नई पगडंडियाँ बनाएं
सड़कें तय मंजिलों तक जाएंगी
चौड़ी चिकनी सड़कों की बधाइयां न दें
मंजिलें और भी हैं
जहां तक सड़कें नहीं जातीं
मजबूत पैरों की जरूरत अभी बाकी है
पगडंडियों की कसमें खाइए
जो बेचैन हैं
आपके पैरों तले बनने को
आप के दादा के दादा के
दादा के पैरों तले जन्मी थी
एक पगडंडी
जो आकर रुकी थी इस जगह
इसी गनपत के डेरा पर
दो शेरों तीन भालुओं
पांच हिरणों कुछ गीदड़ों ने
छोड़ी थी जगह
अब वह पगडंडी सड़क हो गई है
डेरा शहर
गनपत
चला जा रहा है
नई पगडंडी गढ़ता
नया डेरा बसाता
हम कब चलेंगे मेरे भाई
हमारे कदमों तले कब जन्मेगी
नई पगडंडी
कहां बसेगा नया डेरा
चलिए अपने घुटनों टखनों और
पैर के पंजों पर बल दें
जमीन में धंसाएं
नई पगडंडियाँ बनाएं
मंजिलें अभी बाकी हैं दोस्तों !
सड़कें तय मंजिलों तक जाएंगी।
उसका प्रतिशोध अभी अधूरा है
ललाट पर लगे कलंक का
उसे कोई परवाह नहीं
युद्ध द्वापर में लड़ा जाए
चाहे कलयुग में
मैदान कुरुक्षेत्र का हो
चाहे गाजा का
उसे नहीं भूला कृष्ण !
तुम्हारा शंखनाद
जिसने जान ले ली थी उसके पिता की
धर्मराज के कहे
आधे अधूरे सच को दबाकर
सूख गए अंतःसंवेदनाओं के स्वामी
अश्वत्थामा को
न तो गर्भस्थ अजन्मों की हत्या पर-
छाती पीटती मांओं की
न ही मानवता के संहार पर‐
थू-थू करते संसार की
कोई चिंता है
उसका प्रतिशोध
अभी अधूरा है
चलिए जीते हैं
गणनाओं से मुक्त होकर
चलिए जीते हैं उन्मुक्त होकर
वहां जहां संसार भी हम ही हों
देश भी हम ही
पूर्ण भी हम ही हों
शेष भी हम ही
भय भूत भावना से रिक्त
अकूत जिजीविषा से युक्त होकर
मृत्यु से छीन कर अमृत कलश
अमृत पीते हैं
चलिए जीते हैं
चुप कदापि नहीं
वह जो चुप बैठा है
निहायत नितांत
बोलते लोगों के मध्य
भरी सभा में शान्त एकांत
लगता तो है
वह वहां कुछ सुन नहीं रहा
कर चेष्टा भी नहीं रहा
सुनने की एक भी शब्द
भारी भीड़ के गहन शोर में
नीरवता की गहरी लकीर खींचता
वह आदमी निरंतर नि:शब्द क्यों है
पूछिए मत सोचिए
उत्तर प्रतिध्वनित होंगे भीतर
शब्द निथर कर
सागर मथने के घर -घर में समा जाएंगे
स्तब्ध रह जाएंगे आप तब
जान पाएंगे जब
बातों की अंतर धारा में
बह रहा अबाध
सुन रहा शब्द-शब्द
अपने ध्वनि-घर्ष से ब्रह्मांड
विखण्डित करने को आतुर वह
अपने से बतियाने में मग्न
चुप सा दिखता अवश्य
चुप कदापि नहीं
सोचता हूं
जब भी
स्वच्छता की बात चलती है
नाबदान में बिलबिलाते
कीड़े नजर आते हैं
और नजर आती हैं
महानगरों की झुग्गियां
और उनके बीच बजबजाती
नालियां
नजर आता है
उनके साथ साथ
दौड़ता रेंगता सड़ता गंधाता
जन सैलाब
वे सब जिंदा हैं
भिनभिनाती मक्खियों की तरह,
कचड़ों के ढेर पर
उठते बैठते चलते
मर क्यों नहीं जाते कभी सोचा
जिंदगी इतनी अशक्त नहीं मेरे भाई
वह खौलते जल और जमे बर्फ पर भी
दौड़ती मिल जाती है बिन्दास
आप मृत्यु के भय
विनाश की आशंकाओं
नर्क की परिकल्पनाओं
का हौवा खड़ा कर
स्वच्छता के लिए
उकसा नहीं सकते
मुझे याद हैं
सद्दल मेश्तर की पत्नी और बहू
रेघनी और घुंचिया
और याद है
हमारा पचपन साल पहले वाला
वह चूल्हे जैसा संडास
जिससे हमारे दैनिक त्यज्य को निकाल
टोकरी में भर
सर पर धर
कहीं जाया करती थीं लेकर
और याद आता हूँ
उस समय का ग्यारह वर्षीय मैं भी
एक दिन जिसने रेघनी से पूछा था
घिन नहीं लगती क्या
जवाब
‘बाबू साफ ना करब त संडास कइसे करबा’
नहीं स्मरण अपने प्रतिक्रिया की तब
अब जब वह याद आती है
उसकी अन्तर स्वच्छता
मेरे अस्तित्व में गहरे
उतरती चली जाती है
सोचता हूं
रेघनी की तरह हम भी
कब तक आत्मसात कर पाएंगे
स्वच्छता को
किस दिन बन पाएगी घुंचिया
सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान की अम्बेडकर
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़
डॉ एम डी सिंह, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश।