मेरा पटना प्रवास लगभग 10 वर्षों का रहा,1983 से 1993 तक। नौकरी के साथ-साथ साहित्य-साधना के लिए अनुकूल दौर था और मैं साहित्य लिखने वालों,साहित्य संगठन चलाने वालों,बैठकों का आयोजन करने वालों,अखबार के संपादकों और मेरी तरह के अनेक युवा साहित्य प्रेमियों से जुड़कर किन्हीं उड़ान की परिकल्पनाओं में खोया रहता था। तब मैं कविता,कहानी और लेख जैसी विधाओं में अपना भाग्य आजमा रहा था। 1980 में मुझे नौकरी मिली और पहली पोस्टिंग बिहार के पश्चिमी चम्पारण जिले के बगहा में हुई। वहाँ की प्राकृतिक हरियाली,हरे-भरे खेत,नारायणी नदी का कलकल करता प्रवाह और स्नेहिल मिलनसार जन-जीवन मेरे भीतर के कवि मन को जगा दिया था। दो वर्षों के बाद मैं धनबाद आ गया। उन्हीं दिनों बैंक मोड़ वाली मेरी शाखा के सामने,सड़क के उस पार रुसी पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी हुई थी,साहित्य की किताबें बिक रही थीं। किसी दिन मैं भी प्रदर्शनी देखने गया और अनेक रूसी महान साहित्यकारों की पुस्तकें देख रोमांचित हो उठा। सुखद यह भी था, अधिकांश पुस्तकें हिन्दी में अनुदित थीं। मैंने बहुत सी पुस्तकें खरीद ली।
वहीं मुझे कवि देव भूषण जी मिले। बिहार प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारिणी में थे। उन दिनों वे ‘धनबाद जिला प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना के लिए प्रयासरत थे और सिन्दरी में रहते थे। अक्सर 15-20 दिनों के अंतराल पर धनबाद,झरिया या सिन्दरी में कोई गोष्ठी रख लेते थे और मुझे भी निमंत्रित करते थे। बोकारो में ‘धनबाद जिला प्रगतिशील लेखक संघ’ का पहला सम्मेलन रखा गया। मेरी स्थिति बस साथ खड़ा होने वालों की तरह थी। पटना से डा० खगेन्द्र ठाकुर,कन्हैया जी और बहुचर्चित कवि अरुण कमल जैसे साहित्यकार पधारे थे। सम्मेलन बहुत अच्छा रहा,खूब विमर्श हुआ और कोई गहरी छाप लेकर लौटा। महसूस हुआ,यदि साहित्य में कुछ करना है तो मुझे पटना में होना चाहिए। यह भावना गहरी होती गयी। मैंने अपने स्थानान्तरण के लिए आवेदन दे दिया और जनवरी 1984 में पटना आ गया।
संयोग से मुझे मछुआटोली में आवास मिला। भाई अरुण कमल जी पड़ोस में थे,कन्हैया जी का निवास भी पास में ही था। बी एम दास रोड में मैत्री शांति भवन में अक्सर कोई न कोई कार्यक्रम होता रहता था। अशोक राजपथ पर लगभग सभी बड़े प्रकाशनों की दुकानें थीं। पटना विश्वविद्यालय और उससे सम्बद्ध सभी कालेज थे। मेरी शाखा सब्जीबाग में थी और सड़क के उस पार पटना मेडिकल कालेज और अस्पताल था। थोड़ी ही दूरी पर पटना गाँधी मैदान था। वहाँ भी आये दिन इप्टा नाट्य संस्था के लोग नुक्कड़ नाटक किया करते थे। मेरे लिए सुखद यह भी था, प्रियरंजन राय,संजय कुन्दन,कुमार अनिल,शिव नारायण,कुमार बिन्दु और अनेक युवा कवि लेखक मेरे आवास पर आते रहते थे। डा० खगेन्द्र ठाकुर, कन्हैया जी,अरुण कमल, विनोद दास,काशीनाथ पाण्डेय जैसे साहित्यकारों का आशीर्वाद मिलता रहता था। ऐसे वरिष्ठ साहित्यकारों का आगमन मुझे भावुक कर देता था। किसी दिन डा० नंद किशोर नवल मेरी कहानी ‘काउण्टर क्लर्क’ पढ़कर मुझे खोजते हुए आ गये और उन्होंने उस कहानी को बिहार प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका ”उत्तरशती” में प्रकाशित किया। उन्होंने कहानी लेखन के लिए मुझे प्रेरित किया और अपने तरीके से मेरी कहानी को सराहा। चर्चित बड़े साहित्यकार, प्रसिद्ध आलोचक नवल जी का मेरी छोटी सी कहानी को पसंद करना, स्वयं मेरे निवास तक आ जाना और उत्तरशती पत्रिका में प्रकाशित करना, मैं गौरवान्वित हो उठा। जहाँ तक याद कर पाता हूँ, ‘’काउण्टर क्लर्क’’ ही प्रकाशित मेरी पहली कहानी है।
उन्हीं दिनों देवरिया के सरोज कुमार पाण्डेय जी से मेरी भेंट हुई, वह पंजाब नेशनल बैंक में कार्यरत थे और खूब कविताएं लिखते थे। उन्हें पत्रिका के संपादन का शौक था,अरुण कमल जी का सहयोग मिल रहा था,हमने मिलकर ”आकाश” नामक साहित्य की पत्रिका निकाली। उसमें भी मेरी एक कहानी प्रकाशित हुई। उसके बाद तो जैसे शुरुआत हो गयी और तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं ने मेरी कहानियों को खूब छापा और मुझे भी कहानीकार होने जैसी कोई फ़िलिंग आने लगी। मुहम्मद जब्बार आलम, प्रियरंजन राय के साथ मिलकर हम लोग भोजपुरी पत्रिका ‘’कलंगी’’ के अनेक अंक निकाले। वह दौर मेरे लिए सक्रियता और सृजन का था और साहित्य के आकाश पार उड़ता-फिरता था।
उन दिनों अक्सर मैं आरा जाया करता था,वहाँ ससुराल है और मेरी श्रीमती जी जांडिस रोग से ग्रस्त कई महीनों तक स्वास्थ्य-लाभ कर रही थीं।
कथाकार मिथिलेश्वर जी के बारे में सुन रखा था, उनकी कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहता था। किसी दिन उनका दर्शन करने पहुँच गया। देर तक हमारी बातें होती रहीं। मैंने ‘आकाश’ पत्रिका की जानकारी दी और उन्होंने मुझे अपना कहानी संग्रह ”बंद रास्तों के बीच” दिया। उनका आशय समीक्षा के लिए था परन्तु समीक्षा की स्थिति नहीं बन सकी और ‘आकाश’ पत्रिका प्रकाशित हो गयी। मैं किसी दायित्व-बोध के साथ तब से स्वयं को दोषी मानता रहा हूँ। किसी बड़े रचनाकार के विश्वास पर खरा नहीं उतर पाया। उस समय मेरी स्थिति समीक्षा लिखने की नहीं थी और उस पत्रिका में मेरा कोई निर्णयात्मक दायित्व भी नहीं था। इस भाव-बोध के कारण, तत्पश्चात आरा जब भी गया, आदरणीय मिथिलेश्वर जी को अपना मुँह नहीं दिखा पाया। मेरी भावनायें कोई भी समझ सकता है और मेरी लाचारी भी।
आज मुझे लगता है,मिथिलेश्वर जी दूर-दृष्टि वाले थे और उन्होंने समझ लिया था,मै समीक्षा के क्षेत्र में साहित्य की सेवा करूँगा। उन्होंने इस तरह मेरे लिए कोई भविष्यवाणी कर दी जिसे शुरु करने में मुझे इतने साल लगे। 30-32 वर्षों तक मेरा लेखन लगभग बंद रहा,अब मेरी समीक्षाएं देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रही हैं तथा अब तक समीक्षा की मेरी पाँच पुस्तकें छप चुकी हैं।
हाल में ही किसी दिन मुझे अपनी पुस्तकों की आलमीरा में मिथिलेश्वर जी का वही कहानी संग्रह ‘बंद रास्तों के बीच” मिल गया। मेरी भावनाएं जाग उठीं और कोई ॠण-मुक्ति का भाव भी। अभी उन्हीं भावनाओं के वशीभूत अपनी पूरी सच्चाई और क्षमा याचना के साथ आदरणीय कहानीकार को याद कर रहा हूँ। सुखद संयोग ही है, राजकमल पेपरबैक्स में उनका एक और कहानी संग्रह ”मिथिलेश्वर, प्रतिनिधि कहानियाँ” भी मेरी आलमीरा में है। किंचित भावुक हो रहा हूँ,उन्होंने पुस्तक देते हुए लिखा था-
”बेबाक समीक्षा के लिए.
प्रिय भाई श्री विजय कुमार तिवारी
को सप्रेम
-मिथिलेश्वर
17-04-1992
मुझे उनके घर का बाहरी बैठका याद आ रहा है,हम दोनों आमने सामने थे और चाय पीते हुए हमारा संवाद लम्बा चला था। उन दिनों उनकी वह गली खूब चौड़ी नहीं थी,दोनो ओर मकान थे और कोई भी बता देता था,हाँ,उनका वही घर है। मुझे पता नहीं,वह उनका अपना घर था या किराये का था। इतना अवश्य था,मिथिलेश्वर बतौर कहानीकार खूब चर्चित थे,उनकी कोई धाक थी। उस प्रथम मुलाकात के बाद भी मैं शायद उतना प्रभावित नहीं हुआ था। इसके पीछे मेरी ही कोई कमी थी,मैंने उनकी कहानियों को कम ही पढ़ा था। उन्हें साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कथाकारों में गिना जाता है और उनका सीधा सम्बन्ध गाँव से रहा है।
मुख्यतः ग्रामीण जीवन से सम्बद्ध कथानकों के प्रति समर्पित कथाकार मिथिलेश्वर सीधी-सादी शैली में विशिष्ट रचनात्मक प्रभाव उत्पन्न करने में सिद्धहस्त माने जाते हैं। राजकमल प्रकाशन की ”मिथिलेश्वर,प्रतिनिधि कहानियाँ” के पिछले पृष्ठ पर लिखी टिप्पणी को उद्धृत करना उचित ही है-”नई पीढ़ी के जाने-माने कथाकार मिथिलेश्वर हिन्दी कथा साहित्य मे अपना अलग महत्व रखते हैं। प्रेमचंद और रेणु के बाद हिन्दी कहानी से जिस गाँव को निष्कासित कर दिया गया था,अपनी कहानियों में मिथिलेश्वर ने उसी की प्रतिष्ठा की है। दूसरे शब्दों में,वे ग्रामीण यथार्थ के महत्वपूर्ण कथाकार हैं और उन्होंने आज की कहानी को संघर्षशील जीवन-दृष्टि तथा रचनात्मक सहजता के साथ पुनः सामाजिक बनाने का कार्य किया है।
जितनी कहानियों को मैंने पढ़ा है,लगभग सभी ,ग्रामीण जीवन के विरोधों-अन्तर्विरोधों और संघर्षो को रेखांकित करती हैं। उन्होंने अपने आसपास को,जीवन में व्याप्त विसंगतियों को न केवल समझा है बल्कि अपनी कहानियों के पात्रों के साथ खड़ा होते हैं। उनके नायक पात्र विचारशील हैं,अपना विरोध जताते हैं और संघर्ष में अपनी जान तक दे देते हैं। स्त्री विमर्श उनकी रचनाओं में खूब उभरता है। ‘नरेश बहू’ कहानी की नायिका की पीड़ा और तत्कालीन समाज का चित्रण यथार्थ के तौर पर वर्णित हुआ है। वीरू के चरित्र में उदात्तता है। कहानी के भीतर अनेक कहानियाँ बुनी गयी हैं। ऐसे दृश्य उनकी दूसरी कहानियों में भी देखा जा सकता है।
उन्होंने बहुतायत मात्रा में सृजन किया है, उनके कहानी संग्रहों की संख्या 16-17 से अधिक है, लगभग 7 उपन्यास हैं, उनके संचयन और समग्र की संख्या भी 7-8 है। इसके अलावा लोक साहित्य, बाल साहित्य और आत्मकथात्मक सृजन भी उन्होंने किया है। उन्हें साहित्य के बहुत से पुरस्कार मिले हैं और साहित्य जगत में उन्होंने कोई बड़ा मुकाम हासिल किया है।
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विजय कुमार तिवारी
(कवि,लेखक,कहानीकार,उपन्यासकार,समीक्षक)
टाटा अरियाना हाऊसिंग,टावर-4 फ्लैट-1002
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