कविता
व्याकुलता के
अधीर क्षणों में
तुम्हारी आत्मा का
विलय कर लेती हूं
अपनी आत्मा में।
और
अनुभव करती हूं
परमात्मा की
अक्षय शक्ति।
विश्वास में ही
विलय कर पाती है
आत्मा
आत्मा में
कि आत्मा का पर बोध
खत्म हो जाता है।
परमात्मा हो जाता है –
निजी शक्ति.
अलौकिक होते हुए भी
ज्ञानेंद्रियों में स्पंदित।
आत्म शक्ति
आंखों की कोरो के
तटबंध धसके है –
शब्द स्पर्श से.
आत्मा के भीतर
अभिषापित अहिल्या
अवतरित हुई है
जिसके आंसुओ को
जिया है।
मेरी आंखों ने
अहिल्या की आंखे बनकर।
आंखें साक्षी हैं
आत्मा की मुक्तावस्था
के सत्य की
उनके पास
आंसू के हस्ताक्षर हैं।
जो आत्मा की आंखो से
बहे हैं –
अविश्वसीय दुनिया के बीच
विश्वास के अपरिहार्य
क्षणों में
सृजन यात्रा
शब्दों में
आंखें देखती हैं –
सच
अर्थ की तासीर में
अंतर्दृष्टि लखती हैं
सच
जिसका विस्तार
इस लोक से
उस लोक तक हैं।
जहां दो आत्माएं
विलय होकर रचती हैं
जीवन सृजन के
सार्थक शब्द।
जिसमें समाया है
सृष्टि का स्नेह
और
स्नेह की सृष्टि।
कविता
आराधना के
अमूल्य साधक क्षणों में
तुम्हारी आत्मा
साथ होती हैं मेरे
जैसे
मंत्र साथ होते हैं –
अधरों के।
अधरो की शक्ति
मंत्र ही होते है।
जैसे देह की शक्ति
प्राण।
स्वप्न की धड़कन
जब से
तुम्हारा हृदय
मुझमें धडकने लगा है-
तुम्हारे स्वप्न
मुझसे संवाद करने लगे हैं।
जब से
तुम्हारी सांसें
मेरी सांसों की रागिनी
का संगीत सुर बन गई हैं
जीवन का
नवनवोन्मेशी राग
उन्मेशकारी आदत बन गया है।
ध्वनियां रच रही हैं-
नूतन प्रतिध्वनिया
जिसमें जीवन के भोर का
रसीला निनाद है
जैसा चिड़ियाओं की
गूंज में होता है
सुबह ही सुबह
अल्स्स
🌹🐚🌹
स्वप्न की आवाज
शब्द बनाते हैं
सपनों का चेहरा
गहरी रात गए
मेरी आंखों के भीतर
जिसे देखते हो तुम
तुम्हारा चेहरा
मेरी आत्मा का आईना है।
मेरे सपनों का ठिकाना
तुम्हारी आंखों में है
कभी तलाश तो करो
मेरी आंखें भी
जिसमे देख सको अपनी आंखें।
और मैं लख सकूं
अपने सपनों की
इबारत
जिसे समय ने लिखा है
बहुत चुपचाप
सुबह की तरल रोशनी से
तुम्हारी आंखों में
मेरे पढ़ने केलिए।
अनुभूति
मेरी भींची हुई
सिसकियों के बीच
सिली हुई सांसों के पीछे पस्त पड़े हुए
धडकनों के दर्द को
अपने शब्दों से उठाते हो।
बगैर देखे
मेरी आंखों को
अनुभव कर लेते हो-
उनके पीछे की
आंसूओ की तासीर
और जीवन की विषाक्तता।
और कभी
आंखों की कोरो में
सहम कर
ठिठके हुए पड़े
मेरे आसूंओ में
डूबकर
मुक्त करते हो ऋषि अगस्त्य की तरह
पीड़ा के अथाह समुद्र से।
जीवन दिए बगैर
जीवन नही मिलता है।
धडकनों में सुनाई देता है
ईश्वरीय संगीत
जिसकी गूंज बजती है –
दोनों के हृदय में
अक्षय रागिनी की तरह
शाश्वत
चिरंतन समर्पित
जीवन के लिए।
जिजीविषा – बोध
संवाद में
ईश्वरीय शक्ति है।
जीवन में फिर से
सांसे लेने लगती हैं सांसें।
भूख में लौटने लगता है – स्वाद।
चेतना की खुलने लगती है
आंखें।
चित्त में उभरने लगती है
वसंत की सुवासित संजीवनी रंगत –
विक्षिप्तता की उतर
जाती हैं परछाईं
चित्त की कुमहलाई
रंगत से।
जीवन में फिर से लोट आता है जीवन
और अनुभव होता है जैसे
हिमालय के
मानसरोवर से स्नान कर
पावन हो आया हो –
संपूर्णत्व
तन का ही नहीं
बल्कि
मन देह का भी ।
कान्हा की बांसुरी
देह
कान्हा की बांसुरी है
उनके अधर पर
होते ही
गूंज उठेगी
अनुराग की रागिनी।
देह की ज्ञानेंद्रियों में
बजने लगेंगे –
कुरुक्षेत्र के मंत्र
और
मै अपनी ही देह में
हो जाऊंगी अर्जुन।
श्रीकृष्ण के साथ
विश्व का कुरुक्षेत्र
जीतने के लिए
मनुष्यता के पक्ष में।
—–
Poet Pushpita Awssthi, नीदरलैंड, भारत