मानव मानव कहां रह जाता है
कुटिलता की धरा पर जब
षड्यंत्र का शूल फलता है
वैमनस्य का परिधान पहन
संबंध अभिमान करता है
नज़रें फिर जाती हैं जब –
मनबंधन पुकार करता है
भाव शून्य जीवन का,बोलो
अर्थ ही क्या रह जाता है…?
आघात करे जो आलिंगन
दूषित मलिन हो जाए मन
प्रशंसा मिथ्या का कर श्रृंगार
निज लाभ पूर्ति का गठबंधन
मतभेद मनभेद के द्वंद्व में
समय का विचार तड़पता है
वाणी जब वाण का रूप धरे
मुस्कान कहांँ रह पाती है….?
मानस पटल पर अंकित जब
दुस्संगति का पक्ष हो जाय
कर्म और नीति–धर्म के लिए
अंधकूप का लक्ष्य हो जाय
परिणाम का परिमाण भी
क्षत विक्षत हो जाता है
उल्लू शक्ति पर आरूढ़ हो
विश्वास कहांँ टिक पाता है…. ?
शोषण पोषण का अंग बने
पराकाष्ठा सहन सीमा की
आह कराह के प्रचंड धूप में
किसे चिंता है मानवता की
आडंबर के इस बाजार में
भावनाएं कहां टिक पाती है
भावनाओं की कद्र ना करे जो
मानव मानव कहां रह जाता है…?
माना अतीत वर्तमान नहीं हो सकता
माना अतीत वर्तमान नहीं हो सकता
और सफर भी भविष्य की ओर
ये तो समय की गति है …
ऐ मेरे मन
अतीत का अक्स
वर्तमान को करे —
ऊर्जावान और आत्मबली
जो कर्म और लगन को
साहस का रूप दे दे…
पीड़ा और संघर्ष की धूप
जीवनभूमि सुखी दर्रारी सी
उम्मीद की निगाहों से क्या ताक रहे हो ?
ऐ मेरे मन
वाणी– स्नेह की नमी
संगति का पावस
भरोसे और ढांढस की बूंदा- बूंदी
उग आए जिससे- आशा की पौध
हरित हो लगन और मेहनत
स्नेहिल प्रेम की छांव —
तुम्हारे भाग्य और तकदीर
क्या बदलेगी तेरी तस्वीर…??
मन मेरे…
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रंजित तिवारी
पटेल चौक , कटिहार
संपर्क – 6200126456