क्या आपको पता है कि इस देश में कैसे-कैसे लोगों को पीएचडी और डी.लीट. मिल रही हैं बल्कि दिलवाई जा रही है?
मैं साहित्य और मानविकी का प्रोफेसर हूँ और बाक़ायदा पीएचडी शोधनिर्देशक की मान्यता भी मुझे मिली हुई है. यह सब कुछ होते हुए आज मेरे निर्देशन में कोई छात्र पीएचडी नहीं कर रहा है और न अबतक ऐसा कोई विद्यार्थी मुझे मिला है जिसे मेरे निर्देशन में ही पीएचडी करने की तीव्रतम इच्छा या अभिलाषा हो और किसी उत्तम विषय का उसने चुनाव या उसका अध्ययन पहले से कर रखा हो. ऐसा नहीं है कि अब तक कोई छात्र आया ही नहीं. 2-3 ऐसे छात्र जो केवल अपने नाम के आगे डॉक्टर विशेषण या जिसे आभूषण भी कह सकते हैं लगा सके इस कामना से मिलने आए थे और उन्हें यह अभिप्रेत था कि मैं ही विषय उन्हें दूँ और ऐसा दूँ जिसपर सरलता से काम हो सकें या उनका लगभग पूरा काम कर दूँ.अब मैं ऐसा क्यों करूँ? इससे मुझे क्या उपलब्धि हो सकती हैं? फिर भी मैंने उन्हें तीन-चार विषय दिए के वें नाराज न हो और कहा कि इन विषयों पर आप 400-500 शब्दों में कुछ लिखकर लाए और फिर हम आगे बढ़ेंगे. आजतक किसीने कुछ नहीं लिखा और न मुझे कभी मिले.
किसी तरह पीएचडी करने की इच्छा रखने वाले यह लोग जिन्हें मैं कुशिक्षित बिरादरी का अंग कहूँगा समाज के सामने कौनसा आदर्श उदाहरण पेश करना चाहते हैं? कुछ समझ में नहीं आता. जिनकी साहित्यिक दृष्टि या समझ ही विकसित नहीं हुई हैं वें साहित्य के कौनसे पक्ष पर उत्तम विचार या शोधकार्य कर सकते हैं? इस तरह के कच्चे-पक्के लोग पीएचडी करके एक तो उच्चशिक्षा की संस्कृति को भ्रष्ट कर रहे हैं और छ्द्म उच्चशिक्षित बनकर समाज को ठग रहे हैं. मौलिक चिंतन-मनन की क्षमता का नितांत अभाव जिनमें हैं वें पीएचडी जैसे तमाम शोधकार्यों के सर्वथा अपात्र लोग हैं. जिस विषय पर उन्होंने पीएचडी किया उसके किसी भी पक्ष को लेकर इधर के पंद्रह-बीस वर्षों में उन्होंने एक अक्षर तक लिखा नहीं है. मेरे पेशे में ऐसे अनेक डॉक्टरेट प्राध्यापक है जो अपने विषय को छोड़कर हर तरह के विषयों पर शोधपत्र लिखते रहते हैं. जैसे उन्होंने शोधकार्य को अपनी जनरल प्रैक्टिस बना लिया हो. संत साहित्य–पेपर तैयार, लघुकथा–पेपर तैयार, ग़ज़ल–पेपर तैयार, आदिवासी विमर्श–पेपर तैयार, रामकाव्य–पेपर तैयार. जहाँ-जहाँ जिस-जिस विषय पर संगोष्ठी होगी उस विषय पर इनका शोधपत्र तैयार. इनके निर्देशन में शोध करने वाले छात्रों की भी लंबी कतार है. हो क्या रहा है भाई? कुछ एक सप्ताह पूर्व राजस्थान के किसी विश्वविद्यालय से एक शोधछात्रा का फोन आया. वह डायरी विधा पर पीएचडी कर रही हैं. उसे किसीने मेरे बारे में बताया कि मैं डायरी विधा में विशेषज्ञ हूँ और मैं उसकी विषय को लेकर कुछ सहायता कर सकता हूँ और मैंने की भी. तुरंत उसे रामदरश मिश्र और नरेंद्र मोहन के मैंने लिए प्रकाशित साक्षात्कार भेज दिये. कुछ डायरियों की समीक्षाएं भी भेज दी. शोधछात्रा मुझसे आग्रह करने लगी कि उसे डायरी विधा के बारे में कुछ भी पता नहीं हैं. उसने उक्त दो डायरीकारो के साथ मोहन राकेश की डायरी को भी लिया है. मैंने कहा कि यहाँ मोहन राकेश को लेने का क्या औचित्य हैं? इन तीन डायरीकारो को लेकर शोध की क्या परिकल्पना आपने सुनिश्चित की है? मैंने उसे विषय को लेकर कुछ नई दिशाओं से अवगत कराया तो कहने लगी कि अब इसकी प्रस्तुत रूपरेखा में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है सर और मैं तो दो चैप्टर लिख भी चुकी हूँ. लो,यह हुई न बात. उसके शोधनिर्देशक उसे कहते हैं कि जल्दी कुछ लिखो और थीसिस सबमिट करो.अब यहाँ मेरा क्या औचित्य रहा है?
मौलिक चिंतन और समीक्षा से संबंधित मेरी तीन पुस्तकें अबतक प्रकाशित हो चुकी है. मैंने देखा कि ऐसा प्राध्यापक और शोधनिर्देशक जो एक पृष्ठ भी मौलिक चिंतन या समझ से नहीं लिख सकता.जिसकी खुद की कोई मौलिक किताब नहीं है उसके निर्देशन में 8 से 10 छात्र पीएचडी उपाधि ग्रहण कर चुके है. आजकल के विश्वविद्यालय पीएचडी डिग्रियों को रेवड़ी की तरह बाँट रहे हैं. मैंने अभी-अभी पढा कि एक यूनिवर्सिटी ने भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी राहुल द्रविड को भी पीएचडी देनी चाही.पर उस ईमानदार खिलाड़ी ने उसे लेने से मना कर दिया. क्यों? उसकी यह हकीकत जो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रही हैं आपके अवलोकनार्थ दे रहा हूँ.
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क्रिकेटर राहुल द्रविड़ को बैंगलोर विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था, लेकिन राहुल द्रविड़ ने इसे वापस कर दिया.न केवल वापस दिया, बल्कि एक अद्भुत भाषण भी दिया, उन्होंने कहा – “मेरी पत्नी एक डॉक्टर है, उसने इस उपाधि को पाने के लिए अनगिनत दिन बिताए हैं.
मेरी माँ आर्किटेक्चर की प्रोफेसर हैं, उन्होंने इस डिग्री के लिए पचास साल लंबा इंतजार किया, उन्होंने मेहनत की.मैंने क्रिकेट खेलने के लिए बहुत मेहनत की, लेकिन मैंने उतनी पढ़ाई नहीं की, तो मेरे पास यह डिग्री कैसे हो सकती है?
जब हम किसी चीज़ के लिए अयोग्य है तो हम उसे क्यों ले? यह उदाहरण देश के सामने किसी शिक्षक,नेता,प्रोफेसर या यूनिवर्सिटी ने पेश नहीं किया बल्कि एक क्रिकेट खिलाड़ी ने किया. यद्यपि राहुल इसके लिए बड़ी हद तक डिजर्व भी करते हैं.राहुल द्रविड ने जो आदर्श स्थापित किया वह तो शिक्षा क्षेत्र का बड़े से बड़ा विद्वान भी नहीं कर सकता. राहुल द्रविड के प्रति मेरी सम्मान की भावना और भी बलवान हो गई.
संभवतः 2020 के आसपास की बात हैं. मैं किसी कार्य के सिलसिले में स्थानीय विश्वविद्यालय गया था. जब वहाँ के रिसर्च सेक्शन में गया तो वहाँ के अनुभाग अधिकारी ने मेरे प्रति स्नेह व्यक्त करते हुए कहा कि सर, आपके निर्देशन में तो अभी तक एक भी छात्र पीएचडी नहीं हुआ है. कम-से-कम दो छात्र शीघ्र पीएचडी होना आपके लिए आवश्यक है. मैंने पूछा कि क्यों? तो उन्होंने बताया कि यह एक ऐसी कंडीशन है जिसके बल पर आप यूनिवर्सिटी की कई बॉडियों पर पहुँच सकते हैं. असल में मैंने कभी इस विषय में सोचा ही नहीं था।
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(महाराष्ट्र)