पिछली सदी में भारत की स्वाधीनता के लिए भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस द्वारा चलाए गए अहिंसात्मक आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी ने 1918 से 1928 के बीच अपने लेखों तथा विभिन्न सभाओं और सम्मेलनों में दिए गए भाषणों में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की ज़ोरदार वकालत की थी। अपनी मातृभाषा बंगला से बेहद प्रेम करने वाले सुभाष चन्द्र बोस ने भी 28 दिसंबर 1928 को कलकत्ता में हुए राष्ट्रभाषा सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष पद से बोलते हुए हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया था। प्रस्तुत लेख सुभाष बाबू के उसी ऐतिहासिक भाषण पर आधारित है। हिंदी में दिए गए अपने भाषण के आरम्भ में उन्होंने कहा था :
“अत्यधिक हार्दिक प्रसन्नता के साथ हम आप सबका स्वागत इस महान शहर कलकत्ता में कर रहे हैं। जो इस शहर को जानते हैं उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ लगभग 5 लाख हिन्दुस्तानी रहते हैं। पूरे भारत में ऐसा कोई शहर नहीं है जहाँ इतने अधिक हिंदी भाषी व्यक्ति रहते हों। मैं हिंदी भाषा का कोई विद्वान नहीं, वास्तव में खेद के साथ मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं सही हिन्दुस्तानी में अपने विचार व्यक्त नहीं कर सकता हूँ। आप मुझसे आशा करेंगे कि मैं आपको आधुनिक हिंदी भाषा के इतिहास के बारे में कुछ बताऊँ। मुझे मेरे मित्रों ने बताया है कि कलकत्ता ने आधुनिक हिंदी पत्रकारिता को जन्म दिया। इसी शहर में लल्लू लाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्रेम सागर’ और सदल मिश्र ने ‘चंद्रावली’ लिखी और साथ ही यह भी बताया कि यह दोनों आज हिंदी गद्य के अग्रणी माने जाते हैं। कलकत्ता में पहली हिंदी प्रेस की स्थापना हुई थी और यहीं पर हिंदी के एक समाचार-पत्र ‘बिहार बंधु’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ था। इसलिए हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में कलकत्ता का कोई तुच्छ स्थान नहीं है। मैं इतना और कह दूँ कि कलकत्ता विश्वविद्यालय प्रथम था जहाँ हिंदी में एम.ए. की परीक्षाएँ आरम्भ की गईं। आज भी हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में कलकत्ता एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है। इसलिए कलकत्ता हिंदी भाषी लोगों के लिए अपना ही घर है। मुझे आशा है कि वे उनके स्वागत में रह गईं कमियों के कारण हुई असुविधाओं पर ध्यान नहीं देंगे।
सबसे पहले मैं अपने अधिकांश हिंदी भाषी मित्रों के मन से एक ग़लतफ़हमी निकालना चाहता हूँ। इनमें काफ़ी लोग ऐसे हैं जो यह सोचते हैं कि हम बंगाली हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने के विरुद्ध हैं अथवा हम इस बात की उपेक्षा करते हैं। केवल अशिक्षित लोग ही नहीं, वरन् शिक्षित और सुसंस्कृत लोग भी ऐसा सोचते हैं। उन्होंने हमें पूरी तरह से ग़लत समझा है और इस ग़लतफ़हमी को दूर करना मेरा कर्तव्य है।”
बंगाल के लोगों द्वारा हिंदी साहित्य में दिए गए योगदान पर प्रकाश डालते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने कहा : “मुझे आशा है कि आप मेरे ऊपर किसी मिथ्या दंभ या प्रांतीयतावाद का दोष नहीं लगाएँगे, जब मैं यह कहता हूँ कि हम बंगालियों ने हिंदी भाषी क्षेत्र के निवासियों को छोड़कर अन्य किसी प्रांत के निवासियों की तुलना में हिंदी साहित्य की अधिक सेवा की है। मैं यहाँ पर हिंदी प्रचार की बात तो कर ही नहीं रहा हूँ। मैं हिंदी प्रचार-प्रसार में स्वामी दयानन्द तथा उनके आर्यसमाज द्वारा किए गए कार्य को अधिक मान्यता देता हूँ। मैं महात्मा गाँधी द्वारा किए गए तथा किए जा रहे हिंदी प्रचार कार्य को भी जानता हूँ। मैं आपके सामने इसके केवल साहित्यिक पहलू को ही रखूँगा। क्या हिंदी भाषी लोग भूदेव मुखर्जी के बिहार में हिंदी भाषा तथा देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने में किए गए प्रयासों को भूल सकेंगे? क्या मुझे नवीनचन्द्र राय द्वारा पंजाब में हिंदी के लिए किए गए पावन कार्यों को याद कराना पड़ेगा? मुझे बताया गया है कि गत शताब्दी के आठवें दशक के शुरू में इन दो बंगालियों ने बिहार और पंजाब प्रांतों में अभूतपूर्व कार्य किया है-वह भी ऐसे समय जब इन दोनों प्रांतों के हिंदी भाषी लोग या तो विरोध कर रहे थे या फिर इस आन्दोलन के प्रति उदासीन थे। इसलिए यह ठीक ही है कि ये दो बंगाली उत्तर भारत में हिंदी आन्दोलन के अग्रणी माने जाते हैं। और मैं इंडिया प्रेस के मालिक श्री चिन्तामणि घोष द्वारा हिंदी साहित्य के लिए किए गए असीम कार्य का तो क्या ज़िक्र करूँ? मैं नहीं जानता कि किसी हिंदी भाषी प्रकाशक ने आधुनिक हिंदी साहित्य की सेवा के लिए इतना किया होगा, जितना इस अकेले बंगाली व्यक्ति ने। आप स्वर्गीय न्यायमूर्ति शरद चरण मित्र द्वारा किए गए प्रशंसनीय प्रयासों को जानते ही हैं जिन्होंने एक-वाशा-प्रतिहार परिषद नामक संस्था की स्थापना की थी तथा देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से देवनागरी में एक पत्रिका भी निकाली थी। ‘हितवार्ता’ के मालिक बंगाली थे और ‘हिंदी बंगवासी’ भी हमारे ही प्रांत के एक व्यक्ति द्वारा निकाला जा रहा है।
आजकल भी हम हिंदी भाषा के लिए थोड़ा बहुत कर ही रहे हैं। श्री अमिय चक्रवर्ती के कार्यों को भूल जाना कोरी अकृतज्ञता होगी, जो हिंदी पत्रकारिता में गत पाँच वर्षों से कठिन परिश्रम कर रहे हैं। श्री नागेन्द्रनाथ बसु ने विश्वकोश का हिंदी में अनुवाद कर तथा श्री रामानन्द चट्टोपाध्याय ने ‘विशाल भारत’ को छापकर हिंदी भाषा की अमूल्य सेवा की है। मैं उन अनेक पुस्तकों की तो चर्चा ही नहीं करूँगा जो बंगाली से हिंदी में अनूदित की गई हैं और जिन्होंने हिंदी भाषी व्यक्तियों के ज्ञान में भी काफी वृद्धि की है। मैंने यह सब बातें आपके सामने किसी घमंड अथवा मिथ्या अभिमान में नहीं कही हैं, वरन् मैं यह विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूँगा कि क्या इतनी बातें जानने के बाद भी कोई समझदार व्यक्ति हम बंगालियों को हिंदी विरोधी कह सकता है? हम अपनी मातृभाषा यानी बंगला को प्यार करते हैं और यह कोई पाप नहीं है।”
सुभाष बोस ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पैरवी के कारण बंगवासियों के मन में उत्पन्न बंगला भाषा के समाप्त हो जाने की आशंका को भी अपने इस भाषण में दूर किया तथा राष्ट्रभाषा की लिपि के सम्बन्ध में अपने निम्नलिखित विचार व्यक्त किए :
“हममें कुछ ऐसे हो सकते हैं जिन्हें डर है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार हमारी मातृभाषा बंगाली को समाप्त करने के अंतिम उद्देश्य से किया जा रहा है। यह डर निराधार है। जहाँ तक मैं जानता हूँ कि हिंदी प्रचार का एक ही उद्देश्य है कि अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी को लाया जाए। हम अपनी भाषा बंगाली को छोड़ नहीं सकते, जो हमें अपनी जननी से अधिक प्यारी है। विभिन्न प्रांतो के लोगों के साथ विचारों के आदान-प्रदान के लिए हमें अंतरराज्य भाषा के रूप में हिंदी सीखनी चाहिए। इतना ही नहीं, मैं विश्वास करता हूँ, स्वतन्त्र और स्वशासित भारत के युवाओं को एक या दो यूरोपीय भाषाएँ- फ्रेंच, जर्मन आदि सीखनी पड़ेंगी, जिससे कि वे अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं से पूर्णतया परिचित हो सकें। मैं इस प्रश्न को नहीं उठाऊँगा कि हम अपनी राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी या अंग्रेज़ी को अपनाएँ। मैं यहाँ महात्मा जी से सहमत हूँ कि हमें दोनों लिपियाँ सीखनी चाहिए- देवनागरी और उर्दू। जैसे-जैसे समय गुज़रता जाएगा दोनों में से जो भी उचित होगी वह राष्ट्रीय भाषा की लिपि के रूप में अपनी स्थिति मज़बूत कर लेगी। साधारण हिंदी और साधारण उर्दू में कोई अन्तर नहीं है। हमें इस मुद्दे पर झगड़ना नहीं चाहिए। वैसे भी और बहुत सी विवादास्पद समस्याएं हैं जिनका समाधान होना है, हमें उनकी संख्या नहीं बढ़ानी चाहिए।”
यहाँ सुभाष बाबू के भाषण के उपर्युक्त अंश में राष्ट्रभाषा की लिपि विषयक उनके विचारों के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि जहाँ इस भाषण में उन्होंने देवनागरी और उर्दू दोनों ही लिपियाँ सीखने की आवश्यकता बताई है, वहीं केवल एक दशक बाद ही उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी के लिए रोमन लिपि को अपनाने पर बल दिया था। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष के रूप में 1938 में हरिपुरा अधिवेशन में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था : “अंतिम समाधान और सबसे अच्छा समाधान एक ऐसी लिपि को अपनाना होगा जो हमें बाक़ी दुनिया के बराबर लाएगी। शायद, हमारे कुछ देशवासी रोमन लिपि को अपनाने के बारे में सुनकर भयभीत हो जाएँगे, लेकिन मैं उनसे अनुरोध करूँगा कि वे इस समस्या पर वैज्ञानिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार करें। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें तुरन्त एहसास होगा कि लिपि में कुछ भी पवित्र नहीं है।” उन्होंने अपने इसी भाषण में आगे कहा: “मैं स्वीकार करता हूँ कि एक समय था जब मुझे लगा कि विदेशी लिपि को अपनाना राष्ट्र-विरोधी होगा। लेकिन 1934 में मेरी तुर्की यात्रा मेरा दृष्टिकोण परिवर्तित करने के लिए उत्तरदायी थी। तब मुझे पहली बार एहसास हुआ कि बाक़ी दुनिया जैसी लिपि अपनाना कितना लाभकारी है।” तुर्की के नेता कमाल पाशा द्वारा तुर्की भाषा के लिए अरबी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि अपनाए जाने से सुभाष बाबू बहुत प्रभावित हुए थे।
जब 1943 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिंद सरकार बनाई तो हिन्दुस्तानी भाषा के लिए रोमन लिपि ही अपनायी थी। लेकिन यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि उन ‘असामान्य’ परिस्थितियों में आज़ाद हिंद फौज और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भारत के विभिन्न प्रांतों से जाकर बसे प्रवासियों हेतु रोमन लिपि में हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग करना आसान था। परन्तु जब भारत स्वाधीन होता और यदि नेताजी के नेतृत्व में पहली सरकार बनती और वे हिन्दुस्तानी भाषा के लिए रोमन लिपि अपनाने की बात कहते तो शायद ही वह भारतवासियों को स्वीकार्य होती। तुर्की भाषा की बात अलग थी। उसके पास अपनी कोई बेहतर लिपि नहीं थी। इसीलिए पहले उसने अरबी लिपि और बाद में रोमन लिपि अपनायी। हिंदी के पास हज़ारों वर्ष पुरानी देवनागरी लिपि थी। इसके अलावा तमिल सहित भारत की अन्य अनेक भाषाओं की भी अपनी लिपियाँ और और उनका बहुत पुराना साहित्य था। हिंदी के लिए रोमन लिपि के प्रयोग से अनेक समस्याएँ उत्पन्न होतीं। उदाहरणार्थ, वेदों की ऋचाओं को रोमन लिपि में शुद्धता के साथ लिखना-पढ़ना कठिन होता। भले ही उस समय देश की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी निरक्षर थी, लेकिन शिक्षित हिंदी भाषी लोग रोमन लिपि का अवश्य विरोध करते। कमाल पाशा की तरह नेताजी यदि मुसलमानों से उनके धार्मिक ग्रंथो के लिए अरबी भाषा के स्थान पर रोमन लिपि अपनाने के लिए कहते तो भारत के मुसलमान भी इस बात को कदापि स्वीकार नहीं करते। उस समय यदि बंगला अखबारों के ही मालिकों से कहा जाता कि वे अपने समाचार-पत्रों की भाषा बंगला रखते हुए उन्हें रोमन लिपि में प्रकाशित करें तो नेताजी के मातृभाषी भी ऐसा करने से इनकार कर देते।
इसलिए सुभाष बोस का लिपि के सम्बन्ध में 1928 में व्यक्त यह विचार ही अधिक सही था कि देशवासी देवनागरी और उर्दू दोनों ही लिपियाँ सीखें। उनमें से जिसकी स्थिति अधिक मज़बूत हो जाएगी वही राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी की लिपि बन जाएगी। आज़ादी से पहले बहुत से हिन्दू भी उर्दू लिखना-पढ़ना जानते थे। लेकिन 1947 के आने तक हिंदी भाषा काफी परिष्कृत हो चुकी थी। इसका साहित्य अत्यंत लोकप्रिय हो गया था और हिंदी भाषा उर्दू की तुलना में बहुत मज़बूत हो गई थी। इसलिए यदि आज़ादी के बाद नेताजी के नेतृत्व में सरकार बनती और राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी के लिए देवनागरी तथा उर्दू लिपियों में से किसी एक लिपि का चुनाव करना पड़ता तो वह लिपि निश्चित रूप से देवनागरी ही होती, क्योंकि उर्दू की जटिल फारसी-अरबी लिपि की तुलना में सरल देवनागरी को भारतीयों का कई गुना अधिक समर्थन मिलता। परन्तु वर्तमान में इतिहास के इन ‘अगर’ ‘मगर’ पर अधिक चर्चा करने का कोई औचित्य नहीं है।
अब हम सुभाष चन्द्र बोस द्वारा 1928 में कलकत्ता में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में दिए गए भाषण की ओर लौटते हैं जिसमें उन्होंने महात्मा गाँधी तथा हिंदी भाषी लोगों से बंगाल के युवाओं को हिंदी सिखाने में सहयोग की अपील करते हुए कहा था: ” हिंदी प्रचार के कार्य में मदद करने के लिए मैं आपसे, महात्मा जी से तथा अन्य हिंदी भाषी लोगों से निवेदन करूँगा कि हमें बंगाल और असम में वे सब सुविधाएँ प्रदान करें जो आपने मद्रास प्रांत में उपलब्ध कराई हैं। आप बंगाल के युवाओं और कार्यकर्ताओं के लिए हिंदी प्रशिक्षण का कोई स्थाई प्रबन्ध कर सकते हैं। अकेले कलकत्ता में हिंदी सीखने के इच्छुक अनेक नवयुवक हैं, लेकिन अध्यापक नहीं हैं। बंगाल कोई धनवान प्रांत नहीं है और यहाँ के छात्र हिंदी सीखने के लिए कुछ खर्च करने की स्थिति में नहीं है। यदि कलकत्ता के समृद्ध हिंदी भाषी व्यक्ति बंगाल के युवाओं को हिंदी सिखाने की सोचें तो उनके लिए यह कोई कठिन कार्य नहीं है। आप बंगाली छात्रों को छात्रवृत्ति देकर उन्हें हिंदी प्रचारक बना सकते हैं। आप हमें चार-पाँच महीनों में बोलचाल की हिन्दुस्तानी सिखा सकते हैं और उसका कोई प्रमाण-पत्र दे सकते हैं। आपको अपनी छात्र-सूची में मुझ जैसे व्यस्त व्यक्तियों को भी सम्मिलित करना होगा। हम जो श्रम आन्दोलन में भाग लेते हैं, रोज़ाना हिन्दुस्तानी सीखने की आवश्यकता महसूस करते हैं। हिन्दुस्तानी के मामूली ज्ञान के बिना हम उत्तर भारत के श्रमिकों के दिलों तक नहीं पहुँच सकते हैं। यदि आप हिंदी सिखाने का कुछ प्रबन्ध कर सकते हैं तो मैं आश्वस्त कर सकता हूँ कि हम आपके आयोग्य छात्र सिद्ध नहीं होंगे। अंत में मैं बंगाल के युवाओं से हिंदी सीखने की अपील करता हूँ। जो इसके लिए कुछ खर्च कर सकते हैं वे अवश्य करें। अंततः इस प्रांत के लोगों पर हिंदी प्रचार का सुखद बोझ होगा, लेकिन वर्तमान में यह आवश्यक है कि हिंदी भाषी प्रांत हमारी मदद के लिए आगे आएँ। मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि कितने आदमी हिंदी सीखते हैं। मैं इस आन्दोलन में अंतर्निहित भावना की प्रशंसा करता हूँ। इसकी वृद्धि के लिए पैनी दूरदृष्टि और पूर्व नियोजन की आवश्यकता है जो काफ़ी समय गुज़रने के बाद सुखद परिणाम देगी।”
अपने भाषण के अंत में राष्ट्रभाषा के लिए हिंदी का महत्त्व बताते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने कहा: “प्रांतीयतावाद तथा अन्तरप्रांतीय द्वेषभाव को मिटाने में और कुछ इतना मददगार नहीं हो सकता जितना कि राष्ट्रीय भाषा का यह आन्दोलन। हमें अपनी प्रादेशिक भाषा का विकास भी यथासंभव करना चाहिए। इसमें कोई हस्तक्षेप भी करना नहीं चाहता। वास्तव में हम किसी तरफ से कोई हस्तक्षेप सहन भी नहीं कर सकते, जहाँ तक हमारी अपनी मातृभाषा का प्रश्न है। लेकिन यह हिंदी या हिन्दुस्तानी ही है जिसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देना होगा। नेहरू रिपोर्ट में भी यही सिफारिश की गई है। यदि हम बंगाल में हिंदी प्रचार के कार्य में अपना तन और मन लगा दें तो हम नि:संदेह सफल होंगे और वह दिन दूर नहीं जब हिंदी स्वाधीन भारत की राष्ट्रीय भाषा होगी।”
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रणजीत पांचाले, बरेली, उत्तरप्रदेश