लखनऊ, 24 सितम्बर, 2023
दीर्घ नारायण के उपन्यास “रामघाट में कोरोना” पर सम्पन्न विमर्श गोष्ठी में वंदना भारती के विचार:
वंदना भारती (असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग,पूर्णियाँ विश्वविद्यालय)
उपन्यास “रामघाट में कोरोना” का दायरा इतना विस्तृत है कि उसे 10 से 15 मिनट में समेट पाना बहुत मुश्किल है; 832 पेज के इस उपन्यास में इतनी सारी जानकारियां हैं सिर्फ कोरोना को लेकर नहीं तमाम मुद्दों को लेकर, कोरोना के बहाने उस समय का समाज इस उपन्यास में बोल रहा है। उपन्यास को लेकर मारियो वर्गास लिओसा ने जिक्र किया है कि उपन्यास की कथावस्तु कैसी होनी चाहिए? अपने एक पत्र में उसने लिखा है “शुरुआती दिन में ही एक बार उसे लगा कि लिखी जा रही कहानी की केंद्रीय घटना को भी छोड़ दें, जिसके मुताबिक नायक को फाँसी पर झूल जाना था, ऐसा फैसला करने के साथ ही उसे कहानी कहने की नई तकनीक मिल गई जिसका वह अपनी आगामी कहानियों और उपन्यासों में बारबार इस्तेमाल कर सके; यह बिल्कुल ही सही बात है कि सबसे अच्छी कहानियां ऐसी खामोशी से बयां की जाती है कि वाचक टुकड़े टुकड़े में कुछ कहता हुआ बार बार गायब हो जाता है, अनुपस्थित सूचना को आग्रहपूर्वक पाठक की कल्पना के माध्यम से उसके मस्तिष्क में तैयार होने देते हुए कुछ इस तरह से कि पाठक उसे रिक्त स्थानों की पूर्ति के रूप में लेकर चलता रहे, इस तकनीक को मैं छुपे हुए तथ्य का नाम दूंगा तथा लगे हाथ यह भी साफ कर देना चाहूंगा कि यद्यपि हेमिंग्वे ने इसे अपने तरीके से मोड़ा तथा बहुधा इस्तेमाल भी किया; लेकिन इस तकनीक की खोज उसने नहीं की क्योंकि यह तकनीक उतनी ही पुरानी है जितना कि खुद उपन्यास”। इस उपन्यास को पढ़ते हुए पीछे वाला कवर भी मैंने देखा है, रामधारी सिंह दिवाकर जी ने लिखा है कि उपन्यास लिखने की दीर्घ नारायण की यह शैली अपने आप में एक नया तकनीक ईज़ाद करेगा।जिस तरह से कथा का संयोजन इन्होने किया है या फिर अभी तिवारी साहब कह रहे थे इन्होने रामचरित मानस के सुक्तियों को किस तरह से जोड़ा है, वो अगर मैं कहूँ किसी उपन्यास का लिखित हिस्सा उसमें कही जा रही कहानी का एक टुकड़ा भर होता है, जबकि पूरी कहानी विचार, संस्कृति, इतिहास, मनोविज्ञान, भंगिमा तथा सैद्धांतिकी जिसे कहानी को बोधगम्य बनाने वाले सभी तत्वों का अंगीकरण करती हुई शब्द सीमा में तय की गई दूरी से बहुत आगे तक जाती है, यहां तक कि शब्दों से भरपूर अतिविस्तृत उपन्यास भी पूरा का पूरा अपने लिखित हिस्से में भी समाहित नहीं होगा। लेखक जो लिखता है जो कह देता है भले ही वह पाठ बहुत विस्तृत भी क्यों न हो उस कहे से बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण अनकहा भी होता है। बहुत सारी जगह मुझे ऐसा लगा कि उस उपाख्यान में भी कुछ न कुछ ऐसा है जो लेखक कहते कहते रुक गए हैं जो लेखक कहना तो चाह रहे थे भूमिका भी लंबी हो गई कथानक भी लंबा खिंच गया लेकिन जो मुख्य मुद्दे की बात थी वह उसका बस इशारा करके लेखक रुक गए हैं, लेकिन वह जो कहना चाह रहे थे उसका उन्होने इशारा किया है।
उपन्यास लिखने की पद्धति को देखें तो वो भी इनके लेखन में मुझे दिखा। इसमें जो पात्र हैं इन्होने जो कोरोना कैबिनेट बनाया है, जिस तरह से इनकी बातें हो रही है, जिस तरह से बदलाव दिख रहे हैं आज के दौर में खासकर उत्तर आधुनिक समाज में, शहर तो पहले से ही बदला हुआ था कस्बाई जीवन भी बदल गया है, लेकिन जिस गांव को हम रोमेंटीसाइज करते है कि हमारा गांव ऐसा था हम गांव लौट के जाएंगे या गांव के लोग इतने सहज होते हैं इतने भोले होते हैं, साथियों गांव अब वैसा रहा नहीं। कोरोना के समय दिल्ली से एक तरह से समझ लीजिए निर्वासित किए हुए मजदूरों ने जो त्रासदियां झेली और वो इस मोह में अपने गांव लौट के आने के लिए विवश हुए कि गांव में तो मुझे बहुत कुछ मिलेगा गांव में हमें बहुत सहयोग मिलेगा लेकिन सहयोग की वो भावना अब बिखर रही है। जिस भावना का दीर्घ नारायण जी ने एक यूटोपिया रचा कि समाज के सच को ऐसा होना चाहिए, अगर समाज कभी इस तरह से विकराल परिस्थिति में आ जाए, औचक हमारी स्थिति कुछ ऐसी बन जाए तो समाज किस तरह से एक साथ हो सकता है, खासकर युवा। इस क्रम में उन्होने कुछ प्रबुद्ध युवाओं को लेकर कथा बुना है; अहम करेक्टर जो फिलोसोफर है वो मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगा, सहज अपने नाम के अनुरूप ही सहज है, सहज के करेक्टर में मुझे अपील किया कि वह एक तरफ तो पूंजीपति का बेटा है लेकिन उसकी जो दृष्टि है या उसकी जो सोच है वह सबाल्टर्न लोगों के लिए ज्यादा है और उन लोगों के लिए ही वह ज्यादा काम करता है, तो यह भी जो एक धारणा है कि पूंजीपति का बच्चा आम लोगों के जनजीवन से नहीं जुड़ा रहता है, किस तरह से आम लोगों के जनजीवन से कट गया है या उनके दुखों से उसका वास्ता नहीं है इसको भी कहीं न कहीं उपन्यास में उठाने की कोशिश करते हैं। शायनी व सहज तथा मंजरी व रामू ग्वाला के रूप में व्यावहारिक प्रेमी जोड़े को सामने लाया गया है। रामू ग्वाला और मंजरी के प्रेम प्रसंग पर मैं ज्यादा नहीं जाऊंगी; मुझे जाति व्यवस्था के हवाले से लगा कि शुरुआत में ही रामू ग्वाला और मंजरी जब बातचीत कर रहे होते हैं तो वो एक बार अपने बारे में बोलता है कि मैं दूध बेचता जरूर हूं यह कर्म है मेरा लेकिन मेरी जाति वह नहीं है; वहां भी लेखक पूरी तरह से यह नहीं बताते कि वह किस जाति का है लेकिन कर्म के आधार पर उसे सारे लोग रामू ग्वाला ही कहते हैं। जैसा कि अभी वीरेंद्र सर यहां है ही, उपन्यास पर इन्होने जो लिखा है खासकर गोदान पर, गोदान से वो कनेक्ट करते हुए लगा कि जब गोबर गाँव से शहर की तरफ जाता है और उसका मोह गाँव से भंग हो जाता है, उसे लगा कि यहां तो जमीनदार हमें पिस रहे हैं, जैसे कहते हैं न नाम का भी समाजशास्त्र होता है, होरी जो उसका पिता है जब उसकी जमीन बिक जाती है उसको होरिया कहा जाता है, जब तक उसके पास जमीन है तब तक उसे लोग होरी कहते हैं, वह छोटी सी भी जमीन का मालिक क्यों ना हो जैसे ही जमीन उसकी बिकती है और वह मजदूर बन जाता है उसे लोग होरिया कहने लगता हैं! इन परिस्थितियों से या इस तरह के मानसिकता से बचने के लिए जब एक युवा लालायित होकर शहर की ओर जाता है तो उस शहर में भी वह उसी चक्रीय व्यवस्था में कहीं न कहीं उतना ही पिस जाता है। मतलब कि शहर में भी मजदूरों की स्थिति पूंजीपति वर्ग ने कुछ वैसे ही अच्छी करके नहीं रखी है; उसका मोह भंग होता है और वो फिर गांव की तरफ आता है। तो यहां पर मुझे लगा कि रामू ग्वाला रामघाट को कोरोना से बचाने के लिए दिल्ली जाता है या फिर भगत सिंह से जोड़ते हुए सर ने जो लिखा है कि संसद में पर्ची फेंकने के लिए उसने बहुत कोशिश है जिसका कि पूरा का पूरा हवाला है उपन्यास में और अंतिम में लौटते क्रम में भी वो एक्सेप्ट करता है कि मैंने कोशिश तो की थी लेकिन मैंने फेंका नहीं। और भी लोग हैं जो डरावने वक्त में क़ुबूल करता है कि बलात्कार तो हुआ था लेकिन हम वहां थे नहीं, जुलूस में या हमें लोगों ने बुलाया तो था किसान वाले धरना पर बैठने के लिए लेकिन मैं गया नहीं था; तो कहीं न कहीं युवा वर्ग की मानसिकता में एक भय बैठा हुआ है, खासकर उनमें सोचने समझने की शक्ति तो है लेकिन अगर कोई ऊपरी ताक़त इसको डराता है तो वे डर से चुप बैठ जाते हैं। आईएएस अधिकारी ब्रजेश ब्रह्मा ज्वाइंट सेक्रेट्री से मिलने कोरोना कैबिनेट के युवगण जाते हैं, तो ब्रह्मा सर किस तरह से उन बच्चों का माइंडसेट बदलने की कोशिश करता है! वह खुद तो सरकार के तलवे चाट ही रहा है और युवा वर्ग को भी वह सलाह दे रहा है कि वह उसी दिशा में बढ़े। तो मैं वही कह रही थी कि दीर्घ सर बहुत ज्यादा लिखकर नहीं बहुत सारा इशारा इन्होने किया है कि किस तरह से आज का युवा वर्ग जिसका कि अपना अस्तित्व है समाज की तरफदारी हेतु चिंतनशील प्रयत्नशील रहते हैं। जो फिलोसोफर पात्र है वह अपने साथियों को अस्तित्ववाद के धरातल पर तर्कपूर्ण ढंग से खड़ा कराता है क्योंकि उसकी अपनी चिंतन शैली है। पता नहीं क्यों वो फिलोसोफर बच्चा मुझे जेएनयू का विद्यार्थी लगा, हो सकता है मैं वहां से पढ़ी हूँ; तो आपको यह मेरी सोच लगी या फिर जितने भी पात्र हैं, प्रेमी प्रेमिका के रूप में मिलने के लिए वो जहां भी जाते हैं जिस भी किले पर जाते हैं मिलने के लिए, तो हमारे यहां जेएनयू में अरावली गेस्ट हाउस के बगल में स्टूडेंट्स स्वतंत्र रूप से मिला करते थे तो उस तरह की स्वतंत्रता कहीं न कहीं जो एक युवा वर्ग या दिल्ली यूनिवर्सिटी में जो पढ़े हैं वहाँ मजनू का टीला है, तो मुझे लगा कि कहीं न कहीं हम एक दूसरे से वो कनेक्ट कर सकते हैं।
कोरोना की विभीषिका को लेकर सरकारी व्यवस्था या सरकार की धज्जियां ना उड़ाते हुए भी लेखक ने धज्जियां उड़ाई हैं और मुझे लगता है कि आज के दौर में बहुत मार्के की बात की है लेखक ने। बहुत हिम्मत चाहिए कि जिसकी सरकार हो जिस सरकार के मातहत आप काम कर रहे हो उस सरकार की नीतियों के खिलाफ आप लिखने का साहस कर रहे हैं, यह बड़ी बात है और मैं इसके लिए लेखक को बधाई दे रही हूँ। पत्रकार की तो जो हालत है आप देख ही रहे हैं, समाज में लेखक वर्ग से एक कहीं न कहीं हमें यह उम्मीद थी कि लेखक उन मुद्दों को उठाएंगे उन समस्याओं को उठाएंगे जिस विभीषिका से आम जनजीवन त्रस्त हो चुका था। क्योंकि पुर्णियां के मजदूर भी लौट रहे थे, मैं पुर्णियां में हूं, पुर्णियां के बिहार के मजदूरों की जो बदहाल स्थिति है वह किसी से छिपी हुई नहीं है कि वे बाहर क्यों जाते हैं और किस तरह से जैसे उनको भैया कहा जाता है, नॉर्थ ईस्ट के लोग परेशान होते हैं कि जब वे दिल्ली आते हैं तो हमें कहीं न कहीं अलगाव बोध होता है, बिहार वासियों के साथ यही समस्या है भले ही आप प्रोफेसर बन जाएं या कुछ बन जाएं जैसे ही आपने बिहारी कह दिया या आपने घोड़ा का ‘ड़’ सही से उच्चारण नहीं किया तो एक खास वर्ग की भृकुटी तन जाती है, जेएनयू में भी बहुत ज्यादा होता था। तो बिहारी मानसिकता को भी आपने एक किस तरह से, रामघाट भले ही बिहार में नहीं है, लेकिन किस सकारात्मकता के साथ आपने इसे जोड़ा है वह भी इस उपन्यास का एक प्राण तत्व है। राजनीति के विषय में आप बता रहे हैं, कितना हिम्मत आपने किया है एक लाइन लिखा है “जिस देश में हर दिन एक से एक राजनेता पैदा हो रहे हैं वहां वैज्ञानिक की जन्म कुंडली भला कैसे बन सकती है।” इस उपन्यास में यह भी दिखाया गया है कि धर्म और विज्ञान का किस तरह से तालमेल है; जो राम चरित मानस का पाठ करा रहे हैं, दिया जला रहे हैं और इस तरह की चीज मुझे लगा कि प्रकारांतर से व्यंग के रूप में ही जाने वाली चीज है। जेड सर जब मंदिर में जाते हैं तो धर्म को लेकर किस तरह से एक खास वर्ग इसे अपना बपौती मान लेता है और यह कि दूसरे को किस तरह से दिखाया जा रहा है कि अगर आप कम्युनिस्ट है या फिर अगर धर्म पर विश्वास नहीं है विज्ञान में अगर आपकी रुचि है तो धर्म के बारे में आपकी जानकारी बिल्कुल सिफर है और इस भ्रम को भी आपने यहां उपन्यास में तोड़ा है, जब जेड सर हिंदू के बारे में भी बात करते हैं, कुरान के बारे में भी बात करते हैं, सिक्ख-ईसाई के बारे में भी उनको जानकारी है, धर्म में अगर हमें विश्वास नहीं है इसका मतलब नहीं धार्मिक कर्मकांड से या धार्मिक रवायत से हम परिचित नहीं है, इन चीजों को भी लेखक ने उपन्यास में दिखाया है।
निर्मल वर्मा एक जगह मैला आँचल के संदर्भ में लिखते हैं कि रेणू के मैला आँचल में जो मायावी आभा है, शब्दों के रंग उसको पकड़ने की कोशिश करते हैं, वो आंचलिकता मुझे इस उपन्यास में उस तरह से नहीं जिस तरह से आपको आंचलिक उपन्यास में दिखता है, फिर भी वो जो एक मायावी आभा है उपन्यास की वह मुझे दिखा, खासकर मजदूरों के पलायन में और उस बीच का जो पूरा कथा क्रम है। मैनेजर पांडेय उपन्यास की शक्ति सामर्थ्य और प्रासंगिकता को निर्बाध रूप से स्वीकार करते हैं, एक मुक्तिधर्मी आख्यान के रूप में औपन्यासिक सत्ता और सार्थकता में अधिक आस्था है उनका। वे उत्तर आधुनिकतावादियों के उपन्यास के वर्तमान और भविष्य के बारे में अंतवादी घोषणाओं को खारिज करते हैं और उपन्यास के अस्तित्व को मानव जाति के अस्तित्व के साथ जोड़कर उसके भविष्य को उज्जवल देखते हैं। उनके अनुसार ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि उपन्यास का आधार आख्यान है और आख्यान मनुष्य के अस्तित्व का अनिवार्य अंग है। यह जो कहा जाता है कि उपन्यास या आख्यानमूलक जो कृतियां हैं वो लोगों में अब उस तरह से स्थान नहीं बनाएंगी और उसका अंत होगा, उसके बारे में वे कह रहे हैं कि उनके अनुसार ऐसा इसलिए असंभव है क्योंकि उपन्यास का आधार आख्यान है और आख्यान मनुष्य के अस्तित्व का अनिवार्य अंग है। उपन्यास के उज्जवल भविष्य की घोषणा करते हुए रॉबर्ट इस्कॉफ ने कहा है कि भाषा की तरह ही आख्यान भी मानव अस्तित्व की बुनियादी विशेषता है, इसलिए उपन्यास का अंत मनुष्य और लोकतंत्र के अस्तित्व के अंत के साथ ही संभव है। तो भले ही कोविड आ जाए इस तरह की तमाम विपत्ति आएं मनुष्य का अंत इस तरह से नहीं हो सकता है, मनुष्य में इतनी जिजीविषा है कि वह अपने आप को सरवाइवल ऑ द फिटेस्ट में भी अपने आप को सरवाइव कर रख सके; और उपन्यास भी उसी तरह है, उपन्यास जब तक मनुष्य है मनुष्य की भाषा जीवित है उपन्यास जीवित रहेगा। और अगर हम रामघाट में कोरोना को पढ़ सकते हैं तो इसका मतलब है पाठक में अभी भी उपन्यास के प्रति लगाव है, क्योंकि 832 पेज पढ़ना इतना भी सरल और सहज नहीं। इस रोचक कृति के लिए सर को बहुत बहुत बधाई।
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वंदना भारती, पूर्णिया, बिहार