पानी
वह प्रांत और शहर अब छूट चुका था। चतुर्भुज जब भी अपने गृह नगर में कुछ खामी देखते तो उन्हें अपना पुराना वर्किंग स्टेशन याद आ जाता। ट्रैफिक सिग्नल पर जब लोग गाड़ियों के बंद शीशों के अंदर से एक दूसरे की माताओं बहनों से नातेदारी जोड़ते तो बरबस वे तुलनात्मक अध्ययन करने लगते। अनुशासित लोग, अनुशासित जीवन शैली। न किसी के प्रति विद्वेष न कूटनीतिक वैचारिकी से प्रतिघात। स्थानीयता और मौसमी विषमता ने उन्हें विशेष खान पान के लिए विवश सा कर दिया था। परंतु वे आदमखोर न थे। कहते हैं कि ‘का हिंया तुम्हई नार गाड़ी गई है?’ शायद इसी मोह से चतुर्भुज ने अपना स्थानांतरण गृह क्षेत्र में करवा लिया। नाती के जन्मदिन पर आज जल्दी पहुंचने में जब आफिस से निकले तो खाली बोतल भरवाना विस्मृत हो गया। जिस चपरासी को इनके आफिस की जिम्मेदारी दी गई थी वह छुट्टी पर था। ये अपने विभाग के शैतान और पुरोहित स्वयं ही थे। बस स्टाप पहुंचने पर याद आया। समस्या का त्वरित निस्तारण वाटर बाटल खरीदने की तसल्ली से हुआ कि सामने वाटर वेंडिंग मशीन से दो रूपये में एक लीटर पानी। दो चार लोग लाइन में। ‘फुटकर दो रूपये।’ हर व्यक्ति से यही सवाल। जो कोई पांच या दस का सिक्का देता उसे पानी देने से इंकार। चतुर्भुज ने दो का सिक्का हेरा और पानी लिया। पीछे एक बुजुर्ग लाठी थामे पानी की बोतल और पांच का सिक्का लिए लाइन में। फिर वही सवाल ‘छुट्टा लाव।’ बूढ़े ने थैली टटोली मगर सब बंधे पैसे। जीवन के सहेज्य साहस ने तर्क किया, ‘उइ द्याखौ छुट्टा धरे हैं।’ मगर सरकारी बस अड्डा, ठेके की वेंडिंग मशीन और ठेकेदार का आदमी। उसका निर्मम होना अस्वाभाविक न था। चतुर्भुज को दया आई। ‘रुको बाबा हम दो रुपिया दे रहे हैं आप पानी लइ लें।’ बूढ़े की आंखों में पानी आ गया। सुखी रहौ बाबू। अभी हमै पास पानी बचा है यहि ते काम चला लेब।’
दाग
नीट का परीक्षा फल घोषित हो गया था। रचिता पिछले दो साल से आशा लगाए दिन रात एक कर रही थी। ‘सारी पापा।’ केशव पूरे सिस्टम को समझ रहे थे। स्वयं भुक्तभोगी थे। पूर्व दीप्ति में चले गए। ६६८ पृष्ठ की थीसिस साल भर के भीतर जमा कर दी थी। शोध निर्देशक ने बड़ी लंबी प्लानिंग का आश्वासन दिया था कि उसी विभाग में चयन हो जायेगा। वक्त बदला समीकरण बदले और केशव ने उस आश्वासन को स्याह स्मृति की तरह डिलीट कर दिया। रही होगी पढ़ाई लिखाई कभी योग्यता का मानक और रोजी रोटी का जरिया। समय मैनेजमेंट, एडजस्टमेंट और सेटेलमेंट का हो गया। प्राइवेट संस्थान में दाखिला कराने की सहमति बनी। एकमुश्त दस लाख जमा करने थे। बाकी फी बाद में। कॉमन फैमिली। फी तो किश्तों में हो जायेगी मगर इतने पैसे का इंतजाम? पूर्णिमा ने हल खोजा। ‘सारे गहने गिरवी रख दिये जायें!’ सोना चांदी सबको तौला गया एक ही पलड़े से। दस फीसदी दाग पर सात लाख की लिखा पढ़ी। मुनीम ने बही निकाला कि केशव ने रोक दिया, ‘आपने जब बेचा था तो कहा था कि अगर आपको ही वापसी होगी तो दाग आपका।’ ‘नहीं, गिरवी में दाग काटकर।’ केशव ने गहने वापस ले लिए। चिंता बेटी के भविष्य की। आंख नहीं लगी। संविदा में पढ़ाते समय का एक विद्यार्थी याद आया। ‘सुधांशु। सर्राफा की दूकान है उसकी, कमला टावर के पास। कल उसके पास चलेंगे।
‘सर, आप!’ गद्दी से उठकर केशव को प्रणाम किया।
‘सुखी रहो। बेटा ये कुछ गहने हैं। सारे ज्वैल पैलेस से लिए गये थे। उसके पास गये थे। कह रहा कि दाग है। बेटी के एडमिशन में..।’
सुधांशु ने मुनीम को आवाज दी।
‘आइये सर। ज्वैलरी तो प्योर है। इन्हें रखिए। दस हैं। और सर अब कभी गिरवी रखने की बात न सोचियेगा।’
न कोई लिखा पढ़ी न कोई ब्याज बट्टा और न कोई दाग!
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लखनऊ, उत्तर प्रदेश