जब मैं पैदा हुआ था मेरे पिता दूसरे शहर में थे एक सैनिक संस्था में कोर्स करते हुए, कुछ महिनों बाद ही आ पाए। अस्पताल से मेरी माँ को और मुझे लेने आए थे अपनी गाड़ी से मेरे मौसा, माँ की बड़ी बहन के पति। शायद तभी से मेरा एक अदृश्य जुड़ाव हो गया था उस व्यक्ति से, आगे जाकर वे मेरे “गोड-फ़ादर” भी बने थे, एक वर्ष की आयु में पहली बार मेरे बाल भी उन्होंने ही काटे थे…
गांव में शायद ही मौसा जैसा कोई दूसरा पुरुष था। लंबे, चौड़े, ऊर्जावान, तीव्र, मज़ाकिया… सीमेंट के दो बड़े बोरे दोनों बग़लों में थामकर कहीं दौड़ते हुए काम से, मौसा की ऐसी भी एक छवि उभरती है गांवालों की यादों में। या फिर सख़्त गर्मी के मौसम में गांव के तालाब के पास से अपनी ट्रक चलाकर निकलते हुए बिना ट्रक को रोके उससे बाहर कूदकर तालाब में फटाफट डुबकी लगा लेना और वापस दौड़कर अपनी चलती हुई ख़ाली ट्रक को पकड़के और वापस अंदर कूदकर आराम से आगे चला लेना, ऐसा भी कर सकते थे। आवाज़ लगाते थे या सीटी बजाते थे तो गांव के दूसरे छोर तक सुनाई देता था। “सांड” करके पुकारते थे लोग मज़ाक में उनके बल और दुस्साहस वाली अदाओं के कारण।
मौसी से कई वर्ष बड़े थे। नवसेना में अवधी करके गांव लौटे थे तो गांव के “क्लब” में (एक सरल सी जगह जहाँ युवा लोग दिन भर मेहनत करने के बाद इकट्ठा होते थे थोड़ा गाने-नाचने और मज़े करने के लिए) उनकी मुलाकात हुई थी। मौसी तब मात्र सतरह वर्ष की थीं। वैसे उनका पहले से एक मंगेतर भी था, पर मौसा को कोई अंतर नहीं पड़ा, एकदम दीवाने जो हो गए थे। तुरंत पूरे जोश और दुस्साहस के साथ लाइन मारने में लग गए थे। मौसी डर गई थीं, भाग गई थीं… पर फंस भी गई थीं। दोनों को बेहद प्यार हो गया था। पुराने मंगेतर ने बदला भी लेना चाहा था, कुछ लड़कों के साथ मिलकर एक अंधेरी गली में घेर लिया था मौसा को एक बार। अपने लंबे हाथ-पैर चलाकर मौसा ने उन सभी को धूल चटाया था किसी फ़िल्म के नायक की तरह। किसी ने दोबारा साहस नहीं किया…
उसी सतरह वर्ष की आयु में मौसी विवाह के लिए भी तैयार हो गई थीं। मौसा से बेहद प्यार के सिवा उसका एक और कारक यह था कि अपने घर से जल्दी जाना चाहती थीं जहाँ मेरे दुष्ट पियक्कड़ नाना पत्नी-बच्चों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार करते थे। मौसी पांच बच्चों में सब से बड़ी थीं तो सबसे अधिक उन्हींको झेलना पड़ता था। बता रही थीं कि एक बार उस राक्षस ने बंदूक तक साधी थी अपनी बेटी पर, दस साल की भी नहीं हुई थीं तब… फिर भी विवाह का अर्थ पलायन नहीं था मौसी के लिए, माँ और छोटे भाई-बहनों से मिलने तो आती रही थीं। एक बार आईं तो नाना बहुत खराब मिज़ाज में थे, हंगामा मचा रहे थे, बच्चों को पीट रहे थे। मौसी बीच में खड़ी हो गई थीं तो नाना ने उनका गला पकड़कर दबोचने लगे थे… छूटकर भाग गईं थीं पति के पास। तब मौसा ने अपनी प्रिय स्त्री के गले पर वे काले निशान देख लिए थे… नाना के घर पहुंचकर जो धुलाई कर दी थी अपने ससुर की, कई हड्डियाँ तक तोड़ डाली थीं!.. वैसे संसार में अन्याय बहुत देखने को मिलता है पर कभी कभी लगता है कि फिर भी एक संतुलन सा बनाए रखता है यह ब्रह्मांड। जिस लड़की का बचपन क्रूर पिता के डर और शोषण में बीता था उसको पति तो ऐसा मिला था जिसके होते किसी में अब ग़लत नज़र से देखने का भी साहस नहीं रहा था… मौसा स्वयं ने भी कभी हाथ नहीं उठाया था पत्नी पर। सच्चा बलवान पुरुष महिला के साथ कभी हिंसक हो ही नहीं सकता है, होता है तो केवल नामर्द या मानसिक रोगी…
किंतु उन दोनों की संतान को लेकर ब्रह्मांड को शायद कुछ आपति थी। मौसी की कोख चार बार भारी हुई थी पर एक ही बच्चा जीवित जन्मा था… उनके इकलौते पुत्र, मेरे मौसेरे भाई, नानी के सबसे बड़े नाती। साथ खेलना तो नहीं हुआ, मुझसे सतरह साल जो बड़े थे, उनकी शादी में ज़रूर मज़े किये थे मैंने अन्य बच्चों के साथ।
वैसे मैं जब छोटा था तो मौसा को बहुत अच्छा लगता था मुझे छेड़ना। मैं एकदम गंभीर और ग़ुस्सा होकर झगड़ पड़ता था उनसे तो सब को बहुत मज़ा आता था। तब नानी नाना को छोड़कर अलग रहने लगी थीं तो नानी के घर में सबका मिलना-बैठना सुखद हो गया था। एक बार कुछ पार्टी चल रही थी, मौसा थोड़ा पीकर मुझे चिढ़ाने लगे थे अपनी आदत से। दो-तीन वर्ष का था मैं शायद। चुपचाप दूसरे कमरे गया और उधर से मुझसे भी बड़ा एक चमड़े का बना बेग पकड़कर फ़र्श पर घसीटकर लाया था। मेज़ पर बैठे सब लोगों की आँखें मुझपर रुक गई थीं और सबसे आगे तो मौसा का चौड़ा चेहरा मुझे देखकर मुस्कुरा रहा था। उन्हीं से कुछ कहना था मुझे। “क्यों दिखा लहा है अपना थोपला! एक लगाऊंगा न! ” – वह बेग उठ भी नहीं रहा था मुझसे पर इरादा पक्का था। बस समझ में नहीं आ रहा था कि सब उतना ज़ोर से क्यों हंस पड़े थे।
बड़ा होते-होते मौसा से मेरा काफ़ी तालमेल होता गया था, मैं समझता गया था उनके स्वभाव को। उन जैसा स्वस्थ और बलवान मैं तो नहीं निकला था, गांव के जीवन से अधिक पढ़ाई में व्यस्त रहा करता था, फिर भी एक अपनापन सा अनुभव होता रहा था जो केवल एक परिवार से जुड़े होने के कारण नहीं था…
हंसने-हंसाने में मौसा से बराबरी केवल मेरे दादा कर सकते थे। किसी पारिवारिक सभा में जब दोनों मिलते थे तो ठहाके लगते थे सब के। एक दूसरे से काफ़ी भिन्न थे पर कुछ स्पष्ट सी समानता भी थी। एक दूसरे का सम्मान भी बहुत करते थे। मैं बड़ा होकर समझने लगा था कि वास्तव में कितना बड़ा प्रभाव उन दो अद्भुत पुरुषों ने मेरी जीवन-दृष्टि पर डाला था… निश्चय ही, एक तीसरे अद्भुत पुरुष भी थे, मेरे पिता। पिता से तो मैंने नरम, दयालु, तार्किक और शांत होना सीखा था, जबकि उन दोनों से जोखिम की सीमा तक जीवन का आनंद उठाना सीखा था…
एक बात थी, मौसा को कभी किसी ने नाचते हुए नहीं देखा था। शायद सहज नहीं लगता था उनको। किसी भी पार्टी-उत्सव में, चाहे कितनी भी पी रखी क्यों न हो, कभी सब के साथ नाचे नहीं थे। मुझसे तो कहते रहे थे कि “तुम्हारी शादी में ज़रूर नाचूंगा”। क्षमा करें, मौसा, मैं भी नहीं नचा पाया हूँ आपको…
जितना हंसना जानते थे उतने ही भावुक भी हुआ करते थे, विशेषकर बात जब अपने प्रिय जनों की होती थी। गांव का जीवन कड़ी मेहनत से भरा होता है। अपने हाथों से नया मकान बनाना, खेती करते रहना, ढेर सारे पालतु जानवरों को संभालना, गांव के सामूहिक फ़ार्म में नौकरी करना, बच्चे को पोसना-पढ़ाना, साथ में शेष संबंधियों की भी यथामंभव सहायता करना – उस सब में मौसा-मौसी का जीवन एक चक्की में जैसे पिसता गया, दोनों का स्वास्थ्य उत्तर देने लगा था… एक बार मौसी गंभीर रूप से बीमार पड़ गई थीं। उन दोनों के बेटे तब तक अपने परिवार के साथ पास की नगरी में रहते थे। उनकी पत्नी, मेरी भाभी, बता रही थीं कि उस दिन मौसा गाड़ी भगाकर पहुंच गए थे बेटे के घर और उनकी आँखें आंसुओं से भरी थीं। पहले कभी ऐसी अवस्था में किसीने नहीं देखा था उनको, सब घबरा गए थे। आंसुओं को थामते हुए मौसा बोले थे – “बचा लो माँ को… वरना हम दोनों का क्रिया-करम करना पड़ेगा।” किसी को तनिक सा भी संदेह नहीं हुआ था उनकी बात पर, अच्छे से जो जानते थे उनको… मौसी ठीक हो गई थीं तब, फिर उनसे अधिक मौसा का ही स्वास्थ्य बिगड़ता गया था…
मौसा ईश्वर को नहीं मानते थे, चर्च नहीं जाते थे। कुछ बातों को लेकर उनकी एक अपनी मौलिक राय होती थी जो मैं बड़ा होकर ही ठीक से समझ पाया था। मेरे जीवन में ऐसा एक लंबा दौर था जब किशोरावस्था की आत्मखोज में बहुत धार्मिक बन गया था, चर्च जाने और पादरी बनने का सपना भी देखने लगा था। उस समय उस परिवेश में मेरी आध्यात्मिक जिज्ञासा को ईसाई के सिवा और कोई दिशा मिलना तो कठिन था, उसी परंपरा में जीवन सार खोजने लगा था। मेरे परिवार वाले थोड़े चिंतित हो गए थे, सोवियत नास्तिक पीढ़ियों के जो थे। बस माँ शांत रही थीं “यह भी उतर जाएगा” बोलकर… सही निकली थीं, अच्छी तरह जो जानती थीं मुझे। इसलिए नहीं कि मैं किसी भी बात पर अधिक समय तक नहीं टिक पाता हूँ। इसलिए कि मैं किसी बात पर अधिक समय तक नहीं टिक पाता हूं यदि वह बात सच्ची न निकली तो… चर्च की सच्चाई को भी जल्दी पहचान ली थी इसलिए छोड़ दिया। मौसा कभी कुछ नहीं बोले थे उस विषय पर। वे मुझे थोड़ा “बुद्धिजीवी” ढंग का समझते थे, पढ़ाई में सफल होने के कारण सम्मान भी करते थे। किंतु एक बातचीत हुई थी जो मेरी सबसे संजीव तथा सार्थक स्मृतियों में से एक बन गई थी…
किसी के जन्म-दिन के अवसर पर हम सब मौसे के बेटे के घर में थे। मैं स्कूल के अंतिम वर्ष कर रहा था उस समय। मौसेरे भाई के दो लड़के हैं मुझसे काफ़ी छोटे, उनके कमरे में उनके साथ कुछ खेल-मस्ती कर रहा था। बड़े लोग बड़े हॉल में बैठकर पार्टी कर रहे थे। फिर मौसा आ गए हमारे साथ थोड़ा बैठने के लिए। उनकी बहू पोलिश मूल की थीं, कैथोलिक, उनके घर में कैथोलिक शैली की कुछ तस्वीरें-मूर्तियाँ थीं जिनमें निश्चित रूप से क्रोस पर चढ़ाए गए यीशू की पीड़ा-भरी छवि भी थी। तब की मेरी धार्मिकता के बारे में मौसा जानते थे तो जब उनकी दृष्टि उस बेचारे यीशू पर पड़ी तो अचानक बोले मुझसे –
“एक बात समझ में नहीं आती है। एक क्रोस है जिस पर यीशू लटके हैं तड़प-तड़पकर मरने की स्थिति में। इस क्रोस को पूजते हैं, चूमते हैं, चर्च के शीर्ष पर लगाते हैं, गले में डालकर पहनते हैं… वह भी एक ऐसी वस्तु को जो मनुष्य को बड़े निरादरपूर्ण प्रकार से मारने का एक भयानक साधन है… विचित्र नहीं है यह? मानव की गरिमा का अपमान नहीं लगता?”
तब मैं एक कच्चा अंधविश्वासी था तो वही बोलने लगा था जो सभी ईसाई बोलते हैं, कि सच में मृत्यु-दंड के साधन को नहीं, उस पर दिए यीशू के बलिदान को पूजा जाता है, इत्यादि… मौसा चाहते तो विवाद जारी रखते पर उन्होंने छोड़ दिया था, शायद यह सोचकर कि क्या फ़ायदा है अब इस युवक को इसके चुने मार्ग से भटकाने का…
कुछ ही बरसों बाद मुझे बोध हुआ था कि मौसा तब कितने सही थे। उसके लिए मुझे भारत से जीवन जोड़कर और भारत जाकर, शिव और कृष्ण की आत्मसंतुलित एवं गरिमापूर्ण छवियों से परिचय करके आध्यात्म का वास्तविक अर्थ समझना पड़ा था। उस आध्यात्म का जो पीड़ा, डर, दोष और हीन-भाव में नहीं, किंतु जीवन-लीला, दर्शन, रास, पूर्ति एवं आनंद में विकसित होता है। यही आभास शायद मौसा को सहज रूप से प्राप्त हुआ था बिना उन चरित्रों एवं उनके गुणों के नाम सुने भी… मुझे खेद है इस बात का कि उनके जीते जी मैं उनसे यह नहीं कह पाया हूँ कभी कि मेरे आध्यात्मिक गुरुओं में से एक वे भी निकले थे…
मौसा जीवन के अंतिम कई वर्ष बहुत बीमार रहे थे। सब कह रहे थे कि कड़ी मेहनत से उन्होंने अपने स्वास्थ्य को ध्वस्त कर दिया था। बलवान होकर यह बिल्कुल नहीं मानते थे कि उनके जैसे अनोखे बल का भी सोच समझकर उप्योग करना चाहिए, किसी भी बोझ को बिना अनुमान लगाए उठाने लपक जाते रहे थे। अंततः जीवन के अखाड़े में उनका पहलवान वाला शरीर हार ही गया था बुरी तरह… उन वर्षों में जब मैं उनसे मिलने आता था तो कितना विचित्र लगता था उन कभी “सांड” पुकारे जानेवाले पुरुष की वह दयनीय स्थिति देखना जब वे चल भी नहीं पा रहे थे…
मौसी उनकी देखभाल करती रहती थीं दिन-रात। मेरी माँ के पास आकर आंसु थामते हुए बता रही थीं की रात की पीड़ा में मौसा जागी हुई और उनकी सेवा करती हुई मौसी से कह रहे थे – “मैं झेल रहा हूँ तो ठीक है… तुम्हें क्यों झेलना पड़ रहा है मेरे साथ!” किंतु उस दौर में भी मौसा शिकायत से अधिर मज़ाक करते थे, अतिथि आने पर उनके साथ बैठने को उठते थे, वोद्का भी पी लेते थे। ऐसे एक बार हम बैठे हुए थे उनके साथ, मौसी खाना परोस रही थी तो रुक गई थीं मौसा के पास उनको संभालते हुए। मौसा ने अनायास मौसी का हाथ पकड़कर उनको अपने करीब खींच लिया हलके से तो मौसी थोड़ा झुककर अपना सिर मौसा के सिर से लगा लिया था प्यार के आलींगन में। मौसा ने एक पल के लिए आँखें मूंद ली थीं और उनका थका हुआ बीमार चेहरा एक अकथ्य शांतिपूर्ण आनंद से चमक उठा था… ऐसा लगा था कि सत्तर और अस्सी के बीच के उन दो वृद्धों ने अपने कई दशकों के प्रेम के सुखद अनुभव को एक पल में देबारा जी लिया था…
जब मौसा का देहांत हुआ था मैं गांव से दूर था, अंतिम संस्कार में नहीं आ पाया था। जब आया था तो मौसी और उनके बेटे के साथ कब्रस्तान जाना हुआ था मौसा की कब्र देखने। देखकर मैं स्तब्ध रह गया था। मौसा की ताज़ी कब्र के सिरहाने में एक क्रोस खड़ा था जिस पर निरादरपूर्ण प्रकार से मारे गए य़ीशू की प्रतिमा टांगी हुई थी… आँसु आ गए थे मेरी आँखों में। अचानक मैं समझ गया था की मैं अकेला ही था जिससे मौसा इन धार्मिक प्रतीकों को लेकर मनुष्य की श्रद्धा और गरिमापूर्वक जीने-मरने पर अपना गहन सा विचार साझा करके गए थे… भावुक होकर मैंने वहीं कब्र के पास वह सारी बात उनके बेटे को बताई थी। भइया बहुत ध्यान से सुन रहे थे। फिर बोले थे – “यह क्रोस तो फिल्हाल लगवाया गया है बस कुछ समय के लिए, यह नहीं रहेगा यहाँ, मर्मर की एक प्लेट लग्वा देंगे उनके चित्र के साथ।“ राहत सी मिली थी मुझे सुनकर…
मौसा के साथ अपनी मेहनत से बनाए हुए घर में मौसी अकेली रह गई थीं। बेटा-बहू अपने पास रहने बुला रहे थे नगरी में स्थित अपने बड़े से मकान में, मौसी ने सख़्त मना किया था। उनको अपनी ही धरती पर मौसा की यादों से भरी हर वस्तु के साथ रहना था। बच्चे-पोते बस आते रहे थे मिलने और मदद करने। मौसी की इस आयु में भी अचानक रिश्ते का एक प्रस्ताव भी आया था एक वृद्ध पुरुष से। वे भी अकेले थे तो लगा होगा कि अकेलेपन से बहतर है एक दूसरे का सहारा करते हुए बुढ़ापा काटना। इधर भी मौसी ने सख़्त मना कर दिया था। शायद मौसा जैसे जीवन-साथी के पश्चात उनको अब न अकेलापन महसूस होता था, न ख़ालीपन…
मौसा की कब्र से वह क्रोस हटाया गया था। मौसी ने एक मर्मर वाली प्लेट बनवाकर लगवाई। वह भी जुगल आकार की। अर्थात जो एकसाथ दो कब्रों पर रखी जाती है। इस प्रकार मौसा की कब्र से सटकर ही मौसी की भी होनेवाली कब्र निर्धारित हो चुकी थी उनके जीते जी। मौसा की कब्र के सिरहाने अब मर्मर में बना उन्हीं का सुंदर जवान सा चित्र था जिसकी नक़्ल उनकी फ़ोटो से उतारी गई थी। प्लेट का दूसरा भाग ढका रहा था पर सब को पता था कि उस पर मौसी ने अपना भी चित्र बनवाया था। अंतर इतना था कि मौसा के चित्र के नीचे दो तिथियाँ लिखी हुई थीं, जन्म और मृत्यु की, जब की मौसी के चित्र के नीचे दूसरी तिथि के लिए अभी रिक्त स्थान था…
इस पर यदि समाप्त होता तो दुख से अधिक प्रेम-भरी कहानी लगती। पर नहीं… मौसी के भाग्य में एक और कठोरतम परीक्षा थी। वह जिसे एक माँ बुरे सपने में भी नहीं देखना चाहती है… उनके बेटे को केंसर हो गया था अचानक। मेरे मौसेरे भाई, अपने पिता जैसे जोशीले और तीव्र और अपने पिता के विपरीत नाचने के शौकिन, वे सुंदर युवक जिन पर लड़कियाँ मरती थीं जवानी में, जिन्होंने आर्मी और पुलीस दोनों की वर्दियाँ पहनकर समाज-सेवा की थी, दो होनहार बेटों के पिता, सबके देखते-देखते सूखने लगे थे साठ की आयु से पहले ही और सारे डॉक्टर शक्तिहीन रह गए थे… मौसा से उनके इकलौते पुत्र का निश्चय ही एक विशेष जुड़ाव रहा था। मृत्यु के बाद भी मौसा कभी कभी दिखते थे भइया को… और बेटे का अंतिम समय जब हो रहा था तो उस पार से वे ही आए होंगे उनको लेने। कम से कम भाभी तो यही बता रही थीं कि अंतिम दिनों में जब भइया शयन पर लेटे होश खो जाते थे तो कभी कभी किसी से कुछ बातें करने लग जाते थे अस्पष्ट सी। भाभी ने एक बार उनकी उस अवस्था में उनसे पूछा था अहिस्ता – “उधर कोई है तुम्हारे साथ?” जिस पर भइया ने एकदम स्पष्ट सी आवाज़ में उत्तर दिया था – “हाँ।“ –“कौन?” –“बाबा…”
और मुझे तो भइया के चले जाने से कुछ ही दिन पहले एक अद्भुत सा सपना आया था रात को। मौसा और भइया किसी प्रकाश भरे खुले स्थान पर दोनों एक सी सुंदर सफ़ेद कमीज़ें और काले पतलून पहने खड़े थे और एक दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर दिल लगाकर कोई गाना गा रहे थे…
मौसी… उन दिनों उनकी दिशा देखकर हृदय थम जाता था। देखकर क्या, सोचकर भी थम जाता था… आश्चर्य भी होता था कि कितनी शक्ति छुपी होगी इस महिला में… बचपन में बाप का आतंक, जीवन-भर की मेहनत और संघर्ष, बीमार पति की वर्षों तक देखभाल फिर उनको खोना… और उस सबसे ऊपर इकलौते बच्चे को भी खोना… नमन उस स्त्री-शक्ति को जो हमारी यूक्रेनी धरती की भांति बिस्फोटों से घायल होकर और रक्त से सिंचकर भी खिलना और नये जीवन को स्नेह से पालना नहीं छोड़ती…
आजकल मौसी की सबसे बड़ी चिंता है उनके पोते, मेरे भतीजे। एक तो सेना में है, मोर्चे पर लड़कर भी आया है। आगे क्या होगा किसी को नहीं पता। सोचकर झटका सा लग जाता है कि यदि वह भी… नहीं, वह तो सोचने से भी इंकार करता है मानस… तीनों पीढ़ियों को सफ़ेद कमीज़ों में एकसाथ गाते हुए नहीं देखना है मुझे किसी सपने में… तब तो मौसी भी तुरंत उनके साथ हो लेगी निस्संदेह…
गांव के कब्रस्तान में जब आना होता है तो मौसा के पास श्रद्धा भरा रुक जाता हूँ। अभी भी लगता है कि उनकी आँखें छेड़ रही हैं मुझे मर्मर में बने चित्र से मुस्कुराते हुए…
दिखाते लहिए अपना थोपला, मौसा… मुझे चिढ़ना है आपसे…
—–
( लेखक यूक्रेनवासी हैं और हिन्दी प्रेमी हैं )