(1) गोवर्धन यादव. (से.नि.पोस्टमास्टर.H.S,G.1) अध्यक्ष म.प्र.रा.भा.प्रचार समिति, छिन्दवाड़ा(म.प्र.)480001
(2)) सुश्री देवी नागरानी (से.निवृत्त.शिक्षिका) न्यु जर्सी (अमेरिका.)
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यादों के गलियारे से होते हुए आज रायपुर की याद ताज़ा हुई है, जहाँ लघुकथा पर पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न हुआ. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दो दिवसीय सृजन सम्मान कार्यक्रम चलता रहा, एक ऐतिहासिक स्मरणीय कुंभसा रहा,जहाँ पर विश्व के साहित्यकार भाग लेकर लघुकथा की विषय-वस्तु, उसके शिल्प, कला-कौशल, आकार-प्रकार, वर्तमान और भविष्य की बारीकियों को जानते और परखते रहे। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री केसरीनाथ त्रिपाठी थे व मंच की शोभा बढ़ाते रहे. श्री कमलकिशोर गोयनका, विशिष्ट अतिथ वरिष्ठ कवि व छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक श्रीविश्वरंजन, श्रीविश्वनाथ सचदेव, संपादक नवनीत, मुंबई से, श्री मोहनदास नैमिशराय, मेरठ से, सुश्री पूर्णिमा वर्मन,- शारजाह से, श्रीकुमुद अधिकारी नेपाल से, श्री रोहित कुमार हैपी न्यूजीलैंड से, मैं न्यूजर्सी से. इन दो दिनों में अनेक और साहित्यकारों से मुलाक़ात हुई जिनमें विशेष थे लघुकथा गौरव सम्मान प्राप्त श्री गोवर्धन यादव जी. उन्होंने मुझे अपना एक कहानी संग्रह “ तीस बरस घाटी” दिया, और इसी शीर्षस्थ कहानी पर मैंने, छ: बरस बाद अपनी सिन्धी भाषा में अनुवाद की और उसे ‘अपनी धरती’ नामक संग्रह में शामिल की.
श्री गोवर्धन यादव जी साहित्य के पथ पर एक समर्पित कलमकार है, जिनकी निष्ठा उनके साहित्य के विस्तार में मिलती है. उनके लेखन में वो धार है जो एक समर्पित कलम के सिपाही की पहचान बन जाती है. यह उनके लेखन कला की विशेषता है जो लिखे हुए को पढ़ते ही एक सजीव विवरण सामने तैरने लगता है. वे एक बेहतरीन समीक्षक भी है, यह तब जाना मेरे कहानी व ग़ज़ल संग्रह पर उनकी सिन्धी साहित्य को लेकर लिखी समीक्षाएं सामने आईं. आज आठ बरस बाद उनसे रूबरू होते हुए कई सवाल उनके साहित्य-सफ़र के बारे में जानने के लिए मन में कुनमुनाने लगे हैं. तो आइये उनकी जुबानी सुनते है उनके साहित्यक सफरनामे का सच:
प्रश्न – गोवर्धन जी आप हिंदी के एक स्थापित लेखक हैं, यह बताएं कि लिखने के लिये आपने पहली बार कब कलम उठाई?
उत्तर; लगभग चौदह-पन्द्रह वर्ष की उम्र से ही मैंने कविता लिखना शुरु कर दिया था. तब शायद मैं नहीं जान पाया था कि कविता आखिर होती क्या है?. एक लयबद्ध शब्द-श्रृंखला की अनुगूंज भीतर चलती रहती और मैं उन्हें जस का तस कागज पर उतार दिया करता था. श्री एनलाल जी जैन जो हमें संस्कृत पढ़ाया करते थे, एक कुशल कवि के रुप में विख्यात थे. कापी की जांच के दौरान उन्हें मेरी कापी के पृष्ठ-भाग पर लिखी एक कविता नजर आयी. उन्होंने उसे सिर्फ़ पढ़ा ही नहीं, अपितु लगातार लिखते रहने के लिए भी प्रोत्साहित किया. इस तरह कविता से मेरा नाता कभी नहीं टूटा, उल्टे दिनों दिन, साल दर साल और अधिक आत्मीय होता गया.
प्रश्न.. आप एक लंबे समय से कविताएं लिखते आ रहे हैं. आप कुछ विशेष उपलब्धियों के बारे में बतलाना चाहेंगे?
उत्तर- उपलब्धियाँ चंद दिनों में ही प्राप्त होने लगी थीं, ऎसा मैं कोई दावा नहीं करता. इसके लिए कड़ी मेहनत, लगातार परिश्रम और धैर्य के साथ आगे बढ़ते हुए, वर्षों की साधना के बाद ही, कुछ हासिल किया जा सकता है. मैं बहुत ही विनम्रता के साथ कहना चाहूंगा कि मन के किसी कोने में कविता की जो बेल बाल्यावस्था में बोई गई थी, धीरे-धीरे विकसित और पल्लवित होती चली गई थी.
इस विकास यात्रा को दो खण्डॊ में बांटकर ही मैं अपनी बात को अधिक स्पष्ट कर पाऊंगा. पहला कालख्ण्ड-स्कूल से कालेज फ़िर कालेज के बाद डाकघर की नौकरी, दूसरा – स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद का कालखण्ड.
सन 1965 में मेरा चयन भारतीय डाकघर में हुआ और पहली पोस्टिंग प्रदेश की संस्कारधानी कहे जाने वाले शहर जबलपुर में हुई. करीब पांच साल बाद छिन्दवाड़ा,छिन्दवाड़ा से बैतुल, बैतुल से मुलताई, टेलीग्राफ़ ट्रेनिंग के लिए भोपाल, ट्रेनिंग समाप्ति के बाद पुनः छिन्दवाड़ा पदस्थ हुआ. यहाँ लगातार कार्य करते रहने के सैतीस साल बाद सन 2002 में मुझे पदोन्नति मिली और मैं छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में पोस्टमास्टर (एच.एस.जी.क्लास वन) के पद पर पदस्थ हुआ.और यहीं से मैंने करीब छः माह पश्चात स्वैच्छिक सेवानिवृति ले लिया था.
माँ नर्मदा के पावन तट पर स्थित जबलपुर शुरु से आध्यात्मिक, राजनैतिक और साहित्य का प्रमुख केंद्र रहा है. इस संस्कारधानी में अनेक स्वतंत्रता सेनानी सेठ गोविन्ददास और हरिशंकर परसाई जैसे प्रकाण्ड साहित्य-साधक इस धरती को गौरवान्वित करते रहे हैं. यहाँ रहते हुए मुझे कविता के संस्कार मिले. शुरू में लिखी गई कविताओ और बाद की लिखी गई कविताओं में जमीन-आसमान सा अन्तर है. बैतुल, मुलताई और छिन्दवाड़ा की भूमि भी कम उर्वरक नहीं है. यहाँ से भी अनेकानेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और साहित्यकारों को इन जिलों के नाम को रौशन किया है. इन सबके बीच रहते हुए मेरी साहित्यिक सोच को एक नया आकाश मिला. कविता लिखने प्रकाशित होने और आकाशवाणी से रचना-पाठ के अनेकानेक अवसर भी मुझे यहाँ प्राप्त होते रहे. बैतुल में रहते हुए जे.एच.कालेज के प्रोफ़ेसर मित्र श्री शंकर प्रसाद श्रीवास्तवजी और मैंने देश-विदेशों में प्रख्यात नृत्यागंना सुश्री सितारा देवी को आमंत्रित किया था. कार्यक्रम बेहद ही सफ़ल रहा. हम कोई और कार्यक्रम बनाते कि मेरा तबादला मुलताई हो गया. यहाँ कवियों की जमात तो थी लेकिन कोई साहित्यिक मंच नहीं था. तत्कालीन उपडाकपाल श्री एस.डी.श्रीवास्तव और हमने “मुलताई साहित्य समिति” नामक मंच की स्थपना की. भोपाल ट्रेनिंग में मेरी भेंट साहित्यानुरागी श्री राजेन्द्र अनुरागी से होती रही, जिनका कार्यालय हमारी ट्रेनिंग सेंटर से नजदीक था.
छिन्दवाड़ा में प्रख्यात साहित्यकार (स्व) श्री संपतराव धरणीधर जी एवं श्री हनुमंत मनगटे जो क्रमशः काव्य और कहानी के क्षेत्र में विख्यात थे. उन्हीं के बीच रहते हुए “चक्रव्हूह” साहित्यिक मंच का गठन, बाद में मध्यप्रदेश हिन्दी सम्मेलन की इकाई का गठन हुआ. इसमें मैं क्रमशः सचिव और उपाध्यक्ष भी रहा.
जीवन में कई बार ऎसे भी क्षण आते हैं,जब हमें किसी काम से विरक्ति होने लगती है. काव्य लेखन के प्रति मेरी अरुचि बढ़ने लगी और अब मैं कुछ और नया करना चाहता था. कहानियाँ लिखने की ओर उन्मुख हुआ और उसमें सफ़लता मिलने लगी. मेरी कई कहानियाँ उस समय की चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने लगी थीं.
जैसा कि मैंने उपर उल्लेखित किया भी है कि यहाँ रहते हुए मुझे पदोन्नति मिली और मैं छतीसगढ़ के कवर्धा प्रधान डाकघर में हायर स्सिलेक्शन ग्रेड पाकर पोस्टमास्टर पदस्थ हुआ. करीब छः माह बाद ही मैंने अपने पद से इस्तिफ़ा दे दिया. इस समय तक मेरी नौकरी सैतिस साल की हो चुकी थी. अब मैं शेष बचे हुए समय में वह सब कुछ करना चाहता था, जो काफ़ी पीछे छूट चला था.
.प्रश्न- हम जानना चाहेंगे कि स्वैच्छिक सेवानिवृति लेने के बाद आपने इस क्षेत्र में कितनी विशेष उपलब्धियाँ प्राप्त कीं?
उत्तर. सेवानिवृत्ति के कुछ समय बाद, कवि मित्र एवं सर्वोदयी नेता स्व.श्री प्रमोद उपाध्याय जी मेरे निवास पर आए और मुझे म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन भोपाल में होने वाली पावस व्याख्यानमाला में चलने के लिए आग्रह करने लगे. आग्रह इतना जबरदस्त था कि न कहने की गुंजाईश ही नहीं बची थी. मुझे जाना पड़ा. पहले सत्र की समाप्ति के बाद मेरी मुलाकात, संत पुरुष श्रद्धेय श्री कैलाशचन्द्र पंत जी से हुई. वे हिन्दी भवन में मंत्री-संचालक हैं. हिन्दी के प्रति उनका प्रगाढ़ प्रेम, कर्तव्यनिष्ठा और कठिन प्ररिश्रम के कारण हिन्दी भवन भोपाल, आज देश का पहला एक ऎसा अनूठा संस्थान है, जिसे हम हिन्दी की तीर्थ-स्थली भी कह सकते है. यहाँ पूरे वर्ष साहित्यिक आयोजन होते रहते हैं. वर्ष में तीन बड़े आयोजन भी होते हैं- पावस व्याख्यानमाला, शरद व्याख्यान माला और वसंत व्याख्यानमाला. पावस व्याख्यानमाला में देश के कोने-कोने से प्रतिष्ठित विद्वान, ख्यातिलब्ध साहित्यकार और हिन्दी सेवियों सहित विशाल जन समुदाय इसमें उपस्थित होता है और अपने को कृतार्थ/धन्य मानता हैं.
लोग सम्मान के साथ उन्हें “दादा” कह कर पुकारते हैं,. मित्र प्रमोद ने मेरे बारे में काफ़ी कुछ कह सुनाया था. सुनते ही उन्होंने कहा-मैं इन्हें कहीं पढ़ चुका हूँ. अच्छा लिख रहे हैं. फ़िर मुझसे मुखातिब होकर उन्होंने पूछा-सेवानिवृति के बाद अब क्या करने की सोच रहे हैं? यदि आप अपना बहुमूल्य समय, हिन्दी के उन्न्यन और प्रचार-प्रसार में देना चाहते हैं, तो आपका हिन्दी भवन में स्वागत है.
सच मानिए…आपके चेहरे पर दमकते आभा-मंडल के तेज को देखकर, मेरा मन एक असीम श्रद्धा से भर उठा था. प्रसन्नता से हिलोरे लेने लगा था. दिल के किसी कोने से एक मद्धिम आवाज मुझे साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी कि मैं जिस मंजिल की तलाश में भटक रहा था, वह मुझे मिल गई है. जवाब मुझे देना था. बारी मेरी थी. किसी तरह आत्म-मुग्धता से बाहर निकलते हुए मैंने विनम्रता से आपके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार करते हुए हामी भरी और कहा कि यहाँ से जाते ही छिन्दवाड़ा में जिला इकाई का गठन करने की प्रक्रिया शुरु कर दी जाएगी.
2003 में समिति का गठन किया गया. नगर के ऎतिहसिक टाउनहाल के सभागार में वयोवृद्ध गीतकार पं.रामकुमार जी शर्मा जी की अध्यक्षता एवं दादा पंत जी के मुख्य आतिथ्य में समिति का विधिवत उद्घाटन हुआ. इस समारोह में साहित्यकार मित्रों सहित सैकड़ों की संख्या में जन-समुदाय बड़ी संख्या में उपस्थित हुए थे. तब का दिन था और आज का दिन है. मैंने कभी पलटकर नहीं देखा. मेरा अपना मानना है कि जब एक सदगुरु का आपके जीवन में प्रवेश होता है तो चमत्कार अपने आप होने लगते हैं. आपकी विशेष कृपा से मुझे कई सम्मान मिले. देश-विदेश की यात्राएं करने को मिली. मुझे वह सब कुछ प्राप्त हुआ जिसकी की मैंने कभी कल्पना तक नही की थी.
प्रश्न- मुझे यह जानकर अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई कि काव्य के क्षेत्र में आपने काफ़ी उपलब्धियाँ हासिल की. फ़िर वह कौन सी वजह थी कि कविताएं न लिखने के लिए खुद को आपने विवश महसूस किया हो और आप कविता के क्षेत्र को छोड़कर कहानियाँ लिखने के लिए उत्प्रेरित हुए?
उत्तर- इस प्रश्न में आपने मुझसे पूछा है कि क्या जीवन में कभी कुछ ऐसे क्षण आए, जब मैंने कविताएं न लिखने के लिए खुद को विवश महसूस किया हो? प्रश्नों की इसी श्रृंखला में आपका दूसरा प्रश्न अनुभूति और अभिव्यक्ति को लेकर भी पूछा है. यहाँ मैं स्पस्ट कर दूं कि. ऎसा कोई विशेष कारण या विवशता कभी नहीं रही कि मुझे काव्य का क्षेत्र छोड़कर कहानियाँ लिखने के उद्धत होना पड़ा. एक लंबे समय से मैं कविताएं लिखता रहा हूँ. कविताएं लिखने के बाद सुखद अनुभूति का अनुभव मैंने पूरी संतुष्टि और गहराई के साथ लिया है. फ़िर भी मुझे लगता था कि मैं पूरी तरह से अपने को व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ. फ़िर कविता में स्पेस भी काफ़ी छॊटा होता है. जहाँ मैं अपने को खुलकर अभिव्यत नहीं कर पा रहा था. शायद यह भी एक कारण हो सकता है. कविता के इस अनन्त प्रवाह में अनुशासन एक बेड़े की तरह होता है. जिसे एक काल-खंड और मंजिल पार कर लेने के बाद उसे छॊड़ देना पड़ता है, आगे की यात्रा के लिए दूसरी नाव और मंजिल तलाशनी होती है. मेरे साथ भी जाने-अनजाने में यही हुआ और मैं कहानियाँ लिखने लगा. लगभग दो दशकों से मैं कहानियाँ लिख रहा हूँ.
प्रश्न- हम जानना चाहेंगे कि वह कौन सी कहानी थी जिसे आपने पहली बार लिखी और उसे कितनी व्यापकता/सफ़लता मिली?
उत्तर- सबसे पहले मैने जो कहानी लिखी थी, उसका शीर्षक है- एक मुलाकात. बड़ी ही दिलचस्प कहानी बन पड़ी है. पाठकों को अन्त तक पता ही नहीं चल पाता कि इसमें दूसरा पात्र कौन है ?. इसे आप फ़ैंटेसी की श्रेणी में भी रख सकती हैं. आप जानना चाहेगीं कि आखिर वह सख्स कौन था, जिससे मेरी पहली मुलाकात, सड़क के एक ऎसे मोड़ पर होती है, जब मैं नये साल का जश्न न मना पाने के गम को पाले हुए, बेगाबाऊण्ड की तरह घूम रहा था? वह था मेरा वक्त, जो नए और पुराने साल के मिश्रित रुप में मुझसे मिलने आता है और कई महत्वपूर्ण और जरुरी सीख देकर गायब हो जाता है. इस कहानी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें आप केवल वर्ष बदलते रहें, यह पुनर्नवा होती जाएगी.
प्रश्न- कविता से आपका जुड़ाव प्रारंभिक अवस्था से ही रहा है. आश्चर्य है कि कविता का कोई संग्रह अब तक आपने प्रकाशित नहीं करवाया? इसी से जुड़ा दूसरा प्रश्न है कि कहानियों के अलावा साहित्य की अन्य किसी विधा पर भी आपने कलम चलाई है. जैसे लघुकथाएं.लेख-आलेख-संस्मरण-समीक्षा आदि.
उत्तर-कविता ही मेरा ऎसा प्लेटफ़ार्म रहा है, जहाँ से मैंने साहित्य जगत में प्रवेश पाया था. निश्चित ही कविताओं का संग्रह अब तक निकल जाना चाहिए था. लेकिन किन्ही कारणों से ऎसा नहीं हो पाया. बाद में कविताओं का संग्रह पुस्तकाकार में न होकर ई-बुक में हुआ है, जिसे मेरे मित्र श्री रविशंकर श्रीवास्तवजी ने “रचनाकार “ से प्रकाशित किया है, इस लिंक http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_51.html पर पढी जा सकती है. इसके अलावा मैंने लगभग देढ़ सौ लघुकथाएं भी लिखी हैं. उन्हें भी इस लिंक पर http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_627.html पढ़ा जा सकता है. इसके अलावा मैंने अपने कई रचनाकार मित्रों की प्रकाशित पुस्तकों पर समीक्षा आलेख भी लिखे है, जिनकी संख्या लगभग 23 हैं साथ ही मैंने कई आलेख भी लिखे हैं. कंप्युटर पर अभी इधर-उधर बिखरे पड़े हैं. मेरी कोशिश है कि जितनी जल्दी हो सके, इन सबको ई-बुक्स की शकल में प्रकाशित करवा लिया जाए. अब तक लगभग दो सौ से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कहानियाँ, लघुकथाएँ, और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं.
प्रश्न-आपके लेखन का मूल स्वर क्या है? लेखन के द्वारा आप क्या हासिल करना चाहते हैं? तथा उसमें आपने किन जीवन मूल्यों को अधिक महत्त्व दिया है?
उत्तर- जीवन में जब रोजमर्रा की कशमकश, अस्थिरता, संवेदनहीनता, दमन, उत्पीड़न, डर और आतंक आदि का साया हो तो एक जागरुक लेखक के स्वर में आक्रोश ही होना चाहिए, विरोध करने और जताने की क्षमता होनी
चाहिए. लगभग मेरा भी यही स्वर है. चाहे वह मेरी लघुकथाएँ हो, कहानियाँ हो इनके पात्र डर कर सिमिट नहीं जाते,… दुबक नहीं जाते… बल्कि आक्रोशित होकर उसका मुकालबा करते हैं. और यह होना भी चाहिए. एक जागरुक लेखक, समाज में जो भी घटित हुआ देखता है, जो समाज के लिए हानिकारक है, जो समाज को अराजक और रुग्न बना देने वाल हो, तो वह (लेखक) तटस्थ कैसे बैठा रह सकता है? उसे बैठा नहीं रहना चाहिए. उसके मन में प्रतिशोध की ज्वाला धधक उठनी चाहिए. यही भाव तो वह अपने पात्रों के बीच घटते देखना चाहता है. अगर ऎसा नहीं किया गया तो जीवन-मूल्य बचे ही कहाँ रह जाएंगे?
प्रश्न—साहित्य जगत में साहित्य के वर्गीकरण के अनेक स्वरूप हैं, समकालीन, प्रगतिवाद, नारिवाद, बालसहित्य तथा दलित साहित्य. क्या आप ने खुद को किसी वर्ग के तहत अपनी कलम को मोड़ दिया है?
उत्तर- गजलों को छॊड़कर मैंने हर विधा पर कलम चलाई है. लेकिन किसी वाद के चक्कर में कभी नहीं पड़ा. और न ही मैं इसे उचित मानता हूँ. यह मेरी अपनी सोच है. फ़िर साहित्य आखिरकार साहित्य ही होता है और कुछ नहीं. माफ़ करें…अब यह समय की बलिहरी है कि उसे भी खेमे में बांट दिया गया है. कोई दलितवाद को लेकर तो कोई नारीवाद आदि को लेकर अलग-अलग खेमों में बंट कर तरह-तरह के विमर्शों को जन्म दे रहे हैं या दे चुके हैं. मैं किसी ऎसे विमर्श या वाद के जंजाल में फ़ंसना भी नहीं चाहता. एक लेखक का धर्म और उत्तरदायित्व बनता है कि वह उस कमजोर और सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करें, जो पीढ़ित है, उपेक्षित है, शोषित है, हासिए से बाहर फ़ेंक दिया गया है, उसके पक्ष में उसे खड़ा होना चाहिए. मेरी कहानियाँ हों या लघुकथाएं, उनमें दलित भी है, आदिवासीजन भी है और घोर उपेक्षित नारियां हैं और भी अनेक पात्र हैं. जो सबकी सब, कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रकार के उत्पीड़न के शिकार है. वे सारे आघातों को झेलते हुए सम्मान के साथ अपना सिर उठाकर, उठ खड़े होते हैं.
प्रश्न–क्या आप किसी उद्देश्य को लेकर लिखते हैं? Q– क्या आप को लगता कि लेखक समाज़ में परिवर्तन कर सकता है ?
उत्तर- एक लेखक अपनी लेखनी के माध्यम से सामान्य जनता को सामाजिक और राजनैतिक समाझदारी देने और सड़ी गली जीवन व्यवस्था को नष्ट कर एक नए समाज की रचना का संकल्प लेकर चलता है. उसके लेखे से समाज सुधर ही जाएगा, ऎसा कोई भी लेखक दावे के साथ नहीं कह सकता. लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि उसका प्रभाव समाज पर पड़ता जरुर है. मैंने इसी पीड़ा को लेकर, प्रख्यात साहित्यकार श्री विष्णु खरे जी से व्याकुल होकर पूछा था. इसके जवाब में उन्होंने कहा था- “यह उस सीमा रेखा की खोज है जिसके एक तरफ़ अर्थहीन शोर है और दूसरी तरफ़ जड़खामोशियाँ. साहित्य इन दोनों स्थितियों के बीच इतिहास की तमाम विडम्बनाओं और त्रासदियों से गुजरता हुआ, तमाम तरह के धोकों, फ़रेफ़ों, प्रपंचों और बदकारियों का सामना करता हुआ, भरोसे का एक निदान चाह्ता हैं और इस बुनियादी सवाल को उठाता है कि यह सब क्यों?. एक लेखक का उद्देश्य केवल और केवल यही होना चाहिए कि वह अपने पात्रों के माध्यम से ही सही, बुनियादी प्रश्न उठाये और कोई समाधानकारक हल खोजे जाने का प्रयास करे. मैं समझता हूँ कि समाज में व्यापक परिवर्तन लाने का इससे सुगम- सरल रास्ता और कोई हो ही नहीं सकता.
प्रश्न-वर्तमान में लिखे हुए साहित्य की दशा और दिशा क्या है? क्या लेखन द्वारा हम समाज के प्रति न्याय कर रहे हैं?
उत्तर- साहित्य का अर्थ ही है “हितेन सहितं” ( हित-सहित) एक ऎसा साहित्य जो लोक कल्याण के लिए रचा जा रहा हो. जहाँ लोक कल्याण की बात हो रही हो तो फ़िर हमें इस फ़ेर में नहीं पड़ना चाहिए कि उसकी दिशा क्या है? यदि वह अपनी दिशा से तनिक भी भटक जाए तो फ़िर साहित्य बचता ही कहाँ है? साहित्य हमेशा से ही समाज के प्रति एक सजग प्रहरी की तरह मुस्तैद रहता है.
प्रश्न-आपने गध्य व पद्य की सिन्फ़ में कविता, लघुकथा, कहानी, समीक्षा सफरनामे पर कलम चलायी है. कौन सी विधा आपको मन को अधिक भाती है?
उत्तर- सच कहूं…..मैं कभी भी इस दुविधा में ही नहीं पड़ा कि मुझे कौन सी विधा सर्वाधिक भाती है और कौन सी नहीं भाती और न ही मैंने कभी किसी विधा को दोयम दर्जे की माना. सभी विधाएं आखिर आती तो है साहित्य के अन्तर्गत ही में न !. फ़िर उसका वर्गीकरण करना मुझे नहीं आया और न ही मैं इसे जरुरी समझता हूँ. वस्तु-विषय के अनुसार कभी वह कविता के फ़ार्म में, तो कभी लघुकथा या फ़िर कहानी के रुप में उतरती चली जाती है.
प्रश्न-आपने कई कहानियाँ लिखी हैं, उनमें आप कोई विशेष लक्ष्य के आधार पर कहानियों के पत्रों को ढालते हैं, जैसे कि राजनीति, धर्म या अब समाज में हो रहे औरतों पर अत्याचारों पर उभार लाने के लिए?
उत्तर- एक धनुर्धर जब तक अपने लक्षय का निर्धारण नहीं कर लेता, तब तक वह निशाने पर तीर का संधान कैसे कर सकता है? यदि वह ऎसा करता है तो तीर निशाने पर कभी नहीं लगेगा, चाहे वह कितनी ही बार उसकी पुनर्वावृत्ति क्यों न करता रहे. कई-कई बार साधने के बाद ही साध्य सधता है. अतः सबसे पहली आवश्यक शर्त तो यहीं है कि आप लक्ष्य को फ़ोकस कर लें. सफ़लता आपके कदमों को चूमेगी. यह साधना है. साध्य और साधक के बीच केवल होता है तो उसका लक्षय ही होता है. यही बात कहानीकारों के लिए भी लागु होती है. एक बार लक्ष्य का निर्धारिण हो गया तो भाषा सधने लगती है. शब्द शक्ति का संचरण अपने आप होने लगता है. फ़िर शब्द ही तो लेखक के खरे औजार होते हैं. वे ही कहानी को प्राणवान बनाते है. इससे रचना की विश्वसनीयता बढ़ती है. यथार्थ सामने आता है. यही यथार्थ, व्याकुलता पैदा करता है, पड़ताल में जाने को बाध्य करता है तथा एक ऎसे क्षोभ को पैदा करता है जो कभी भी लपटों में बदल सकता है.
एक जागरुक लेखक अपने आस-पास बहुत कुछ घटता हुआ देखता है, जो न तो समाज के हित में है और न ही देश के हित में. यही बात उसे कचोटती है और वह उस पर कलम चलाने के लिए मजबूर हो जाता है. सबसे असहाय और मजबूर होती हैं औरते. औरतें, बेटी, पत्नि और माँ होने तक अनेक स्तरों पर तरह-तरह की उपेक्षा- अतृप्ति-उदासी-अधीनता आदि सहने को विवश हैं, जिनके कारण कुंठाएँ और मानसिक ग्रंथियाँ उन्हें घुट-घुटकर पगलाते जाने की हद तक तोड़ती रहती है. इन तमाम तरह के जुल्म सहने के बाद भी वह परिवार की इकाई को टूटने नहीं देना चाहती. न चाहते हुए भी उसे कठोर निर्णय लेने पड़ते है और वह लेती भी है. मेरी अधिकांश कहानियों में नारियां ही प्रमुखता से स्थान पाती रही है और बड़ी ही निडरता और बेबाकी के साथ, वे हर परिस्तिथियों से अपने आपको उबार लेती हैं.
प्रश्न -क्या जीवनमें कभी कुछ ऐसे क्षण आए, जब आपने खुद को लिखने के लिए विवश महसूस किया हो?
उत्तर- निश्चित रुप से ऎसे क्षण मेरे जीवन में बार-बार आते रहे हैं. मेरे साथ ही क्या, हर एक लेखक के जीवन में ऎसे अवसर आते है कि उन्हें कलम उठाना ही पड़ता है. मुझे भी हर बार लिखने के लिए विवश होना पड़ा है. यदि ऎसा न हुआ होता तो मैं शायद ही कहानियाँ-लघुकथाएँ आदि न लिख पाता.
प्रश्न-साहित्य-रचना और व्यक्तिगत जीवन का तालमेल? अथवा कोई और स्थिति?
उत्तर- बहुत ही सुन्दर प्रश्न है यह आपका. व्यक्तिगत जीवन में और लेखकीय जीवन में तालमेल बैठाना अत्यन्त ही आवश्यक पहलू होता है. जीवन की घनघोर व्यस्तताएं और डाकघर के काम की अधिकता की वजह से मुझे हर रोज इस झंझावत से गुजरना होता था और कई बार लेखन कर्म से दूर भी रहना पड़ता था. लेकिन जैसे ही मैं अपने आपको सामान्य (फ़्री) महसूस करने लगता, मेरा लेखक जाग उठता और मैं लिखने में जुट जाता. कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि उसने एक ही बैठक में सारा रचना-कर्म कर लिया है. सब काम टूकड़ों-टुकड़ों में चलता रहता है और एक दिन पूर्णता को प्राप्त करता है. यहाँ मैं यह बतलाना जरुरी समझता हूँ, और वह यह कि मैंने अपनी नौकरी एक डाक सहायक के रुप में शुरु की थी और पोस्टमास्टर (H.S.G.1) से सेवानिवृत्त हुआ. उस समय तक मेरी सर्विस सैतीस साल की हो चुकी थी. निश्चित ही मेरी जवाबदारियाँ और ज्यादा बढ़ गई थी. इस स्थिथि में मैं अपने लेखकीय कर्म में पूरी तन्मयता से जुड़ नहीं पा रहा था. मैंने तत्क्षण निर्णय लिया कि अब मुझे सेवानिवृत्ति लेकर साहित्य साधना में जुट जाना चाहिए और शेष जीवन में जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, वह समाज को देना चाहिए. काफ़ी समय पूर्व ही मैं घर की सारी जिम्मेदारियों से मुक्त भी हो चुका था. अतः मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. अब समय ही समय है. किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं है. मैं पूर्णतः संतुष्ट हूँ कि मैंने जो किया, वह उचित ही था.
प्रश्न-आप नेट पर भी काफी सक्रिय हैं, आपको लगता है कि नेट पर लिखा हुआ पुस्तकों के प्रकाशन का स्थान ले सकता है? या यह केवल अधिक पाठकों तक पहुंचने का ज़रिया है? आपके प्रकाशित साहित्य से भी पाठकों को अवगत कराएं.
उत्तर.-पुस्तकों का अपना महत्व है और इसके पीछे बहुत बड़ा इतिहास भी छिपा हुआ है. पुस्तकों का कितना अधिक महत्व है, यह राहुल सांस्कृत्यायन जी से अधिक कौन जान पाया है? तभी तो उन्होंने अपनी जान पर खेलकर, पुस्तकों का जखीरा, खच्चर की पीठ पर लादकर भारत ले आए थे. यदि पुस्तकें हमारे बीच में नहीं रही होती, तो हमें अन्य जानकारियों के अलावा अपना अतीत कैसा था, मालुम ही नहीं हो पाता?. आज टेक्नालाजी का युग है जिसमें आज हम जी रहे हैं, इस युग में सब कुछ संभव है. यहाँ असंभावना की तिल मात्र भी गुंजाइश नहीं है.
इस बदलते हुए युग में हर कोई अपने आपको बदलना चाहता है. नयी टेक्नोलाजी से जुड़ना चाहता है. मैं काफ़ी विलम्ब से ही सही, साठ साल की आयु में कंप्युटर से जुड़ा और इसका फ़ायदा यह हुआ कि पलक झपकते ही मेरी रचनाएँ देश के कोने में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य स्थानों पर पलक झपकते ही पहुँचने लगी, जबकि साधारण डाक से जाने में हफ़्तों लग जाया करते थे. दूसरा फ़ायदा यह हुआ कि मुझे विश्व के कोने-कोने से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक सामग्रियाँ पढ़ने को मिलती रही और नए-नए मित्र जुड़ते चले गए. आज मेरी कहानियाँ-लेख-आलेख आदि यू.के, मारीशस, दुबई, कनाड़ा, हालैण्ड, लंदन आदि स्थानों से प्रकाशित होने वाली ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं हैं, जिन्हें विश्व के किसी भी कोने में रहकर, कोई भी पढ़ सकता है. मैं आभारी हूँ श्री रविशंकर श्रीवास्तव “रतलामी” एवं सुश्री वीणा वत्सलसिंह जी के प्रति, जिन्होंने निःशुल्क मेरी कई कृतियों को ई-बुक्स का स्वरुप प्रदान किया. मैं आभारी हूँ इस टेक्नालाजी का जिसका उपयोग करते हुए मैं मारीशस में बैठे मेरे मित्र श्री रामदेव जी धुरंधरजी का साक्षात्कार ले पाया. और इसी टेक्निक का उपयोग करते हुए, आप स्वयं भी मेरा साक्षात्कार ले पा रही हैं. आपका दूसरा प्रश्न है- नेट पर लिखा हुआ पुस्तकों के प्रकाशन का स्थान ले सकता है? भविष्य में यदि ऎसा हो सकेगा, इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता. मैं अन्य देशों के बारे में तो नहीं जानता. भारत के संबंध में इतना जरुर कह सकता हूं कि यहाँ साक्षरता दर काफ़ी कम है. कंप्युटर से जुड़ने वाले भी कम ही लोग हैं. अतः यहाँ ऎसा हो सकेगा, मैं नहीं मानता. फ़िर प्रिंट मिडिया का अपना ही महत्व है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.
प्रश्न-क्या सम्मान पाने के लिए कोई माप-दंड है जिससे लेखक व उसके लेखन का मूल्यांकन सामने आये? आपको मिले सम्मान और प्राप्त पुरस्कारों के बारे में कुछ बताएं?और मिलने पर क्या महसूस करते हैं?
उत्तर- सम्मान पाने के लिए एक निश्चित माप-पंड होता है. अब यहाँ यह देखना-परखना आवश्यक होता है कि लेखक ने अपने लेखन कर्म में जो ऊर्जा लगाई है वह कितनी समाजोपयोगी है…कितनी आचरण करने योग्य है..और समाज को कितनी सकारात्मक दिशा दिखाने में अपना सामर्थ्य रखती है. इसके और भी माप-दण्ड हो सकते है. इन सभी माप-दण्डॊं पर खरा उतरने के बाद ही आपकी कृति सम्मान पाने की हकदार होती है, सम्मान उस कृति का होता है, और उस सम्मान को पाकर व्यक्ति सम्मानित होता है. ऎसा मेरा मानना है.
मुझे प्रदेश और प्रदेश से बाहर अब तक बाईस साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया गया है, निश्चित ही सम्मान पाने पर हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव होता ही है, हौसले में बढ़ौतरी होती है कि आप समाज और देश को, अपने जीवन का जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, अधिक से अधिक देने के लिए संकल्पवान होते हैं
प्रश्न-आपकी अब तक कितनी किताबों की ई-बुक्स बन चुकी है?
उत्तर- अब तक मेरे दो कहानी संग्रह-(१) “महुआ के वृक्ष” (२) “तीस बरस घाटी” क्रमशः पंचकूला (हरियाणा) से तथा वैभव प्रकाशन रायपुर से प्रकाशित हो चुके हैं. (आज इनकी मात्र एक-एक प्रति ही मेरे पास बची रह गई है. अतः इन दोनों को ई-बुक्स में तब्दील कर दिया गया है.) शेष विषयों पर ई-बुक्स प्रकाशित हो चुकी हैं, लिंक सहित निम्नानुसार है
* पीडीएफ ईबुक –कविता संग्रह – बचे हुए समय में http://www.rachanakar.org/2014/11/blog- post_51.html
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• पीडीएफ ईबुक : लघुकथा संग्रह http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_627.html
• पीडीएफ ई बुक : कहानी संग्रह – तीस बरस घाटी http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_969.html
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• पी.डी.एफ़. ई बुक –कहानी संग्रह- अपने-अपने घोंसले- https://archive.org/details/apna-aasman-kahani-sangrah
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• पी़डीएफ ईबुक –कहानी संग्रह – महुआ के वृक्ष http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_670.html
• ई-बुक : कौमुदी महोत्सव – हमारे तीज त्यौहार http://www.rachanakar.org/2015/03/blog-post_444.html
• देश-विदेश की यात्राएं.
https://hindi.pratilipi.com/govardhan-yadav/ghumakkadi-romanchit-kar-dene- waali- yaatraaye
* पी.डी.एफ़.ई बुक्स (सभी)आलेख—(1)दृष्य की अपेक्षा अदृष्य रहस्यमय होता है-(2) मायावी दुनियां(3) अकेले नहीं हैं हम
https://hindi.pratilipi.com/govardhan-yadav-1
https://hindi.pratilipi.com/govardhan-yadav
( अभी औरकई लेख-आलेख और समीक्षाओं पर ई-बुक्स बनना बाकी है. शीघ्र ही इन्हें भी पूरा कर लूंगा.)
प्रश्न-मै जानना चाहूंगी कि क्या आपकी कहानियोँ अन्य भाषाओं में अनुवादित हुई हैं?
उत्तर- जी हाँ..मुझे यह बतलाते हुए अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है कि मेरी कहानियों का सिंधी, मराठी, ऊर्दू, राजस्थानी, उड़िया, तथा बंगाली भाषा में अनुवादित हो चुकी हैं. सिंधी भाषा में अनुवादित करने वाली तो आप स्वयं ही हैं. आपको अनेकानेक साधुवाद.
प्रश्न- साहित्य साधना में रत रहते हुए आपने किन-किन देशों की यात्राएं की हैं. हम जानना चाहेंगे?.
उत्तर:- मैं आभारी हूँ ईश्वर के प्रति कि जिनकी कृपा से मुझे भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भ्रमण करने तथा कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ने के सुअवसर प्राप्त हुआ है. साथ ही मुझे थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया-मलेशिया-क्वालालामपुर,नेपाल,मारीशस और भूटान जाने और हिन्दी के प्रचार-प्रसार करने के सुअवसर प्राप्त हुए हैं.
प्रश्न-जीवन में अनेकों पड़ाव आते हैं, जो अविस्मरणीय होते हैं. हम संक्षिप्त में हम उन पड़ाओं के बारे में जानना चाहेंगे, जिन्हे आप भुलाए नहीं भूल पाते?
उत्तर- सबसे पहला तो यह कि मुझे साहित्य के प्रति अनुराग जगाने वाले गुरु न मिले होते तो शायद ही मैं इस मुकाम पर होता. दूसरा- एक डाक सहायक के पद से होते हुए, पोस्टमास्टर एच.एस.जी(.क्लास वन) के सम्मानीत पद तक पहुँच पाना. तीसरा- औद्धोगिक नीति और संवर्धन विभाग के सरकारी कामकाज में हिन्दी के प्रगामी प्रयोग से संबंधित विषयों तथा गृह मंत्रालय,राजभाषा विभाग द्वारा निर्धारित नीति में सलाह देने के लिए वाणिज्य और उद्धोग मंत्रालय,उद्धोग भवन नयी दिल्ली में “सदस्य” नामांकित किया जाना. चौथा- केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय( मानव संसाधन विकास मंत्रालय) नयी दिल्ली द्वारा_कहानी संग्ह ”महुआ के वृक्ष” तथा “ तीस बरस घाटी” का खरीद किया जाना. पाँचवा-अंतरराष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन रायपुर में सृजन सम्मान मंच द्वारा लघुकथा गौरव सम्मान प्राप्त होना छटवां- यह मेरे जीवन में सबसे अत्यन्त ही महत्वपूर्ण और मूल्यवान क्षण थे जब मेरी मुलाकात- मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन भोपाल के मंत्री-संचालक मान.श्री कैलाशचन्द्र पंतजी से हुई. उन्हीं की असीम कृपा और आशीर्वाद से मैं हिन्दी के प्रचार-प्रचार और उन्नयन के लिए कुछ कर पाया. सातवां- राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल के माध्यम से, हिन्दी की विशिष्ट सेवा के लिए वर्ष 2016 का “श्रीमती रश्मि जोशी स्मृति विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान” महामहिम राज्यपाल द्वारा प्राप्त होना. आठवां- मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में जाने तथा अनेक हिन्दी के विद्वान लेखको को सुनने और मिलने का सुअवसर प्राप्त होना.
प्रश्न- मेरा अन्तिम और जरुरी प्रश्न, और वह यह कि आपको अपनी साहित्य साधना में परिवार का कैसा सहयोग मिला, हम जानना चाहेंगे?
उत्तर:- निश्चित ही यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है और इसे जानने का आप सबका अधिकार भी बनता है. मेरी पत्नि श्रीमती शकुन्तला यादव जो स्वयं एक कुशल लोकगीत गायिका है और लोकगीत रचियता भी हैं. उनके गाए गीत आकाशवाणी से निरन्तर प्रसारित होते रहते हैं. वे वर्तमान में, समाज की महिला प्रकोष्ट की अध्यक्ष है और संकल्प रामायण महिला मंडल की संचालक-अध्यक्ष भी हैं. बड़ा बेटा- डा.आलोक यादव इंदिरा गांधी पालिटेक्निक कालेज में प्राचार्य के पद पर पदासीन है, इनकी अब तक दो किताबें प्रकाशित हो चुकी है, जो कालेज स्तर पर पढ़ाई जा रही है. साहित्य में विशेष रुचि रखते है. बड़ी बहू श्रीमती सुशीला यादव, छिन्दवाड़ा प्रमुख डाक में डाक सहायक हैं. दूसरा बेटा- रजनीश यादव, गुडविल अकाउन्ट अकादमी के निदेशक हैं. बहू श्रीमती शैली यादव- उत्कुष्ट विद्यालय परासिया में गणित विषय की व्याख्याता है. साहित्य से लगाव है. वह शाला के अलावा 15 अगस्त और 26 जनवरी को होने वाले सभी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संचालन करती है. चि. रजनीश और शैली दोनों ही पूर्व में आकाशवाणी छिन्दवाड़ा में उद्घोषक भी रहे हैं. बेटी श्रीमती अर्चना यादव, महिला पालिटेकनिक में व्याख्याता है और दामाद श्री पप्पु यादव जी राजनीति के क्षेत्र के साथ ही होटेल व्यवसाय से जुड़े हुए हैं. इन्हें भी साहित्य के प्रति अनुराग है. मैं आभारी हूँ परमपिता परमेश्वर का कि मुझे इतना सुगढ़, विचारवान और ऊर्जावान सदस्यों का साथ मिला.
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गोवर्धन यादव, छिंदवाड़ा