लखनऊ, 24 सितम्बर, 2023
दीर्घ नारायण के अपने उपन्यास “रामघाट में कोरोना” पर सम्पन्न विमर्श गोष्ठी में रचना प्रक्रिया पर विचार-
इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया के बारे में मैं बताना चाहंगा; उपन्यास की रचना कैसे हुई यह मेरे लिए महत्वपूर्ण है। मेरी कहानियां पिछले पन्द्रह साल में साहित्य की सारी पत्रिकाओं में छपती रही हैं। तो इसी क्रम में रजनी मैडम कुछ साल पहले से ही मुझे परामर्श देती आ रही थी कि तुम्हारी कहानियों को पढ़ने से लगता है कि तुम अच्छा उपन्यास लिख सकते हो, तुम्हारे पास अनुभव का संसार है, डिटेलिंग है और एक्सप्रेशन है, तो मैं ईमानदारीपूर्वक बता रहा हूँ आज से तीन चार साल पहले मेरा निजी मंतव्य था कि मैं उपन्यास नहीं लिखूंगा या नहीं लिख पाऊँगा, क्योंकि यह तो बड़े लेखकों के काम हैं, बड़े दिमाग वालों का काम है। लेकिन रजनी मैडम जब बार-बार बोली, फिर रामधारी सिह दिवाकर जी हैं, मेरा कहानी संग्रह आया था, उस पर पूर्णियाँ में चर्चा हुई थी, उस चर्चा में वे आये थे, वहां उन्होंने मुझे समझाया कि बाबू तू उपन्यास लिख सकता है। उनसे बात होने के बाद मैंने सोचा अब उपन्यास लिखना चाहिए।
देखिये, एक जीवन दृष्टि होती है जो आप देखते हैं, जो संसार आपके सामने होता है उसमें आपका विजन समाहित हो जाता है और फिर आपके अंदर एक संसार प्रकट होता है, बेहतरी का एक फर्मेट लेते हुए; वो एक अदृश्य प्रक्रिया है चलती रहती है, वो विस्तार आपके लोकल से लेकर इंटरनेशनल तक होता है, उसमें आपकी जीवन दृष्टि शामिल होती है, आपका विजन शामिल होता है, आपकी चेतना शामिल होती है, बाकी तो आपकी कलात्मकता है, शैली है, वो तो खैर एक ईश्वरीय देन तो है ही। लेकिन मैं कहूंगा एक लेखक को वो ताकत या शक्ति कहां से मिलती है, जैसे उपन्यास प्रकाशन के बाद पढ़ा तो मुझे लगा कि क्या इसे मैंने लिखा है! कैसे लिखा? सच में मुझे खुद हैरानी हो रही है कि मैंने कैसे लिखा? तो ऐसी रचना एक समग्रता में लिखी जाती है, इस कालखंड में जो घटनाएँ हुई उसको समाहित करते हुए सबसे महत्वपूर्ण अनकही बातों का बिम्ब बनाया। कुछ चीज ऐसी होती है कि आप पूरा नहीं कहते हैं लेकिन न कहकर भी सब कुछ कह देते हैं, जो कही बात होती है तो ये चीज आप जीते हैं समझते हैं उसमें तैरते हैं और सीमाए बांधते हैं कि हम कितना कहे, जो प्रकट रूप से ना कहना हो तो विस्तार में गए बगैर भी आप महत्वपूर्ण संकेत छोड़ जाते हैं।
इस उपन्यास की रचना का वो समय है, जब 25 मार्च को माननीय प्रधानमंत्री जी ने लॉकडाउन की घोषणा की थी उसी रात से मैंने शुरू की। काफी पहले से ये बातें आ रही थी जब चीन में कोरोना का विस्तार होना शुरू हुआ कि चीन के प्रयोगशाला में जैविक हथियार के रूप में इसे उत्पन्न किया गया है, यह चर्चा पूरी दुनिया में जोरों पर था, मार्च आते-आते होली मनाने में सीमाएं तय की गईं; उस वक्त हम सब महसूस कर रहे थे कि विदेश से कोरोना हमारे देश में नहीं आना चाहिए, 30 जनवरी 2020 को कोरोना का पहला संक्रमण पाया गया केरल में, तो 30 जनवरी तुलनात्मक रूप से निर्दिष्ट कर रही थी कि 30 जनवरी को ही गांधी जी की हत्या हुई थी और 30 जनवरी को ही पहला केस इंडिया में आया? तो मुझे लगा कि ये एक जो मिलान है ये बहुत खतरनाक हो सकता है इस देश के लिए! फ्लाइट बंद करने में देरी हो रही थी, मैं भी महसूस कर रहा था; 7 मार्च की बात है, मुझे याद है अपने साथी अधिकारियों के साथ चाय में मैंने कहा हमें सरकार को सलाह देनी चाहिए कि फ़्लाइट तुरंत बंद होनी चाहिए। उसने कहा तुम नहीं समझते हो फ्लाईट बंद करेगा तो डेली करोड़ों का नुक़सान होगा। पन्द्रह दिन बाद में बंद करनी पड़ी, एक दिन नहीं महीनों बंद रहा, उसकी एक अलग कहानी है; तो 25 मार्च को उपन्यास लिखने की शुरुआत हुई, पर उसकी पृष्ठभूमि अंदर ही अंदर मेरे अंतस मन में वर्षों से चल रही थी, तब ये नहीं सोचा था उपन्यास लिखूंगा, लेकिन 25 मार्च को मेरे अंदर वो ‘फोर्स’ चढ़ आया कि अब शुरू करता हूँ, तो कोरोना की कहानी पकड़ कर लिखना शुरू कर दिया। तो इसमें कई प्रसंग हैं, जैसे नाटो के बारे में जो बच्चे प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं वे जान रहे होते हैं, कोरोना के समय नाटो की कहीं कोई चर्चा नहीं थी, अभी बात आई कि ये सब तो इंटरनेशनल इशू है, लेकिन इंटरनेशनल इशू तो आज हमारे देश के युवा की सोच का एक भाग बन चुका है, पहले से कहीं ज्यादा, जैसे चीन को ही लीजिए हर जगह उसकी हठहधर्मिता अब इंटरनेशनल मुद्दा है, काफी लोगों का मानना है सच में इस दुनिया में मानव सभ्यता के मार्ग में कोई एक देश जो सबसे बड़ा रोड़ा है वह चीन है, चाहे प्रजातंत्र के खिलाफ हो मानवतावाद के खिलाफ हो, मेरा मानना है अगर सभ्यता को आगे ले जाना है तो सामूहिक सोच परिपक्व होनी चाहिए, मनुष्य की स्वतंत्रता के दृष्टि से तो चीन उस मामले में पूरी दुनिया में एक कुचक्र रच रहा है, तो कोरोना काल में सभी ने देखा कि चीन की जो मंशा थी, कोरोना को लेकर उसकी जो अस्पष्टता थी वो पूरी दुनियाँ को कुप्रभावित किया। शिवमूर्ति सर ने भी कहा कि तात्कालिकता से तटस्थ हो करके उपन्यास लिखना ही सच लिखना होता है।
अब बात रही कि 832 पेज का उपन्यास है, तो कोरोना कालखंड के जितने दृष्टांत हैं, जितनी भावनाएं हैं, जितनी त्रासदियाँ हैं उन सबको एक दूसरे से गुँथी हुई माला रूप में मैंने रख दिया है, मुझे लगा इनमें से किसी को निकालना संभव नहीं हो रहा है। तो रचना प्रक्रिया आगे बढ़ती गई बढ़ती गई, लगभग दो साल तो लिखने में लगे। अभी कोरोना कैबिनेट का बात आई, किसी वक्ता ने कहा सोच कभी रुक नहीं सकती है, अभी देश में सोच का विस्तार हो रहा है, भले ही छोटे-छोटे समूह में हो दो बच्चों के बीच हो पाँच बच्चे बैठे हों और आने वाले समय में सोच का विस्तार होता ही जाएगा। तो सवाल है कि अगर 90 प्रतिशत लोग नहीं सोचते हैं तो क्या मैं उन नहीं सोचने वाले पर लिखूं या जो सकारात्मक रूप से सोचते हैं मैं उन पर लिखूं? एक लेखक दोनों तरफ से दोनों ही कथा को जोड़ सकते हैं, नहीं सोचने वालों पर भी उपन्यास लिखे जाते हैं क्योंकि नहीं सोचना भी एक भारी समस्या है। कोरोना कैबिनेट के संदर्भ में जो ब्रजेश ब्रह्मा सर ज्याइंट सेक्रेटरी भारत सरकार का जिक्र है, वे रामघाट के रहने वाले हैं, ब्रह्मा सर ने कहा है कि भई आप लोग आईएएस की तैयारी करो मेडिकल की तैयारी करो, ये करो वो करो, कोरोना तो बहुत सही समय है घर बैठकर तैयारी करने के लिए; उनके घर से निकलने के बाद बच्चों का यह तय हो गया कि हमें अपने को कोरोना से लड़ने में नहीं खपानाहै, अपने-अपने काम हैं, सब चले गए अपनी-अपनी दिशा में; लेकिन दूसरे दिन जो फ़िलासफ़र विद्यार्थी है अहम उन्होंने सबको रामघाट तीरे में बुलाया, वहां एक थ्योरी आया ऑब्जेक्ट और इग्झिस्टीलिज़्म यानि अस्तित्ववाद की, विश्व विख्यात दार्शनिक पार्ल सार्त्र की सुविख्यात थ्योरी है ‘अस्तित्ववाद’। मानव-दर्शन के क्षेत्र में अपने आप में यह एक अकाट्य थ्योरी है, उस थ्योरी में कोरोना कैबिनेट के बच्चों ने नव अस्तित्ववाद जोड़ा है, वे बच्चे कह रहे हैं कि हमें ऑब्जेक्ट बन कर नहीं रहना, वो तो मृत्यु-सदृश्य है, हमें कुछ करना है, हमें अपने अस्तित्व को बचाए रखना है, जिंदा रहना है; तो वहां से फिर बात आगे बढ़ती है। तो यह मनुष्य के जीवन का उपन्यास है, कोरोना काल खंड तो उसमें समाहित किया गया है, असली तो जो जीवन की जीवंतता है जीवन को नहीं हारना है यही उपन्यास में है। एक वक्ता ने कहा कि वो बच्चे जेल में हैं, उनका बेल होने की बात क्योंकर कही जा रही है? मेरी अपनी दृष्टि है, मैं आशावादी रहा हूं, मैं कल के लिए बेहतर सोचता हूं, मैंने इशारा भर किया है कि वो आगे जेल से निकल सकते हैं।
उपन्यास में जो रामघाट है, दरअसल लखनऊ पटना भोपाल दिल्ली रांची आगरा इलाहाबाद चुनने के बजाय मैंने उपन्यास में अपना एक शहर चुना है खुद का रामघाट, जो शायद मेरे आने वाले उपन्यास में भी रहेगा, रामघाट मतलब हिंदुस्तान का ही कोई बड़ा शहर 20 लाख की आबादी का नगर निगम वाला, जहां एयरपोर्ट है; उपन्यास के शुरू में ही कहा ही कहा गया है कि रामघाट सच में मिनी इंडिया है, यानी यह हिंदुस्तान की कहानी है। इस गोष्ठी में विद्वान वक्ताओं ने जो सलाह दिया है निश्चित रूप से मेरे लिए बड़ा मार्ग दर्शक वाला सत्र है आज का आयोजन, ऐसे मूल-मंत्र के लिए सभी वक्ताओं का आभार प्रकट करता हूँ।