– रामचंद्र ओझा
मित्रों,
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कभी हिंदू -हिंदी के या भारत के अवसान पर रुदन किया था, वही रुदन हममें से कई विद्वान आज भी कर रहे हैं। हिंदी भाषा से प्रेम और उन्नयन की बातें! नव जागरण की बातें!!
अपनी भाषा से प्रेम होना चाहिए, सवाल वाजिब है। अपनी भाषा से प्रेम स्वभावत: होता भी है, जब तक कोई हीन भावना से ग्रसित न हो और इससे मुक्ति के लिए कृत्रिमता ओढ़ न रखी हो।
किंतु यह भी कैसे कहें, बहुत से अंग्रेजी भाषा के प्राध्यापकों ने हिंदी को बेतरह समृद्ध किया है। नाम लेना प्रासंगिक नहीं।
किंतु एक बात पारे की तरह साफ है कि हिंदी या भारतीय भाषाओं में रचनात्मक साहित्य का जो स्तर है, वह ऊंचाई विचारों का नहीं है। वैचारिकी जिसे हिंदी में आलोचना का नाम दिया गया है वह अंग्रेजी के मुकाबले दरिद्र है।
परिणाम स्वरूप, सिद्धांतों के लिए हिंदी का लेखक-पाठक बाहरी अन्य भाषाओं की ओर टकटकी लगाए रहने के लिए मजबूर है। देरिदा, बार्थ, फूको का नाम जिस प्रतिष्ठा से लिया जाता है, उस प्रतिष्ठा से भरत मुनि, अभिनव गुप्त, आनंद वर्धन और कुंतक का नहीं लिया जाता है ।
हिंदी में आलोचक तो बहुत हुए, पर ढूंढ़ कर देखें कि किसी ने क्या कोई मौलिक विचार दिए हैं? और क्या वे स्तरीय भी हैं। यदि नहीं तो फिर हिंदी का पाठक कहां जाए!
कविता और लघु कथाओं को यदि दरकिनार कर दिया जाए तो उपन्यास के क्षेत्र में हमारी रचनात्मक उपलब्धियां बाहरी साहित्य के आगे मुंह चुराती हैं। अपवाद तो होते ही हैं।
खास बात यह कि भारतीय भाषाओं और खासकर हिंदी लेखन में स्पष्टता का घोर अभाव है। लंबे-लंबे आलेख पढ़ जाइए किंतु यह समझ में नहीं आएगा कि बंदा कहना क्या चाहता है!
क्या यह सब पूंजी के कारण है? पूंजीवाद यदि न रहे तो सब ठीक हो जाएगा? पूंजीवाद यदि गड़बड़ है तो क्या समाजवाद के आते ही, भाषा स्वत: उन्नत हो जाएगी? यह कथन चोर को न्यायालय में भेजने की बजाय खाप पंचायत से सजा देने और पीट-पीट कर मार डालने जैसा है।
रूस में समाजवादी व्यवस्था के बाद कहां कोई दूसरा टाल्सटाय, दोस्तोवस्की और तुर्गनेव पैदा हुआ। गोर्की और लूशुन भी तो पैदा नहीं कर सके समाजवादी।
वाम-दक्षिण के चश्मे से देखना और एक दूसरे पर हिंदी के अवसान के कारणों को थोप देना कोई अक्लमंदी नहीं है।
पूंजीवाद कोई आसमान से नहीं टपका है, यह भौतिकवादी जीवन दृष्टि का स्वाभाविक अनुगमन है। वैचारिक अवसान इस हद तक है कि हम अपने सवालों को ठीक से चिन्हित भी नहीं कर पा रहे हैं। समस्या का समाधान सवालों को सही रूप या सूत्र में ढालने से होता है। केवल शब्दजाल बुनकर इसका निदान नहीं ढूंढ़ा जा सकता।
आधुनिकता की चकाचौंध के आगे हमने घुटने टेक दिए हैं तथा उनकी बेदी पर भाववादी और आध्यात्मिक जीवन की बलि दे दी है। दोनों में साम्य हो सके, ऐसा भी कोई वैचारिक खाका हमने तैयार नहीं किया है।
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रामचंद्र ओझा, रांची।