लखनऊ, 24 सितम्बर, 2023
दीर्घ नारायण के उपन्यास “रामघाट में कोरोना” पर सम्पन्न विमर्श गोष्ठी में रजनी गुप्त के विचार-
सबसे पहले इस बृहद उपन्यास के लिए मैं दीर्घ नारायण जी को तहे दिल से बधाई देती हूं। कोरोना काल में इतना बड़ा उपन्यास लिख लेना, इसकी परिकल्पना करना और इसके ताने-बाने को एक बड़ी रजाई की तरह जिसमें कई सारे टुकड़े होते हैं, उन टुकड़ों को इकट्ठा करके जब बुना जाता है तैयार किया जाता है, तो उन सारी कड़ियों को टुकड़ों को आसपास के कोलाहल को वातावरण को लोगों को जोड़कर इतनी बड़ी कृति रचना असाधारण काम है। मुझे भी उपन्यास को पढ़ने में लगभग तीन महीने लगे, आराम से पढ़ती गई, मुझे कोई जल्दबाजी नहीं थी, लंबा है तो क्या हुआ दो-तीन महीने लग जाने दो, जैसे बुना गया है धीरे धीरे करके तो मैंने बहुत आहिस्ते आहिस्ते सांस लेकर उपन्यास को पढ़ा है; तो सबसे पहले तो बधाई, उसके बाद मैं यह कहना चाहती हूँ कि जीवन के ताने-बाने को उस दौर में जिस दौर में कोरोना चल रहा था और चारों तरफ मायूसी का तकलीफ का यातना का दौर था, लोग अपने को बचाते बचाते घूम रहे थे, कि कितने फिट की दूरी, दो-दो तीन-तीन मास्क और एकदम दूर-दूर बैठना, उस दौर में जब हम सच में लिखने-पढ़ने के मूड में नहीं थे, मतलब कि उस पूरे परिवेश को जीते हुए उस पूरे माहौल को अपने अंदर जज करते हुए लिखना बहुत आसान नहीं होता। अपने दौर का एक महा आख्यान लिखना आसान नहीं है। खास तौर पर रामू जैसे हाशिये के किरदार को आपने बहुत तल्लीनता से बुना है, उस समय मन में जो-जो आता है कि इसका उपाय क्या है, क्या सूझ रहा है, दिमाग में क्या आ रहा है, तो जो तात्कालिक उपाय चर्चा में थे, माहौल में थे, अखबार में थे टीवी पर थे तो उन चर्चाओं को अपने किरदार के माध्यम से कहलवाना और लॉक वन लॉक टू लॉक थ्री लॉक फोर के परिवेश को हू-ब-हू जीवंत करना सच में आश्चर्यचकित करता है। मुझे इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत लगती है महानगरों से मुंबई से दिल्ली से बड़े-बड़े शहरों से जो मजदूर वर्ग या हाशिये पर रहने वाले लोग जो पैदल चल कर आ रहे थे वो हम लोगों को नहीं पता है कि वो सच में उनका जीवन कैसा था, कभी ट्रक से आ रहे हैं, लंबा पैदल चलना और लंबा पैदल चलने के बाद वो जो जत्था होता था पैदा चलने वालो का उनके खाने-पीने का प्रबंध कैसे हो रहा है, बीमार लोग कैसे अपने को बचा रहे हैं, कैसे सुरक्षित कर रहे हैं; यह बात सच है कि पैदल चलने वालो का जो जत्था था उसके बारे में मैंने अभी तक नहीं पढ़ा था और यह जो उपन्यास है उस पलायन-त्रासदी पर एकदम जीवंत है बहुत ही लाइवली है, बहुत अच्छे तरीके चित्रित है कि हम भी थोड़ी देर के लिए वहां रुक जाते थे, जहां ट्रक आ गयी है, अब जत्था कहां रुकेगा, इसका खाने का इंतजाम कैसे होगा, किस स्कूल में जाकर ठहरेगा, तो ये जो लेखक की परिकल्पना है यह सच में उन्होने कैसे इन चीजों को लिखा कैसे जोड़ा कितने लोगों से बात की तो वो सारे आख्यान सच में अभिभूत कर देते हैं!
उपन्यास में कोरोना कैबिनेट की जो अवधारणा है जो लेखक कई लोगों को मिला कर जो एक ग्रुप बना कर और जो तरह-तरह के जो नुक्कड़ नाटक होते थे चौराहे पर, किस तरह से वो एक जागृति फैलाते थे, आंदोलन जैसा पैदा हो जाता था, तो कोरोना कैबिनेट की जो अवधारणा है, एक आंदोलन की तरह उपन्यास में शुरू से लेकर आखिर तक अनुगूँज वो बेमिसाल है। हां, मुझे लगता है इसके 100 पेज कम किये जा सकते थे। परंतु सच्चाई यह होता है कि कम कर पाना लेखक के खुद के वश में नहीं होता है, अपने लिखे से अजीब सा मोह हो जाता है, मुश्किल होता है अपने लिखे को काटना। राजेंद्र यादव जी कहते थे सबसे जरूरी है अपने ही लिखे को बार बार काटा जाए अपने मोह से मुक्त हुआ जाए, लेकिन बहुत मुश्किल होता है अपने लिखे को काटना। उपन्यास में एक और अच्छी बात है कि यह पढ़े लिखे खाए हुए संपन्न लोगों पर आधारित नहीं है; हाशिए के, शोषक तबके के बड़े हिस्से को, उनसे तालुकात रखने वाले बड़े हिस्से को इस उपन्यास का आपने अंग बनाया है। अच्छी बात यह भी है कि आपकी जो महिला किरदार है वो सक्रिय है, अच्छी भूमिका में है; मंजरी को लें या साइंस स्ट्रीम की मिस शायनी को देखें, ऐसे सशक्त किरदार हैं इस उपन्यास में कि उपन्यास के प्राण बनकर ताकत देते हैं। इसकी जो थीम है, जो किरदार हैं उपन्यास को एक ताकत देते हैं। दूसरा, मुझे लगता है कि ये जो नाटो जैसे संगठन या अंतरराष्ट्रीय शांति सुरक्षा के जो मुद्दे हैं या जो करेंट अफेयर्स जिसे कहते हैं जो राजनीतिक सामाजिक आर्थिक मुद्दे हैं, उस समय का जो परिवेश है, गुथे हुए थीम के साथ जैसे हम सिलाई कर रहे हैं, किरदारों में क्या-क्या रंग डालना है क्या-क्या खुशबू डालना है, तो वो जो थीम की चीज होती है रूप-रंग-रस जब हम तीनों चीज डालते हैं, तो इनको बुनना मुश्किल होता है। एक और बात मुझे अच्छी चीज लगी है, इनके कोरोना कैबिनेट के जो मेंबर है उसमें आपने जाति धर्म और वर्णविहीन किरदारों को लिया है, इसमें आपने ये जो पूर्वाग्रह होता है लोगों के मन में कि ये हिंदू हैं ये मुस्लिम हैं ईसाई हैं वो नहीं है; तो एक समरस समाज की जो परिकल्पना लेखक को करना चाहिए ये अच्छी चीज है। और आपकी एक लाइन मुझे बड़ी अच्छी लगी जो आपने लिखा है कि “कोरोना से भी बड़ी चुनौती है हमारी दृष्टिपंगुता जो समय समय पर कई कोरोना को जन्म देती रहेगी”। ये पंक्ति मुझे अच्छी लगी थी कि हमारा विजन ही काम नहीं करता जब हम केवल अपने बारे में अपने स्वार्थ के बारे में अपने को बचाने के बारे में सोचते हैं। मानव स्वास्थ्य के बारे में आपने बड़ी गहरी चिंता जताई है और कई पृष्ठों में आपने हेल्थ को लेकर और मानवता की बात उठाई है। भविष्य के लिए यह उपन्यास एक संकेत करता है कि अब आगे वाली हमारी जो रामघाट कोरोना कैबिनेट है इससे उम्मीद जगती है कि आप आगे इसको बढ़ाएंगे, जो साथियों का समूह है जो एक साथ सबको लेकर चलते हैं, कोरस गान की तरह उपन्यास की जान है, चरणबद्ध आंदोलन आपने चलाया है वो एक रणनीति के तहत चलाया है और उसको लेकर आपके दिमाग में प्री-सेट है। मुद्दे आपके राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय तक है, कूटनीतिक बातें हैं।
एक चीज जो मुझे अच्छी लगी जो सबको भी लगेगी थोड़ा सा अनइक्स्पेक्टेड चीजें भी आना चाहिए, अचानक से कुछ हो जो कथा के प्रति उत्सुकता को बढ़ाती है, जानलेवा जिज्ञासा पैदा करती है जैसे आगे हुआ क्या है, तो रोचक उपन्यास है और इन चीजों से वो कथा के सूत्र हमें बांधते हैं; एक दो प्रसंग है जैसे उसकी मां की मौत आपने दिखाई है और सारे लोग मदद कर रहे हैं फिर भी उसको बचा नहीं पाते हैं, कुछ घटनाए है और वो सारी घटनाएं परिचित सुनी सुनाई देखी दिखाई और उस दौर को जो लगभग दो तीन साल लगातार चला है तो उसको आपने साक्षी भाव से देखा महसूस किया लिखा और किरदारों के माध्यम से एक ऐतिहासिक आख्यान रचा इसके लिए खूब खूब बधाई। और हां, बाकी वक्तागण जो कह रहे थे प्रेम प्रसंगों के बारे में, तो ये इस उपन्यास की वो थीम ही नहीं है वो इसकी मुख्य-धारा नहीं है सूत्र आधार नहीं है। उपन्यास में प्रेम-प्रसंग यूँ ही आए हैं, मतलब ये उसकी उपजी नहीं है, कथा का आधार नहीं है, स्वाभाविक ही प्रेम-प्रसंग तो कोरोना काल में सामान्य तरह से ही आएँगे गंभीरता के साथ नहीं, ये तो कथा के सूत्र है नहीं! इसलिए बधाई और बहुत बहुत शुभकामनाएं।
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रजनी गुप्त, लखनऊ