– कुबेर कुमावत
“ज्वालामुखी” जापानी लोगों द्वारा लिखित एवं प्रकाशित हिंदी की एक महत्वपूर्ण पत्रिका रही है. अब यह प्रकाशित नहीं होती. इस पत्रिका का प्रथम अंक सितंबर-1980 में प्रकाशित हुआ था और इसके संपादक थे श्री योशिअकि सुजुकी.इस पत्रिका के 1980 के दशक से लेकर 1986 तक प्रतिवर्ष कुल छह अंक निकले.केवल 1984 में इसका कोई अंक प्रकाशित नहीं हुआ. इन सभी छह अंकों की सामग्री को एकत्रित कर पुनश्च “ज्वालामुखी” शीर्षक से ही पुस्तकाकार रूप में 2023 में प्रकाशित किया गया. पुस्तकाकार इस पत्रिका के प्रस्तुतकर्ता डॉ. वेदप्रकाश सिंह ने मुझे इस पुस्तक की एक प्रति सितंबर-2023 में ही भेजी थी परंतु समयाभाव के कारण मैं इस पुस्तक पर तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सका और न ही इसपर कुछ लिख सका.
वास्तव में भारत में हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर अत्यंत अनूठी,ज्ञानवर्धक और शोधपरक सामग्री इस पुस्तक में संकलित है.यह सब कुछ जापानी लेखकों द्वारा लिखित होने के कारण इसका विशेष महत्व है ऐसा नहीं है बल्कि उन्होंने जिस तरह से हिंदी में लिखा है वह अद्वितीय है और भारत के हिंदी में लिखनेवाले लोगों के लिए भी एक उत्कृष्ठ उदाहरण है. शोध करते समय शोधकर्ता की दृष्टि कैसी तीक्ष्ण और सूक्ष्म होनी चाहिए तथा शोध किस प्रकार गंभीरता और निष्ठा से करना चाहिए इसके कई उत्तम उदाहरण इस पत्रिका में मिलते है. मैं पद्मश्री डॉ.तोमियो मिजोकामी के उस लेख को पढ़कर प्रभावित हुआ जो पत्रिका के 1980 के में प्रकाशित हुआ था. इसका शीर्षक है–“उत्तरी भारत के नगरों में भाषा समस्या पर कुछ टिप्पणियां”.आप विश्वास भी नहीं करेंगे ऐसे किसी अनूठी और वाकई महत्वपूर्ण परिकल्पना से युक्त विषयपर कुछ शोधपरक लिखा जा सकता है और वह भी किसी विदेशी द्वारा. यह काम तो हम में से किसी एक को करना चाहिए था.इस शोधपरक लेख में उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न नगरों के हिंदी बोलने और समझने वाले लोगों को आठ वर्गों में विभक्त किया है जो उनकी शिक्षा, संस्कृति तथा भाषा के प्रति उनकी सचेतनता अथवा अचेतनता पर आधारित है और उनके सामाजिक स्तर से मेल नहीं खाता. यह आठ वर्ग क्रमशः क,का,ख,खा,ग,घ,ड. और च है.
इस लेख का संक्षिप्त कुछ इस प्रकार है जो अत्यंत रोचक और विचारोत्तेजक है :
वर्ग ‘क….. हिंदी-विद्वान अथवा अध्यापक, हिंदी अथवा संस्कृत के स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र, हिंदी लेखक, कवि, आलोचक, हिंदी-पत्रकार, आर्य समाज के नेता, और सनातन हिंदू धर्म के साथ संबंधित पंडित इत्यादि इसी वर्ग में आते हैं। ये उच्च हिंदी में बहुत दक्ष हैं। गमपर्ज” के अनुसार हम इस वर्ग को ‘संभ्रांत हिंदी वक्ता’ कह सकते हैं। जब ये ‘संभ्रांत हिंदी वक्ता’ शुद्ध हिंदी के संकुचित प्रचारक बन जाते हैं, तो इन्हें ‘हिंदी वाले’ कहा जाता है, जो कि एक अपमानजनक शब्द है। इस प्रकार की मौजूदगी ही हिंदी क्षेत्र की अन्यतम विशेषता है.
वर्ग ‘का’…. उन लोगों का है जो अंग्रेज़ी में उच्च शिक्षित होने के साथ-साथ हिंदी में भी समान रूप से अच्छे हैं। ये वास्तविक द्विभाषी हैं। ये स्थिति के अनुरूप एक भाषा को दूसरी भाषा में सहजता से बदल सकते हैं। ये संकीर्णतावादी नहीं होते। ये भारतीय बुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं, किंतु आर्थिक दृष्टि से उनमें से अधिकांश मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग में आते हैं। ‘क’ तथा ‘का’ वर्ग ही ऐसे हैं जो किसी विदेशी से यह नहीं कहेंगे कि “आप मुझसे अच्छी हिंदी जानते हैं।” और जिनसे विदेशी लोग अच्छी हिंदी सीख सकते हैं।
वर्ग ‘ख’….. वर्ग ‘क’ का ही यह उर्दू संस्करण है और वर्ग ‘खा’, वर्ग ‘का’ का। शिक्षित मुसलमान और कुछ शिक्षित हिंदू (जैसे कायस्थ लोग जो उर्दू में शिक्षित हैं) ‘ख’ वर्ग अथवा ‘खा’ वर्ग के अंतर्गत आते हैं। उनकी संख्या कम होती जा रही है।
वर्ग ‘ग’…. यह एक ऐसा वर्ग है जो भाषा नीति के प्रति उदार तथा उदासीन है। शिक्षित मध्यवर्ग का अधिकांश इसी वर्ग में आता है। ये वर्ग ‘का’ अथवा वर्ग ‘खा’ के निम्नतर स्तर के लोग हैं। ‘क’ का ‘ख’ और ‘खा’ वर्ग अपने भाषा प्रयोग के प्रति ‘सजग’ हैं किंतु ‘ग’ वर्ग उसके प्रति ‘सुप्त’ है। यद्यपि ये लोग भी द्विभाषी हैं, किंतु स्थिति के अनुरूप एक भाषा को दूसरी भाषा में नहीं बदल सकते। इन्हें ‘भाषा के अवसरवादी’ कह सकते हैं।
वर्ग ‘घ’…. उन लोगों का वर्ग है जो शरीर से भारतीय और मन से ‘अंग्रेज’ हैं। ये अंग्रेज़ों के समान ही धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते हैं। इन्होंने पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाई है। अंग्रेज़ी को भारत में बनाए रखने के ये प्रबल समर्थक हैं। यद्यपि ये हिंदी समझ लेते हैं पर ‘काम चलाऊ हिंदी’ ही पर्याप्त समझते हैं। ये लोग अधिकांशतः सरकारी प्रशासक, बड़े व्यापारी, डॉक्टर, वकील, वैज्ञानिक, पत्रकार और विश्वविद्यालयों के वे प्रोफ़ेसर हैं जिनके विषय विज्ञान अथवा सामाजिक विज्ञान से संबंधित हैं। ये संभ्रांत अवश्य हैं किंतु भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
वर्ग ‘ग’ और ‘घ’ ही ऐसे हैं जो ‘अंग्रेज़ीयत’ से छुटकारा न पाने के कारण हिंदी के विदेशी छात्रों को (अंग्रेज़ी भाषी भी शामिल हैं) हतोत्साहित करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा मानते हैं–जैसा कि एंग्लो-इंडियन लोगों में पाया जाता है, जो सुशिक्षित भी नहीं, ‘संभ्रांत’ भी नहीं, केवल अंग्रेज़ी में सोचते और जीते हैं, वे निम्नस्तर के ‘घ’ हैं।
वर्ग ‘ङ’…. यह अर्द्ध-शिक्षितों का वर्ग है। ये लोग सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम से शिक्षा पाते हैं। ये न तो साहित्यिक हिंदी में प्रवीण होते हैं और न ही अंग्रेज़ी में। किंतु उल्लेखनीय बात यह है कि वर्ग ‘घ’ की अपेक्षा वर्ग ‘ङ’ के लोग ही विदेशी छात्रों के लिए हिंदी सीखने में अधिक सहायक हैं। एक व्यक्ति, जिसने प्राईमरी स्कूल के केवल तीन वर्षों तक पढ़ाई की थी–को ‘दिनमान’ पढ़ते हुए देखना, जिसे वर्ग ‘घ’ या तो पढ़ नहीं सकता या पढ़ना ही नहीं चाहेगा, मेरे लिए एक उत्तेजक अनुभव था।
वर्ग ‘च’… यह वर्ग अशिक्षित समुदाय का है। ये हिंदी में भी अशिक्षित हैं। उनकी बोली में शिक्षितों अथवा अर्ध-शिक्षितों की बोली की अपेक्षा अधिक विविधता है।
अंततः हमें वर्ग ‘छ’ को भी देखना होगा।
वर्ग ‘छ’… यह तथाकथित उन प्रवासी लोगों का वर्ग है जिनकी मातृभाषा हिंदी से इतर है। भाषा की दृष्टि से अल्पसंख्यकों में से दिल्ली में सबसे बड़ा वर्ग पंजाबियों का है. परंतु केवल शिक्षित सिक्ख लोग ही पंजाबी भाषा में जुड़े हुए हैं। अन्य पंजाबियों ने स्वयं को हिंदी परिवेश के अनुकूल ढाल लिया है। जहाँ तक दिल्ली का प्रश्न है, पंजाबियों के बाद कश्मीरियों तथा सिंधियों ने हिंदी स्थिति के साथ पूर्ण मेल बना लिया है। दिल्ली में प्रायः सभी तमिल भाषी और बंगाली शिक्षित हैं। उनका भाषागत जीवन त्रिभुजीय है।
निष्कर्षतः हिंदी क्षेत्र की भाषा समस्या के लिए मुझे कुछ समाधान भी सुझाने चाहिए.वर्ग ‘ग’ और ‘घ’ को वर्ग ‘का’ की ओर बढ़ना चाहिए। उसके लिए उन्हें अपने अंग्रेजी ज्ञान को नहीं छोड़ना चाहिए अपितु उन्हें भारत के साथ अपनी पहचान स्थापित करने के लिए केवल साहित्यिक हिंदी का पर्याप्त ज्ञान अर्जित करना होगा। वर्ग ‘ङ’ तथा वर्ग ‘च’ के लिए शिक्षा तथा संस्कृति के मान में वृद्धि के अवसर प्रदान करने चाहिए। उनका वर्ग ‘क’ अथवा ‘ख’ में स्थानांतरण वांछनीय है।
: तोमियो मिजोकामि
इस पत्रिका में ऐसे अनेक ज्ञानवर्धक,सूचनात्मक, समीक्षात्मक,विवेचनात्मक सामग्री से युक्त लेख प्रस्तुत है. यह पत्रिका हिंदी भाषा और साहित्य के ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में स्वीकार की जा सकती है. इसमें सम्मिलित अन्य लेखकों में नोरिहिको उचिदा,यूसुके ओहिरा,ताकाको सुगानुमा, शिगेओ अराकि,रेयोको कोजिमा, तामाकि मात्सुओका,आकिरा ताकाहाशि,मिकि कावामुरा,एदेरा कोदामा,यूइचिरो मिकि,महेंद्र साइजी माकिनो,माकातो फुजिवारा,चिहिरो तानाका, आकिओ ताकामुरा आदि के लेख काफी पठनीय है.योशियाकि सुजुकि के संपादकीय दूरदृष्टि से युक्त है. पत्रिका के पहले ही अंक के संपादकीय में उन्होंने पत्रिका के उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया है.26 अगस्त, 1980 में रक्षाबंधन के दिन नयी दिल्ली में लिखित उनके संपादकीय का यह अंश देखे, –“जापानी लोगों को हिंदी अथवा हिंदी साहित्य का परिचय देने के लिए निबंध लिखना एवं कहानियों का अनुवाद करना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है. परंतु अनुसंधान के निष्कर्ष को जापानी भाषा में लिखने से कोई लाभ होगा? मैं लिख चुका हूँ कि जापान में भारत संबंधी अनुसंधानकर्ताओं की संख्या बढ़ रही है. परंतु फिर भी यह संख्या पर्याप्त नहीं है. इसलिए अध्ययन का क्षेत्र सीमित है.ऐसी परिस्थिति में, जापानी भाषा में शोध निबंध लिखने से क्या लाभ होगा? अगर अपने अध्ययन को हिंदी में लिखकर भारत के लोगों के सामने पेश किया जाए, तो व्यापक तौर से सुझाव भी मिल सकेंगे और हिंदी के माध्यम से जापानी साहित्य का परिचय, जापानी साहित्य का अनुवाद, जापानी और हिंदी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, जापानी संस्कृति का परिचय आदि करने से भारत के लोगों को भी लाभ मिलेगा. इसी आशय से इस पत्रिका का श्रीगणेश किया जा रहा है. इसके लिए मैंने जापानी हिंदी प्रेमियों से लेख लिखने का अनुरोध किया था. इस अंक के लेखकों से तथा अन्य लोगों से मुझे उपयोगी सुझाव मिले. प्रस्तुत पत्रिका जापानी लोगों द्वारा लिखित प्रथम निबंध संग्रह है.इस अंक के लेखक साधारण हिंदी प्रेमियों से लेकर भाषा विज्ञान के विशेषज्ञ तक है”
यह पत्रिका उन्होंने अपने दम-ख़म पर निकाली. इस पत्रिका के सभी लेखक जापानी है. इन जापानी लेखकों ने हिंदी और भारत के विषय में जो कुछ लिखा उससे आप यह जान सकते हैं कि ये लोग हिंदी भाषा और भारत से कितना लगाव रखते है. इसलिए इनकी नजरों से हमारा दिखावटी हिंदी भाषा प्रेम छुप नहीं पता.
यह पत्रिका साहित्यिक पत्रकारिता का आदर्श भी मानी जा सकती है. जरूरी नहीं कि आप दस-बीस साल पत्रिका को प्रकाशित करते ही रहे. अपना बहुत कुछ सर्वोच्च या सर्वोत्तम देकर किसी एक विशिष्ट स्थान पर ठहर जाना भी बड़ी उपलब्धि है. भारत में साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़-सी आई हुई है. हर दूसरा लेखक,कवि और प्रोफेसर पत्रिका का संपादक है. क्या पढ़े, किसे पढ़े, कब पढ़े और क्यों पढ़े कुछ समझ में नहीं आता.
(दो फोटो में तोमियो जी के साथ मैं और डॉ.वेदप्रकाश सिंह,अमलनेर में)
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कुबेर कुमावत, महाराष्ट्र।