इधर अनेक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में नई शिक्षा नीति के अनुसार पाठ्यक्रम और कोर्सेस बनाये गयें हैं और छात्रों को इसी के अनुसार निर्मित डिग्री पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिया जा रहा हैं। छात्रों को यह बताया जा रहा है कि नई शिक्षा नीति में कौशलपरक एवं रोजगारपरक शिक्षा पर अधिक फोकस दिया गया है जिससे कि छात्र अधिक आत्मनिर्भर बनेंगे और स्वयं की प्रतिभा के बल पर रोजगार पा सकेंगे। इससे रोजगार को लेकर सरकारों पर जो दबाव बनता है वह कम होगा ऐसा उनका मानना है। यानी अब सरकारें इस जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहती हैं कि पढे-लिखे लोगों को नौकरी देना केवल उसका दायित्व नहीं है। प्रतिभाशाली या कुशल लोग अब स्वयं अपना रास्ता तलाश ले। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में चार वर्ष का डिग्री प्रोग्राम निर्मित किया गया है जो विदेशी विश्वविद्यालयों के डिग्री प्रोग्राम के अनुरूप है। और फिर उनका यह तर्क है कि इस तरह समान डिग्री प्रोग्राम होने से इंग्लैंड-अमरीका में रोजागर प्राप्त करने में भारतीय छात्रों को कोई कठिनाई नहीं होंगी। इस तरह वास्तव में वर्तमान शिक्षा और रोजगार को लेकर जो भ्रमित करनेवाले अंतर्संबंधों को रेखांकित किया जा रहा हैं वह पर्याप्त सत्य नहीं है। यह कौन लोग हैं जो ऐसा कह रहे हैं? क्या उन्हें वास्तव में इसकी पक्की गारंटी है कि केवल प्रतिभा के बल पर इस देश में कुछ अच्छा प्राप्त हो सकता है? और विदेशों में भी?एक बार प्रतिभा के बल पर विदेश में काम मिल सकता है पर अपने देश में सरलता से नहीं।
भाषा के क्षेत्र में ऐसे कौनसे रोजगार उपलब्ध हैं जो केवल प्रतिभा के बल पर अर्जित किए जा सकते हैं?साहित्य,पत्रकारिता,मीडिया,फिल्में आदि में भाषिक कौशल के बल पर धडल्ले से रोजगार मिल सकते हैं? आज जो फिल्में या धारावाहिक बन रहे हैं उनकी भाषा,संवाद,गीत,कथा के स्तर को देखकर तो यह कहा नहीं जा सकता कि बहुत प्रतिभाशाली लोग इसमें काम कर रहे हैं। कुछ अच्छे लेखक इस क्षेत्र में अपवाद मात्र है। यदि आप में एक अच्छे कथालेखक,संवादलेखक या गीतकार बनने की प्रतिभा है तो इस क्षेत्र में रोजगार प्राप्ति को लेकर आपको जो कठिन संघर्ष करना पडेगा उसका कुछ अंदाजा भी है आपको?दर-दर की ठोकरे खानी पड़ेगी। आप कितना भी जोर देकर कहेंगे कि आप में यह प्रतिभा है और आप यह कां दूसरों से बेहतर कर सकते हैं तो भी आपको कोई शीघ्र काम नहीं देगा। जबकि आपको पैसे की उस समय सख्त जरुरत होगी।
पत्रकारिता के क्षेत्र को ही यदि ले तो समाचार लेखक, स्तंभ लेखक आदि के आपको कितने रोजगार उपलब्ध हैं? कुछ लेखकों के समाचापत्रों के साथ अपने-अपने अनुबंध बने हैं। वहीं नियमित लिखते रहते हैं और पैसा कमाते हैं। आप जो अनेकानेक विषयोंपर लिखते हैं और समाचारपत्रों में भेजते हैं तो आप कितना प्रकाशित होंगे और कितना कमा सकेंगें? इसकी कोई गैरंटी नहीं हैं। वह तो आपको लौटा देंगें कि आपके लेख के लिए हमारे पास कोई जगह नहीं है या कहेंगे कि आपका लिखा कुछ खास नहीं है। पर जैसे ही आप किसी प्रभावशाली व्यक्ति की सिफारिश से संपादक तक पहुँचेगे तो आपको मौका मिल जायेगा।
मैं लगभग 3-4 सालों से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अनेकानेक विषयों पर लिखता आ रहा हूँ। मीडिया और अनेक समाचार संस्थानों से जुड़े अनेक लोग मेरी इस मित्र सूची में है। पर अभी तक किसी ने मुझे यह प्रस्ताव नहीं दिया कि आप हमारे लिए कोई कौलम लिखे। उनको क्या लेखकों की जरुरत नहीं है? या उनके पास बहुत लेखक है और समस्या यह है कि किस-किसको लिखने के लिए कहेंगे? एक मराठी समाचारपत्र को मैंने अभी हाल ही में एक लेख भेजा हैं। उन्होने वह अस्वीकृत तो नहीं किया पर उनके संपादक ने मुझसे कहा कि आपके लेख के लिए हम जगह तलाश रहे हैं। जगह मिलते ही छाप देंगें। सब कुछ अनिश्चित। मैंने उन्हें यह भी कहा कि मुझे नियमित लिखने का भी अवसर दें। मैं नये-नये समसामयिक विषयों पर लिखता रहता हूँ। तो उनका कहना था कि उनका एक नियमित लेखक वर्ग है फिर भी वे मेरा विचार करेंगे।लिखने को लेकर कितना और कैसा पैसा मिलेगा यह मामला अभी अस्पष्ट ही है। इससे तो वह दिहाड़ी मजदूरी ठीक है कि दिनभर काम किया और शाम को चार सौ-पाँच सौ रु पक्के।
अब यह बताये कि महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों से बाहर निकले भाषा और साहित्य के छात्रों को मीडिया में ऐसी स्थिति में कितने जल्दी नौकरी मिल सकेगी या काम मिलेगा? जिस देश में बहुत कुछ सिफारिशों,संबंधों और चापलूसी से प्राप्त होता हो वहाँ केवल प्रतिभा के बल पर या गुणों के बल पर कैसे कुछ अच्छा प्राप्त किया जा सकता है? या मिल सकता है?सरकारी नौकरियाँ तो पैसे देकर मिल रही हैं। एक विश्वविद्यालय में प्राध्यापकों के पदों का विज्ञापन निकला है। एक कैंडिडेट ने मुझे बताया कि फलाँ-फलाँ विषय में एक व्यक्ति का किसी राजनेता के सिफारिश से चयन लगभग पक्का हो गया है। भआजकल अनेक क्षेत्रों की नौकरियों के लिए भी यह देखा जाने लगा है कि चुनावों में जीतने के लिए या पार्टी के लिए कौन कितना लाभदायक हो सकता है। लोगों की आम धारणा यह हो चुकी है कि वास्तव में पढने-लिखने से कुछ नहीं मिलता।शिक्षा के प्रति लोगों में सम्मान का भाव दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है।लोग सिर्फ डिग्री लेने के लिए पढने को प्राथमिकता दे रहें हैं।स्कूल-कॉलेजों में लगे भाषा और साहित्य के ऐसे अनेक अध्यापकों के उदाहरण मैं दे सकता हूँ जिन्हें सौ-दोसौ शब्द का ना मौलिक चिंतन करते आता है और न लिखते। परंतु व्यावहारिक स्तर पर यह लोग बहुत चतुर और अवसरवादी होते हैं। बड़े बड़े लोगों से मेलजोल और मधुर संबंध बनाये रखकर यह लोग बहुत कुछ हासिल कर लेते हैं बल्कि एक ईमानदार, सच्चा आदमी घुट-घुट कर जी रहा होता हैं और निंदा का भी पात्र बनता है। लोग उसकी सच्चाई को लेकर उसका मजाक उड़ाते हैं। उसे अव्यावहारिक माना जाता है और असफल भी।
तो देखिए कि इधर जो सर्जनात्मक या चिंतनपरक शिक्षा और रोजगार को लेकर जो यूटोपिया गढा गया है वह जनता के साथ धोखेबाजी है। चालाक और चतुर वर्ग बिना उत्तम शिक्षा और प्रतिभा, बिना श्रम और त्याग के भी इस देश में शानदार जिंदगी का लाभ उठा सकता है और उठा भी रहा है।
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कुबेर कुमावत, महाराष्ट्र