्र था। एक हस्तीनापुर जो क्षत्रिय राजाओं के अधीन था। एक मगध जो ब्राह्मण राजाओं के अधीन था। क्षत्रिय राजाओं में राजा बनने के लिए होड़ थी, यही कारण है महाभारत जैसा भयानक युद्ध हुआ था। सभी शूर-वीर मारे गए और हस्तीनापुर विरान हो गया था। दूसरा शक्ति केन्द्र मगध था जिसका राजनगर उन दिनों वसुमति या राजगृह था। इस नगर में राजा या राजाधिराज बनने के लिए कभी युद्ध नहीं हुआ। भागवत पुराण के अनुसार जरासंध या वसु के वंश के चालीस राजा हुए और 940 साल तक बिना युद्ध के राज संचालित होता रहा।
महाभारत और महा भागवत पुराण के अनुसार क्षत्रिय जाति का नाश हुआ था। प्रथम बार भगवान परशुराम के हाथों और दूसरी बार पारिवारिक संघर्ष के कारण महाभारत युद्ध में।
सभी मान्य ग्रंथों के पढ़ने या जानने के बाद यह भी स्पष्ट हुआ है कि ब्राह्मणों या ब्रह्मर्षियों के नाश का वृतांत नहीं मिलता। ब्रह्मर्षियों ने सदा शास्त्र अर्थात ज्ञान को ऊपर रखा एवं ऋषि-मुनियों एवं साधकों अलावे सेवकों को भी आदर दिया। घृणा नहीं प्यार या स्नेह प्रदान किया। यही ब्रह्मर्षि संस्कृति का सार तत्व एवं पूंजी है।
वासुदेव श्रीकृष्ण जी ने यदुवंशियों की रक्षा के लिए मथुरा का त्याग किया। क्योंकि जरासंध के आक्रमण का डर था। समुद्र में एक नगर बसाया और सुख के साधनों की व्यवस्था भी की गयी। वासुदेव श्रीकृष्ण जी से मिलने आने वाले ऋषियों से यदुवंशी उपहास करने लगे; अनादर करने लगे लम्बे वृतांत के अनुसार कई ढंग के अपशकुन द्वारिका में होने लगा…… और अन्त में आपसी कलह के कारण साधरण झगड़ा भयंकर हो गया एवं यदुवंश का नाश हो गया।
भागवत महापुराण के अनुसार वासुदेव श्रीकृष्ण ने क्षत्रियों के नाश एवं यदुवंशियों के नाश को धरती का भार कम करना माना है।
ईसा पूर्व 187 के आस-पास मौर्य राजा वृहदश्य (वृद्रथ) अत्यन्त दुर्बल कमजोर शासक था। इस कारण युनानियों के आक्रमण निरन्तर दक्षिण तथा पूर्व की ओर बढ़ते रहे। मगध तक उसके आक्रमणों का प्रसार हुआ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि शुंगवंशी ब्राह्मण सेनापति पुश्यमित्र ने, जो कश्यप गोत्रीय था। युद्धभीत, कायर और विलासी मगध के राजा वृद्रथ को मारकर शकों का सामना किया तथा उन्हें अपनी बुद्धिकुशलता और शौर्यबल से गान्धार देश से बाहर निकालकर छोड़ा। पुष्यमित्र तथा अग्निमित्र नामक प्रतापी शुंगवांरी ब्राह्मण राजा जिन्हें परशुराम के मार्ग पर चलने वाला माना जा सकता है ने तक्षशिला से कामरूप तक एक छत्र शासन किया, ‘स्मिथ’ और जायसवाल’ दोनो इतिहासकार इनके परिवार को राजगृह के आस-पास का मानते हैं। आजकल भी कश्यप गोत्रीय सुगन्यिां बाभन पटना जिला के पालीगंज थाने में खपुरा के आस-पास पाये जाते हैं। ये लोग प्राचीन शुङ्गायन ब्राह्मणों के वंशज हैं जिसवंश को सर्वप्रथम सम्राट पुष्यमित्र ओर अग्निमित्र ने अलंकृत किया।
इतिहास इस बात को सत्यापित करता है शुकवंशी और कण्ववंशी राजाओं ने विदेशियों से दो सौ वर्षों तक देश की रक्षा की और विदेशियों को, समय-समय पर आक्रमण करते समय जीतकर अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा यह घोषणा कर दी कि ‘यज्ञों’ वे विष्णुः। अर्थात यज्ञ ही विष्णु हैं।
शंगों का राजधर्म उदार एवं सहिष्णू था। उन्होंने तत्कालीन प्रचलित धर्मों का विरोध, बहिष्कार और परित्याग न करके उनको प्रोत्साहित एवं पल्लवित ही किया, उनके शासनकाल में शैव, भागवत, जैन और बौद्ध धर्मों में सामंजस्य स्थापित हुआ और विभिन्न सम्प्रदाओं को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हुयी। शुंगों के शासनकाल में विभिन्न माध्यमों में भारत का विदेशों से सांस्कृतिक धार्मिक तथा व्यापारिक सम्बन्धों का विकास हुआ।
शुंगकालीन ब्राह्मण संस्कृति ही ब्रह्मर्षि संस्कृति है इसमें शास्त्र और शस्त्र दोनों का महत्व है। ज्ञान ऊपर है और अन्य साधन नीचे हैं। यह व्यवस्था परिवार, समाज को एवं देश को एक रखने का सन्देश देता है।
हिन्दी के लोकप्रिय कवि गोस्वामी तुलसीदास की पंक्ति है
‘पराधीन सपनेऊ सुख नाहीं’। सच है, पराधीनता से बढ़कर और कोई अभिशाप नहीं। गुलामी इंसान के चिंतन शक्ति को कुंठीत बना देती है। पराधीनता किसी भी समाज के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। यह पराधीनता चाहे विदेशियों का हो या देशी गुलाम मानसिकता के राजा-नबाव, जमीन्दार या महाजनों का हो मनुष्य जाति के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। देश गुलाम था। अंधविश्वास एवं रूढ़ीवाद का शिकार था। कहते थे जिसके राज में सूर्य नहीं डूबता भला उसको कौन भगा सकता है?
विश्व इतिहास की भूमिका में डा० रामशरण शर्मा लिखते हैं-1920 के आन्दोलन ने लोगों में से जेल का डर हटाया, ’30 ने लाठी का डर हटाया’, ’42 ने गोली का डर हटाया और 45-46 में लोग आक्रमण ही नहीं सहते रहे, बल्कि प्रत्याक्रमण भी करने लगे।
इन सभी आन्दोलनों-संघर्षों में ब्रह्मर्षि नायकों की भूमिका सबसे आगे बड़कर रही है। 27 वर्ष का ब्रह्मर्षि पुत्र बैकुंठ शुक्ल मातृभूमि की आजादी के लिए फांसी को गले लगाय तो कितनों ने जेल यातनाएँ सही, ब्रह्मर्षि-एक संस्कृति
कितने काला पानी की सजा में वर्षों जीवन और मौत से जुझते रहे। यह संख्या सैकड़ों की है। लेकिन इस पुस्तक में सभी नायकों को स्थान नहीं मिल सका है।
ऐसा बौद्धिक व्यक्ति शायद कोई होगा जिसके मन में कभी न कभी ये आधारभूत प्रश्न न उठे हों कि मैं कौन हूँ, मेरा मूल कहां है, मेरी भवितव्यता क्या है? कहा भी गया है-
कोऽहँ कवहं कुलकि में, सम्बन्धः की दृशो मम। स्वधर्मों नहि लुत्येत होवं संचितयेद बुधैः ॥
साहित्य एवं इतिहास के लेखक युग-द्रष्टा होते हैं। उनकी यह मान्यता है कि हर एक व्यक्ति की तीन आँखें होती है। दो आगे रहती है और एक पीछे। इतिहास तीसरी आँख है। अतः हमको अपने को समझने के लिए तीसरी नेत्र से भी देखना होगा। अतीत के विश्लेषण में भविष्य निर्माण के लिए प्रेरणा प्राप्त होती है। इस कारण अतीत को परखकर वर्तमान में बहुत कुछ निर्माणकर लेने के बाद भविष्य के लिए मार्ग बनाने के लिए संकल्प लेना पड़ेगा। यही इस पुस्तक लेखन का प्रेरणास्रोत है।
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*लेखक मगही के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं और हिंदी साहित्य में भी दखल रखते हैं।* (नवादा, बिहार)