*रहने लायक़ जगह*
यह जगह रहने लायक़ नहीं है
कुछ लोगों ने सहमकर कहा
चींटियाँ जो अपने बिल में थीं
यह सुनकर बेतरह चिहुँकीं
जैसे किसी ने उनके रहवास पर तंज़ कस दिया हो
बिल में बारिश का पानी भर रहा था
लेकिन वे कहीं और जाने के ख़िलाफ़ थीं
अपनी देह को सिकोड़कर
वे एहतियात से इधर-उधर हो रही थीं
यही हाल चौगिर्द रह रहे सर्पों का था
जिनके पास कान नहीं थे
मगर वे अपनी त्वचा से
बख़ूबी ग्रहण कर लेते थे पास की आवाज़ें
उन्हें अपने बँबीठों से बेतहाशा प्यार था
जहाँ से वे प्रायः
अपनी केंचुल उतारने के लिए बाहर आते थे
हल वग़ैरह की नोंक के ख़तरों के बावजूद
उनकी मादाएँ वहीं अंडे देकर मग्न थीं
वे यह सुनकर अचरज में आ गये थे
कि पुरखों के बनाये निवास स्थान
हड़बड़ी या घबड़ाहट में छोड़े भी जा सकते हैं
पखेरू जिनके पेड़ कट रहे थे
हिरन जिनके तमाम जंगल लपटों में थे
घोड़े जिनके अस्तबल छोटे हो गये थे
बैल जिनकी नाद में चारा नहीं बचा था
बकरियाँ जिन्हें गाँधी ने इज़्ज़त बख़्शी थी
मुर्ग़ियाँ जिनके अंडे विश्वविख्यात हो चुके थे
अपनी-अपनी जगह बचाकर रखने की फ़िक्र में थे
इन सबसे अनजान एक कुत्ता
जिसकी खाज दिन में मक्खियों से भरी रहती थी
एक बुझी हुई भट्ठी में बेख़ौफ़ सो रहा था
*बिछुड़कर*
अपने चेहरे पर
टूटकर गिरे इस पत्ते का
मैं क्या करूँ
इसे पेड़ को लौटा दूँ
या सटा दूँ किसी बछड़े के थूथन से
या पहुँचा दूँ
पिंजड़े में बन्द किसी तोते के पास
छूट गया है जिसकी पसन्द का गाछ
इतिहास के किसी कोने में
यह पत्ता
हारिल के रँग से बना है
या पृथ्वी के सारे हीरामन
पत्तों के रँग में रँगकर ही
आये हैं अंडों से बाहर
इसकी शिराएँ
मेरी हथेली में प्रवेश कर रही हैं
जैसे मेरी हथेली में नमी है
इससे भी ढुलकी होगी कभी
रुक-रुककर ओस
इसके इस तरह गिरने से
कम हो गयी होगी एक शाख़ के पास
पत्ते-भर हवा
इतनी ही फरफराहट
कम-से-कम इतनी ही छटा
कम हो गयी होगी
इसके टूटने से
लगभग बालिश्त-भर वसन्त की सम्भावना
पेड़ में
लेकिन इसने
अपनी टहनी से बिछुड़कर
एक किसलय को जगह दी है
*मनोवृत्तियाँ*
लालसा अगर फूल होती
तो उसका रंग लाल होता
प्रतीक्षा के पुष्प श्वेत होते
प्रेम जिस रंग का भी होता गाढ़ा होता
उल्लास बिल्कुल सरसों के फूल-सा दिखता
विषाद भूरा या धुमैला होता
निष्क्रियता ज़ंग जैसी नज़र आती
और यक़ीन पृथ्वी की तरह हरा होता यक़ीनन
तुझे कैसे बताऊँ मेरे ज़िद्दी समय
सारी मनोवृत्तियाँ काली नहीं होतीं
*सरलतम*
हमारे अन्दर मेज़ से अधिक दराज़ें हैं
हमारे भीतर क़िलों से अधिक तहख़ाने हैं
हम अनगिनत बावड़ियाँ लिये डोलते हैं
हम झाड़ियों से पटा मैदान हैं
हम गर्तों पर्तों शर्तों का सच हैं
हमारे अन्दर गुफाओं की भरमार है
हमारे भीतर ढूहों की पाँतें हैं
फिर भी हम सरलतम हैं
गोकि कोई हमसे टूटकर प्यार करता है
*काग़ज़ की तरह*
कई बार हमने
काग़ज़ की तरह इस्तेमाल कीं
अपनी गदेलियाँ
उन पर लिखे
मोबाइल नम्बर
दोस्तों के पते
एक लड़की का नाम
सौदा-सुलुफ़
कभी-कभी नक़ल की सामग्री
एकाध गुपचुप संदेसा
आत्मरति या दुःखहीनता के पलों में
हमने उन पर
फूल और पत्तियाँ भी बनायीं
कभी-कभार सूर्यमय पहाड़ियाँ भी
मगर हाथों के पसीजते ही
सब कुछ मिट गया
सब कुछ हल्का कर दिया
नमी ने
पसीने ने
एक ग़ैरज़रूरी वाशबेसिन ने
दोस्तों की टोकाटाकी ने
सब कुछ धुँधला कर डाला
कुछ अनागत शामों ने
रेलिंग को पकड़कर
सीढ़ियाँ चढ़ने के लमहों ने
दुनिया से अपना लिखा
छिपाने की फ़िक्र ने
हाथ देखने वाले ज्योतिषी के पास
जाने की तैयारी ने
हाथ और आत्मा को
साफ़ रखने की मजबूरी ने
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सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी, लखनऊ