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Lahak Digital > Blog > Literature > सामाजिक सरोकारों से लबरेज महेन्द्र नारायण पंकज की कहानियाँ
Literature

सामाजिक सरोकारों से लबरेज महेन्द्र नारायण पंकज की कहानियाँ

admin
Last updated: 2024/04/02 at 12:35 PM
admin
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16 Min Read
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– शिल्पी कुमारी

सत्र 2021-23 के लिए ‘हिन्दी सेवी सम्मान योजना’ के तहत ‘मोहन लाल महतो वियोगी’ सम्मान से सम्मानित महेन्द्र नारायण पंकज, वर्तमान समय में ‘जन लेखक संघ’ के राष्ट्रीय महासचिव पद पर आसीन हैं। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित ये, ‘जन-आकांक्षा’ पत्रिका के संपादक भी हैं। चूकिं ये मधेपुरा निवासी हैं और इनके ग्रामीण-समाज में सामंतो को प्रभुत्व रहा है, इसलिए इनकी रचनाओं में भी सामंतो के प्रभुत्व से संघर्ष करता हुआ बहुजन समाज मुखरित हुआ है। ये नौकरी से पूर्व भारत की ‘कम्युनिस्ट-पार्टी’ की मार्क्सवादी विचारधारा से संबंध रखते थे, तत्पश्चात ये शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी सक्रिय भूमिका अदा करते हैं। इन्होंने सात वर्ष के लिये ‘जनवादी लेखक संघ’ और ग्यारह वर्ष के लिये ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ से जुड़कर कार्य किया। किंतु दोनों संघों में वर्ण और वर्ग भेद अत्यंत प्रबल था। इन गतिविधियों से इनका मोह भंग हुआ और फिर इनके सांनिध्य से ‘जन लेखक संघ’ की नींव रखी गई। ‘जन लेखक संघ’ के माध्यम से उपेक्षित लेखकों के हित में निष्पक्ष होकर सवाल उठाने लगे। इन्होंने वैसे रचनाकार, जो अपनी व्यापक एवं गुणवत्तापूर्ण लेखन से पाठक-वर्ग में लोकप्रिय तो हुए, किंतु आलोचक-वर्ग एवं प्रतिष्ठित ‘साहित्य सम्मान पुरस्कारों’ के मध्य नदारद रहे, साहित्य की मुख्यधारा में स्थान सुनिश्चित करने का सफल प्रयास किया।
महेन्द्र नारायण पंकज ने हिंदी भाषा के साथ, हिन्दी साहित्य के विभिन्न अखाड़ों में भी सक्रिय योगदान दिया। उदाहरणस्वरूप देखें तो ‘युग-ध्वनि’ (कविता-संग्रह), ‘अपमान’ (कहानी संग्रह), ‘एक युद्ध’ (कहानी संग्रह), ‘क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद’ (प्रबंध काव्य), ‘रचना-व्याकरण-दोहावली’ (व्याकरण) और ‘नूतन शब्दानुशासन’ (व्याकरण) इत्यादि है। इन्होंने अपनी रचनाओं में भोगे हुए यथार्थ में संघर्ष की चेतना को शामिल कर लेखनी चलाई।
वर्ष 2023 में प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘एक युद्ध’ की कहानियाँ, कोसी अंचल के सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों का यथावत चित्रण प्रस्तुत करती है। इस कहानी संग्रह में कुल 14 कहानियाँ संकलित है- ‘युद्ध’, ‘तूफान’, ‘विजय-जुलूस’, ‘रंग मेँ भंग’, ‘आखिरी निर्णय’, ‘रास्ते का कांटा’, ‘वेणु का दर्द’, ‘जनतंत्र की हत्या’, ‘पश्चाताप’, ‘संकल्प’, ‘फुआ की बेबसी’, ‘जाल फरेब’, ‘इलेक्शन’ और ‘संदेह’ है। ये कहानियाँ कोसी क्षेत्र का एक-एक कोना झांक आया है। चाहे वह सामंती समाज की शोषण प्रवृत्ति हो या फिर किसान-मजदूर के दुख दर्द की व्यथा और उससे संघर्ष करती हुई चेतना हो। समाज में फ़ोड़े की तरह पीड़ादायक नासूर प्रवृत्ति का दहेज प्रथा हो या फिर शासन-प्रशासन की भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति हो। सभी प्रवृत्तियाँ इनकी कहानियों के मुख्य विषय के रूप में प्रस्तुत होती है।
चूँकि ये नौकरी से पूर्व कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ प्रगतिवादी विचारधारा के प्रबल पक्षधर थे, इसलिए इनकी अधिकांश कहानियों में कम्युनिस्ट पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं का जिक्र आता है- जैसे ‘युद्ध’ कहानी में कम्युनिस्ट पार्टी का जिला सचिव सक्रेटरी रामप्रसाद मंडल हो या फिर ‘तूफान’ कहानी का कॉमरेड भुवनेश्वर या फिर ‘विजय-जुलूस’ कहानी का कम्युनिस्ट नेता अमरेश। सभी पर किसी न किसी रूप में शासन-प्रशासन के द्वारा किया गया अत्याचार दिखाई देता है। इन सबके प्रति विरोध तथा स्वतंत्रता, समता एवं न्याय के लिए वर्गहीन समाज की जद्दोजहद सामने आती है। ‘युद्ध’ कहानी में कामरेड रामप्रसाद के कथन- “साथियों, इज्जत से जीना चाहते हैं तो जुल्म के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा करनी होगी। हमारी पार्टी का ऐलान है कि न जुल्म करो और न जुल्म सहो, इसलिए हम लोग तैयारी करें और ताक में रहें कि जहाँ जुल्मी जमींदार वसुनंदन सिंह मिले, पकड़कर देह तोड़ दीजिए, नहीं तो ज़मींदारी का जुल्म बढ़ता जाएगा। आज रीतादेवी को पीटा है तो कल हमारी बहन-बेटी की अस्मत भी लूट सकता है।”(एक युद्ध, महेन्द्र नारायण पंकज, स्वराज प्रकाशन, पृष्ठ-17) साथ ही कहानियों में जमींदारों के साथ मिलकर पुलिस-प्रशासन की भ्रष्टनीति का चित्रण भी किया गया है- “देखते नहीं हो दरोगा, तुम्हारे कारनामे का चिट्ठा छपवाकर बंटवा रहा हूँ। कुत्ते कहीं का। जमींदार के हाथों बिककर निर्दोष निर्धन जनता पर जुल्म ढाहते हो, शर्म नहीं आती है तुम्हें। जनता का नौकर होकर जनता पर ही जुल्म ढाहते हो तुम्हारा यह जुल्म नहीं चलेगा।” (वही, पृष्ठ-19)
इनकी एक अन्य कहानी ‘विजय-जुलूस’ में प्रशासनिक भ्रष्टाचार और पुलिसिया दमन के खिलाफ़ संघर्ष करती निम्न वर्ग दिखाई देती है। थाना और कचहरी का मुकम्मल सहयोग न मिलने से साम्यवादियों ने संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने लगे- “भाइयो थाना पुलिस, कोर्ट कचहरी से इंसाफ और रक्षा की उम्मीद छोड़िये। खुद दरोगा पुलिस बनना होगा। इस जंगलराज में पुलिस गुंडा एके हैं। आप लोग जानते हैं कि नहीं, नीचे से ऊपर सब घूसखोर हैं। किससे उम्मीद कीजिएगा इंसाफ की। सभी संगठित रहिए यही हम लोगों का सबसे बड़ा अस्त्र होगा।” (वही, पृष्ठ-37) इस तरह सभी गांव वाले एकजुट होकर पुलिस द्वारा झूठे मुकदमे में फंसाए गए कॉमरेड अमरेश और मोतीलाल वर्मा को जेल से मुक्त करवातें हैं और बलात्कारी विक्रम यादव को जेल भेजवा, प्रशासन को मुंह-तोड़ जवाब देते हैं- “जब तक हम विरोध नहीं करेंगे तब तक घोटाले-भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, महिलाओं पर अत्याचार आदि नहीं रुकेंगे। इन्कलाब जिंदाबाद !” (वही, पृष्ठ-41)
महेन्द्र नारायण पंकज ने कहानियों के माध्यम से केवल बिहार के सुदूर गांव के शासन-प्रशासन का ही चित्रण नहीं किया है, अपितु समस्त भारत-देश के प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह अंकित करते हैं। ग्रामीण समाज में राजनीतिक भ्रष्टाचार इस कदर बढ़ता गया कि साहित्यकार की लेखनी भी इससे अछूती नहीं रह पाती है। इनकी कहानी ‘जनतंत्र की हत्या’ और ‘इलेक्शन’ में मतदान केंद्रों पर राजनेताओं और घूसखोर पुलिसिया तंत्र का मतपत्र लूट और मनमानी का चित्रण प्रस्तुत होता है। ‘जनतंत्र की हत्या’ कहानी में रामजीवन और जयकिशन द्वारा बेबाकी से बूथ लुटेरों को ललकारना- “खबरदार, रुक जाओ, इस तरह जनतंत्र की हत्या मत करो, चंद स्वार्थी और गुंडा तत्वों की खातिर अपने हाथों अपने अधिकारों का गला मत घोटों। हमारा जनतंत्र ही हमारी ताकत है। इसे किसी भी कीमत पर कमजोर मत करो।” (वही, पृष्ठ-75) ठीक इसी प्रकार ‘इलेक्शन’ कहानी में भी मतदान केंद्र पर पुलिस द्वारा मनमानी और राजनेताओं का समर्थन दिखाई देता है। दोनों कहानियों में निहत्थे आम-जन, पुलिस की बर्बरता से स्वयं को महफूज करने हेतु मतदान केंद्र से भाग खड़े होते हैं।
औपनिवेशक भारत से लेकर वर्तमान समय तक, ग्रामीण समाज में दहेज की समस्या, स्वस्थ शरीर में निकले फोड़े की तरह होते हैं, जिसका मवाद शरीर के अन्य भाग को भी संक्रमित कर देता है। साहित्य भी इस दहेज समस्या से अछूता नहीं रह पाया, चाहे वह प्रेमचंद का ‘निर्मला’ उपन्यास हो या फिर मृदुला गर्ग की ‘खरीदारी’ कहानी। सभी में दहेज प्रथा से उपजा ‘बाल-विवाह’ ओर ‘अनमेल-विवाह’ जैसी समस्या से पीड़ित स्त्री मन की अभिव्यक्ति हुई है। शिवपूजन सहाय की कहानी ‘कहानी का प्लॉट’ में निर्धन और असहाय पिता की बेबसी दिख पड़ती है, जहाँ दहेज की मोटी रकम जुटा न पाने के कारण पुत्री (भगजोगनी) का ब्याह करने में असमर्थ होते हैं- “तिलक दहेज के जमाने में लड़की पैदा करना ही बड़ी भारी मूर्खता है। ” (विभूति, शिवपूजन सहाय, लहेरियासराय पटना, पृष्ठ-200) कहानी के अंत में दहेज के अभाव में भगजोगिनी का ब्याह उसके ही सौतेले बेटे से कर दिया जाता है। इस तरह और भी तमाम घटनायें, हिन्दी साहित्य में उजागर होते हैं।
महेन्द्र नारायण पंकज की कहानी भी दहेज समस्याओं से अछूता नहीं रहा है। इनकी कहानी ‘रंग में भंग’ और ‘आखिरी निर्णय’ में दहेज समस्या से पीड़ित स्त्री की व्यथा कथा है। ‘रंग मेँ भंग’ कहानी में विवाह के बाद शैलजा के ससुराल पक्ष के द्वारा मानसिक प्रताड़ना दी जाती है- “माँ जब से ससुराल में रहने लगी हूँ बहुत ताने सुनने को पड़ रहे हैं। सास कहा करती है- यह नहीं दिया तो वह नहीं दिया। पिता की संपत्ति में बेटी का अधिकार नहीं। गछा बहुत, दिया कुछ नहीं। कितना झूठा और बेईमान बाप है।…श्वसूर भी कहा करते हैं- कान की बाली विवाह में दिखला दिया और द्विरागमन में खाली कान लेकर आ गई। कितनी झूठे हैं समधी हमारे।” (एक युद्ध, महेन्द्र नारायण पंकज, स्वराज प्रकाशन, पृष्ठ-42) इनकी दूसरी कहानी ‘आखिरी निर्णय’ में दहेज की ऊंची बोली से परेशान देवदत साह बेटी सीता का अनमेल विवाह कर देता है। पति मुनींद्र के द्वारा सीता का शारीरिक शोषण होता है- “माँ बाप पाल-पोस कर इसलिए मर्द के साथ कर देते हैं कि वह माल-जाल की तरह पिटाई करें। ” (वही, पृष्ठ-50) इन कहानियों के माध्यम से लेखक, शिक्षित समाज की कुंठित बौद्धिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं। आधुनिक भारत में आये दिन दहेज़ की समस्या से उपजा घरेलू हिंसा का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। यह हमारे लिए निंदनीय विषय है।
मानवीय जीवन जीने के लिए अनिवार्य सत्य ‘प्रेम’ की अभिव्यंजना भी इनकी कहानियों में मुखरित हुई है। भले ही वह जातिगत और वर्गगत द्वेष के कारण पूर्णता की प्रगाढ़ता को स्पर्श नहीं कर पाती है। प्रेम-कहानियाँ ‘रास्ते का कांटा’, ‘वेणु का दर्द’ और ‘पश्चाताप’ है, जिसमें सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अराजकतत्व अड़चनें डालती है। ‘रास्ते का कांटा’ कहानी में राधा और मनोहर (चमार) का निश्छल प्रेम परवान चढ़ता है। किंतु जातिगत द्वेष के कारण राधा के माता-पिता इस प्रेम-संबंध को अस्वीकारते हुए बृजेश के द्वारा मनोहर की हत्या करवा देते हैं। किसान, मजदूर, असहाय और निर्धन की आवाज, मनोहर की मृत्यु पर जन-सैलाब उमड़ जाता है और राधा स्वयं को गुनहगार मानती है- “मनोहर एक निर्दोष व्यक्ति था। किस हत्यारे ने उस निर्दोष एवं चरित्रवान व्यक्ति की हत्या की है। उसने किसी का क्या बिगाड़ा था। मैं समझ रही हूँ कि मेरे चलते ही मनोहर की हत्या की गयी है तो मैं ही जीकर क्या करूँगी।” (वही, पृष्ठ-62)
दूसरी कहानी ‘वेणु का दर्द’ में ग्रामीण जीवन में पुष्पित प्रेम का चित्रण किया गया है। वेणु(सवर्ण) और विनय(अवर्ण) के मध्य नि:स्वार्थ प्रेम प्रस्फुटित होता तो है लेकिन जातिगत लड़ाई और सामाजिक मान-मर्यादा के बंधन में बंध सिकुड़ जाता है। पढ़ी-लिखी लड़की वेणु, माँ के पुराने ख्यालात का विरोध करती है- “बिना मतलब की बात क्यों कर रही हो माँ, मैं कोई गूंगी नहीं हूँ कि उचित बात भी नहीं कर सकूँ। आखिर तुम लोगों का दिमाग इतना गंदा क्यों हो गया है माँ ?” (वही, पृष्ठ-67) किंतु भाई पीतांबर को यह कथन रास नहीं आयी और वेणु की पाश्विक पिटाई कर देता है। तथाकथित आधुनिक होते परिवार की विडंबना को उकेरा गया है, जहाँ परिवार, लड़की को शिक्षा तो देते हैं किंतु स्वतंत्रता नहीं दे पाते हैं।
आजाद भारत में ‘नारियों की मुक्ति में स्वयं नारी समाज ही बाधक है’ इस कथन की पुष्टि करती कहानी ‘पश्चाताप’ है। इस कहानी में भी सरोज और रजनीकांत के मध्य अधूरे प्रेम का चित्रण किया गया है, जो मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देता है। सरोज पढ़-लिखकर वर्षों की तथाकथित स्त्रियों की सामाजिक जंजीर को तोड़ना चाहती है, किंतु पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था में बलबलाती पारम्परिक सोच के अनुसार रजनीकांत कहता है- “भावना में मत बहो सरोज, तुम्हारी गुलामी की जंजीर मजबूत है। तुम अकेली तोड़ नहीं पाओगी, नहीं चलेगी तुम्हारी बकवास इन आदमखोर भेड़ियों के सामने। तुम्हें एक दिन आत्मसमर्पण करना ही पड़ेगा।” (वही, पृष्ठ-78) किंतु सरोज बी. ए. पास कर, शिक्षित होकर सशक्त बनती है ओर जीवन पर्यंत के लिए विवाह न कर ‘नारी मुक्ति आंदोलन’ से जुड़ महिलाओं को संगठित कर, समाजसेवा में स्वयं को अर्पित कर देती है। सरोज, परम्परा से चली आ रही पुरुष-प्रधान समाज में स्त्रियों की गुलामी की जंजीर तोड़ती है। कहानी में पश्चाताप, पहले राजनीकांत को होता है, जो कि सरोज से प्रेम तो करता है किंतु उम्रभर निभाने की हिम्मत नहीं कर पाता है और फिर सरोज के माता-पिता को पश्चाताप होता है, जो कि वे पुत्री के नि:स्वार्थ प्रेम-संबंध का तिरस्कार करते हैं।
इनकी सम्पूर्ण कहानियों की रचनाधर्मिता को देखते हुए कोसी अंचल के कथा आलोचक, वरुण कुमार तिवारी कहते हैं- “सामाजिक सरोकार की ये कहानियाँ संभावनाओं के धरातल पर खड़ी हैं और ग्राम्य जीवन के यथार्थ को जीवंत रूप में उपस्थित करती है। कहानी के पात्र अपने ही बीच के जाने-पहचाने चेहरे लगते हैं और इनकी समस्याएं भी अपनी ही समस्याएं प्रतीत होती हैं। भाषा संजीव और व्यंजक है। पात्रो के संवाद में अश्लील शब्दों के जो प्रयोग मिलते हैं, उससे आंचलिकता की झलक मिलती है।” (कोसी अंचल का सृजनात्मक हिंदी साहित्य, कहानी खंड, वरुण कुमार तिवारी, आयुष पब्लिशिंग हाउस, पृष्ठ-283)
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि महेंद्र नारायण पंकज की कहानियाँ सामाजिक सरोकारों से युक्त, मार्क्सवादी विचारधाराओं से संलिप्त और अंबेडकरवादी विचारों को वहन करती हुई प्रतीत होती है। जहाँ इनका भोगा हुआ यथार्थ, सामाजिक गतिविधियों में संपूर्ण समाज का यथार्थ प्रतीत होता है। इनकी कहानियों में धार्मिक-द्वेष से ज्यादा जातिगत-द्वेष की प्रबलता परिलक्षित होती है, जो संपूर्ण बिहार की झलक प्रस्तुत करती है। उनकी कहानियों में हिंदू समाज में व्याप्त वर्ग और वर्ण विभेद, परंपरा से चली आ रही संकुचित मानसिकता, रूढिगत धारणा और अंधविश्वास की मार्मिकता, सजीवता के साथ प्रस्तुत होती है। ‘जन लेखक संघ’ के महासचिव के रूप में इन्होंने समाज के बहिष्कृत वर्ग और साहित्य के उपेक्षित लेखको को केंद्र में लाने का भरसक प्रयत्न करते दिखाई देते हैं, जो भावी-पीढ़ी के लेखकों और पाठकों के लिए प्रेरणादायक हैं |

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शिल्पी कुमारी
शोधार्थी
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी, 221005

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