लखनऊ, 24 सितम्बर, 2023
दीर्घ नारायण के उपन्यास “रामघाट में कोरोना” पर सम्पन्न विमर्श गोष्ठी में वीरेंद्र यादव जी के वक्तव्य:-
आज की शाम उपन्यास रामघाट में कोरोना पर बहुत महत्वपूर्ण चर्चा हुई। श्री शिवमूर्ती जी, शैलेंद्र सागर जी, अखिलेश जी, रजनी गुप्त जी, विरेंद्र सारंग जी, कुशवाहा जी और वंदना भारती जी के वक्तव्य में लगभग सारे पक्ष आ चुके हैं। मैं भी दीर्घ नारायण को बधाई देना चाहूंगा, उन्होने इस दौर की जो सबसे बड़ी त्रासद थी उस त्रासदी पर एक वृहदाकार उपन्यास बिना दबाव के लिखा। दरअसल समय का एक प्रभाकरी दबाव होता है और समय का वो दबाव बहुत सा काम करवाता है। इतनी बड़ी कृतियाँ उसी दबाव के अंतर्गत लिखी जाती है। अभी नारायण जी ने बताया कि लॉकडाउन आरम्भ होने के त्रासदपूर्ण दौर में उसने यह उपन्यास लिखना शुरू किया था। ऐसा उदाहरण मेरे सामने सिर्फ एक उदाहरण है प्रेमचंद का। उनके प्रेमाश्रम उपन्यास को पढ़ते हुए कई बार यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि अवध का किसान आंदोलन चल रहा था तब उपन्यास लिखा गया या वह उपन्यास अवध किसान आंदोलन की पूर्वपीठिका है। कभी कभी तात्कालिक घटनाक्रम ऐसा होता है कि लेखक पर एक किस्म का दबाव बन जाता है। मैं समझता हूं उपन्यास रामघाट में कोरोना कथा के रास्ते यथार्थ की रचना नहीं की गई है बल्कि जो यथार्थ है उस यथार्थ के रास्ते एक उपन्यास की रचना की गई है। कुछ उपन्यास ऐसे लिखे गए हैं जो कि है तो तात्कालिक कथा, समाज की कथा, राजनीति की कथा लेकिन नॉन फिक्शन का जो फॉर्म है जो गैर कथात्मक ढांचा है जब वो उसके लिए अपर्याप्त होता है तब एक कथा विधा का सहारा लिया जाता है। इस सम्बंध में अरुंधती राय का एक उपन्यास है ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ इसमें कश्मीर कथा भी है, दलित कथा भी है और आदिवासी कथा भी है यानि कि वो भारतीय समाज का एक ज्वलंत यथार्थ दहकता यथार्थ है, उसको एक फॉर्म में पिरोने के लिए अरुंधती राय जी ने उपन्यास का एक ढांचा अपनाया। रामघाट में कोरोना उसी दबाव के अंतर्गत या उसी सोच के अंतर्गत उसी विधा के अंतर्गत का उपन्यास बनता है।
इस उपन्यास के विभिन आयामों को लेकर अभी सारे मित्रों ने बहुत अच्छी चर्चा की, लेकिन एक जिस पहलू पर और बात की जानी चाहिए वो है इस उपन्यास में कोरोना की जो त्रासदी है उसके विभिन्न आयाम है तो यह कोरोना कथा तो है ही लेकिन कोरोना कथा में जो समय है जो समाज है उस समय समाज पर जो टिप्पणियां की गई हैं वो मुझे उतनी ही महत्वपूर्ण लगती है जितनी कोरोना कथा की त्रासदी। यह अलक्षित नहीं किया जाना चाहिए कि कोरोना काल में एक धर्म विशेष को मानने वालों को जो इंगित किया गया था, उनके पराया होने का जो विमर्श चल रहा था, मरकज-मरकज के माध्यम से अल्पसंख्यक समुदाय को जिस तरह से एक शत्रु की छवि में ढाला गया था वो इस उपन्यास में बहुत शिद्दत के साथ प्रस्तुत हुआ है। इस उपन्यास में यह अपने विविध आयामों के साथ प्रस्तुत हुआ है, जो लेखकीय प्रतिबद्धता लेखकीय सरोकार होता है उस संदर्भों में रेखांकित कर सकते हैं और उसे समझ सकते हैं। दूसरा इस उपन्यास के नेपथ्य में जो राजनीतिक संकेत है वो किसी लेखक या किसी उपन्यासकार की ईमानदारी और प्रतिबद्धता है। उपन्यास के शुरू में ही लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि रामघाट का वास्तव में नाम कुछ और था; इसका नाम नवाबघाट से रामघाट किया जाना यही से समाज और समय की जो दिशा है जिसे लेखक इंगित करना चाहता है उसका संकेत हमें मिल जाता है। दूसरा यह कि जो राजनीति अब आप देख रहे हैं, लगभग हर अध्याय के बाद रामचरित मानस की एक पंक्ति या आधि पंक्ति आती है, उस आधि एक पंक्तिमें में जो कथ्य है उसके पिटक के रूप में यहाँ एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी के रूप में आती है जो लगातार पूरे उपन्यास में हैं। उपन्यास में रामघाट के किनारे जो मानस पाठ हो रहा है उसकी चर्चा नेपथ्य में है। रामचरित मानस एक साहित्यिक ग्रंथ या धार्मिक ग्रंथ के रूप में माना जा रहा है, उपन्यास में समय समाज का जो एक वायुमंडल है उस वायुमंडल को भी राम मानस की वो पंक्तियां रेखांकित करती है। उपन्यास में एक सत्ताधारी दल है और प्रतिपक्ष भी है, सत्ताधारी दल की राजनीति है प्रतिपक्ष की भी राजनीति है। यहां किसी सत्ताधारी दल का नाम नहीं है लेकिन सत्ता का जो चरित्र होता है, सत्ता कितनी निर्मम है, आपदा में अवसर भी कैसे तलाश जाते हैं, यानि कि त्रासदी के वर्णन के साथ-साथ एक मानवीय त्रासदी भी है कि राजनीतिक लोग किस तरह निर्ममता के साथ व्यवहार करते हैं। त्रासदी को जो प्रहसन का रूप दिया गया जिसका धर्म के साथ रिश्ता जुड़ता हो इस तरह के जो कुछ कर्मकांड हुए उन पर भी लेखक व्यंग्यात्मक टिप्पणी करता है। अभी लेखक ने कहा 25 मार्च 2020 से लिखना शुरू किया, 25 मार्च से लेकर उसके बाद तक कुछ चीज चाहे संविधान में परिवर्तन करने की बात हो या जो धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना हो उपन्यास में इसका बाकायदा उल्लेख आता है। उपन्यास का महत्वपूर्ण पात्र बुजुर्ग जेड सर की चिंता यही है कि भारतीय संविधान का रूप बदल रहा है, भारतीय समाज का स्वरूप बदल रहा है। यह उपन्यास महज कोरोना कथा नहीं है बल्कि किस तरह के राजनीतिक वायुमंडल में वो कथा घटित हो रही है वो है! तो मैं समझता हूं कि बिना लेखकीय साहस के बिना लेखकीय प्रतिबद्धता के ये संभव नहीं है।इन चीजों को भी थोड़ा सा रेखांकित किया जाना है, कुछ इशारे हैं कि उस दिन सावरकर मार्ग पर खुशी मनाई गई, विस्तार से उसमें कुछ नहीं लिखा हुआ है, पर ये सावरकर मार्ग ही अपने आप में एक प्रतीक है, तो लेखक किस दिशा में उस यथार्थ का उपयोग कर रहा है यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात है। अल्पसंख्यक की बात आयी है, मंजूर को पुलिस गायब कर देती है या इस तरह की जो स्थिति बनती है और आज राजनीत की सत्ता के केंद्र में जो पद है या उस पद को लेकर उन चीजों को भी लेकर लेखक ने कोई संकोच नहीं बरता है।
तो एक आपदा एक त्रासदी की कथा कहते हुए ये सारी बातें आयी हैं। बात दो ही साल पहले की है लेकिन समय बीतने के साथ चीजें धुमिल होने लगती है; इस उपन्यास का सबसे बड़ा योगदान है उसमें वो सारी चीजें वो त्रासदी दर्ज हो गई हैं, इसको पढ़ते हुए हम उनमें से फिर से एक बार गुजरते हैं और इस तरह की कृतियों का महत्व होता है। यशपाल ने झूठा सच लिखा, भारत विभाजन पर इतना बड़ा उपन्यास; तो वे विभाजन के समय वहां मौजूद नहीं थे, लाहौर में या सीमा पर मौजूद नहीं लखनऊ में बैठ कर उन्होने लिखा, लेकिन वो पूरा समय दर्ज हो गया, वो जो खबरें थी जो अखबार थे उसके माध्यम से। उसी तरह से यह उपन्यास उस त्रासदी का दस्तावेजीकरण है और ये बहुत मूल्यवान है, क्योंकि आज जैसे कामू के द प्लेग की चर्चा होती है, निराला के भी उपन्यास की चर्चा होती है, तो इस तरह की जो चीज है जो तराशी जाती है जो ढूंढी जाती है तो औपन्यासिक फ़ॉर्म में उस त्रासदी का दस्तावेजीकरण है, यह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। लेखक की निगाह बेजोड़ है, जैसा कि मैं बारबार घूम घूम के आता हूं, 5 अगस्त 2020 की भी चर्चा है, अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास हो रहा था, तो ये सारी चीजें चर्चा के केंद्र में आती है।
मजदूरों के पलायन की जो त्रासदी है इसका आर्थिक पहलू भी है। इस कोरोना की त्रासदी ने आर्थिक रूप से पूंजीपतियों पर भी असर डाला है। उपन्यास में हंसामल के भी उद्योग हैं, उनके कारखाने भी बंद हो रहे हैं, उनको भी चिंता है कि किस तरह की स्थितियां विकसित हो रही है। छोटे छोटे मजदूर यानी जो दिहाड़ी मजदूर हैं जो दैनिक मजदूरी पर जीते हैं उनका भी जीवन नष्ट हो रहा है; तो समूची अर्थव्यवस्था का भी इसमें चित्रण है कि एक त्रासदी समूचे समाज को समूचे अर्थव्यवस्था को नष्ट कर रही है। दूसरा एक मानवीय त्रासदी है, इंसान इंसान के बीच के संबंध परिवार परिवार के बीच के संबंध, कहा जाए सामाजिकता तार-तार हुई जा रही थी। ये कहा जा रहा था कि एक दूरी बनाइए, डिस्टेंस क्रिएट कीजिए; उस दूरी बनाने में समाज में किस तरह का विग्रह पैदा किया समाज में किस तरह का अलगाव पैदा किया इसकी भी एक झलकी मिलती है। इस प्रकार एक समूचा त्रासदी का जो एक विकराल रूप जिसे हम टुकड़े टुकड़े में नहीं महसूस कर सकते, उसका एक विस्तृत स्वरूप है जिसकी चर्चा आई है। उपन्यास में कोरोना कैबिनेट की बात हुई है, जैसे आज का विषय रखा गया है “उपन्यास में युवा चिंतन की दिशा” तो लेखक का यह मोह है; हम लोगों ने बहुत समय से एक पद का इस्तेमाल किया है ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’, ये जो युवा मंडली है आदर्श उन्मुख है, आदर्श उन्मुख होना अच्छी बात है और वो होना चाहिए। मुझे लगता है कि इस उपन्यास का जो कथानक है जो औपन्यासिक भूमि है यह कोरोना कैबिनेट कितना इस औपन्यासिक भूमि को सबलीड करती है और कोरोना मंडली की जो दिशा है जो सोच है उपन्यास का जो संपूर्ण ताना-बाना है संपूर्ण विन्यास है उसके साथ एक फाँक बन आती है। कोरोना कैबिनेट की जो बैठकें होती हैं उस बैठक में जो प्रस्ताव लिए जाते हैं चाहे तिब्बत के बारे में हो, चाहे चीन के बारे में हो, चाहे नाटो के बारे में हो या कोरोना से जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई चीन को करनी है यह सारी बातें मैं समझता हूं कि उपन्यास की जो एक मुख्य विषयवस्तु है जो मुख्य दिशा है उसको सबलीड नहीं करती उसको कमजोर करती है। उपन्यास जिस कथा भूमि पर लिखा जा रहा है उस कथा भूमि के साथ यह कितना न्याय कर पा रहा है कितना उस कथा को आगे बढ़ा रहा है, मैं समझता हूं कि ये लेखक की एक सोच हो सकती है कि आज का युवा इन सब चीजों के बारे में सोच रहा है; आज का युवा सबसे ज्यादा बेरोजगारी के बारे में सोच रहा है, उसकी अभिव्यक्ति पर जो बंदिशें लग रही हैं उसके बारे में सोच रहा है। आज के युवा की जो मुख्य चिंताए कोरोना काल की चिंताओं से जुड़ती हैं, वो जो मुख्य चिंताए है उनको अधिक सहजता के साथ अगर प्रस्तुत किया जाता तो एक फाँक जैसी है वो कम हो पड़ती। कई वक्ताओं ने इस बात को रेखांकित किया कि यह थोड़ा बेमेल-सा लगता है कि यूएनओ में स्थायी सदस्यता होनी चाहिए, सवाल ये है कि मान लीजिए एक विश्वविद्यालय की कोई मिनी पार्लियामेंट होती है या कॉलेज की होती है उसमें युवाओं के बीच की बहस एक अलग बात है, लेकिन समाज की इतनी बड़ी त्रस्ती के लिए जो कोरोना कैबिनेट बनी है उस कोरोना मंडली में समाज के हर तरह के लोग है, एक पुंजीपति का भी बेटा है, एक सामान्य घर का भी है, एक दलित भी है और यह बहुत अच्छी बात है कि कोरोना मंडली में समाज का वैविध्यपूर्ण प्रतिनिधित्व है। समाज का जो वैविध्यपूर्ण प्रतिनिधित्व है, समाज की एक अलग तरीके की जो समस्याएं हैं, जो मूल बनावट है उस मूल बनावट की अभिव्यक्ति होनी चाहिए तो जिसे कहते हैं विविधता में एकता; लेकिन विविधता में एकता यह नहीं होनी चाहिए वो एकता जो वो यूनिमिटी है समाज की संरचना है उस संरचना को कही पीछे ले जाय।
उपन्यास में जो छोटे-छोटे डिटेल्स हैं, इसमें पीएम केयर फंड भी आया है, यानि कि जो विद्रूपता है जैसे जो बेचारा दरबान है या मामूली नौकरी कर रहा है वो केयर फंड में पैसा दे रहा है लेकिन विभाग का जो मुखिया है आयकर विभाग का जो चीफ कमिश्नर है वो उसमें कंट्रीब्यूट नहीं कर रहा है! तो जो तंत्र है वो किस तरह का है, तंत्र का सबसे निम्न स्तर का जो व्यक्ति है वो अपने दायित्व का निर्वहन कर रहा है लेकिन शीर्ष पर जो बैठे हुए हैं चाहे वो कार्यपालिका के लोग हों चाहे वो ब्यूरोक्रेसी के लोग हों, किस तरह से निर्ममता के साथ पेश आ रहे हैं! मैं समझता हूं कि ये उपन्यास आने वाले समय में और महत्वपूर्ण हो जायेंगे। कई बार ये होता है कि किसी चीज का मूल्यांकन तात्कालिक में होना थोड़ा कठिन होता है, ये उपन्यास तात्कालिकता में लिखा हुआ है और हम लोग उसकी चर्चा भी तात्कालिकता में ही कर रहे हैं, संभव है कि आगे आने वाले दिनों में जिस तरह से उपन्यास तलासे जाते हैं, जैसे विभाजन के बारे में जब रचनाओ को तलाशा जाता है तो हमलोग चार-पांच रचनाओ का नाम लेते हैं, उसी तरह कोरोना काल एक ऐसी त्रासदी है जिस पर लोग सोचेंगे विचार करेंगे, तो एक ऐसे समय में इस तरह का उपन्यास याद किया जाएगा।
मैं समझता हूं भारतीय समाज का इस समय का जो सामाजिक तानाबाना है जो राजनीतिक ताना-बाना है और आर्थिक रूप से जिस तरह से समाज छिन-भिन्न हुआ है उसे कोरोना के दर्पण में समझा जा सकता है। इसी उपन्यास के बारे में दिल्ली पुस्तक मेले में चर्चा हुई थी, शिवमूर्ति जी भी थे, मैं भी था, वहां पर मैंने कहा था जिस तरह महाभारत में ये कहा जाता है कि जो वहां नहीं है वो उसके बाहर भी नहीं है, तो मैं समझता हूं कि इस उपन्यास में कोरोना के समय की अगर सभी नहीं तो अधिकांश चीजें इसमें मौजूद हैं। अब ये जरूर है कि अगर कोई एक कहानी लिखी जाएगी जैसे मजदूरों के पलायन पर लिखी जाए या किसी चीज पर लिखी जाए तो उसमें इसकी गहराई उसकी सांद्रता अधिक होगी, लेकिन यदि उस दौर का समूचा चित्र हमें प्राप्त करना है यानि 2020 2021 के दौरान जब घटनाएं घटित हो रही थीं त्रासदी चल रही थी उस त्रासदी के बीच यह उपन्यास लिखा जा रहा था, जाहिर है ठहर करके कुछ समय बाद लिखा जाता तो दो बातें हो सकती थीं, हो यह सकता था कि जिन चीजों को समझते हैं कि ज्यादा विस्तार से हैं उसमें थोड़ी कमी हो सकती थी, लेकिन हो यह भी सकता था कि जो उसका एक गहरा प्रभाव था मन मस्तिष्क पर वो प्रभाव हल्का हो जाता। तो इसके दोनों पहलू हैं, मैं समझता हूं कि उस समय में लिखा जाना तत्काल लिखा जाना वो एक अच्छी बात है, जरूरत है और वो लिखा गया और आज हम जो बात कर रहे हैं थोड़ा ठहर करके और उसके बारे में हम जो मत दे रहे हैं तो ये मत जिसे कहते हैं आफ्टर थॉट, ये आफ्टर थॉट होता है। सचमुच 835 पृष्ठ का जो यह उपन्यास है इसको पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं है, इसमें बस एक दो जगह दोहराव की बात है; कोरोना कैबिनेट के जो प्रस्ताव हैं उनका दोहराव है, उस तरह के कुछ दोहराव से इसमें बचा जा सकता था। लेकिन मैं इस उपन्यास को कोरोना काल की त्रासदी के रूप में, एक लेखक की राजनीतिक प्रतिबद्धता के रूप में पाता हूँ और लेखक की निगाह समूचे समाज पर है मेरे लिए वो ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
उपन्यास को लेकर एक लेखक की जो दृष्टि होती है जिसे औपन्यासिक दृष्टि कही जाती है, तो इस इस उपन्यास में वो विजन मजूद है, इसमें लेखकीय विजन मजूद है, औपन्यासिक विजन मौजूद है। लेखक स्वयं कभी इस उपन्यास पर पुनर्विचार करे तो उसके विस्तार पर कर सकता है, लेकिन जहां तक उसके विजन की बात है जहां तक उसके दृष्टि की बात है जहां तक भारतीय समाज की राजनीतिक आर्थिक सामाजिक तंत्र को समझने की बात है उसमें कहीं कोई कोताही नहीं है कहीं कोई कमी नहीं है। मैं समझता हूं कि उपन्यास में जो साहित्यिक दृष्टिकोण है वो एक जरूरी दृष्टिकोण है और एक समसामयिक दृष्टिकोण है। इसलिए मैं इस उपन्यास का स्वागत करता हूं और उस त्रासदी को उपन्यास के रूप में सामने लाने के लिए दीर्घ नारायण की प्रशंसा करता हूँ और बहुत-बहुत बधाई देता हूँ।
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वीरेंद्र यादव, लखनऊ