‘बुरे दिनों में ‘
( 1 )
बुरे दिनों में
मुझे याद आये वे लोग
जो बुराई के ख़िलाफ़ लड़े थे।
( 2 )
बुरे दिनों में
आटा दाल का भाव पता चला
हवा के साथ कहीं से बहकर आई
भात की गंध से
भूख से आंतें कुलबुलाने लगी हैं
( 3)
बुरे दिनों में
मैंने एक नम्बर खोजा
देर तक
रिंग बजती रही।
( 4 )
बुरे दिनों में
मैं एक कांधा खोजती रही
भीड़ धकियाती रही दिन भर
यहां से वहां
रात होते ही
भीड़ अचानक से लापता हो गई।
( 5 )
बुरे दिनों में
कुछ सबक दिये
जीवन में बुराई से बचना चाहिए
बचना चाहिए हमें तमाम लुभावने दृश्यों से
बचना चाहिए हमें पक्की सड़क से
जो अचानक से हमें
किसी महानगर में ला फेंकती है।
(6 )
बुरे दिनों में
हमने एक निबंध पढ़ा – मृत्यु
जिसे पढ़ने के बाद
लोग कुछ देर गर्दन झुकाकर खड़े रहे – श्मसान गृह में।
( 7 )
बुरे दिनों में
अंत हो गया खेल का
जाने कब से लोग ताली पीठ रहे थे
हंस रहे थे
लोग अपने अपने घर जा चुके थे
मैंने न परदा डाला
मैंने न दरवाजे बंद किये
ऐसा कुछ नहीं किया
जैसा लोग अपने बचाव में करते हैं
एक शोर उठा –
मेरा घर गिरफ्त में आ गया।
( 8)
बुरे दिनों में
हमने एक रोटी देखी
हमने एक थाली में रखी
हमने आधी आधी खायी
आखिरी निवाला एक दूसरे की तरफ बढ़ते हुये
हम जिंदगी की हक़ीक़त से वाक़िफ हुये
और हमने पहली बार एक दूसरे की आंखों में झांका ।
“उदासी “
उदासी
एक विराट दरिया सी फैली थी
जिसे समेटना लगभग नामुमकिन सा हो गया था
जहाँ तक नजर जाती
सिवाय सन्नाटे के कुछ भी हाथ नहीं लगता
भाएं भाएं सी कचोटती रात
सरसराते पत्तों पर हवा मानो ठहर सी गईं थीं
उन्हें भी करना था रैनबसेरा मेरे साथ
दीमक अभी अभी भीतर घर बनाकर निकली हो
करीब ही चींटियों का एक दस्ता
मुझमें से गुजर रहा था
दरिया की ओर
बीर-बहूटी हथेली पर रख गुदगुदाती रही देर तलक
ऐसा ही कुछ होता होगा
जिस क्षण होने वाला होगा
अचंभित परिवर्तन
या किसी मुसलाधार बारिश से ठीक पहले
किसी एक जगह बादलों का इकटठा होकर
फट जाना
और बहा ले जाना वो सब जो स्थिर है
एक दरिया का समन्दर में परिवर्तित हो जाना
इतना आसान नहीं होता
बैठ जाती है जिदंगी
एकलौती
भरे पूरे समन्दर को आँखों में भरकर …..
” जिन्दगी “
एक शाम जब सूर्यास्त होने को था
मैं मरुस्थल पर बैठी थी
कैनवास नहीं था मेरे पास
रेत से मुझे कैनवास का काम लेना था
उंगलियां घूमने लगी
कई कई आकृतियां उभरने लगी
पर, हैरत इस बात पर थी कि कोई भी
आकृति पूर्ण नहीं थी
किसी की एक आँख नहीं थी किसी का एक कर्ण
किसी के होंठ आधे
जैसे जानबूझकर बिगाड़े गए हों
किसी का आधा मुँह गायब था
किसी की का दाहिना हाथ
किसी का तो पूरा धड़ ही नहीं था
तो किसी के पाँव अधूरे छूट गए
कहना कठिन ही नहीं नामुमकिन भी था
स्त्री है या पुरूष
अपने में सब की सब अधूरी आकृतियां
अधूरेपन में पूर्ण होने की कोशिश में
बालू का हथेली से फिसल जाना था और
बह जाना था इसी तरह
एक लहर के साथ समस्त अधूरी आकृतियों को
पर ,जो छेनी से शिल्पकार ने उकेर दिया
वो खुरदरापन बचा रहा आकृतियां में
कि वे ही पहचानी गई
अपने समय की साक्ष्य बनकर इतिहास में
“बच्चे “
ये बच्चे सब जानते हैं
इन्होंने झेली है अपने समय की त्रासदी
इनसे मत पूछना भूख के बारे में
एक पत्थर उठाएंगे
और दे मारेंगे बड़ी तबीयत से
कि तुम्हें मौका तक नहीं देंगे भाग खड़े होने का
हिकारत से देखती हैं इनकी आँखें
दुंदुभी बाजा रहे हैं
जो सिर पर
अपने ढोल ताशे
उठाओ जाकर बजाओ उस सड़क पर
जहाँ से हम गाँव न लौटे हो
जहाँ से न लौटी हो भूख और प्यास
जमीन तो यहाँ भी गजभर नहीं
सरकार की नाक के नीचे रोजाना
पसीजता है मन भर पसीना
नहीं पसीजता सरकार का जमीर
झूठ भी सलीके से कहो –
देखो – सबरी पोल खोल दे रहा है
सरकार की धोती मैली हो रही है
वोट – पोट के चक्कर में
ससुरी सरकार को जमीन पर बैठे पड़ रहा है
धूल-धूसरित हो रही इनकी आत्मा
अब देखो !
गंगा मा नहावा पडिए सरकार को
हम तो कूड़ा करकट बीनती
काली किरकीट देह को ले फिरा किए
शहरों की सड़कों में
कारों का शीशा चमका एक दो रुपए में
संतोष धन कमा लिए
रात सिकुड़ कर फूटपाथ पर सो गए
न माई न बाप
कौन सरकार हमार
कौन सरकार आए
कौन सरकार जाए
का फर्क पड़ता है हम लोगन को ……
” गिरना “
तुम जब भी गिरना
पके फल की तरह गिरना मेरी हथेली पर
जिसकी गंध से
जिसकी मिठास से
मेरी आत्मा तृप्त हो जाये।
तुम जब भी गिरना
सड़क पर अचानक से
किसी बच्चे को दुर्घटना से बचाते हुए
मैं गौरव ले सकूं
तुम्हारी वात्सल्य पर ।
तुम जबकि गिरना
सर्दियों के दिनों की
धूप की तरह
आ गिरना सूप में
मैं फटक सकूं धान
निकल आये इतना चावल
घर भर का पेट भर सके।
तुम जब भी गिरना
मेरे भीतर प्रेम के झरने की तरह गिरना
मेरी आत्मा आर्द्रता में भीग जाए
और मैं बार बार इंतजार करूं
तुम्हारे गिरने का ,
मत गिरना ,
किसी स्त्री की तरफ उंगली दिखाते हुये
तब मैं साफ़ मुकर जाऊंगी ।
“अपनी जगह”
आज फिर मिला मुझे घरेलू होने का दंश
घरेलू होना जैसे कोई जानलेवा बीमारी हो
जिसका कोई इलाज ही नहीं है
दूसरी तरफ विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है
चांद पर पहुंच गई हैं स्त्रियां
हमारी दादी,नानी
यहां तक कि मां भी इसी बीमारी से पीड़ित रहीं ताउम्र
मुझे कब और कहां से ये रोग लगा
मुझे पता ही नहीं चला
फिर मलाल आया कि समय रहते मैंने अपना इलाज क्यों नहीं कराया
भीतर ही भीतर
यह मुझे दीमक की तरह खोखला करती चली गई
क्यों नहीं खोजें विकल्प
किन परिस्थितियों में मैंने हथियार डाल दिये
और स्वीकार कर लिया अपना घरेलू पन
मेरे लिए कितना कठिन रहा होगा
जब चूल्हे की आंच के साथ ही भीतर सुलगने लगती हो आग
कविताएं दिल दिमाग के बीच भौतिक द्वंद्वात्मक लड़ाइयां चल रही हो,
टेबिल पर पिछली रात का मुड़ा हुआ पृष्ठ
मेरे इंतजार में अपनी शक्ति को क्षीण कर रहा हो
जैसे उसे विश्वास हो चला था इसके आगे कहानी बदल जायेगी
जब फुर्सत में आयेगी वह घरेलू औरत पसीने में नहा कर
रख कर हथेली पर नमक का स्वाद
तब उसे कैसे यकीन आयेगा प्रेम कहानी पर या सचमुच में होते हैं संसार में प्रेम करते हुये पुरुष
या अब भी बचा है प्रेम !
अब तो घरेलूपन कोड़ जगह से जगह फूट गया है
हर पल रिश रहा है मवाद
मेरी बीमारी के बारे में जो भी सुनता है दौड़ा चला आता है
आख़िरकार उनकी मुट्ठी में होता है नमक
जैसे घरेलू होना कोई महापाप हो जो
रात दिन गंगा में डुबकी लगाने से भी नहीं कटेगा
सोचती हूं क्या
मां,दादी, नानी सब की सब पापिन थी!
सबने खूब रोटियां सेंकी
खूब कपड़े पछीटें
उन्होंने कुछ नहीं सोचा अपने बारे में
क्यों इकठ्ठा करतीं रही अपना घरेलू पन बिरासत में
वे कभी नहीं रोई अपने घरेलू पन को लेकर
उनकी कहानियों में हमेशा बेटो से बिछड़ जाने के दुःख ही क्यों उभरे
बेटियों से बिछुड़ का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता
उन्हें बेटियों का कभी ग़म ही नहीं सताया
न उनके घर गईं
न उन्हें अपने घर बुलाया
क्यों ब्याह दी गई इतनी दूर
कि तीज़ त्योहारों पर याद करते हुये भी
अपनी अंटी की गांठ पर मन मारने पर मजबूर होना पड़ा
गांव में अकेले रह जाने की पीड़ा ही क्यों आंखों से बहती रही
अंत: अकेले ही रहीं वे
उन्हें नहीं मिली थी उनकी जगह
अब मैं भी नहीं हूं अपनी जगह
एक पत्रकार ने इंटरव्यू में आखिरी सवाल बतौर मुझसे पूछा –
आप कविताएं लिखने के आलावा क्या करतीं हैं ?
मुझे चुप रहना ही ठीक लगा और मुस्कुराई
फिर कहा – मेरे पास इतना ही समय था दरअसल मुझे कहीं पहुंचना है…
——
डॉ. आशा सिंह सिकरवार
अहमदाबाद
मोबाइल नंबर 7802936217