1.
अब नहीं भाते, चिढ़ाते
टेसुओं के फूल।
दोपहर की चिलचिलाती
स्वयं कुपिता धूप।
तवे सी धरती दहकती
हवा भी विद्रूप।।
हरे होने लगे तीखे
बबूलों के शूल।।
चक्रवत घिरनी नचाता
पवन का आवेग
द्वार पर आकर टिकेगा
भरथरी संवेग।।
भली आँखों में भरी पर
तमतमायी धूल ।।
आपसी किशलयी बातें
गुम हुईं कब की ।
मन अचीन्हा सा अबस
आखिर सुने किसकी।।
भंगिमाओं की कथा में
दृश्य सब प्रतिकूल।।
2.
जी कहता है चलूँ वहांँ
उगती किरणों के साथ।
जहाँ अधखिले फूलो से हों
निर्मल मधु मुस्कान।। ।।
उन किशोर भावो की गठरी
मन भर सहलाऊँगा ।
उनके मृदु स्पर्श मंत्र से
दिल भी बहलाऊँगा।।
अंग -अंग पुलकित हो जाए
गाये मंगल गान।।
उस उमंग से भरी झील में
अवगाहित हो जाऊँ।
बाहर बैठ राग वासंती सा
कुछ- कुछ गा पाऊँ ।।
जीवन की सौदेबाजी से
पिचका सब सम्मान।।
हर पौधों के नये हौसलों में
बुनकर होते हैं।
ताने- वाने में समेट कर
आवर्णी बोते हैं।।
उन कच्चे धागों के प्रण क़ो
कहता तुम्ही महान।
3.
छोड़ो चिंताओं के घर की
तीखी मीठी यादें
आओ क्षण भर तो समष्टि में
घुल मिल कर लें बात।।
जादूगरी समय की अविरल
कौतूूहल करती है।
जितनी देर रोशनी रहती
परछाई बनती है।।
बहुत सहे परिचित अनजाने
दुसह प्रवंचन घात।।
घर चंदन के वृक्ष मूल में
सर्प, शाख पर पाखी।
टहनी -टहनी फूल ,फूल पर
मँडराती मधु माखी।
वन प्रांतर संवेग लांघता
जीवन एक प्रपात।।
क्या करना वैभव के पाथर
रंग विरंगे मोहक।
शाश्वत सत्य संभ्रमित पथ में
कोई तो संशोधक।।
प्रकृति सजाती फैला देती
जगमग नेक बिसात।।
4.
पूछो मत,
कैसे ये बीत रहे दिन।
द्वार खड़ी किरणों की
दैहिक अवस्थाएँ।
प्रकृति की सहेजी परिचित
सारी चिंताएँ ।।
मीठी उन स्मृतियों में
बस तेरे बिन।।
व्योम में निहारूँ तो
पर्वत सा समय
धरती के आँगन में
विष साअनय।।
पथराई उन्गलियाँ
पहाड़े गिन गिन।।
झुनझुने नहीं बजते
पेड़ों में वेसे
पाजेबी खुशियों की
धड़कन के जैसे।।
जाने कब बहुरे
रूठे ता ता तिन।।
5.
चंदनी सुगंध स्नात सांझ का उतरना
मुरझाए गुलदस्ते गमलों के हँसे
ढीले संयंत्र – तंतु वीणा से कसे।
वारी -वारी तारे आसमान उतरे
अनुशासित मंद- मंद उनका झलकना।।
धीरे धीरे धरती ज्योत्स्ना उतारती
चुपके चुपके प्यारी रजनी सँवारती।
ललित केलि- कोटर मे पाखी प्रमोद
अद्भुत प्राकृत सुयोग कोमल संकल्पना।।
पसर गयी शान्ति ओढ़ चुप्पी की चादर
पनघट से उपह गये कब के सब गागर।
धाराएँ अब भी सरिताओं की सहचरी
बनी रही, सिखलाती जीवन की चेतना।।
6.
इस लजीली चाँदनी में
तुम कहाँ खोयी रही
टक- टकी बाँधे तुम्हारी
आहटें गुनता रहा।।
कुछ पुरानी बाँसुरी की
तान की प्रतिकृति भली
छू गयी सी लगा मुझको
हँसी जूही की कली।।
विचारों के तंतुओं से
जाल भर बुनता रहा।।
कुंज में जैसे उगे हों
प्रेरणा के गीत नव
गा रहे से पत्र अपने
नाद मय संगीत सब।।
कल्पना के फलक पर बस
अकेला सुनता रहा।।
लग रहा संवाद का क्षण
विकलता से बह गया।
हवा का झोंका अचानक
द्वार को कुछ कह गया।।
बीज मय आखर अचीन्हे
भोर तक चुनता रहा।।
7.
उँगलियों में बाँध कर बारूद
मुझको पत्र मत लिख।।
जिस जगह की लाल मिट्टी
कह रही अपनी कहानी।
आँसुओं की पीर से
ऊपर उठी शोणित रवानी।।
और कोई रक्तस्रावी
सिंधु के आक्रोस जैसा
अविश्वासी सर्वनाशी अमानुष सा
पत्र मत लिख।।
धरा अब तक नहीं बदली
वही तो आकाश है।
कहाँ वाधा है गठन में
शिखर सा विश्वास है।।
शिला खण्डों से पिघल
धारा हमारे प्राण तक
रोज आती रही है कोई
नया षड्यंत्र मत लिख।।
नयी ऊर्जा, नया यौवन
हौसले नूतन अगर हैं
शून्य का आँगन खुला है
असीमित अनगिन डगर हैं।।
मातृभूमि विवेचना करती नहीं
सब देखती है।
हो सके तो शान्ति दो
संहारकारी मंत्र मत लिख।।
8.
हवाओं के पंख पर चढ़ कर किधर जाऊँ
लक्ष्य उड़ना नहीं केवल, साधना भी है।।
जिन विरोधी स्वरों ने ताली बजाई है,
विविध व्यंजन स्वाद से थाली सजाई है,
ढिंढोरे के नाद ने देकर मुकुट स्वर्णिम
साख की तस्वीर सुंदर सी बनाई है।।
लक्ष्य देना नहीं केवल, माँगना भी है।।
सामने के जीव सब भोले बेचारे हैं,
वैध भाषा के लिए कब से कुँआरे हैं,
तीर आँखों की पुतलियों में न चुभ जाए,
मुट्ठियों में पारदी पत्थर सँवारे हैं।।
लक्ष्य सुनना नहीं केवल वाँचना भी है।।
पहाडों की जड़ों को देखा किया हमने
कौन कितना दीर्घ है कितने हुए ठिगने,
नदी झरने बाढ की हम क्या करे बातें ं,
देखने में है पराये से मगर अपने।।
लक्ष्य लेना नही केवल, छीनना भी है।।
9.
आओ बादल , रख लूँ अंजलि में प्यार से
धरती के मंच तुम्हें ग़ीतमय विकास दूँ।।
रोहिणी जगाने आई लेकिन मौन थी
गर्म धूप ओसा गयी पता नहीं कौन थी।
गर्म तवा सी गलियाँ दूब खाक हो गयी
आओ, तो खुश हूँ अब कैसे विश्वास दूँ।।
खाली हैंं टोपरें किसानों के श्रम के
ऊँघ रहे दिन पल छिन अनचाहे भ्रम के।
सूखे की मार नहीं द्वार -द्वार फिर बहुरे
लगता है स्वागत में खुला अट्टहास दूँ।।
हँँसती अट्टालिका कि टूटी झोपड़ियों से
टपकेगी कब धारा बूँदों की लड़ियों से
छलनी की छाती के छिद्रों की पीड़ा का
भरा ताल , कैसे किस- किस को आभास दूँ।
10.
दीवारों से हो सकता जो काश कभी संवाद
एकाकी भी बतिया लेता अपने मन की बात।।
पतझड़ से वसंंत का आँगन स्वच्छ हुआ करता है।
ग्रीष्म और वर्षा से मौसम स्वस्थ हुआ करता है।
उसी तरह विपरीत परिस्थितियों के संघर्षण में
खुशियों की तंगी हो जाती शिथिल-शिथिल से गात। ।
खो जाता माधुर्य गीत संगीत भरे प्रांगण का
गहन अँधता – सी छा जाती डूबा मन कानन सा
प्रश्नों के समूह आते चिल्लाते स्वयं शान्त होते
किन्तु आत्म विश्वास बिन्दु को दे चिंतन-सौगात।।
लगी सिमटने आकांक्षाएँ दूर गयीं आशाएँँ
क्षणभंगुर विषाद के तन की क्षीण हुई आभाएँ।
अनुत्तरित अनुपूरक प्रश्नों की संचिका खुलेगी
पता नहीं किस पद के आगे आकर जुडे निपात।।
———–
रामकृष्ण, गया, बिहार