(1)
सोचा था कुछ और ही, हुआ मगर कुछ और।
दस्तक देने लग गया, फिर दुर्दिन का दौर।
कहीं खूब बारिश हुई, कहीं धूल ही धूल,
मौसम के इस खेल में, बचा न कोई ठौर।
(2)
दुनिया एक मकान है, रहते लोग हजार।
आपस में दिल खोलकर, करते हैं सब प्यार।
फिर भी इसको छोड़कर, जाना है अनिवार्य,
सदियों से यों ही रहे ,यहाँ किरायेदार।
(3)
अगर चाहते मिल सके, बाहर से भी प्यार।
पहले अपने आप को, थोड़ा-बहुत सुधार।
उर के उजड़े बाग में, फिर महकेंगे फूल,
तन को लाल गुलाब कर, मन को हरसिंगार।
(4)
रिश्ते ऐसे हो गये, ज्यों कागज के फूल।
धीरे-धीरे स्वार्थ की, जमती जाती धूल।
इससे खुशबू की कभी, मत करना उम्मीद,
इसके भिन्न मिजाज हैं, इसके अलग उसूल।
(5)
रिश्ते बनते जा रहे, पल-पल क्यों बाज़ार।
बिना मोल मिलता नहीं, कहीं किसी का प्यार।
गृहमंदिर में नेह का, बजता आज न शंख,
अपने भी करते नहीं, अपनों-सा व्यवहार!
(6)
झंझट, नफरत, बतकही, बेमतलब बकवास ।
इस दुनिया में आजकल, मिलते सबके पास।
जिसे दगा दे वक्त पर, खुद अपना ही खून,
औरौं पर कैसे करे, जग में वह विश्वास?
(7)
अमराई से अब नहीं, आती मधुरिम कूक।
जाने किससे हो गई, ऐसी अद्भुत चूक।
रसविहीन हैं हो गये, सारे सरस रसाल,
सुबह-शाम हैं बोलते, कौवे और उलूक।
(8)
बिरवा बोया आम का, उपजा मगर बबूल।
जाने कैसे हो गई, मुझसे ऐसी भूल।
सदा बागवाँ बन रहा, जीवन भर मुस्तैद,
फिर भी फल क्योंकर मिला, कर्मों के प्रतिकूल?
(9)
रोज़ सवेरे भोर की, किरणें आतीं आँक।
पूरब के आकाश पर, तरबुज की इक फाँक।
कली-कली को चूमकर, सुखद सुनहरी धूप,
बगिया की हर डाल पर, खुशियाँ जाती टाँक।
(10)
यहाँ किसी भी ताल में, खिलते नहीं सरोज।
गली – गली में गूँजते, गाली और गलोज।
जिन हाथों को चाहिए, कोई नई किताब,
उनको क्यों होने लगी, अब पत्थर की खोज?
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राउरकेला, ओडिशा