1. मजदूर
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उनका होना चेतना का होना है
उनका चलना विकास का चलना है
उनका ठहरना प्रगति का ठहरना है
उनका जागना उम्मीदों का जागना है
उनका खोना विचारों का खोना है
उनका सोना मेहनत का सोना है
उनका मरना सभ्यता का मरना है
उनके इसी होने चलने सोने जागने
और सभ्यता में रहने से तृप्त है दुनिया भूख
इसी तृप्ति पर टिकी हैं दुनिया की तमाम जीवित इमारतें
वे नहीं जानते
मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्त्व
पर जानते हैं जीवन के मूल कर्तव्य
उनके लिए रक्षा जैसे शब्द बेमानी हैं
नहीं हैं उनकी सुरक्षा के लिए कहीं कोई इन्तज़ाम
असुरक्षा ही उनका सबसे सुरक्षित स्थान है
उनकी खबरों को नज़रअंदाज़ करना
सरकार का सरकारी सलीका
उनकी मौत पर नहीं होते विमर्श
न मनाए जाते हत्याओं पर मातम
ढक दिये जाते हैं शालीनता से उनके शव
बड़ी सहानुभूति से लगाया जाता है
योजनाओं में ज़ख्मों पर मरहम
अलबत्ता किसी आदमी की मज़बूरियों का वजन
ज्यादा होता है उसकी देह के वजन से
फिर वे तो माहिर हैं बोझा ढोने में
आखिर क्यों नहीं उठा पाते
अपना ही भार?
2. ख़्वाहिश
ये किताबें हैं या तुम्हारी प्रेमिकाएँ
जो झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशे से तुम्हें
निहारती हैं उम्मीद भरी निगाहों से
एक बेआवाज़ मिलन की चाह लिए
और तुम देकर दिलासा करते हो आश्वस्त
आने वाली छुट्टी के नाम पर
ये छुट्टी कौन सी होगी पता नहीं
किसी रविवार तीज-त्यौहार
या किसी नेता-राजनेता की मौत पर मनाए गए शोक की
इससे उनका कोई लेना देना नहीं है
उन्हें तो बस तुम्हारा साथ चाहिए
उनका ये भरोसा झूठा नहीं है
कि वक्त पाते ही पुकारते हो नाम से
पलटते हो पन्ना दर पन्ना कई-कई बार
पहुंचते हो शब्द से अर्थ तक
इनकी खुशनसीबी देख ख़याल आता है
काश कि होती कहीं इस अलमारी के बीच
इन किताबों के दरमियाँ
करती तुम्हारा इन्तज़ार!
3. मनुष्य न कहना
अभी मैंने पेश नहीं किए
मनुष्यता के वे सारे दावे
जो जरूरी है मनुष्य बने रहने को
इसलिए तुम मुझे मनुष्य न कहना
न कहना खग या विहग
क्योंकि उड़ना मुझे आया नहीं
मत कहना नीर क्षीर या समीर भी
क्योंकि उनके जैसी शुद्धता मैंने पाई नहीं
न देना दुहाई धरा या वसुधा के नाम की
चूंकि उसके जैसी धीरता मुझमें समाई नहीं
हाँ कुछ कहना ही चाहते हो
पुकारना चाहते हो सम्बोधन से
तो पुकारना तुम मुझे एक ऐसे खिलौने
की तरह
जो टूटकर मिट्टी की मानिंद
मिल सकता हो मिट्टी में
जल सकता हो अनल में
बह सकता हो जल में
उड़ सकता हो आकाश में
उतर सकता हो पाताल में
ताकि तुम्हारे सारे प्रयोगों से बचकर
दिखा सकूँ मैं अपनी चिर-परिचित मुस्कान
दुखों से उबरने का अदम्य साहस
और एक सम्वेदनशील हृदय
इसके सिवा एक मनुष्य
और दे भी क्या सकता है
अपनी मनुष्यता का साक्ष्य?
4. पतंगें
आकाश में उड़ती पतंगे
नहीं जानती अंकुश का अर्थ
वे जानती हैं खुली हवा में विचरना
और छूना आसमान की ऊँचाईयों को
पतंगें
नहीं महसूस पातीं
उस हाथ के दबाव को
जो थामे रखता है उनकी डोर अपने हाथ में
पतंगें
लड़ना नहीं जानतीं
वे जानती हैं सिर्फ मिलना-जुलना
और बढ़ना एक-दूसरे की ओर
नहीं पहचान पातीं उस धार को
जिससे मिलते ही कट जाती है ग्रीवा
पतंगें
नहीं जानतीं लुटने मिटने कटने का अर्थ
वे देखना चाहती हैं दुनिया को ऊँचाई से
उनका ऊँचा-नीचा होना निर्भर है
मुट्ठी में कसे धागे के तनाव पर
पतंगें
नहीं थाम पातीं अपनी ही डोर अपने हाथ में
विजय और वर्चस्व की उम्मीदों को संजोए
आ गिरती हैं इक रोज़ ज़मीन पर
भरती हैं फिर-फिर उड़ान
पतंगों का भी है अपना इतिहास
अंधेरों उजालों के बीच
हवा धूप पानी से खेलती
होती रहीं हैं किसी बाधा की तरह उपस्थित!
5. तुम भगवान् तो नहीं
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मैंने रहने को मकाँ माँगा
तुमने मन्दिर दे दिया
मैंने भूख का नाम लिया
तुमने भगवान का ज़िक्र छेड़ दिया
मैंने विनोद की बात की
तुमने वन्दना का राग अलापा
मैंने अनाज की तरफ़ देखा
तुमने अर्चना की ओर इशारा किया
मैंने प्रार्थना में प्राण बचाने की मुहिम छेड़ी
तुमने पूजा में समय बिताने की विधि बताई
क्या सचमुच!
मन्दिर, पूजा, अर्चना और वन्दना
कर देते हैं पेट की आग को ठण्डा
क्या दीपक बन जाता है ठिठुरती सर्दी में अलाव
क्या तपती गर्मी में पसीना बन जाता है पानी
क्या मन्दिर का प्रसाद बन सकता है मजदूर की दिहाड़ी
अगर नहीं
तो जितना अन्तर है भूख और भगवान् में
बस उतना ही फासला है मेरे और तुम्हारे बीच
कहीं मैं भूख तुम भगवान तो नहीं?
6. जीवित इमारतें
सभी जीवित इमारतें
जिन्दा नहीं हैं
मगर उन्हें प्रत्यक्ष देखकर
मृत घोषित नहीं किया जा सकता
वे खड़ी हैं पाषाण सरूप
जिनमें स्पंदन है
हैं उनमें चलने दौड़ने भागने की तमाम इच्छाएँ
मगर उनके हौसले टूट गए हैं
पस्त पड़ गई हैं उनकी उम्मीदें
नये दौर की नयी नीतियों से
उनमें दरारें आ गई हैं
हालांकि वे रहना चाहती हैं जीवित
चलना चाहती हैं बरसों बरस
पर छूट गई हैं विकास की दौड़ में कहीं पीछे
वे बंटकर रह गई हैं कई हिस्सों में
अब मर रही हैं आपस में ही लड़कर
गिर रही हैं टूटकर!
7. अधर्म
नहीं था हमारे भीतर
परम्परा के प्रति कोई सन्देह
जिसने जो दिया अपना लिया
यह रास्ता सुगम था
बजाय अपना बनाने के
या कि स्वीकारने के चुनौतियाँ
हम दूसरों के दिए भोजन पर तृप्त रहे
पहनकर दूसरों के कपड़े राजी
उनका दिया दान और दुआ
हमें दवा सा लगा
हम फिरते रहे लेकर धर्म की प्यास
छोड़ सब काम हुए धर्मों के चाकर
सच खोजने की ताकत हमारे भीतर कम थी
इन्सान बनने का हुनर न के बराबर
हमारे भीतर कोई प्यास कोई विद्रोह नहीं था
अनुभव से पहले ही कर लिया सब स्वीकार
हमारा कोई धर्म नहीं था
न था कोई ईश्वर!
8. बहेलियों के नाम
जब तुम हमारी अयोग्यता की बात करो
तो अपने उस अनाचार की भी करना
जिससे तुम साधते रहे निशाना
और हम होते रहे शिकार
तुम्हारी ग़ुलेलों का
सोचना
उन अँधेरों के बारे में
जिनका स्याहपन तुम्हें छू तक नहीं गया
देखकर हमारी चमकीली आँखें
मत समझ लेना सुख का पर्याय
हो कोई पैमाना सच का
तो मापना हमारे उस द्वंद्व को
जो उपजा है तुम्हारे छद्म से
न देखना
सिर्फ देखने के लिए
पढ़ना एक बार समझने के लिए
तोड़कर अपना मायाजाल याद करना वह पसीना
जिसे तुम भूल चुके हो!
9. नहीं चाहिए
ठहाकों की बैसाखियाँ
सहानुभूति का मरहम
और प्रफुल्लित कर देने वाले शब्दों का लेप
जो निर्द्वन्द्व और बेसहारा कर दें मुझे
चूंकि मैंने ईमान गिरवी नहीं रखा
नहीं सीखा मुखौटा लगाकर जीना
सिर्फ चाहूँगी
वो कर्कशता, वो तीखापन
और वास्तविकता से परिपूर्ण
तुम्हारी वो तेज आवाज़
जो आत्मीयता का बोध कराती
मिटा दे त्रुटियों को
और मिला दे मुझे खुद से !!
10. तारीखें
वक़्त की दहलीज़ लाँघ
मियाद पूरी होते ही
उतर जाते हैं दीवारों से
ओढ़ कर उदासीनता की चादर
लिपटी रहती हैं जिनमें
स्याह रंग से रंगी तारीखें
सिमटी रहती है खुशी और ग़म की दास्ताँ
वक़्त के गुज़रते ही तटस्थ हो जाती हैं
चलती हैं संग-संग मीलों मील
कभी नज़र आतीं कैमरे में क़ैद
कभी अदालत की पैरवी से थकी
न्याय के मुक़म्मल वक़्त का इन्तज़ार करती
कोई कलंक की कालिमा से पुती
आतंक की वेदी पर चढ़े
शहीदों की चिताओं पर रोती-चिल्लाती
कोई अपने नाम जीत दर्ज़ करा
सुशोभित कर रही इतिहास को
घटती-बढ़ती गिनतियों से सजी
भरती कुलाँचें आशा और उमंग की
हार जाती हैं अतीत की कहानियाँ सुनकर
बीते दिनों की बातों में इनका ज़िक्र रहता है
खुद को हाशिए पर नहीं आने देतीं
अहम रहतीं कल आज और आगाज़ में
बँट जाती हैं दिन-रात में
साल दर साल
बदल जाते हैं केलेंडर
असरदार रह जाती हैं सिर्फ़ तारीखें
जिन्हें रह-रह कर झाँकता है वर्तमान
हमारे संग-संग न चलतीं तो इतिहास का अस्तित्त्व
न जान पाते !!
11.पृथ्वी का सौन्दर्य
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मनुष्य नहीं मरता
न मरेगा कभी
वह बचा रहेगा तब तक
जब तक उठे रहेंगे
उसके हाथ प्रार्थनाओं में
अशेष रहेगी उसकी मनुष्यता
उम्मीदों, भावनाओं, कल्पनाओं में
और उस अनुगूँज में
जो असाध्य क्षणों में भी
थाम लेती है उसका हाथ
इन्हीं एहसासों और अनुभूतियों पर निर्भर है
पृथ्वी का सौन्दर्य!
12. बैसाख की आस
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तुमने भूख का वास्ता दिया
मुझे अन्न उगाने की सूझी
मैंने बो दिए गेहूं, जौ, चना, चावल, दाल
और शर्बत, चाय, चीनी, के नाम पर
रोप दी ईख
मेरे इसी कार व्यवहार पर
टिके थे सब त्यौहार
बसंत आया, फूल खिले, हवा चली, खेत लहलहाए
और आस जगी बैसाख की
इसी सुनहरी चमक में थे
वनिता के गहने, लाजो की चुनरी
नन्हें मुन्नों के खेल खिलौने
और कॉपी किताब
शाम होते ही बादलों का रुख बदला
रंग गहराया, बिजली चमकी
और छाए उमड़ घुमड़ कर
जैसे कर रहे हों पैमाईश धरा की
मैंने नज़र उठाई देखा और गुहार लगाई
आज बादलों से ज्यादा गड़गड़ाहट मन में थी
भीतर की अर्चना रोक रही थी ऊपर की गर्जना को
प्रकृति पर पहरे का प्रयास कोरी मूर्खता है
उस रात कंकड़ों ने भी दिखाई खूब नज़ाकत
यौवन में मदमाती फसल
सिमट गई थी वृष्टि की आगोश में
और समा गई धरा की गोद में
भोर होते ही मैंने यूँ निहारा खुले मैदान को
जैसे विदाई के वक्त देखता है एक पिता बेटी को
मेरे पास डबडबाई आँखों के सिवा कुछ न था
बस एक हाथ में रस्सी थी दूसरे में हँसिया
और मन में तरह तरह के ख्याल
अब सरकारी वादों पर टिकी थी
हर एक साँस!
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ममता जयंत
परिचय
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नाम – ममता जयंत
जन्म – 21 सितम्बर
जन्म स्थान – दिल्ली
शिक्षा – एम.ए. [इतिहास], बी.एड.
सम्प्रति – अध्यापक [नोएडा]
युवा कवयित्री और आलोचक
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित व बाल सुमन माला के नाम से एक बाल कविता संग्रह प्रकाशित।
‘मनुष्य न कहना’ शीर्षक से एक काव्य संग्रह प्रकाशित।
[हिन्दी अकादमी दिल्ली के सहयोग से]
Address-
42 – C
Pocket – B
S.F.S., D.D.A Flats
Mayur Vihar phase – 3
Delhi – 110096
M. No. – 9315605580