धीरे धीरे बड़ा हो रहा है (एक)
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वह धीरे धीरे बड़ा हो रहा है
अभी अपने अवतरण के सातवें महीने में है
छोटे छोटे हैं उसके हाथ पांव
दांत नहीं उगे हैं
रूप रस गंध की
धीरे धीरे बन रही है पहचान
किसी नए स्वाद पर चटकारा मारता है
उल्लास से चीखता है सीटी की तरह
अपनी किलकारियों से
घर को गुंजायमान कर देता है
जाड़े की गुनगुनी धूप है और
हम उसे पास के पार्क में लाए हैं
मुलायम हरी दूब पर
घुटनों के बल वह चल रहा है
और आह्लादित है
और देख रहा है सामने मैदान में
अपने से बड़ी उम्र के बच्चों को
आसमान की ओर गेंद उछालते हुए
वह उम्र को नहीं जानता
लेकिन देख रहा है उछालना
देखते देखते ही
सीख जाएगा उछालने की कला
वह बड़ा हो रहा है धीरे धीरे
वह धीरे धीरे बड़ा हो रहा है ( दो )
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वह धीरे धीरे बड़ा हो रहा है
लेकिन अभी
इतना बड़ा भी नहीं हुआ है
कि खड़ा होकर स्वयं चल सके
कि स्वयं अपना आहार ले सके
साफ कर सके अपना मल मूत्र
उसके चार ऊपर के दांत और
दो नीचे के उग आए हैं
सभी प्रकार की मलीनताओं से परे
अविच्छिन निर्माल्य है वह
जन्म जरा और मृत्यु के
निर्दोष मलत्रय से हीन प्रसन्न चेतस है
अभी मुस्कराना जानता है
पुलकित कर देता है
भर देता है उजास बाहर भीतर
वह संज्ञा नहीं है न ही संज्ञाहीन
कच्चे घड़े का जल भी नहीं है
न ही सीमित उजास करने वाले
मिट्टी के दिए का बाती
देखो तो! उसका मुखड़ा देखो !
धीर गंभीर!
सूर्य की हजारों रश्मियों सा दीप्त !
बारूद की ढेर पर बैठी पृथ्वी के
सातों महा समुद्रों का दुख सोख लेगा
वह बड़ा हो रहा है धीरे धीरे
हिमालय लादे बच्चे
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पीठ पर हिमालय लादे बच्चे
स्कूल जा रहे हैं
पिघलती बर्फ की अजस्त्र धारा से
बिजली बनाने का पाठ याद करते हुए
वे निरंतर आगे बढ़ रहे हैं
वे आगे बढ़ रहे हैं और सोच रहे हैं
कैसे डाला जाए नदी के गले में पगहा
कैसे उसे खूंटे से बांधा जाए
वे चाहते हैं पहाड़ों को चूर चूर करना
पेड़ों को काटकर कंक्रीट का जंगल उगाना
अपने बस्ते में दुपहरिया की धूप
वे सजाना चाहते हैं किताबों की तरह
वे अनुसंधान कर रहे हैं
कि हवा को अंग अंग में
कुछ इस तरह भरा जाए
कि उड़ा जा सके हवाई जहाज की तरह
उन्हें लगने लगा है
कुछ सालों बाद
पृथ्वी पर रहने लायक जगह नहीं बचेगी
वे चांद पर ढूंढ रहे हैं कोई ठिकाना
बाबा कहानी सुनाओ
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कपूर की तरह उड़ गई उदासी
जब तुम आए खिलखिलाते हुए
अपनी नन्हीं अंगुलियों से
मेरी आंखों को छुआ
नाक मूंछ और होठों से होते
ठुड्डी को हल्का उठाते हुए बोले
” बाबा कहानी सुनाओ ना!”
शीतल हवा जैसे मेरे तप्त शरीर को छू गई
कहीं दूर एक साथ कई घंटियां बजीं
जंगली फूलों की मादक सुगंध
जैसे रोम रोम में उतर गई
तुम्हारी हथेलियों को सहलाते हुए
सोच रहा था कि
कौन सी कहानी तुम्हें सुनाई जाए
वह कहानी जिसे मेरे बाबा सुनाया करते थे
या वह जिसे मेरे पिता
सुनाते सुनाते रो पड़ते थे?
कहानी सुनने के पहले ही
तुम गहरी नींद में चले गए
तुम्हारे जागने की
प्रतीक्षा में हूं भविष्य ज्योति !
तुम्हें एक ऐसे जंगल की
कहानी सुनाना चाहता हूं
जहां पेड़ पौधे फूल पत्तियां
सभी पत्थरों में बदलते चले गए
झरने अचानक गायब हो गए
सूख गईं मीठी नदियां
असहिष्णुता हिंसा और बर्बरता की
ऐसी आंधियां उठीं कि
तार तार हो गई मानवीय संवेदनाएं
एक बर्बर समय की
तुम पैदाइश हो भविष्य ज्योति!
तुम्हारे सामने कठिन चुनौतियां हैं
घड़ी की सूई से समय नहीं बदलता
जख्मी और लहूलुहान होकर
मुश्किल घड़ी में आग की
आंच में तपना होता है
चुनौतियां बड़ी हों तो
चौबीसों घंटे जगना होता है
जागो हे भविष्य ज्योति!
दुनिया भर की कहानियां
अपने भीतर दबाए
तुम्हारे सिरहाने बैठा हूं
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लखनऊ, उत्तर प्रदेश।
(“संवेदनाओं के क्षरण काल में” संग्रहित हैं”।)