“उस किताब को तुम देख रही हो” देवजीत देवबर्मन उससे मुस्कुराकर बोला- “उसने मेरा जीवन बदल दिया था।”
“वह कैसे” माधवी उत्सुकता से भरकर बोली- “जब वह किताब तुम्हारी थी, तो तुमने उसे म्युजियम में क्यों दे दिया? और उस किताब ने कैसे तुम्हारा जीवन बदल दिया!”
“यह भी एक कहानी है। या संयोग जैसा कुछ कह लो। मुझे वह किताब मेरी मॉं के एक पुराने संदूक में पड़ी मिली थी। उनका देहांत मेरे छुटपन में ही हो गया था। वह पढ़ी-लिखी तो नहीं थी। मगर उन्हें लिखने-पढ़ने का बेहद शौक था। उन्होंने स्वयं ही देख-सुनकर लिखना-पढ़ना सीख लिया था। वह किताब त्रिपुरा की प्राचीन काकबरक भाषा में और बँगला लिपि में लिखी गई है। मुझे मेरी मॉं ने यह भाषा सिखलाई थी। इसलिए मैं स्थानीय काकबरक भाषा समझता-बोलता ही नहीं, बल्कि पढ़ भी लेता हूँ। तुम्हें तो पता ही है कि हम त्रिपुरा राजघराने से ताल्लुक रखते थे। मगर राजतंत्र खत्म होते ही सारा वैभव, सारा ऐश्वर्य खत्म हो गया था और हम सड़क पर आ गए थे।”
“इसके बाद क्या हुआ।”
“छोड़ो यह सब बातें” वह उपेक्षा में भरकर बोला- “वह सब एक दुःस्वप्न की तरह था। कल सुबह हम त्रिपुरा का वह भव्य राजमहल देखने जाएँगे, जो अब यहॉं का विधान सभा भवन है।”
माधवी ने स्पष्ट देखा कि अतीत की बाते करने पर देवजीत के चेहरे पर विषाद की छाया मंडराने लगी है, तो उसने बात को वहीं छोड़ उसके साथ वापस लौट चली। आज त्रिपुरा के अगरतला स्थित स्टेट म्युजियम को देखकर उसे यहॉं के बारे में बहुत सारी जानकारी मिली थी। मगर देवजीत ने उसे जो बताया था, उसे जानकर वह आश्चर्यचकित थी। किताबें महत्वपूर्ण होती हैं! तब और, जब वह बहुत पुरानी और पांडुलिपि रूप में हों। तब उनका ऐतिहासिक महत्व बढ़ जाता है। शीशे की आलमारी में बंद उस पुस्तक को वह छूना चाहती थी, जिसे देवजीत के किन्हीं पुरखे ने लिखा होगा और जो उसकी माँ के पास सुरक्षित रखा था। एक तरह से अच्छा ही हुआ कि यह पुस्तक म्युजियम में आ गया। अन्यथा वह उसके घर में पड़ा-पड़ा यूँ ही बरबाद हो जाता। शायद यही भाग्य भी है, जो समय के थपेड़े खाकर स्वर्ण को मिट्टी में और मिट्टी को स्वर्ण में बदल देता है। यह समय ही तो है, जो राजा को रंक में और रंक को राजा में बदल देता है।
देवजीत उसका पति है। और उसी के आग्रह पर पूरे पाँच साल बाद वह इधर अगरतला आया है। जब भी वह उसे इधर आने को कहती, वह यात्रा संबंधी बहाने बनाकर टाल जाता था। कहता कि पहले दिल्ली से गुवाहाटी जाओ। वहॉं से फिर छोटी लाइन वाली ट्रेन पकड़कर चौबीस घंटे की यात्रा कर त्रिपुरा के एक छोटे से स्टेशन कुमारघाट पहुँचो। और फिर वहॉं से रात भर का बस सफर कर ही अगरतला पहुँचा जा सकता है। लगभग एक सप्ताह तो लग ही जाएँगे पहुँचने में। तिसपर असम और त्रिपुरा के रास्ते में सैकड़ो सूरंगें मिलती हैं। कब कहॉं लैण्ड स्लाइडिंग होकर पहाड़ का पत्थर-मिट्टी धसक जाए और रास्ता ब्लॉक कर दे, पता नहीं चलता। परेशानी तब और बढ़ जाती है, जब चलती ट्रेन बीच रास्ते कहीं जंगल में रूक जाती है। न खाने का, और न पीने का ठिकाना। क्या करोगी उधर जाकर?
एक बार तो उसने यहॉं तक कहा कि वह हवाई जहाज से ही चले। हर स्त्री की हसरत होती है कि एक दिन वह ससुराल जायेगी। उसका जन्म-कर्म सब दिल्ली में ही हुआ था। और शादी भी हड़बड़ी में कोर्ट मैरिज के रूप में दिल्ली में ही हुई थी। मगर फिर भी, वह भी तो अपना पति-गृह एक बार ही सही, देखना चाहती है। मगर देवजीत फ्लैट और गाड़ी के ईएमआई ऋणों की भुगतान का बहाना कर टाल देता था। इस बार जो उसने सुना कि अगरतला के लिए दिल्ली से राजधानी एक्सप्रेस खुल रही है, तो वह अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाई थी और अगरतला जाने के लिए जिद पकड़ बैठी थी। हार मानकर देवजीत ने उसे बताया कि अप्रैल में उसके गाँव में ‘गरिया त्योहार’ के समय जाना बेहतर होगा, तो वही राजधानी एक्सप्रेस की दो आरक्षण टिकटें कटा आई थी। अप्रैल में छुट्टी मिलना भी आसान था। हॉंलाकि उसके विद्यालय में जहॉं वह शिक्षिका थी, नया सत्र आरंभ हो जाता था। मगर प्रिंसिपल ने उसे बीस दिन की छुट्टी मंजूर कर दी थी। और देवजीत को भी उसके कार्यालय से छुट्टी मिलने में असुविधा न रही थी।
यहॉं उसने देवजीत के लंबे-चौड़े परिवार को देखा, जो पुराने अगरतला के एक विशाल परिसर में बने अनेक छोटे-बड़े घरों में बसे हुए थे। यह इलाका दरअसल एक गाँव ही था, जो विकसित होते अगरतला शहर की जद में आ गया था। कहने के लिए देवजीत इस घर का एक हिस्सा था। मगर जैसे उसने ही स्वेच्छा से यहॉं का अपना हक और हिस्सा सबकुछ छोड़ रखा था। अभी वह जैसे इस घर में मेहमान समान था। उसका एक बड़ा भाई, जिनका शहर में हार्डवेयर की बहुत बड़ी दुकान थी, उसी के घर में वह ठहरे थे।
“पूरे पाँच साल बाद आ रहे हो तुम। अपनी जन्मभूमि को भुला देना कोई अच्छी बात तो नहीं” उसके भाई बोले थे- “यहॉं नहीं रहना है, तो मत रहो। मगर यहॉं आते-जाते रहने में क्या दिक्कत है?”
“ठीक है, अब आता-जाता रहूँगा” देवजीत ने संक्षिप्त सा जवाब दिया था।
यह इत्तफाक ही था कि यहॉं पहुँचने के अगले दिन ही वह म्युजियम देखने आ गये थे। कारण कि वह नजदीक में था। और माधवी की इतिहास में रूचि थी। म्युजियम घूमने के बाद वह शहर का एक चक्कर लगाकर घर वापस लौटे थे। घर आकर खाना खाकर वह सोने चला गया। मगर नींद थी कि आ नहीं रही थी। बार-बार वह महल उसके सामने कभी अपनी वर्तमान की भव्यता के साथ, जो अभी त्रिपुरा का शानदार विधान सभा भवन है साकार हो जाता। तो कभी अतीत के पुराने रूप में सामने आ जाता था, जब उसने उसे वीरान और खंडहर समान उजाड़ रूप में तीसेक साल पहले देखा था। माधवी को अपने अतीत के बारे में क्या बताए वह! क्या सोचेगी वह कि राजघराने का एक सदस्य क्या इस रूप में भी जीवन देख सकता है!
राजघराना तो बाद में बिखरा, उसके पहले ही उसका परिवार सड़क पर आ चुका था, जब सत्ता के खेल में उसके दादा को महल से ही बेदखल कर दिया गया था। उन्हें संगीत में रूचि थी, सो उसी सिलसिले में उनका कलकत्ता और मुंबई भी आना-जाना लगा रहता था। इसके अलावा वह राजतंत्र के बजाए लोकतंत्र पर यकीन करने लगे थे। दरअसल उन दिनों देश भर में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध जन-आंदोलनों की धूम थी। बंगाल, और उसमें भी कलकत्ता और ढाका जैसे आंदोलनों के केन्द्र में थे। जाहिर है, बंगाल के बगल में बसा त्रिपुरा इससे कैसे अछूता रहता। उधर त्रिपुरा राजतंत्र ब्रिटिश सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलनों को कुचलने में लगा था। ऐसे में राजपरिवार का ही एक सदस्य आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति रखे और उन्हें सहयोग करे, यह राजतंत्र को क्योंकर बर्दाश्त होता। इसलिए उन्हें महल से निष्कासित कर दिया गया था। बल्कि वह खुद ही राजमहल से निकल गए थे। जब विचार ही परस्पर विरोधी हों, तो कोई साथ रह भी कैसे सकता है। वैसे भी उन्होंने इधर की शासन व्यवस्था एवं प्रभुत्व पाने की आकांक्षा आदि पर कभी ध्यान भी नहीं दिया था। जबकि इधर भी सभी अपनी राजनीति चमकाने में लगे थे और स्वाधीनता पूर्व से ही सत्ता में अपनी स्थिति मजबूत कर रहे थे। वैसे वे न तो राजनीति में और न ही गीत-संगीत की दुनिया में ही खास कुछ कर पाए थे और महज एक संगीत शिक्षक भर बनकर ऐसे ही चल बसे थे।
उधर सत्ता से सीधे ताल्लुक रखने वाले लोग विधायक और सांसद भी बनते रहे थे। अब आमदनी न हो, तो महल किस काम का। उस समय त्रिपुरा में काफी अफरा-तफरी मची थी। पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है, से भाग-भागकर हिंदू बंगाली लोग इधर भी आ-आकर बसते जा रहे थे और कोई भी छोटा-मोटा काम-धाम या व्यापार कर रहे थे। यही नहीं वे स्वयं को स्थानीय समाज में खपाने और अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए वैवाहिक संबंध भी कायम कर रहे थे। ऐसी विकट स्थिति में सभी को कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती होगी। चूंकि वे तिरस्कृत, बहिष्कृत और पलायित लोग थे, वे मेहनत नहीं करते, तो क्या करते। वैसे भी उनकी पढ़ार्ई-लिखाई भी अच्छी होती थी। मगर उनके परिवार में सिर्फ कहने के लिए वह राजघराने के लोग थे। उनके पास न शिक्षा थी और न ही समझ। एक झूठे अहं के अलावा और कुछ भी नहीं था।
एक समय ऐसा था जब महल के कारिन्दे सैकड़ों गाँव की मालगुजारी लाते थे। फिर हजारों बीघा खेती की जमीन की उपज थी। सो धन-संपत्ति की कमी न थी। मगर वह सब अचानक बंद हो गया था। जिनको खेती के लिए जमीन दी गई थी, उन्होंने उसपर अपना कब्जा जमा कर मालिकाना हक ले लिया था। मालगुजारी वसूल करने का काम अब सरकारी अधिकारी करने लगे थे। ऐसे में अर्थाभाव होना स्वाभाविक बात थी।
उसके बाबूजी एकलौते थे। अपनी विकट परिस्थिति के बीच उन्होंने अगरतला के एक मार्केट में एक किराने की दुकान खोलकर अपने परिवार को सँभाला था। वह अपने दस भार्ई-बहनों में सबसे छोटा था। और इसलिए वह अपनी मॉं के ज्यादा समीप रहा था।
जब वह दसेक साल का रहा होगा, तभी उसकी मॉं का देहान्त हो गया था। तबतक उनकी माँ के पास काफी जेवरात थे, जिसे उसने अपनी आँखों देखा था। मगर कुछ घर को सँभालने में, तो कुछ जेवरात दुकान खोलने में बिक चुके थे। फिर भी उनके पास कुछ जेवरात और कीमती कपड़े अभी भी थे, जो उनके मरते ही घर के अन्य सदस्यों द्वारा चुपचाप हथिया लिये गए थे। अब उनके कमरे में बस कुछ टूटे संदूक थे, जिनमें कुछ फटे-पुराने कपड़े और सामान थे, जिनकी कोई कीमत न थी। अब बस संदूक में कुछ उनकी यादें थीं, जिसे वह कभी-कभार खोलकर देख लिया करता था। एक दिन वह ऐसे ही एक संदूक को देख-सहेज रहा था कि उसे वह किताब मिली थी। बंगला लिपि में काकबराक भाषा में लिखी थी वह किताब। उसने उसी दम उस किताब को पढ़ना शुरू किया, तो उसे रोमांच हो आया। वह त्रिपुरा के आदिम धर्म, ज्योतिष और तंत्र-मंत्र के संबंध में हस्तलिखित किताब थी। इसलिए उसके पल्ले कुछ पड़ा नहीं। उस किताब के रहस्यों और ज्ञान को समझने लायक उम्र भी तो नहीं थी उसकी। फिर भी उसी से उसे महल के एक रहस्य के बारे में पता चला तो वह एक दिन उधर ही महल की ओर चला आया था।
इस समय वह महल खाली था और खंडहर में तब्दील हो चुका था। चारो तरफ वीरानी थी और उसके ईर्द-गिर्द झाड़-झंखाड़ फैले हुए थे। सो उधर कौन जाता। लोमड़ियों का एक झुंड उसके देखते इधर-उधर भागने लगे थे। कुछ छोटे-मोटे जीव-जंतु आदि भी दिखे, जिसकी उसे परवाह न थी। उस वक्त तक अगरतला इतना सघन नहीं था। और वह कई बार अकेले ही पहाड़ों और बीहड़ वनों में घूम चुका था। वह किताब में लिखे गये दिशा-निर्देशों के अनुरूप महल के समीपवर्ती एक मंदिर के पास के एक सूखे कुएँ के पास पहुँच गया। उसमें घुप्प अंधेरा था। उस दिन तो वह वहॉं से वापस चला आया।
अगले दिन मॉं के बक्से को उसने फिर से टटोला, तो उसमें कपड़े का एक बटुआ मिला। उसमें कुछ रूपये थे। कुछ रूपये उसने भाइयों से माँगे। और फिर बाजार जाकर एक टॉर्च खरीद लाया। इसके बाद उसने रस्सी, मोमबत्ती-माचिस, चाकू, डंडा आदि का जुगाड़ किया। और अगले दिन फिर वहीं पहुँच गया।
उसने रस्सियों में अनेक गांठें लगाई। फिर उसे एक पेड़ से बॉंध कुँए में लटका दिया। उसे पूरी उम्मीद थी कि उसमें कोई खजाना होगा, जिसे पाने के बाद उसका जीवन बदल सकता है। धड़कते हृदय के साथ वह अपने पैर के अंगूठे और अंगुलियों को गांठों में फँसाते हुए रस्सी के सहारे धीरे-धीरे कुएँ में उतरने लगा। चूँकि धूप थी, इसलिए इस समय सब स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था।
कुएँ में दलदल और झाड़ियॉं थीं। शुक्र था कि वह दलदल भी हल्का ही था, जो सिर्फ पैर में चिपकने लायक मिट्टी के रूप में था। उसने कुँए के चारो तरफ नजर दौड़ाई तो देखा कि कुएँ के एक दीवार की तरफ लोहे का एक छोटा सा दरवाजा है, जिसमें एक बड़ा सा ताला लगा है। उसने ताले को हाथ लगाकर झटका दिया तो वह खुल गया।
धड़कते हृदय के साथ उसने ताले को अलग कर दरवाजे को खोल दिया। आशा के अनुरूप उसमें एक सूरंग थी। वह सूरंग में घुसा। घुप्प अँधेरे के बीच उसने टॉर्च जलाई तो उसे आगे का रास्ता दिखाई दिया। वह उसमें घुसा और फिर उसमें आगे बढ़ता चला गया। पूरा रास्ता छोटे बड़े-पत्थरों और कीचड़- पानी से भरा था। उसके कपड़े गीले और गंदे हो गए थे। पाँव का चप्पल तो कब का टूटकर उससे अलग हो चुका था और वह नंगे पाँव ही आगे बढ़ रहा था। घंटों चलने के बाद उसे पुनः उसी प्रकार का एक लोहे का दरवाजा दिखाई दिया, जिसमें उसी प्रकार का ताला लटका था। उसने उसे झटके से खींचा तो वह खुल कर उसके हाथ में आ गया।
सूरंग के दूसरे छोर पर छोटे-बड़े पत्थरों से भरा हुआ एक बड़ा सा गड्ढा था। उसने पत्थरों को अपने हाथ से ही हटाना शुरू कर दिया। थोड़ी देर बाद कुछ रास्ता बनाने के बाद वह जब बाहर आया तो उसके सामने हाओरा नदी बह रही थी। उसने अपने साथ लाए सामान को वहीं एक जगह छिपाकर रख दिया और नदी की तरफ बढ़ चला।
मगर अत्यधिक थकान के वजह से वह बदहवास हो नदी के तट पर बेहोश होकर गिर पड़ा था। थकान थी और शायद निराशा भी कि कुछ हाथ लगा नहीं, इसका अहसास भी था। वहीं एक मछुआरा उसे उठाकर अपनी झोपड़ी में ले आया और उसे खाना खिलाकर अपने पास सुला दिया। उन दिनों कुछ भी पूछताछ करने या खोज-खबर रखने का रिवाज भी नहीं था। वैसे भी गरीबों का हिसाब-किताब रखता ही कौन है!
अगले दिन पुनः किसी अज्ञात आशा में वह फिर उस सूरंग में घुसा कि शायद कहीं कुछ दिखे और कुछ मिल जाए। हॉंलाकि अब उसे यह भय भी लगने लगा था कि कहीं उस सूरंग में कुछ खतरनाक जीव- जंतु या अज्ञात भूत-प्रेत वगैरा मिल गए, तो क्या होगा। सबसे पहले उसने अपने साथ लाए सामान को ढूँढ़ना शुरू किया। वह उसे एक जगह मिला। मगर माचिस सील गई थी और टॉर्च भी जल नहीं रहा था। बड़ी मुश्किल से ठोंक-बजा कर उसने टॉर्च को जलने लायक बनाया। और पुनः उसी रास्ते पर चल पड़ा।
अब उसे भय यह भी होने लगा कि कहीं टॉर्च की बैटरी ना खत्म हो जाए। इसलिए वह बीच-बीच में टॉर्च को जलाता-बुझाता रहा। वैसे भी आँखें अंधेरे में देखने में अभ्यस्त हो जाती हैं। सूरंग में उसे कुछ तो मिला नहीं। मगर रास्ते में उसे कुछ पुराने सिक्के मिले, जो उसने जेब में भर लिए थे। और जैसे वह रस्सी के सहारे नीचे उतरा था, उसी प्रकार वह उसके बाहर आ गया।
इसके थोड़े दिन बाद ही उसने सुना कि वह महल किसी विशेष काम के लिए सरकार द्वारा उपयोग में किया जाने वाला है और वहॉं सख्त पहरा बैठा दिया गया है।
उसके एक मामा उसके घर के पास वहीं रहते थे और पुरोहित का काम किया करते थे। वे थे तो निर्धन, मगर ज्योतिष और तंत्र-मंत्र में भी विशेष रूचि रखते थे। उसने उन्हें वह किताब और सिक्के दिखाए, तो उनकी आँखें चमक उठीं। वह सिक्के उन दुर्लभ सिक्कों में से थे, जिनसे त्रिपुरा राजघराने के इतिहास के संबंध में नवीन जानकारी मिलनी थी और वह सोने के सिक्कों से भी ज्यादा कीमती थे।
वह उसे साथ लेकर एक स्थानीय विधायक के पास गए। उसने उसे शाबासी दी।
कुछ दिनों बाद उसने सुना कि उन सिक्कों को सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया गया है। बाद में उसे पता चला कि उस विधायक ने उन सिक्कों और किताब को अपना बताकर सरकार से काफी बड़ी रकम ऐंठ ली थी। उस विधायक ने उसपर यही कृपा की कि उनकी अनुशंसा पर उसका नामांकन एक सरकारी विद्यालय में हो गया था और वजीफा भी मिलने लगा था। इससे अब उसके घरवाले निश्चिंत थे कि अब उसका जंगलों-पहाड़ों में घूमना-भटकना बंद हो जायेगा। और उसे भी लगा कि वह अच्छी तरह पढ़-लिखकर अपनी माँ के सपनों को पूरा कर सकेगा।
उधर उस किताब का पहले बँगला में और बाद में अंग्रेजी में अनुवाद छपा, तो इसकी धूम मच गई थी। बाद में उसने सुना कि वह किताब और सिक्के म्युजियम में सुरक्षित रख दी गई है।
मॉं के देहान्त को कुछ ही समय हुए थे कि पिता ने अपनी वृद्धावस्था और लंबे-चौड़े परिवार की परवाह न करते हुए एक बांग्लादेशी कन्या से शादी कर ली थी। और इसी के साथ जैसे सारा कुछ बिखर गया था। सभी भाइयों ने मिलकर उनका बहिष्कार सा कर दिया था और वह बड़ी ही उपेक्षा और तंगहाली में मर गए थे। चूँकि वह पढ़ने में तेज था और उसे विद्यालय से वजीफा मिलता था, वह अपनी पढ़ाई पूरी कर सका था। वैसे उसकी भी अपने दादा के समान संगीत में रूचि थी। मगर उसके भाई इसके सख्त खिलाफ थे और इसलिए वह संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ले पाया था। बाद में उसके भाई ने उसका डिप्लोमा इंजीनियरिंग में दाखिला करा दिया। डिप्लोमा की पढ़ाई पूरी कर वह उदयपुर में गुमती नदी के किनारे स्थित हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लाण्ट में अस्थायी नौकरी में आ गया था। इसके अगले ही साल उसने प्रतियोगिता परीक्षा पास कर दिल्ली में एक अच्छी नौकरी और वेतन पाकर वह वहीं चला गया था। वहीं माधवी से उसकी भेंट हुई थी।
माधवी से उसकी भेंट इत्तफाक से ही हुई थी। दरअसल कुछ लफंगे उसके पीछे पड़ गए थे, जिससे उसने उसे मुक्ति दिलाई थी। वह उसके साहस से प्रभावित हुई थी और उसका फोन नंबर ले लिया था। बाद में परिचय परवान चढ़ा, तो प्रेम में तब्दील हो गया और फिर वह उससे शादी कर वहीं दिल्ली का हो कर रह गया था।
“अरे रात के दो बज रहे हैं और तुम अभी तक जग रहे हो” माधवी अचानक उठकर बोली- “अब क्या सोच रहे हो?”
“नहीं, कुछ खास नहीं” अपने आदत के अनुरूप उसने संक्षिप्त सा जवाब दिया और मुँह घुमाकर लेट गया।
अगले दिन उनका उज्जयंत महल जाने का कार्यक्रम था।
वह महल, जो अब विधान सभा भवन था, के परिसर के बाहर लॉन के घास पर बैठे थे।
“तुम रात ठीक से सोए नहीं” माधवी उससे पूछ रही थी- “मैं देख रही हूँ कि तुम यहॉं आकर कुछ ज्यादा ही भावुक हो रहे हो।”
“अपनी जन्मभूमि को देखकर कौन भावुक नहीं होता” वह बोला- “वह महल तुम देख रही हो ना, वह हमारे पुर्वजों की निशानी है। मगर उसपर अब हमारा कोई हक नहीं है। यह एक तरह से अच्छा ही है कि उसपर अब जन-सामान्य का हक है। यह मेरे दादाजी का भी सपना था कि त्रिपुरा में लोकतंत्र हो। इसी के लिए वह इसी महल से बेदखल किये गए थे।”
“यह तो अच्छी बात रही कि उन्होंने समय की आवाज सुनी और उसमें अपना सुर मिलाया।”
“मेरे एक दादा जो गीत-संगीत में रूचि रखते थे और फिल्म जगत के जाने-माने व्यक्तित्व भी हुए, उन्हें भी उनके गीत-संगीत के शौक के वजह से इस महल से बेदखल कर दिया गया था और वे फिर बंबई के होकर रह गए थे।”
“जीवन ऐसे ही चलता है। मनुष्य ऐसे ही आगे बढ़ता है, और अपने बेहतरी की ओर अग्रसरित होता है” माधवी बोली- “जैसे कि तुम भी अब दिल्ली में प्रवास करने लगे हो, एक बेहतर जीवन जीने लगे हो। इसी की तो सभी की आकांक्षा रहती है ना।”
देवजीत आँख मूंदकर लॉन के घास पर लेट गया था। मानो वह अपने पुर्वजों के अतीत को इतिहास को याद कर रहा हो। माधवी उसके बालों में ऊँगलियॉं फिरा रही थी। उधर क्षितिज में सूर्य तेजी से पश्चिम की ओर ढलता जा रहा था।
अचानक देवजीत उठ खड़ा हुआ और बोला- “चलो यहॉं से। मुझे घुटन सी हो रही है।”
वह भी उठ खड़ी हो गई।
“जहॉं तुम पहली नौकरी करते थे, मैं वहॉं जाना चाहूँगी। जरा मैं भी तो देखूँ कि वह कैसी जगह है!”
“वह तो उदयपुर में गुमती नदी के किनारे है” वह हँसकर बोला- “वहॉं जाकर क्या करोगी। कल हम त्रिपुरसुंदरी माता मंदिर जाएँगे।वह भारत का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। वहॉं तुम्हें अच्छा लगेगा।”
अगले दिन वह टैक्सी कर उदयपुर स्थित माता मंदिर पहुँच गए थे।
इस समय मंदिर का कपाट बंद था। शायद अंदर विशेष पूजा चल रही थी, जिसके बाद दर्शनार्थियों के लिए मंदिर का दरवाजा खुलता। सो वे मंदिर के पीछे स्थित कल्याण-सागर तालाब की ओर बढ़ गए। तालाब में स्थित बड़ी-बड़ी मछलियों को देख माधवी विस्मित रह गई। कुछ लोग मछलियों के खाने के लिए दाने डाल रहे थे। वे दोनों वहीं तालाब के समीप सीढ़ियों पर बैठ गए।
“शिव-पार्वती की कथा तुमने शायद सुनी होगी। पुराणों में ऐसा वर्णन है कि दक्ष-कन्या सती पार्वती का दाहिना पैर यहॉं गिरा था। और इसलिए यहॉं भी शक्ति पीठ का निर्माण हो गया था। यहॉं अठारह भुजाओं वाली माता दुर्गा का मंदिर है” देवजीत बता रहा था- “कभी उदयपुर ही त्रिपुरा की राजधानी हुआ करती थी। मगर कूकी नागाओं के लूटपाट से परेशान राजा यहॉं से अपनी राजधानी उठाकर अगरतला ले आए। वैसे एक कारण और कहा बताते हैं कि राजा ब्रिटिश सत्ता से नजदीकियॉं चाहता था और इसलिए बंगाल के ठीक बगल में वे अपनी राजधानी ले आये।”
अचानक तालाब के पास हलचल हुई। पता चला कि मंदिर का कपाट खुल गया है। वहॉं बैठे लोग उठ-उठकर मंदिर की और बढ़ चले थे। वे भी उठकर मंदिर का रूख कर लिए। मंदिर में दर्शन कर वे बाहर निकल आए।
“चलो एक बड़ा काम हो गया” माधवी बोली-“हमें कई जगह घूमना था। लेकिन घर में ही मिलने-जुलने में बहुत सारा समय निकल गया। कल तुम्हारे घर की ‘गरिया पूजा’ में शामिल होना है। मैं उस दिन कहीं घर से बाहर नहीं जाऊँगी। अब अगली बार आने पर ही त्रिपुरा के दर्शनीय स्थल देखना संभव हो सकेगा।”
“गरिया पूजा का अनुष्ठान तो सात दिनों तक चलता रहता है। और यह प्रत्येक गाँव में मनाया जाता है। ‘गरिया’ हमारे यहॉं का यह प्रमुख त्योहार है। इसमें मूलतः देवी गौरी अर्थात् पार्वती की ही पूजा की जाती है । इस अवसर पर किया जाने वाला ‘गरिया नृत्य’ मूलतः सामूहिक नृत्य है, जिसमें गाँव के सभी युवा भाग लेते हैं। उन्हें गाँव के प्रत्येक घर में जाकर यह नृत्य प्रस्तुत करना होता है। इस अवसर पर गीत गाए जाते हैं और पारंपरिक वाद्य यंत्र ढोल, बांसुरी, सारिंदा आदि बजाए जाते हैं। सारिंदा को तुम आधुनिक वायलिन का पूर्व रूप मान सकती हो। सारिंदा को अन्य जगहों में प्रचलित सारंगी का एक रूप में कह सकते हैं।
“मैंने तुम्हें बताया था ना कि मेरे दादा के एक भाई सारिंदा बजाने में बहुत निपुण थे। संयोगवश वह रवीन्द्रनाथ टैगोर के संपर्क में आ गए थे। अपने इसी सारिंदा की कला साधने के कारण उन्हें त्रिपुरा राजघराने से बहिष्कृत कर दिया गया था। बाद में वह कलकत्ता और फिर मुंबई के फिल्र्मनगरी में अपना संगीत देते विख्यात् संगीत निर्देशक बन गए। उनके एक बेटे ने भी अच्छा नाम कमाया। वे लोग वहीं मुंबई में बस गए। मेरे दादा ने भी उनका अनुकरण करना चाहा था। मगर वह कलकत्ता और मुंबई का चक्कर काटते रह गए थे, मगर बात बन नहीं पाई।”
“फिल्म-नगरी का चक्कर ऐसा ही है” माधवी बोली- “यह किसी को आसमान पर उठा देता है, तो किसी को पाताल की अतल गहराइयों में निर्दयतापुर्वक फेंक भी देता है।”
अगरतला के मार्केट में वह देवजीत के साथ घूमते हुए अभिभूत थी। यहॉं के पारंपरिक परिधान और बेंत और बाँस के बने फर्नीचर व अन्य सामग्री को देख वह आश्चर्यचकित थी। वह सोच रही थी कि दिल्ली वापस जाते समय वह इन्हें खरीदकर ट्रेन में बुक करा लेती तो कितना अच्छा रहता। रात में वे एक होटल में भोजन कर वापस घर आ गए थे।
अगले दिन ही “गरिया” पूजा थी। सभी इसी की तैयारी में लगे थे। देवजीत की भाभी ने उसे पारंपरिक परिधान और आभूषण पहना दिया था, जिसमें वह बिलकुल अलग दिख रही थी।
“तुम ध्यान से देखोगी तो “गरिया” भी मणिपुरी की तरह का शास्त्रीय नृत्य ही है। इसके स्टेप्स और मुद्राएँ हमें दैनिक कार्य-व्यवहार की अनेक बातें सिखा जाती हैं। धान की बुवाई के लिए पहाड़ के जंगलों को काटकर समतल बना कर उसमें खेती की जाती है, जिसे ‘झूम खेती’ भी कहते हैं। इस समय अच्छे फसल की आशा में यह त्योहार मनाया जाता है, जिसमें सभी भाग लेते हैं।”
“यह नृत्य-संगीत सभी को शोहरत और पैसा कहॉं दिला पाता है!” वह बोली थी- “यह तो सिर्फ कुछ भाग्यवानों अथवा पहुँचवालों को ही मिल पाता है।”
“बिलकुल ठीक कह रही हो तुम। तभी तो मेरे पिता और भाइयों को भी इससे अरूचि हो गई थी। मैंने भी गीत-संगीत में हाथ आजमाना चाहा। मगर उन्होंने इससे सख्ती से मना कर दिया। बाद में मैंने डिप्लोमा किया और जब ढंग की एक नौकरी पा ली, तो सभी संतुष्ट हुए। मगर नौकरी का चक्कर ऐसा कि मुझे दिल्ली जाना पड़ गया। मेरे भाइयों ने लगभग जबर्दस्ती वहॉं भेजा, जबकि उस समय अगरतला से दिल्ली जाना कितना कठिन था।
“तब अगरतला से सैकड़ों मील दूर कुमारघाट तक ही ट्रेन आती थी। वहॉं से छोटी लाइन वाली ट्रेन पकड़ कर पहले गुवाहाटी पहुँचो। फिर वहॉं से दिल्ली की ट्रेन पकड़नी पड़ती थी। उस समय ट्रेन में आरक्षण भी सरलता से नहीं मिलता था। उन दिनों अगरतला से दिल्ली की यात्रा एक सजा थी। मगर अब ट्रेन की बड़ी लाइन बिछ जाने से यह यात्रा कितना सुगम हो गया है। अगरतला से दिल्ली जाने के लिए अनेक ट्रेनें हैं , जिनसे यात्रा काफी सुगम हो गई है। अब लगता है कि वाकई हम शेष भारत से जुड़े हैं।”
“माधवी बहु ! सच कहो तो यह परेशानी स्वाधीनता मिलने के बाद ही शुरू हुई” देवजीत के बड़े भाई अचानक कमरे में प्रकट हो गए थे। वह उनकी बात सुन रहे थे। वह आगे बोले- “स्वाधीनता पूर्व समय में ऐसा नहीं था। तब अगरतला से बांग्लादेश के चट्टगांव के रास्ते कलकत्ता जाना काफी आसान था। मगर समय, परिस्थिति और राजनीति जो न करा दे, कम ही है। यह अच्छा हुआ कि सुविधा मिली तो तुमलोग यहॉं आ गए। अपनी परंपरा और संस्कृति को जानना-समझना बहुत जरूरी है।”
“आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं भैय्या” वह भावुक होकर बोली- “इसलिए तो हम यहॉं आपका आर्शीवाद लेने आए हैं। दस दिन कैसे बीत गए, हमें पता भी नहीं चला। कल दिल्ली के लिए हमारी ट्रेन है। इसलिए हमें वापस लौटना है। मगर हम आपसे वादा करते हैं कि हम हमेशा यहॉं आते-जाते रहेंगे.,ताकि हम अपनी मिट्र्टी-पानी से, अपनी जड़ों से जुड़े रह सकें।”
“मुझे यह सुनकर बहुत खुशी हुई माधवी। हमें तो सिर्फ तुमलोगों की खुशी चाहिए” वह बोले- “और इसलिए तुमने जो बेंत के सामान और फर्नीचर पसंद किये थे, उसे मैंने ट्रेन में बुक कर दिया है।”
उसने आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्श कर लिए।
घर के बाहर आँगन में ढोल की तीव्र आवाज आने लगी थी। इसी के साथ ढोल, बाँसुरी, सारिंदा आदि के सुमधुर स्वर भी वातावरण में अपनी मिठास घोल रहे थे।काक-बरक भाषा में युवक गीत गा रहे थे। जबकि युवतियॉं सामूहिक रूप से पारंपरिक नृत्य कर रही थीं। घर के बाहर वह देवजीत के साथ निकलकर “गरिया” नृत्य देखने में तल्लीन थी।
आज जैसे उसका एक मकसद पूर्ण हुआ था।
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चितरंजन भारती,
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