भारतीय संत साहित्य अत्यंत समृद्ध और क्रांतिकारी है। सभी संत कवि, चाहे वे दक्षिण के हों या उत्तर भारत के, तत्कालीन समाज व्यवस्था के अन्तर्विरोधों पर लिखते हुए एक वैकल्पिक संसार के निर्माण की बात करते हैं। सभी संत कवि भारतीय समाज के अंतिम पायदान के हैं-या यूँ कहें ये सभी अस्पृश्य, निचली जाति या और भी स्पष्ट रूप से कहा जाए तो ये सभी कामगार जातियों से आए हुए खुद भी श्रमिक हैं।
प्रश्न यह उठता है कि क्या इन सभी संतों को दलितों की श्रेणी में रखा जा सकता है? इतिहास की ओर हम सायास मुड़कर कुछ परीक्षण करना चाहेंगे। यह तथ्य है कि दलित साहित्य का प्रारंभ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के ’मूक नायक‘ के समय ही हो गया था, लेकिन वास्तविक अर्थ में दलित साहित्य खास तरह की प्रवृत्तियों के साथ सातवें दशक में मराठी साहित्य में आया। वास्तविकता यही है कि यह दलित चेतना अंबेडकरवादी जीवन दर्शन से और सामाजिक संघर्ष से ऊर्जा प्राप्त कर साहित्यक अभिव्यक्ति के रूप में परिवर्तित हुई। यह दलित चेतना यथास्थिति को, विकल्पहीनता की नियति को और ब्राह्मणवादी वर्चस्व को पूरी तरह नकारती है।
हिन्दी में दलित साहित्य के परिचय का श्रेय कमलेश्वर को जाता है। उन्होंने ’सारिका‘ में मराठी के दलित रचनाकारों को लेकर दलित साहित्य विशेषांक निकाला था। इस विशेषांक के माध्यम से ही हिन्दी क्षेत्र के लोग दलित लेखन की शक्ति का परिचय प्राप्त कर सके थे। इस दलित चेतना को दलित-विमर्श बना देने का श्रेय ’हंस‘ के वर्तमान संपादक राजेन्द्र यादव को जाता है। उन्होंने 31 जुलाई 1992 को प्रेमचंद के जन्म दिवस के अवसर पर दलित चेतना पर गोष्ठी का आयोजन किया था जिसकी चर्चा लंबे समय तक हिन्दी में चली।
उपर्युक्त संदर्भ का सीधा अर्थ यह है कि दलित चेतना और दलित-विमर्श ये दोनों ही नए साहित्यिक संदर्भ हैं जिन्हें भारतीय संत कवियों पर थोपा नहीं जा सकता। इस छोटे से निवेदन के साथ हम यह रेखांकित करना चाहेंगे कि भारतीय साहित्य के संत कवियों से दलित चेतना को जोड़ना इतिहास के चक्र को उलटी दिशा में मोड़ने जैसा है। लेकिन दलित-विमर्श के लिए जब जड़ों की तलाश शुरू होती है तो अनायास ही हमें सिद्धों और नाथ कवियों के वर्ण-व्यवस्था के विरोध में ढेर सारे सूत्र मिल जाते हैं। सिद्ध कवियों की संख्या अमूमन 84 मानी जाती है जिनमें 37 तथाकथित शूद्र वर्ण के हैं। इन सबों ने ऊँच-नीच, छुआछूत और अंधविश्वासों का पुरजोर विरोध किया। दलित साहित्य के आक्रोश का बीज-बिन्दु हम सरहपाद की रचनाओं में आसानी से ढूँढ़ सकते हैं। सरहपाद ने अपने समय में प्रचलित सभी साधनाओं की आलोचना की थी। उनका कहना है कि– “ब्राह्मणों को रहस्य का ज्ञान नहीं, वे व्यर्थ का वेदपाठ किया करते हैं : मिट्टी, जल और कुश लेकर मंत्र पढ़ा करते हैं, और घर के अंदर बैठे होम के कड़ुवे धुएँ से अपनी आँखों को कष्ट दिया करते हैं। वे परमहंस बनकर देश में उपदेश देते फिरते हैं और उचित-अनुचित का भेद न समझते हुए भी ज्ञानी होने का ढोंग रचा करते हैं।”(सरहपाद का दोहाकोश, पृष्ठ14-17)
इन सिद्धों और नाथों की परंपरा ही भक्तिकाल के संतों तक आती है। भक्तिकाल के प्रायः सभी संत कवि निचली जातियों से आते हैं। कबीर, रैदास, नामदेव, सेन, पीपा आदि के नाम महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी संतों ने रूढ़िवाद, पाखंड, अंधविश्वास और वर्णव्यवस्था पर जमकर प्रहार किया। रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा के रामानंद ने धार्मिक एकाधिकारवाद और छुआछूत का खुलकर विरोध किया था। यह विरोध जाति-प्रथा के विरोध से जुड़ा हुआ था। आगे चलकर कबीर, रैदास तथा दूसरे संत कवियों ने भक्ति के क्षेत्र में नए प्रयोग किए और पहली बार भक्ति और सामाजिक यथार्थ के बीच द्वंद्वात्मक संबंध स्थापित किए और भक्ति को एक धार्मिक-सांस्कृतिक विद्रोह का रूप दिया। यह भक्ति की लहर ही थी जिसने पढ़े-लिखे और निरक्षरों के बीच की दूरी कम की। काव्य-भाषा और जन-भाषा का भेद मिटाया। डा॰ शंभुनाथ कहते हैं– “यह भक्ति लहरों का ही असर था कि कबीर निरक्षर भले हों अशिक्षित न थे, तुलसी पंडित भले हों पंडित वर्ग के न थे।”
जिस समय संत साहित्य की रचना हो रही थी उस समय और समाज के यथार्थ की अभिव्यक्ति इन कवियों की वाणी में हो रही थी। प्रायः निचली जाति से आए हुए लोगों का जोत पर मालिकाना हक नहीं था। सामंतों और सिपहसालारों के बीच किसानी से जुड़े हुए लोग कई तरह के शोषण के शिकार थे। निचली जातियों के लोग प्रायः मेहनत-मजदूरी पर आश्रित थे। बाजार का विस्तार हो गया था। सिक्कों का चलन शुरू हो चुका था और विनिमय का तरीका बदल चुका था। प्रायः सभी संत कवि शिल्प और दस्तकारी से जुड़े हुए थे। कबीर बुनकर थे। कपड़ा बुनते थे और कपड़ों के गट्ठर के साथ जगह-जगह फैलते बाजार तक पहुँचते थे। कबीर की साखियों में आया ’हाट‘ शब्द इस ओर सहज ही हमारा ध्यान आकर्षित करता है। बाजार के सारे छल-छद्म से कबीर परिचित थे। कबीर ने ’माँगन‘ को ’मरन‘ समान कहा है। राजस्थान के कवि लालदास भी कहते हैं–
लाल जी साधु ऐसा चाहिए धन कमाकर खाय।
हृदय हर की चाकरी पर घर कबहूँ न जाए।
बाजार का विस्तार होने के कारण शिल्प और दस्तकारी की काफी तरक्की हो रही थी। इसके फलस्वरूप समाज में हिंसा के अतिरिक्त विलासिता और दिखावा की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी। इसलिए प्रायः सभी संतों ने अपनी वाणी में सादगी पर जोर दिया। लुभावने बाजार से पैदा हुई कृत्रिम छाँव पर नियंत्रण की बात कही। संत साहित्य में यह माया प्रलोभनों का ही प्रतीक है। काम-पिपासा, क्रोध, मद, इच्छा और ईर्ष्या—संत साहित्य में यही माया है, यही भ्रम है। संत कवियों ने इन बंधनों को तोड़कर अपने युग की सच्चाई और यूटोपिया का साक्षात्कार किया।
संत साहित्य का पूरा समय युगान्तरकारी था। पाँच शताब्दियों के दमन के बाद सामंती और ब्राह्मणिक वर्चस्व छिन्न-भिन्न हो रहा था और श्रमिक वर्ग से आए संत ब्राह्मणिक विचारधारा के खिलाफ गंभीर चुनौती का सृजन करने लगे थे। इसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। संत कवि प्रभु वर्ग के लिए बड़ी चुनौती थे। आज के हिन्दू फासीवादी शक्ति के मूल प्रेरणा स्रोत और वर्णाश्रम धर्म के पोषक गोस्वामी तुलसीदास इन संतों से सबसे अधिक क्षुब्ध थे। उनके अनुसार ये तेली, कुम्हार, चांडाल, भील, कोल, कलवार आदि अधम जन्मा लोग ही थे जो सगुण की अपेक्षा राम नाम का जप करते हुए पुराण और वेद की प्रामाणिकता में अविश्वास करते थे।
आदि संत कवि कबीर जुलाहा थे। संत सेन नाई जाति में उत्पन्न हुए थे जो शताब्दियों से इतनी नीची मानी जाती है कि कोई सवर्ण नाई कहे जाने को गाली की तरह मानता है। रैदास चमार थे। सन् 1935 ई॰ में गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट के अधीन आर्डर इन कौंसिल में भारत के विभिन्न प्रांतों की अछूत मानी जाने वाली 429 जातियों का उल्लेख है। कौंसिल आदेश के अनुसार नट और धोबी देश के कुछ ही हिस्सों में अछूत माने जाते हैं जबकि चमार सारे भारत में अछूत माने जाते हैं। मृत पशुओं को उठाना और चमड़े आदि का व्यवसाय करना इनका पेशा था। रैदास कहते हैं– “मेरी जाति कुट-बाँधला ढोर ढोवता नित ही बानारसी आसा-पासा।”
संत कमाल जुलाहा कबीर के पुत्र थे। धर्मदास बनिया जाति में उत्पन्न हुए थे। दादू धुनिया थे। संत वशना जी मीरासी थे। दादू पंथी गरीबदास दादू के औरस पुत्र थे। वे भी धुनिया थे। भीखन जी सामाजिक दृष्टि से अतिहीन माने जानेवाली महापात्र(कंटहा ब्राह्मण) जाति के थे। घुला साहब कुनबी या कुर्मी थे और संत हुलाल साहब के यहाँ हलवाई का काम करते थे। दीन दरवेश लोहार थे। मारवाड़ वाले संत दरिया साहब धुनिया थे और बिहार वाले दरिया साहब मुसलमान परिवार में पैदा हुए थे। संत चरनदास, सहजोबाई और दयाबाई का जन्म वैश्य कुल में हुआ था। संत रामचरण बीजावर्गीय वैश्य थे और पलटू साहब कांदू नामक अस्पृश्य बनिया जाति में पैदा हुए थे। कबीर के पूर्ववर्ती संतों में संत सधना जाति के कसाई थे, संत त्रिलोचन वैश्य थे। कश्मीर की महिला संत लालदेद मेहतर नामक अतिहीन जाति में और मराठी संत नामदेव छींपी नामक वयनजीवी जाति में पैदा हुए थे। सर्वस्वीकृत रूप से नीची जाति में उत्पन्न इन संतो के अतिरिक्त और भी अनेक संत हुए जो प्रायः नीची कही जाने वाली जातियों में पैदा हुए थे। संत धन्ना और गरीबदास जाट थे। संत सुंदरदास(छोटे) खंडेलवाल वैश्य जाति में, सींगा जी ग्वाल जाति में और धरनीदास बिहार की कायस्थ जाति में पैदा हुए थे।
ये सारे के सारे संत अपने को न हिन्दू मानते थे और न मुसलमान। वे वेद के प्रति अनास्थाशील थे, ब्राह्मण को महत्त्व नहीं देते थे, ब्राह्मणवादी कर्मकांड का निषेध करते थे, वर्ण व्यवस्था के कट्टर विरोधी थे, देवी-देवताओं की पूजा इन्हें मान्य नहीं थी। ये सारे संत कवि दरअसल उन तबकों से आए थे जिन्हें आज तक अछूत कहा जाता है। यद्यपि सारे कवि अस्पृश्य या शूद्र या पिछड़ी जातियों से आए थे, फिर भी हिन्दी प्रदेश के पूरे संत साहित्य का संकीर्ण सांप्रदायिक विभाजन हो गया। दादूपंथियों ने कबीर को तिलांजलि दे दी, कबीरपंथियों ने दादू को। कबीरपंथी रैदास का नाम नहीं लेते थे दूसरी ओर रैदासपंथी कबीर का नाम। संपूर्ण भारतीय समाज में संत कवियों के प्रति आदर का भाव तो रहा लेकिन संत-परंपरा अवरुद्ध हो गई और विभिन्न कर्मकांडों में यह फंस गई तथा इसकी सकारात्मक गतिशीलता रुक सी गई।
आज का दलित साहित्य अपने लिए खाद और पानी इसी संत साहित्य की सकारात्मकता से प्राप्त कर रहा है। यहाँ भी कई धाराएँ फूटती हुई दिखाई पड़ रही हैं। एक धारा गतिशील है तो दूसरी धारा प्रतिगामी धारा की ओर बढ़ती हुई दिखाई पड़ रही है। पूरे संत साहित्य में जिस तरह के वैचारिक संघर्ष हैं वे समकालीन दलित साहित्य में भी दिखाई पड़ते हैं। एक ही विमर्ष में अलग-अलग विचारधाराओं की टकराहट इसकी जीवंतता और प्राणशक्ति को दिखलाती है। जहाँ वैचारिक संघर्ष नहीं है वहाँ गतिरुद्धता आती है और साहित्य कई तरह की संकीर्णतावादी विचारों का शिकार हो जाता है। दलित साहित्य में काफी अंतर्संघर्ष है इसलिए यह सतत विकसनशील और ऊर्जावान साबित हो रहा है।