इस दुनिया में वह सब कुछ सच की तरह किया जा सकता है जो असल में झूठ और मिथ्या है। इसी को प्राय: दुनियादारी या व्यावहारिकता कहते हैं। आप उस व्यक्ति से कतई प्यार नहीं कर सकते जो आपसे प्यार न करता हो। आप उस व्यक्ति के कभी मित्र नहीं बन सकते जो आपका मित्र बनना न चाहता हो। लेकिन इस तरह का प्यार और मित्रता के ढकोसले करते सभी देखे जाते हैं।निरीक्षण करें तो सभी लोग एक-दूसरे से मिलते, बाते करते और एक-दूसरे के साथ रहते देखें जाते हैं लेकिन असल में यह सब सच नहीं है। पक्ष और विपक्ष में तुरंत परिवर्तित हो जाते हुए लोग हमें अपनी अच्छी दुनिया होने का संकेत बिलकुल नहीं देते। मैंने कई बार यह अनुभव किया कि जैसे ही आप किसी के विचारों से सहमत या मनोनुकूल व्यवहार करते हैं तो वह आपको अच्छा मनुष्य मानता है और जैसे ही आप उससे असहमत और प्रतिकूल व्यवहार करते हैं तो वह तुरंत आपसे दूरियां बना लेता है और आपको बुरा व्यक्ति मानता है। ऐसा क्यूँ है मेरे समझ में नहीं आया। इस तरह परस्पर अच्छा और बुरा व्यवहार करने के मामले में मैंने लोगों में कोई स्टैंडर्ड नहीं देखा है। इस प्रकार से नितांत स्तरहीन लोगों में रहना बड़ी विवशता बन जाती है। क्या यह विवशता ही सामाजिकता है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। जिस समाज में रह रहे हो यदि उसका कोई सामाजिक शास्त्र आपके समझ में नहीं आ रहा हो तो आपको समझ जाना चाहिए कि आप एक असामाजिक परिवेश में रह रहे है। ऐसे असामाजिक परिवेश में आपको सबसे बुरा और बिगड़ा हुआ आदमी अधिक प्रतिष्ठित और प्रगति करता हुआ दिखेगा और सबसे अच्छा और सुधरा-सुलझा हुआ आदमी नित्य संघर्षरत और पीड़ित दिखायी देगा। मैं गरीब और अमीर आदमी की बात ही नहीं कर रहा हूँ और न ही मैं इस परिवेश को कलियुग कह रहा हूँ।
प्रतिष्ठा की चाह भी बड़ी बुरी बला है। इसकी प्राप्ति के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते। जिसे प्रतिष्ठित होना है या होने की चाह है वह खुद कुछ नहीं कर सकता। प्रतिष्ठा देनेवाले यह तय करेंगे कि उसकी प्रतिष्ठा के वास्तविक आधार क्या हो। मेरे कॉलेज के एक प्रिंसिपल जो पहले केवल अध्यापक थे जब प्रिंसिपल बने तो मैंने देखा कि जैसे वे अपने कार से उतरें तो एक चपरासी उनकी अटैची या बैग लेने दौड़ा। यह उनका नित्य का क्रम हो गया। सेवानिवृत्त होने के बाद भी जब वे कभी कॉलेज आते तो पूरा टीचिंग और नोनटीचिंग स्टाफ उनके अदब में झुक जाता। उनकी सेवा में लग जाता। उनसे सलाह ली जाती। अब यदि लोग ऐसा न करें तो वह प्रतिष्ठा कैसी?पर लोग भी क्या? जैसे ही वे चले जाते लोग उनकी निंदा करते। अब यह कौनसी प्रतिष्ठा हुई? लेकिन उनको असलियत का पता हो तब ना?
कुछ दिनों पूर्व मैं अपने नाई के पास यानी सलून में गया था। थोड़ी देर बाद उसे अपने औजारों को लेकर कही जाना पड़ा। मैंने जिज्ञासावश पूछा कि भाई किसी वृद्ध या बीमार व्यक्ति की कटिंग करने जा रहे हो? तो उसने कहा कि नहीं। नगर के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं जो सलून में नहीं आते। वे घर बुलाते हैं। मैं भी घर जाकर हजामत करता हूँ और कुछ ज्यादा ही पैसे लेता हूँ लगभग डबल।सलून में आकर हजामत करने में उन्हें संकोच या शर्म जैसा कुछ महसूस होता है। आश्चर्य हुआ कि आज भी देश में ऐसे लोग हैं। मेरे कॉलेज में ऐसे ही राजकुल के कुछ लोग प्रोफेसर थे। उन्हें नियमित मस्टर पर साइन करना अपने प्रतिष्ठा के विरुद्ध लगता था। वे आठ दिन में या पंद्रह दिन में अपने टेबल पर किसी चपरासी द्वारा मस्टर मँगाते थे और फिर साइन करते थे। मास्टर उनके पास आता था वे नहीं जाते थे। उन्हें प्राय: नियमित पढ़ाना भी अपने प्रतिष्ठा की विरुद्ध प्रतीत होता था परंतु वेतन प्राप्त करना उन्हें अपना जन्मसिद्ध अधिकार लगता था।
अजीब ही बात है। ऐसे प्रतिष्ठित लोगों को मैंने देखा और देख रहा हूँ। यह प्रतिष्ठबोध उनकी नई कच्ची पीढ़ी में भी कूट कूट कर भरा हुआ है। उनके देखादेखी इस प्रतिष्ठा की भावना अन्य छोटी-मोटी जातियों के लोगों में भी पनपते हुए मैंने देखी है। यह एक ऐसा जटिल सामंती संस्कार है कि देश को यह समझने ही नहीं दे रहा कि देश स्वतंत्र हुआ है और अब इस देश में लोकतंत्र है और राजा-महाराजाओं का युग खत्म हो चुका है। इस देश की आम जनता भी राजा-महाराजाओं के जैसे जीवन जीना चाहती है।
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कुबेर कुमावत, महाराष्ट्र