– रामचंद्र ओझा
बहुत दिन अभी नहीं बीते हैं, जब विष्णुनागर को ”निराला सम्मान” दिया जा रहा था तो विवाद इस बात को लेकर हुआ कि विष्णु नागर निराला की विरासत के कवि नहीं हैं। जब उनकी कविताएं निराला की कविताओं से साम्य ही नहीं रखतीं, कवित्त-प्रतिभा में जब मेल लेशमात्र नहीं तो उन्हें निराला सम्मान देने का क्या औचित्य है? सचमुच, यह तो जैसे निराला का ही अपमान है।
कहाँ हिंदी वांग्मय के इतने गुरुतर कवि निराला और कहाँ विष्णु नागर! यह तो जैसे काले को सफेद करने या घोड़े की रेस जैसी स्पर्धा के लिए खर-धूसर को उतारने जैसा है। गलत प्रतिनिधित्व का असर बहुत बुरा होता है। क्या निर्णायक मंडल को इतनी समझ भी नहीं होती? तो अखिर क्यों जानबूझ कर मक्खी निगली जा रही है।
किंतु यह अकारण नहीं है। ज्ञात हुआ है कि निर्णायक मंडल में अरुण कमल सहित दो और बड़े नाम थे। अतः वे ऐसे कवि का चयन क्यों करें, जिसके प्रकाश में आते ही, अपना नूर कम हो जाए।
जब एक ही निराला, एक खास विचारधारावालों की नींद हराम करने को पर्याप्त हों, तो एक और दूसरा ‘निराला’ को ढूढ़ निकालने का जोखिम कोई क्यों उठाएगा? आखिर अरुण कमल भी तो, ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है’ उसी के झंडाबरदार हैं। किंतु जो साहित्य की रोटी खाते हैं, उन्हें साहित्य को नहीं खाना चाहिए।
जब यह चर्चा चल रही थी तो मेरा ध्यान बनारस के एक कवि रमाकांत नीलकंठ पर गया। परिचय फेसबुक तक ही सीमित था। आज भी वहीं तक सीमित है। इसके इतर मैंने उनकी कविताएं नहीं पढ़ी थीं। इसलिए सायास उनके कविता संग्रह “जो कुछ है बस है” की प्रति प्राप्त की और पाया कि यदि सचमुच निराला सम्मान के लिए निराला की विरासत का कोई कवि है, तो वह रमाकांत नीलकंठ ही हैं।
क्या गद्य और क्या पद्य! निराला के मन-मिजाज-तेवर- कवित्व- व्यक्तित्व का कोई दूसरा भरोसेमंद कवि हिंदी वांग्मय में इस दौर में नहीं है। नीलकंठ ने हर छंदों में बेजोड़ कविताएं लिखी हैं। कवित्त और सवैया भी इनसे अछूता नहीं रहा। रमाकांत नीलकंठ कवि स्वभाव लेकर पैदा हुए, जोड़-युगत से खड़े किए हुए कवि-पंक्तियों में ये शुमार नहीं। इस कथन में किसी को अतिशयोक्ति लग सकती है, किंतु हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या!
बात अभी मुक्त छंद और नई कविता तक ही सीमित रखूंगा। आप भी देखिए कविता। यदि लगे कि निराला और नीलकंठ की कविताओं में साम्य है तो कवि को उसके कवित्व की गहराई और उत्कृष्टता के लिए दाद दीजिएगा और यदि नहीं तो मेरी नासमझी पर मुस्कराते हुए कंधा उचका दीजिएगा।
“किसान की बहू की बैठी छाती
खड़ी हो गई है
आँखें और बड़ी हो गई हैं”
“वैशाख का महीना है।”
दिमाग से लाज को वह आज-वक्त
छुट्टा जरा छोड़ती है
मेहनत से थकती नहीं
उसे थका देती है
खेत खलिहान दुआर तक
एक पैर भागती वह
उसे छका देती है
इसी बीच कोई भाभी कहता है
तो मुस्करा देती है/…/
जग जीतने को / आँचल थोड़ा खिसका देती ( है )/ “वैशाख का महीना है।”
एक और नमूना देखिए!
“वह जब हँसती है
गरीबी से चमचमाती उसकी दंत-द्युति
बेला-चमेली को मात देती
साथ ही उनका साथ देती
आदमी को रात में चलने की चुनौती
पकड़ने का हाथ देती।”
किसी कवि को समझने के लिए एक दो नमूने पर्याप्त होते हैं। दृष्टांत के तौर पर, आकाल पर लिखी कविता “बहुत दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास” या अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है, इन दो कविताओं से ही नागार्जुन की कविताओं की गहराई किसी सहृदय पाठक को समझ में आ जाती है।
उसी प्रकार नीलकंठ की 111 कविताओं के इस संग्रह ‘जो कुछ है बस है’ से नमूने के तौर पर कोई कविता ली जा सकती है। कहीं कोई झोल नहीं है।
निराला से प्रसंग से हठात् नागार्जुन पर मेरा उतर आना निप्रयोजन नहीं है। नीलकंठ ने दरअसल काशीनाथ सिंह के अधीन नागार्जुन पर ही शौध किया था और डाक्टर की उपाधि इनके अधीन अर्जित की थी। अतः अपनी कविताओं में भाषा और बिंबों के चयन में रमाकांत यदि सजग और कथ्य के चयन में सतर्क हैं तो इसका एक यह भी कारण हो सकता है। रमाकांत नीलकंठ पर हिंदी जगत के बहुतेरे बड़े कवियों का प्रभाव है, किंतु किसी की नकल या आवृत्ति नहीं मिलती है।
कविता संगीत का प्रतीस्थानी और उसका भाषागत रूप है। सुर, ताल, लय, गति और स्फूर्ति उसकी बुनियादी शर्ते हैं। दरअसल किसी भी कला का उद्देश्य कृति में निहित अर्थों के माघ्यम से श्रोता का भावोद्वेलन है। यह भावोद्वेवलन उसकी आत्मबद्ध स्थिति के परिहार और ग्राह्य मनःस्थिति के सृजन के लिए अपरिहार्य है। अन्यथा कविता श्रोता को संवेदित नहीं होती।
अतः आप ‘सोशलिस्ट’ हों या ‘डिमाक्रेट’, प्रगतिशील हों या प्रतिक्रियावादी, बुद्धिवादी हों या भाववादी, आप नई कविता के प्रवर्तक हों या अकविता के किंतु यदि आपकी कृति इन गुणों से विपन्न है, तो आप कवि ही नहीं हो सकते, विशिष्ट कवि बनना तो दूर की कौड़ी है।
आलोचक चाहे प्रतिमानों के साथ जितना खिलवाड़ कर ले, जितनी पैंतरेबाजी कर ले किंतु इन कसौटियों को झुठला कर प्रतिमानों को विकृत ही करेगा। कविता जमीन की ही होती है और कवि भी आसमान से नहीं टपकता। अतः ‘जमीन की कविता और कविता की जमीन’ का इस्तेमाल जुमलेबाजी है। ऐसे आलोचको को सतर्क हो जाना चाहिए।
मनुष्य की सौन्दर्य वृति नैसर्गिक है और यह आदिम काल से है। कविता अन्य कलाओं की इसी वृृत्ति की उपज और उसका विस्तार हैं। सौंदर्य ललित कलाओं में होता है, अन्य कलाओं में नहीं, यह वही कह सकता है जिसने इस विषय पर कभी चिंतन न किया हो।
कविता ऐन्द्रिक होती है इसलिए कि कि हमारा सौंदर्य बोध ऐन्द्रिक होता है। इंद्रियों से जो दिखे और कविता जिसे दिखाए, उसी से हमारे भाव बोध होता हैं। विचार सोने में सुहागा जैसा है। किंतु मोल सोने की है। वस्तुतः सौन्दर्य दृश्य और श्रव्य होता है। भरतमुनि का संपूर्ण रस सिद्धांत दृश्य और आनंद वर्द्धन का ध्वनि संप्रदाय श्रव्य जगत की अनुगूँज में ही सौंदर्य की प्रतिष्ठा करता है। रमाकांत केवल इनसे ही प्रभावित नहीं बल्कि कुंतल की वक्रोक्ति का भी प्रभाव उनपर देखा जा सकता है। उक्तियों का सपाट न होकर उसका वक्र होना सौंदर्य की सृष्टि का एक अलग ही प्रतिमान है। नीचे की कविता में गति और वक्रोक्ति का कोलाज अनुभव किया जा सकता है।
” रंग उसका सांवला है
अंग उसके खटे हैं
केशों की लटें लटी हैं
माँग से बटीं हैं
बैठा कुछ गला है
चेहरा धुप से मला है…”
…………………….
आँख जिस पर जाती है
उसे ही अकेला देख
बहुत अलबेला देख
आवाज दे हाथ दे बुलाती है
जानती है शहर में पढ़ता है
जिन्दगी गढ़ता है
अवसर मयस्सर देख
प्रिय को पुरस्सर देख
उठाती-उठवाती बोझ
अचानक पटक देती है
आँखों में आँखें अटक जाती हैं
स्मिति घहराती है
थरथर गालों से पोंछती पसीना
बालों को पीछे झटक देती है
प्रिय से मिलकर फिर से उठाती है ( बोझ)
बिना बोले हाल सब बताती है।
..
नीलकंठ की कविताओं को देखिए और फिर निराला की कविताओं पर गौर कीजिए।
” पथ पर वह तोड़ती पत्थर
कोई न छायादार पेड़
वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन भर
बँधा यौवन
नत नयन प्रिय
कर्म-रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका अट्टालिका
प्राकार”
कला मनुष्य की दैनिक गतिविधि से उपजती है किंतु वह दैनिक गतिविधियाँ नहीं होतीं। कला हमारे रोजमर्रे के जीवन में प्रयोग आनेवाले उपादानों का उत्कर्ष है। भाषा, संवाद का एक माध्यम है, एक रोजमर्रे के उपयोग में आनेवाला एक उपादान है, साहित्य उसी भाषा, उसी उपादान का उत्कर्ष।
वस्तुतः कविता साहित्य की एक कलात्मक विधा है। तात्पर्य है साहित्य भाषा और भाषागत भावों के उन्नयन का एक मात्र जरिया है। किसी बड़े कवि ने इसका दामन कभी नहीं छोड़ा। निराला की तरह रमाकांत ने भी इसका हाथ-साथ नहीं छोड़ा। छोड़ा विष्णु नागर जैसे कवियों ने। इसे छुड़ाने का उपक्रम हमारे नौसिखिए आलोचको ने किया है। डायन न मरे, न माँचा छोड़े।
निराला की कविता की भाषा देखें।
‘आओ, आओ फिर, मेरे बसंत की परी/ छवि विभावरी / सिहरो, स्वर में भर-भर अम्बर की सुन्दरी/ छवि विभावरी’ ।
लगे हाथ जुही की कली भी देख लीजिए। विजन-वन वल्लरी पर/ सोती थी सुहाग-भरी-स्नेह-स्वप्न-भग्न- अमल कोमल- तनु तरुणी-जुही की कली ”
नीलकंठ केवल निराला का अंदाज ग्रहण नहीं करते बल्कि उस परंपरा को आगे ले जाने की युगत भी करते हैं। कविता देखिए और कविता का अंदाज देखिए। कविता का शीर्षक है ‘वर्षा’।
“पावस में मयूर की चलती है
विहग-वृंद मंडल में
सुबह भी मेघ से साँझ में ढलती है
पपीहा सरपंच कर
सचिव कलहंस कर
सारस-बक, चतुर-ठग जो भी खग धन लोलुप
अथवा मन-मधुर साधक
सबकोे नेवत कर
यौवन स्वातंत्र्य-वन
केका घ्वनि गुँजती है
गाँव जन-मंण्डली अलग से गाती है
दूर दराज तक, उर्वर से बाँझ तक
स्तनोत्फुल
प्रकृति रति-रभस से गौ-सी रंभाती है
और अंत में कवि का छोटा-सा संबोधन धन। ‘देखू क्या!’ हर लेता है मन। यह होती है अंदेजे बयानी। फुहारें पड़ रही है/ जरा आड़े जरा तिरछे मर्म ताड़े! घिर रही हैं मेघ की घनश्याम धारें/ देखूँ क्या!
निराला सम्मान से विभूषित विष्णु नागर की कविताएं भी पढ़िए और खुद विचारिए कि वे कविताएँ हैं भी अथवा नहीं। कविता की जो शास्त्रीय परिभाषा है, उसमें वे खरी उतरती भी हैं या नहीं। जिस प्रकार हम निराला, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और रमाकांत नीलकंठ की कवितायों में खो जाते हैं, उस प्रकार विष्णु नागर की कविताएं भाव विभोर होने का अवसर ही नहीं देतीं। जैसे मेढ़क फुदकता है, वैसे ही कविता शुरू होती है और जैसे केंचुआ पकड़ कर मेढक शांत हो जाता है, कविता भी थम जाती है। अधिकांश कविताएं दो चार पंक्तियों में समाप्त हो जाती हैं।
विष्णुनागर की लंबी कविताएं भी हैं किंतु वे खबर से अधिक कुछ नहीं होती हैं। उनमें वैसी वैसी वैचारिकता भी नहीं कि गालिब जैसा चमत्कार उत्पन्न हो उनसे। यह हुनर थोड़ा-थोड़ा नागार्जुन में जरूर देखी जा सकती है। किंतु इसकी जरूरत क्या है? जब निराला सम्मान देने वाले अरुण कमल जैसे गुइयाँ मौजूद हों। प्रौढ़ता तृष्णा रोग का अंतिम समय है, चला चली की बेला में गुइयाँ से आसक्ति का होना कोई गैर स्वाभाविक नहीं। किंतु प्रश्न तो बना रहेगा! कारण क्या है कि नीलकंठ जैसे मेधावी कवि अंधेरे में धकेल दिए जाने के लिए अभिशप्त हैं। ढूढ़ते हैं उन्हीं की कविता में इसका कारण। इस भाव की अभिव्यक्ति में, वे कही-कहीं सर्वेवर दयाल सक्सेना से दिखते हैं।
“लड़ाई कह कर लाई जा रही है/ ……../ उनकी भीतरी जेबें टटोली जा रही हैं/ किस तरफ?/ ………/ जाँचा जा रहा है कि लकवा/ बाएँ में है या दाएं में/ दीमक से कौन है / कौन है घुन से / कौन राष्ट्रगान से कौन क्रांतिगान से/ कौन राम धुन से। ( लड़ाई शीर्षक कविता से।)
रमाकांत निःशब्द हैं, क्योंकि “निःशब्द प्रातः समय में / वय ने कहा है रात्रि जीवन लट निचोड़/ कुंतलों में फेरते थे अंगुलिया जिसके / वह अहिल्या थी/ घटित जीवन पटल पर यह घोखा है/ उर्वसी की किस्म धरती पर नहीं मिलती/ …./ जिसे छू दो वही पत्थर में बदलता है।”
हर कवि की पहचान अलग है। जैसे उसका हास्ताक्षर भिन्न होता है वैसे ही उसकी अभिव्यक्ति का अंदाज या उसकी शैली भी भिन्न होती है। रमाकांत भी अपनी अंदाजेबयानी में निराले हैं, जैसे कि महाकवि निराला थे।
वस्तुतः सौन्दर्य का कोई शाश्वत मानक नहीं है। यह बाहरी किसी संवेद की प्रतिक्रिया में मन की अनुभूति है। चाहें तो हृदय की अनुभूति भी कह लें। इस अनुभूति को जगाना और उसे परिमार्जित करना कविता के कई उद्देश्यों में एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।
‘ब्रह्मराक्षस का सजल उर शिष्य होना चाहता’ , यदि यह पंक्ति हमें संवेदित नहीं होती तो इसमें मुक्तिबोध का क्या दोष! ‘जो गोलियों के अभ्यस्त हो गए हो, उनकी नींद पक्षियों के कलरव से नहीं टूटती।’ किंतु यह न भूलना चाहिए कि गेलियों की आवाज में पक्षी चूं तक नहीं करते।
‘पक्षियों की आवाज अभी नहीं आती
वे क्या सोए हैं
वे चुप क्यों हैं
पता लगाओं’
पता चलता है कि
‘कुछ भाड़े पर आ गए
रट्टू गवैये रात से गाते हैं
उन्हें छोड़ो
चिड़िया की पहली चहक अभी फूटी है
खुशी मनाओं पर्दे हटाओ
सचमुच रट्टू गवैये हो गए हैं आज के कवि। आलोचक कर्कष और पाषाण हृदय। अतः अंत में रमाकांत की साधना को साधुवाद। कुछ संदेश और कामनाएं भी!
“नदी तुम बहती चलो
कुछ कलिुषित कामनाएं/ रोकना चाहें तुम्हें / नदी तुम बहती चलो”
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रामचंद्र ओझा, रांची।
Very Nice
धन्यवाद