इतवार को जब असम के जिला हैलाकांदी प्रशासन का फोन आया कि उसी दिन मुझे जिला मुख्यालय के प्रशासनिक भवन में पहुँचना है, तो उसी वक्त मुझे आभास हो गया था कि किसी दुर्गम स्थल पर चुनाव कराने हेतु मेरा चुनाव किया गया है। नियमतः मंगलवार के चुनाव हेतु मुझे एक दिन पूर्व अर्थात् सोमवार को सुबह में जाना था। मगर यहॉं तो मुझे दो दिन पूर्व ही बुलाया जा रहा था। लिहाजा आवश्यक सामान लेकर हैलाकांदी पहुँचा। जिला मुख्यालय कार्यालय में मुझ जैसे अनेक और भी लोग थे, जिन्हें दुर्गम स्थान में चुनाव-कार्य के लिए पहले पहुँचना था। उन्हें आवश्यक सामग्री और सूचनाएँ उपलब्ध कराए जा रहे थे। मेरे टीम में कुल चार जन थे, जिनमें से दो आ चुके थे और दो का आना बाकी था। वे कब आएँगे, पता नहीं था। खैर, उनमें से एक चार बजे शाम में प्रकट हुआ, तो दूसरा सात बजे रात में आया। जबकि सभी को दोपहर से ही उपस्थित रहने की सूचना लगातार दी जा रही थी। चूँकि वे स्थानीय थे, उन्हें शायद चुनाव का रंग-ढंग पता था। शायद इसलिए उन्हें हड़बड़ी न थी।
हैलाकांदी शहर मे होटलों के पौ-बारह थे। इन होटलों में बना कुछ भी खाद्यसामान देखते-देखते खत्म हो जाते थे। आखिर चुनाव का मौसम जो था। खैर एक होटल में कुछ खाकर नाइट-डिनर का सुख लिया। सामने एक बस तैयार खड़ी थी, जिसमें हम सभी को चुनाव सामग्री के साथ सवार होना था। नौ बजे बस चली। हैलाकांदी के बाद लाला, फिर कतलीचेरा और फिर रामनाथपुर कस्बा। चारो तरफ घुप्प अंधेरा। और इस अंधेरे को चीरते हमारी बस सड़क पर भागती जा रही थी। हम सभी अपने और सरकारी सामान के साथ चुप्प बैठे थे। मानो हमें कहीं जिबह के लिए ले जाया जा रहा हो। दो घंटे की निरंतर नीरव यात्रा के बाद 11 बजे रात में हम रामनाथपुर पहुँचे। वहॉं सड़क पर कुछ गाड़ियॉं खड़ी थीं। हर भारतीय कस्बे के समान यहॉं भी बत्ती गुल थी। घने अंधेरे के बीच सबके चेहरे पर यही सवाल, अब क्या होगा! और कि अब हम क्या करें ? हमें कहॉं, कैसे और क्यों जाना है, यह बताने वाला कोई न था।
आपस में पूछताछ करने पर पता चला कि यहॉं के स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में हमारे ठहरने की व्यवस्था है। और कि हमे गाइड करने के लिए एक सब-इंस्पेक्टर भी है। हम उसकी गाड़ी के पास गये। लेकिन वह अपने टाटा सूमो में बैठे-बैठे अपना बखान करता रहा कि वह कितना बड़ा तोप है। और कि पूरा रामनाथपुर उसके घुटनों के नीचे है। हमें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। हम वहॉं की टूटी-फूटी धूल भरी सड़क पर आधेक घंटा यूंही खड़े रहे कि एक मरियल सा आदमी टॉर्च जलाए प्रकट हुआ और हमें अपने पीछे आने का संकेत देकर तेज गति से एक ओर की पगडंडी पर बढ़ चला। ‘महाजनो येतः गतः सा पन्थाः’ के अनुसार हम सभी उसका अनुसरण करने लगे। हमलोग तीन दिशाओं की ओर जाने वाले तीन पार्टी के सदस्य थे। सो हिम्मत थी कि हम फिलहाल एक समूह में हैं।
लगभग सौ मीटर की दूरी तय करने के उपरांत एक मकान की ओर इंगित कर मार्गदर्शक वापस अंधेरे में गुम हो गया।
हिन्दुस्तान के लगभग सभी सरकारी प्राथमिक विद्यालयों और पैसेंजर ट्रेनों में कोई खास फर्क नहीं होता। भवन बस ठीकठाक था, मतलब पक्का था। टॉर्च की रोशनी के बीच मोमबत्ती जलाये गये। अनुभवी लोगों ने अपने अनुभव के अनुसार तुरंत बेंच अथवा डेस्क जोड़कर चौकी तैयार कर अपना बिछावन डाल लिया। इस लूट में जो महरूम रह गये, वे जमीन में ही अपना बिछावन बिछा लिये। बिस्तर क्या था, एक चादर डाली, बैग सिरहाने किया और साथ लाया कंबल ओढ़ लिया कि कुछ घंटे की ही तो बात है। वैसे भी थकान और नींद बिस्तर का हाल नहीं पूछती, बस वहीं पस्त होकर पड़ रहती है। शायद प्रशासन को इसकी अच्छी जानकारी है। मैने भी जमीन पर अपना बिस्तर जमाया। आखिर साधु-संन्यासी और बाबा लोग तो जमीन पर ही धूनी रमाते हैं, फिर हम क्यों नहीं।
लगभग छः बजे नींद खुली तो सुबह की उजास फैल चुकी थी। कुछ लोग उठकर अपने-अपने ढंग से नित्य क्रिया से निवृत्त हो रहे थे। विद्यालय से थोड़ी दूर एक विधवा की झोंपड़ी थी, जिसमें वह अपने चार छोटे-छोटे बच्चों के साथ रह रही थी। वहीं एक कुआंनुमा गड्ढा था, जिसमें से कूछ स्थानीय लोग पानी भर रहे थे। वहीं से हमारे लिए भी बाल्टियों में भरकर पानी आया था। अब डेढ़ दर्जन लोग इसी से निबटाते रहो अपनी नित्य क्रियाएँ। मरता क्या न करता। सो सभी निबट भी रहे थे। कुछ लोग पानी में भिगोकर चूड़ा खाने में लगे थे। उस महिला से चाय के लिए अनुरोध किया गया, तो वह तुरंत चुल्हा जलाने में जुट गई। अपने टूटे-फूटे बर्तनों में जहॉं तक संभव हुआ, उसने चाय और सस्ते बिस्कुटों का एक पैकेट परोस दिया। हमने जैसे-तैसे उसे ग्रहण किया और उसे पैसे दिये। मैने साथ लाए बिस्कुट और मिक्सचर के कुछ पैकेट उसके बच्चों के बीच बॉंट दिये।
मेरे एक साथी को गैस और सरदर्द की दवा लेनी थी,सो वह बाजार की ओर जा रहा था। मैं भी उसके साथ हो लिया कि शायद उधर दूकान में कुछ खाने को मिल जाए। वहीं एक दूकान में पूरी-सब्जी खा ली। हमारे पीछे एक आदमी सुबह से ही पीछे लगा था और र्बेसिरपैर की बक-बक किये जा रहा था। चुनाव के वक्त यह कोई अनहोनी बात नहीं कि जरूरतमंद को मूड बनाने का अवसर न मिले। और इस समय तो वह संसार का सबसे समर्थ व्यक्ति बना बैठा हमें समझा रहा था कि हमें चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह हमारे साथ है और वह सब कुच्छ ठीक कर देगा। हमलोगों के साथ उसने भी जमकर नाश्ता किया। जब दूकानदार ने सत्तर रूपये का मौखिक बिल पेश किया, तो मेरे मुँह से सहसा निकला कि मै किसी ऐरे-गैरे के बिल के पैसे क्यों दूँ?
तभी एक व्यक्ति सूचना लेकर पहुँचा कि पुलिस मुझे शीघ्र आगे चलने के लिए बुला रही है। ऐसे में बहस करना उचित न समझ जबतक मैं अपना बटुआ निकालता, किसी व्यक्ति ने पैसों का भुगतान कर दिया था। मुझे यह काफी नागवार लगा कि कोई अपरिचित मेरे बिलों का भुगतान करे। पता नही वह कौन हो! कोई सरकारी आदमी अथवा किसी राजनीतिक दल का सदस्य भी हो सकता है, जो बाद में मुझसे फायदा लेना चाहे।
चुनाव के नाम पर करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं, यह मैंने सुना-पढ़ा था। और अब मैं भी उसमें भागीदार हो रहा था। खैर शीघ्रतापूर्वक मैं वापस आश्रय-स्थल पर आया। वहॉं असम बटालियन के दर्जन भर जवान हमारे साथ चलने को तैयार बैठे थे। उनका सब-इंस्पेक्टर अभिवादन करने के उपरांत बोला- “यहॉं से ज्यादा दूर नहीं है।बस 15-20 किलोमीटर पैदल का रास्ता है। तकलीफ की कोई बात नहीं है।हम आपके साथ हैं।”
यह सुनते ही हमारे हाथ-पांव फूल गये। जंगल-पहाड़ में सामान के साथ 15-20 किलोमीटर पैदल चलना मामूली बात है क्या? मैं अतिरिक्त विनम्रता दिखाते हुए बोला- “अब चलना तो है ही।लेकिन यदि कोई भारवाहक मिल जाता तो ठीक रहता।”
“हाँ पोर्टर तो मिलेंगे। मगर उन्हें प्रति पोर्टर दो सौ रूपये देने होंगे।”
मरता क्या न करता। मैं इसके लिए तैयार था। तभी एक जवान ने सूचित किया कि हमारे सेक्टर ऑफिसर ने तीन पोर्टरों को हमारी मदद के लिए भेजा है।”
हमारी जान में जान आई। पोर्टर तत्परतापूर्वक सरकारी चुनाव सामग्री के साथ हमारे बैग को भी बँहगियों में बाँधने लगे थे। अब हम कूच के लिए तैयार थे। सब-इंस्पेक्टर के इशारे पर हम गाँव की पगडंडियों पर बड़े-बड़े डग भरते उसके पीछे चल दिये। पोर्टरों को जैसे पंख लगे थे, कि पहिये! वे निरंतर आगे बढ़ते जाते थे और हम पीछे छूट जाते थे। इन सबको नियंत्रित और संयमित करने का काम सब-इंस्पेक्टर कर रहा था। ग्रामीण-गण हमें अजीब निगाहों से देख रहे थे।
गांव का रास्ता पीछे छूटा। अब छोटे-बड़े टीले आने आरंभ हो गये थे।सामने मिजोरम के भूरे-काले पहाड़ो की श्रृंखलाएँ दिख रही थीं, जिनपर धूप पसरा हुआ था। अब हम पहाड़ों की चढ़ाई वाले पगडंडियों पर चल रहे थे।
मिजोरम की मनोरम पहाड़ियों से निकलकर दक्षिण असम की ओर बहने वाली काटाखाल नदी का विशालकाय पाट हमारे सामने था। उसपर बांस का बना पुल था, जिसे पार कर हमें आगे बढ़ना था। काफी सँभल कर उस पुल पर पांव धरते हम आगे बढ़े। जरा सा भी संतुलन बिगड़ता नहीं कि हम पचासेक फुट गहरे नदी में जा गिरते। मगर आमतौर पर ऐसा होता नहीं । क्योंकि प्राणों का मोह मनुष्य को सँभल कर चलना सिखा देता है। सो हम संभल कर चल रहे थे।
असम बटालियन का एक जवान मेरे साथ मेरे बराबर ही चल रहा था। मैं जिस स्थान से आया था, वहॉं वह कुछ समय तक रह चुका था और वह अच्छी हिन्दी भी बोल रहा था। कभी-कभार अपने मोबाइल पर हिन्दी फिल्मों के गीत भी बजा रहा था। पहाड़ी रास्तों पर मोबाइल के टावर कभी उभरते, कभी गायब हो जाते। कई बार मैंने मोबाइल फोन पर कहीं बात करने की कोशिश की तो असफलता हाथ लगी। इन पहाड़ों पर बंगला-देश और मिजोरम से विस्थापित रियांग जनजाति के लोगों को बसाया गया है, यह मैंने सुना था। लेकिन रियांग लोगों के बारे में और कुछ नहीं जानता था। इस रास्ते रियांग जनजाति के लोग अपनी पीठ पर शंक्वाकार टोकरी लटकाए रामनाथपुर में आज लगने वाली साप्ताहिक हाट के लिए जा रहे थे। टोकरियों में फूल-झाड़ू की तीलियॉं और वनोपज थे, जिन्हें बेचकर जो मिलेगा, उससे वे खरीदेंगे किरासन तेल, चीनी, चाय पत्ती, नमक़, तम्बाकू, साबुन, कपड़े जैसे रोजमर्रा के जरूरी सामान। उनसे कुछ बच गया, तो पुरूष खरीदेंगे कुछ सस्ती मिठाईयॉं और नमकीन। महिलाएँ खरीदेंगी सस्ते प्रसाधन सामग्री, मनकों की मालाएँ अथवा गिलट के आभूषण। एक तो अभाव की मार, दूसरे विस्थापन का दर्द। छल-छद्म से कोसों दूर, सामान्य जीवन से अलग इनकी जरूरतें कितनी सीमित हैं। रास्ते में एक और बड़ा सा गहरा पहाड़ी नाला मिला। नाम है- बैगन नाला! एक विशालकाय वृक्ष को काटकर, उस नाले पर गिराकर पुल बना दिया गया है। इसके किनारे कुछ स्थानीय लोग स्नान कर रहे थे।
“ये लोग यहॉं स्नान वगैरह कर अपने कपड़े वगैरा भी धो लेते हैं।” सब-इंस्पेक्टर बोला- “उपर पहाड़ पर पानी की घोर समस्या है। हमलोग भी यहॉं थोड़ी देर रूककर पानी पी लेते हैं।”
फ्रिज के पानी के समान शीतल और साफ पानी था। हमने पानी पिया और बोतलों में भी भर लिया। इसके बाद आगे बढ़ चले। जंगल-पहाड़ के बीच इक्का-दुक्का बाँस के घर मिलते। उनके साथ होता गाय, सुअर और मुर्गियों के दड़बे। एक घर के सामने के बेर के पेड़ पर एक जवान ने डंडा फेंका तो भरभराकर पके बेर गिरने लगे। बेरों को चुनकर उसने अपने जेबों में भर लिया था। इन जवानों के कंधे से मशीनगनें और एसएलआर टंगे थे। छाती पर बुलेट प्रूफ था और कमर में थीं बुलेट से लैस बैरेल। इन्ही के बीच एक रियांग गृह स्वामिनी से मांगे गये थोड़े नमक के साथ बेर खाते जवान साथ चल रहे थे। धूप तेज हो चुकी थी। हम खाली हाथ थे, फिर भी पसीने से लथपथ थे। और रास्ता था कि खत्म होने का नाम नहीं लेता था।फिर भी हम पुलिस और पोर्टरों के पीछे घिसटते हुए आगे बढ़ते जाते थे।
लगभग चार घंटे की निरंतर यात्रा कर हम उस रियांग बस्ती में प्रविष्ट हुए, जहॉं हमें पहुँचना था। वहॉं पहुँचकर एवरेस्ट चोटी फतह करने जैसा अहसास हुआ। मगर अभी तो बस शुरूआत थी। पड़ाव डालने वाले प्राथमिक विद्यालय तक पहुँचने के लिए हमें एक और पहाड़ की चोटी पर चढ़ना था। वहॉं पहुँच कर फिर हमने वहॉं पड़े बैंच और डेस्कों को जोड़कर चौकी तैयार की और उसपर चादर बिछाकर लुढ़क पड़े। थोड़ी देर बाद तामचीनी के प्यालों में भरकर चाय और बिस्कुट लेकर एक रियांग लड़की आ गई। एकदम साधारण सी वेशभूषा, मगर पर्वतीय लावण्य उसमें से फूटा पड़ता था। ऐसे कठिन दौर में जो भी कुछ मिलता है, वह अमृत समान लगता है। चाय पीकर हमें –
पैर मन-मन भर के हो रहे थे। मैं यूँ ही लेट गया। तबतक कुछ रियांग लोग इकट्ठा हो गये थे। सब-इंस्पेक्टर उनसे बँगला में बात कर रहे थे। इनलोगों की बातचीत से आभास हुआ कि इधर कितनी घोर अशिक्षा है। ये रियांग भाषा को छोड़ बंगला, हिन्दी, अंग्रेजी कुछ नहीं जानते। बस कुछ लोग हैं, जो मिजोरम की राजधानी आइजल अथवा हैलाकांदी या शिलचर गये होंगे और इसलिए वे बंगला, हिन्दी या अंग्रेजी जानते हैं। वैसे इन रियांग युवकों का हिन्दी उच्चारण एकदम साफ और स्पष्ट था और वे धाराप्रवाह हिन्दी बोल भी लेते थे। सब-इंस्पेक्टर के निर्देशानुसार उन्होंने शीघ्रतापूर्वक विद्यालय के पीछे एक अस्थायी शौचालय और बाथरूम बना दिये थे। प्लास्टिक के एक ड्रम में पानी भर गया था और अब हमारे सहयोगी हाथ मुंह धो रहे थे।
“यहॉं पानी की बहुत दिक्कत है” एक रियांग युवक बता रहा था- “कृपया हिसाब से ही पानी का उपयोग करें।”
मन मारकर सभी को थोड़े पानी से ही हाथ-मुँह धोकर संतोष करना पड़ा।
लगभग दो बजे भोजन हाजिर था। स्थानीय चावल का भात,मसूर की दाल, नीचे घाटी में बनी पोखर की मछली और आलू की सब्जी थी। चूँकि स्थानीय लोग तेल-मसाले का उपयोग नहीं के बराबर करते हैं, खाना फीका था। मगर भूख का स्वाद से कोई संबंध नहीं होता। सो सहजतापूर्वक हम भोजन कर रहे थे, क्योंकि भोजन के साथ नमक और मिर्च भी तो थी। मेरे साथी आपस में बात कर रहे थे- “अभी पूरे 24 घंटे बाकी हैं!”
गांव में बिजली पहुँचने का सवाल नहीं है। फिर मोबाइल चार्ज कैसे होते हैं।एकाध घर में सोलर एनर्जी का सेट लगा है। उसी से चीन निर्मित टॉर्च, मोबाइल आदि चार्ज होते हैं। नहीं तो फिर रामनाथपुर में चार्ज किये जाएँ। मगर वहीं कौन सी बिजली चौबीस घंटे उपलब्ध रहती है। असम बटालियन कैम्प में भी सोलर एनर्जी सेट है। मगर पचासेक लोगों को मोबाइल, टॉर्च आदि कितनी मुश्किल से चार्ज होते होंगे।
“काम बहुत है” मेरे सहयोगी बता रहे थे- “कुछ अभी काम कर लें, तो आसानी रहेगी। आपको सारे मत पत्रों पर हस्ताक्षर भी करने हैं।काफी कठिन काम है।”
“हो जायेगा” मैं बेतकल्लुफ होकर बोला- “अभी बहुत समय है।”
“यहॉं बिजली नहीं है। रात के अंधेरे में कैसे काम कर पाएँगे?”
“ठीक है।”
चुनाव सामग्री के गट्ठर खुले। उन्हें मिलान कर व्यवस्थित किया जाने लगा।सारे दस्तावेज असम की राजभाषा बँगला में थे। असम की दो राजभाषाएँ हैं- असमी और बँगला। मेरे सहयोगी उन्हें पढ़-पढ़कर बताते और मैं समझकर अथवा बिना समझे ही उनपर हस्ताक्षर करता जाता था। अब तक के अनुभवों सें मुझे मालूम था कि चुनाव में अंतिम सत्य सिर्फ मतपेटी अथवा बैलेट-बॉक्स है। उसको यदि सुरक्षित कर लिया जाए, तो चुनाव की नैय्या पार है। चुनाव अधिकारी खतरे से बाहर है।
“एक बार प्रिसाइडिंग ऑफिसर की डायरी भी तो समझ लीजिए” मेरे सहयोगी कहते हैं।वह जैसे मेरी मंशा भांपकर बोले- “वह भी महत्वपूर्ण है। वहॉं सामान जमा करते वक्त वही पहले मॉंगते हैं।”
मेरे सहयोगी शीघ्रतापूर्वक मुझे आवश्यक जानकारी देते हुए जरूरी कागजात भरने की खाानपूरी कर रह थे। देखते-देखते पाँच बज गये। शाम का धुंधलका बढ़ने लगा था और इसी के साथ सिहरन भी। ठंढी हवा बहने लगी थी। अंधेरा घिरते ही सरकारी मोमबत्ती जला दिया गया था, जिसकी टिमटिमाती रोशनी में हम सभी कुछ-कुछ सहमे से बैठे थे कि कल क्या होगा!
‘कल सब ठीक होगा’ जैसे यह जवाब देते एक रियांग युवक इमरजेंसी लालटेन रख गया था। इससे इसके प्रकाश में मुझे कुछ और काम संपादित करने का मौका मिल गया था। बाहर अलाव जला था, जिसके इर्द-गिर्द सुरक्षा के जवानों के साथ कुछ स्थानीय लोग बैठे थे। आधेक घंटे के बाद अब वहॉं सिर्फ सुरक्षाकर्मी थे। लगभग नौ बजे भोजन आया। भोजन में वही था- स्थानीय चावल का भात, मछली और सब्जी। मगर इस बार की सब्जी स्वादिष्ट बनी थी। भोजन परोसने और कराने में उनलोगों की आत्मीयता का बोध था।
लगभग नौ बजे तक भोजन कर हम सभी सोने की तैयारी करने लगे।बाहर घुप्प अंधेरा था।कहीं कोई प्रकाश की किरण कौंधती, तो वह भी यहॉं साफ दिख जाता था। आसमान सितारों से सजा हुआ, स्वच्छ और साफ। विद्यालय के बाँस की झिर्रियों से छन-छनकर शीतल हवा अंदर आती थी। बाहर अलाव के इर्द-गिर्द सुरक्षाकर्मी पहरा देते बैठे थे। तभी एक रियांग युवक आया और हमें ओढ़ने के लिए एक-एक कंबल दे गया। हमारा एक सहयोगी फुसफुसाकर मुझसे बोला- “बत्ती बुझा कर आप भी सो जाइए. सर। उग्रपंथियों का इलाका है।दूर-दूर तक प्रकाश जाता है।”
मैने बत्ती बुझा कर मोमबत्ती जला दी और चार बजे का अलार्म अपने मोबाइल में लगा कर लेट गया।
असम में सुबह जल्दी ही होती है। लगभग चार बजे सुबह उठकर मैं वहॉं से दूसरे प्राथमिक विद्यालय में जाकर चुनाव की व्यवस्था करने की तैयारी करने लगा।
सामान पैक कर लगभग छः बजे हम उस विद्यालय में पहुँचे, जहाँ चुनाव होना था। वहॉं विद्यालय का जो हाल देखा, तो मुझे रोना आ गया। बाँस के लट्ठों को जोड़कर बच्चों के लिए बेंच और डेस्क बने थे। टेबल-कुर्सी का पता नहीं। जमीन भी कच्चा, जैसे आज ही उसका प्लास्टर होना है। पूर्वोत्तर के घरों की दीवारें, दरवाजे और खिड़कियॉं बांस की चटाइयों से बनी होती हैं, सो यहॉं भी था। मगर ये तो ऐसी थीं कि कब भरभराकर गिर पड़े, कहा नहीं जा सकता। आधी छत फूस की थी और आधे पर करकट की चादरें थीं।
“इससे अच्छा तो पहले वाला विद्यालय था।” मैं बोला- “कम से कम वहॉं ढंग के कुसी—टेबल, बेंच-डेस्क तो थे। यहॉं हम किसी तरह सामान जमाकर बैठ भी गये, तो कुछ लिखेंगे कैसे?”
स्थानीय लोगों में फुसफुसाहट हुई और देखते-देखते कुछ कुर्सी-टेबल, बेंच-डेस्क हााजिर हो गये।
मैंने तत्काल एक तरफ अपने चारों सहयोगियों को तथा दूसरी तरफ उम्मीदवारों के एजेंटों को बिठाया। अब सभी अपने-अपने काम में लग गये थे। बाहर स्थानीय महिला- पुरूषों की भीड़ लगनी शुरू हो चुकी थी। मुझे अंदाजा नहीं था कि इतनी भारी संख्या में महिलाएँ भी आएँगी। मैंने आग्रह किया कि बाँस की ऐसी घेराबंदी हो कि महिला और पुरूष अलग-अलग पंक्तिबद्ध हो जाएँ, तो ठीक रहेगा। बाँस के जंगलों में बाँस की कौन सी कमी थी! आनन-फानन बांस काटकर उन्हें बांस के पत्तो से बांधकर पार्टीशन तैयार कर दिया गया। हमारे देखते-देखते महिला और पुरूष कतारबद्ध खड़े हो गये।
अब मैं बैलेट-बॉक्स की ओर मुड़ा। मेरे सहयोगी अनुभवी थे, सो एजेंटों की देखरेख में वह भी तैयार होकर व्यवस्थित हो गये थे। इन व्यस्तताओं के बीच कब सात बजे, पता ही नहीं चला। हमारे एक सहयोगी ने बँगला में कहा- “आप चिंतित थे न! देखिये पहला वोट ठीक सात बजे पड़ेगा।”
पहले एजेंटों ने वोट डाला। फिर कतार सरकने लगी। बाहर मेले सा माहौल था। मैं अंदर-बाहर दोनो तरफ के कार्यों को ‘प्रिसाइडिंग डायरी’ के निर्देशानुसार निरीक्षण कर रहा था। बाहर एक तरफ महिलाएँ अपने बच्चों को साथ लिये कतार में खड़ी थीं। दूसरी तरफ पुरूष दुनिया-जहान की बातें करते खड़े थे, जिसमें आज का चुनाव प्रमुख था। एक उत्सुकता और जिज्ञासा थी कि आगे क्या होगा। उधर असम बटालियन के जवान इस क्षेत्र की पूरी तरह घेराबंदी किये घूम रहे थे।
महात्मा गांधी का यह स्वप्न कि भारत का हर नागरिक देश से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े, इसलिए उन्होंने पंचायत-राज की परिकल्पना की थी। उसी का प्रतिफल है यह पंचायत चुनाव। स्थानीय लोगों के गजब के उत्साह को देखते हुए यह कहना कठिन नहीं था कि लोग भले ही अशिक्षित हों, बेवकूफ नहीं हैं। इनलोगों में से अधिकांश को देख ऐसा लग रहा था मानो ये पहली बार मतदान कर रहे हों। उन्हें ठीक से मुहर पकड़ कर मतपत्र पर मुहर लगाना भी नहीं आता था। जबकि इसका प्रशिक्षण देने का काम राजनीतिक दलों के चुनाव-प्रचारकों का भी है। मगर इस वक्त यह काम हमारे सहयोगी सहृदयतापूर्वक कर रहे थे। वह उन्हें बताते कि कैसे मुहर पकड़ना है और कि कैसे मनवांछित निशान पर मुहर लगानी है।
बाहर लकड़ी के चुल्हों पर चढ़े देगची में पानी उबल रहा था। चाय पत्ती, चीनी डालकर लाल चाय तैयार कर उन्हें बिना छाने ही ताजा-ताजा काटे हुए हरे बाँस के चोंगों में भरकर मतदाताओं को सर्व किया जा रहा था। हमें भी बाँस के चोंगों में चाय मिली। यह दौर कई बार चला। उधर विद्यालय के विशाल खेल मैदान में फुटबॉल का गेम युवा गण खेल रहे थे। इससे अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि सब कुछ ठीकठाक चलेगा। लोग भी यहाँ-वहाँ झुण्ड में बैठे बतकही में मशगूल थे। दूर से ही दिखता कि पहाड़ों से उतरकर कतारबद्ध लोग मतदान केन्द्रों की तरफ चले आ रहे थे।
कतारों में खड़े लोगों को देखने भर से ही उनकी निर्धनता का अंदाजा लग जाता था। अधिकांश के पैरों में चप्पल नहीं थे। पहनावा भी ढंग का नहीं। बोलचाल से साफ पता चलता था कि उन्हें रियांग भाषा को छोड़ अन्य कोई भाषा नहीं आती। उनकी दुनिया स्वयं तक सीमित है। पहाड़ की तलहटी में बसे गांव में वे कभी-कभार बाजार करने जाते होंगे। जिला मुख्यालय हैलाकांदी अथवा शिलचर शायद कभी गए हों या नहीं, पता नहीं। हॉं एक बात साफ है कि भले ही वह निर्धन हों, दीन नहीं थे। वह अपनी छोटी सी अभावग्रत जीवन में भी संतुष्ट थे। बस उन्हें चाहिए था अपने घर में पीने का साफ पानी, बिजली, बच्चों के लिये विद्यालय और आवागमन के लिए सही-सुगम रास्ते। ताकि वे भी दुनिया के साथ सही तालमेल बिठा सकें।
लोग खड़े हैं कतारबद्ध। चुनाव चल रहा है। हमारे साथियों को दम मारने की फुरसत नहीं है, क्योंकि कतार लंबी है। वे चाह कर भी उठ नहीं पा रहे। खाने के नाम पर कुछ बिस्कुट और बाँस के हरे चोंगे में चाय मिली है। एक बजने वाला है। फिर भी कतार लंबी है। स्थानीय लोग भोजन लेकर हाजिर हैं। उनका मनुहार- ‘खाना खा लेते तो ठीक था।’
मेरे एक सहयोगी अनुरोध करते हैं- “आधे घंटे के लिए नियमानुसार मतदान रोक दें। यह ‘प्रिसाइडिंग ऑफिसर की डायरी” में लिखा भी है। कुछ खाने की इच्छा नहीं। मगर बैठे-बैठे देह अकड़ गया है। इसी बहाने हम अपना शरीर जरा सीधा कर लें।”
कुछ अन्य लोग भी इससे सहमत हैं। मगर बाहर प्रतीक्षारत लोगों को क्या कहें। मीलों दूर चलकर वे आये हैं। वे भी तो धूप में घंटों खड़े हैं। उन्हें अपनी बारी का इंतजार है, उत्सुकता और जिज्ञासा है कि वे देखें कि मतदान क्या और कैसे होता है! उनके इस नागरिक अधिकार की पूर्ति का यही तो एक मौका है। कैसे मतदान रोक दें और खाना खाएँ हमलोग। बाहर लगी लंबी लाईन को कैसे नजरअंदाज कर दें। इन्हें फिर इसका मौका कब मिले, पता नहीं।
“थोड़ा धैर्य रखिये” मैं कहता हूँ- “आप अपना काम मुझे दें। और दस मिनट में भोजन करने के बहाने शरीर सीधा कर लें।”
मेरे सहयोगियों को भी यहॉं की परिस्थिति की गंभीरता का अहसास है कि हम एक उग्रवाद पीड़ित क्षेत्र में हैं, सो कोई तर्क-वितर्क नहीं करते। वह जानते हैं कि अभी जो ठीक-ठाक चल रहा है, वह एक जरा सी गड़बड़ी या अव्यवस्था से भयानक रूप ले सकता है। एक जरा सी चूक हुई नहीं कि हमें जान के लाले पड़ सकते हैं। क्योंकि ये तथाकथित सीधे-सादे पहाड़ी लोग जब हिंसक होते हैं, तो उन्हें सम्हालना काफी कठिन हो जाता है। आखिर हमें अतिरिक्त सुरक्षा व्यवस्था इसलिए तो दिया गया है। ये लोग भी हमारे काम में भी सहयोग कर रहे हैं।मेरे सहयोगी शीघतापूर्वक भोजन कर वापस आ जाते हैं।मैं एक-एक कर सभी सहयोगियों को भोजन करने हेतु भेजता हूँ।वे खड़े-खड़े ही भोजन कर शीघ्रतापूर्वक वापस आ जाते हैं।
“सर, आप भी भोजन कर लीजिए” एक रियांग युवक का मनुहार- “आप भी थके हैं बहुत।”
मैं उसके अनुरोध पर प्लेट पकड़ता हूँ। भोजन में वही कल वाली सामग्री। बस आज मछली की जगह चिकन है और आलू गोभी की सब्जी है। मैं भी जल्दी-जल्दी खाना उदरस्थ कर वापस लौटता हूँ।
दो ढाई बज रहे हैं। भीड़ कम होती हुई खत्म होने को है। अब पैकिंग की बारी है। लेकिन मुझे तो नियमानुसार तीन बजे के बाद ही पैकिंग करना है।
मेरे सहयोगी स्थानीय चुनाव एजेंटों की देखरेख में मत-पेटी को बंद कर सील-मुहर लगाते हैं। यह भी एक मुश्किल और संवेदनशील कार्य है। सुरक्षाकर्मी कह रहे हैं- “जल्दी करिये। लौटना है तुरंत। आप लोग भी तैयार हो जाएँ।”
अब सुरक्षाकर्मियों के घेरेबंदी में मतदान-पेटी है।
पोर्टर आ चुका है।सामान बाँधे जा चुके हैं। सभी के पैर वापसी के लिए बेचैन है। जैसे हमारे पीछे कोई आदमखोर शेर लगा हो। सभी वहॉं से शीघ्रातिशीघ्र निकलना चाहते हैं।
हमारा कारवां वापसी के लिए चल पड़ता है। सभी को धन्यवाद कहकर हम भी चल पड़ते हैं। एक गहरी नजर उस प्राथमिक विद्यालय पर डालते हैं, जहॉं किसी अनहोनी की आशंका के बीच हमने दम साधे पूरे आठ घंटे समय बिताया है।
वापसी चार बजे शुरू हुई है। पुनः जंगल-पहाड़ों के बीच गुजरते, चढ़ने-उतरने का क्रम शुरू हुआ है। पाँच बजे तक दिन के उजाले में जितना रास्ता तय कर लिया जाए, उतना बेहतर। फिर बाद में अंधेरे में गति धीमी होगी और खतरा भी बढ़ेगा। ये खतरे कई प्रकार के हो सकते हैं, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था। सो सभी शीघ्रतापूर्वक चल रहे थे।
अंधेरा बढ़ने के साथ हमारे सहयोगी सुरक्षाकर्मियों के टॉर्च चमकने लगे थे। वे हमें रास्ता दिखाते आगे बढ़ रहे हैं। नाला और नदी पार हुए। जंगल और पहाड़ का रास्ता खत्म हुआ। अब हम रामनाथपुर की धूल भरी पगडंडियों पर चल रहे थे।
वहॉं के बस स्टैण्ड पर सरकारी गाड़ी लगी थी, जिसमें हमें सवार होना था। मतदान सामग्री और अपने सामान को वहॉं बस में रखकर हमें थोड़ी मुक्ति का अहसास हुआ। अब सब-इंस्पेक्टर अपनी सेवाओं के बदले एक कागजात पर अपनी मुक्ति हेतु मेरा हस्ताक्षर ले रहा था।
रामनाथपुर में बिजली नहीं है। मगर यहॉं भी दूसरे भारतीय कस्बों के समान जेनरेटर के भाड़े के बल्ब जल रहे हैं। अब तो कुछ ढंग का खा लें। मगर वहॉं के होटलों में कुछ हो, तब तो खाएँ। आज चुनाव का दिन है। सो होटलों के आलमारियों में खाने की सामग्री खत्म है। चलो, जो भी बचा है, वही खा लें। स्वाद यहॉं देखता कौन है! मगर जो है, वह देने में दूकानदार इन्कार करता है, क्योंकि वे खराब हैं, खाने योग्य नहीं है। मन मारकर बिस्कुट के पैकेट से काम चलाना होता है।धीरे-धीरे दूसरे मतदान केन्द्रों में गये मतदान अधिकारी भी पहुँच गये हैं। नौ बजे रात में बस घरघराने लगती है। ग्यारह बजे रात तक हैलाकांदी पहुँच जाएँगे। इस बस के आगे-पीछे सशस्त्र पुलिस का भारी-भरकम दस्ता है।
वहॉं पहुँचते ही मतदान पेटी और अन्य सामग्री जमा करते एक बज चुके हैं। खाने का लंगर खुला है। मगर एक तो ऐसे ही भूख मर चुकी। फिर वहॉं ढंग का भोजन भी तो हो। बस यही एक संतोष कि मतदान पेटी जमा हो गया।उसे जमा करते वक्त मेरे सहयोगी के पास एक सवाल उछलता है- “प्रिसाइडिंग ऑफिसर की डायरी कहॉं है?”
“वह यह है जनाब” मैं तपाक से कहता हूँ।
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चितरंजन भारती,
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