वह एक खुशनुमा शाम थी, जब मैं पहली बार उससे मिला था। हमारे पड़ोसी तालीमेरेन जी ने ही हमारा हाल-चाल लेने के लिए उसे भेजा था। दरवाजा मैंने ही खोला था। पहाड़ी झरने जैसी अपनी सहज हंसी बिखेरते हुए वह बोली-“ आपलोग बाहर से अभी-अभी आए हैं। सर जी ने पूछा है कि शायद कुछ जरूरत हो तो आप बता दें।”
“नो थैंक्स” पापा अंदर से बाहर आकर बोले- “तालीमेरन जी से कहना कि हम बाहर से खाना पैक करा कर लेते आए हैं।जब कोई जरूरत होगी तो हम मंगवा लेंगे।”
पूर्वोत्तर में पहाड़ों पर शाम जल्द ही उतर आती है।फिर अंधेरा घिरते देर नहीं लगती। सूर्य की रश्मियॉं शाम को सिन्दूरी आभा प्रदान कर रही थी। मैं उसे जाते हुए एकटक देखता रहा। पहले तो कभी इसे देखा नहीं था। फिर यह कब आई। उसकी हॅसी और खनकती आवाज जैसे अभी तक मेरे कानों में गूँज रही थी। वह कौन है और तालीमेरेन जी से इसका रिश्ता क्या है, यह जानने को मैं उत्सुक था। मैं उसे पहली बार देख रहा था।
मैं अपने पापा-मम्मी के साथ यहॉं लगभग दस सालों से रह रहा था। पापा चर्च के साथ लगे विद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक थे। तालीमेरेन जी की पत्नी भी उसी विद्यालय में शिक्षिका थीं, इसलिए शायद उनलोगों से परिचय हुआ था। उनके दोनों बेटों के साथ मैं भी उसी विद्यालय में पढ़ता था। इस प्रकार दोनो परिवार परस्पर घुले-मिले थे। तालीमेरेन जी पड़ोस के शहर के एक प्लाईवुड फैक्ट्री में प्रबंधक थे।
मेरी बड़ी बहन दिशा का जन्म दिल्ली में हुआ था, जबकि छोटी निशा का जन्म यहीं के सरकारी अस्पताल में हुआ था। उस वक्त तालीमेरेन जी और उनके परिवार ने हमारी हर संभव सहायता की थी। वैसे भी उन लोगों के कारण हमें कभी ऐसा नहीं लगा कि हम नागालैंड जैसे खतरनाक प्रदेश में रह रहे हैं।
अगले दिन वह फिर आई। उसके हाथ में एक बास्केट थी, जिसमें कुछ साग-सब्जियॉं थीं। मम्मी ने उसी बास्केट में साथ लाई मिठाइयों का एक हिस्सा भरकर वापस कर दिया था। चूँकि मै बोर्ड की परीक्षा की तैयारी कर रहा था, मुझपर अनेक दबाव थे। दिशा ने अभी-अभी विद्यालय जाना शुरू किया था। जबकि डेढ़ वर्षिया निशा घर पर ही मम्मी के साथ अकेली होती और उसे खूब परेशान करती थी।
वह तालीमेरेन जी के गाँव की अनाथ लड़की थी। एक हादसे में उसके माँ-बाप की अचानक मौत हो जाने से वह अकेली थी, इसलिए तालीमेरेन जी उसे अपने साथ ले आए थे। वह अक्सर ही कहते- “लैंटिना के आने से हमें काफी सहुलियत हो गई है।उसने सारा घर सँभाल लिया है।”
सचमुच वह हमेशा काम में लगी रहती थी। जब देखो तब वह कभी लकड़ी फाड़ रही है, तो कभी झरने से पानी भरकर ला रही है। पूरे घर का भोजन बनाने से लेकर कपड़े धोने तक का काम जैसे उसी के जिम्मे था। मम्मी जब कभी काम के बोझ से परेशान हो जाती, पापा कहते- “लैंटिना को देखो. कितना काम करती है। यहॉं तक कि जलावन की लकड़ी फाड़ने और झरने से पानी लाने का काम भी उसी का है।”
“मगर मैं इस छुटकी निशा का क्या करूँ” वह खीझकर कहतीं “जब देखो, परेशान करती रहती है”
“अब वह परेशान नहीं करेगी। मैं उसे देख लिया करूँगी।” यह लैंटिना की आवाज थी।वह कब आकर खड़ी हो गई थी. किसी को पता भी न चला था।
डेढ़ वर्षीया निशा धीरे-धीरे लैंटिना के साथ घुलती-मिलती जा रही थी। वह उसे कमर में बांधकर रख लेती थी। मम्मी के कहने पर वह अपने दोनो हाथ दिखाकर कहती- “मेरे दोनो हाथ तो खाली हैं। काम करने में परेशानी की क्या बात है। निशा तो मेरी कमर या पीठ पर रहती है।”
अब मम्मी भी धीरे-धीरे उसकी तरफ से निश्चिंत रहने लगी थी। निशा को साथ रखकर भी वह सारा काम उसी फुर्तीपूर्वक करती थी। निशा भी जैसे उसकी सारी बातें सुनती-समझती थी। जबकि मैं लगभग दस वर्षों से यहॉं रहकर भी स्थानीय भाषा सीख नहीं पाया था। मैं ही क्यों, पापा तो पिछले सत्ताइस सालों से यहॉ रहकर अंग्रेजी पढ़ा रहे थे, वह भी स्थानीय भाषा सीख नहीं पाए थे। ऐसे में छुटकी निशा जब लैंटिना की हर बात पर हँसती-खिलखिलाती, तो हमें बड़ा आश्चर्य होता। वह इसकी बात सुनती समझती ही नहीं, बल्कि मानती भी थी।
खासकर चुल्हे में लकड़ी डालने, पानी गर्म करने अथवा रसोई बनाते वक्त लैंटिना निशा को अपने से अलग कर कहीं बैठा देती थी। और वह भी चुपचाप पड़ी रहती थी। क्योंकि उसको मालूम था कि दूसरे कामों के वक्त वह उसे अवश्य अपने कमर अथवा पीठ में बांध लेगी। लैंटिना को कभी आभास भी नहीं होता कि उसपर काम के बोझ के अलावा भी एक अतिरिक्त बोझ है।
मैं उसे देखकर ही रोमांचित हो जाता था। उसका गोरा, चम्पई रंग जैसे और अधिक निखरता जा रहा था। उसकी कमर तक लटकती घनी केश राशि हमेशा खुली रहती थी। उसकी अधमुंदी पलकों के बीच स्वप्निल सी चमकती आंखों में हमेशा एक कशिश सी रहती, जिसे देखने भर से ही मैं अपनी सुधबुध खोने लगता था।
वह विद्यालय नहीं जाती थी। फिर भी उसके पास समय नहीं था। मम्मी ने एक बार पापा से कहा था- “पूरा दिन खटती-मरती है। क्या उसका पढ़ने का दिल नहीं करता।”
“वहॉं गाँव में भूखों मरने से बेहतर है कि यहॉं है” पापा सपाट स्वर में बोले थे- “नागा समाज पूरी तरह पुरूष प्रधान है। यह ठीक है कि इस समाज में औरतों को सम्मान और स्वतंत्रता है। मगर मूलतः यहॉं भी इनकी स्थिति दोयम दर्जे की ही है।”
मैं विद्यालय से आने के बाद अक्सर ही थोड़ी देर तक बहनों के साथ खेलता अथवा जंगलों की ओर निकल पड़ता था। कभी-कभी वे भी हमारे साथ लग जातीं। निशा जल्द ही थक कर गोद में आने के लिए मचलने लगती थी। ढलान पर तो मुझे कोई परेशानी नहीं होती थी। मगर चढ़ाई के वक्त मेरी साँस फूल जाती। मैं सोचता कि लैंटिना घंटों उसको लिए लिए कैसे इतना सारा काम कर लेती है। उधर दिशा कहती- “भैया जंगल में मत जाओ। लैंटिना बताती है कि वहॉं बाघ और हाथी आते हैं। उनसे बहुत खतरा है।”
“लैंटिना भी तो जंगल जाती है” मैं हँसकर कहता- “उसे तो डर नहीं लगता।”
“उसका क्या है” दिशा खीझकर कहती- “वह तो काम से जाती है। फिर उसके पास बड़ा सा दाव रहता है। तुम्हारे पास तो कुछ नहीं रहता।”
“ठीक है। फिर मैं भी एक दाव रख लूँगा।”
मेरे इस बात पर दोनों बहनें खूब हँसतीं।
बारिश के दिनों में घास-फूस की तरह बॉंस तेजी से उगते और बढ़ते हैं। उस समय बाँस के उपरी कोंपलों के भीतरी सफेद हिस्से को काटकर जमा किया जाता है। फिर इसे कूट और छान कर इसका रस निकाल कर बोतलों में भरकर साल भर के उपयोग के लिए रख लिया जाता शपकाते वक्त टपका दी जाती हैं।
इन दिनों स्थानीय लोग यही काम करते हैं। सुबह सवेरे महिला-पुरूष-बच्चे सभी झुंड के झुंड जंगल जाते हैं और अपनी शंक्वाकार टोकरियों में भरकर बाँस की कोंपलें ले आते हैं। लैंटिना वैसे तो घर के कामों के अलावा जंगल से साग-सब्जी, कंद-मूल आदि लाने अक्सर ही जंगल चली जाती थी। मगर अभी वह इस काम में भी लगी थी।
एकाध बार तो वह अपने साथ निशा को भी साथ ले गई थी। मगर फिर मम्मी ने मना कर दिया।
“मैं उसे अपने साथ जंगल क्यों नहीं ले जा सकती।” लैंटिना कहती- “मेरे दोनो हाथ खाली रहते हैं।”
“जंगल की बात है लैंटिना” मम्मी कहतीं- “कोई मुसीबत आ गई, तो खुद को देखोगी या कि उसको।”
दिशा और निशा मुझसे तब फुसफुसाकर कहतीं- “भैया जंगल में चलो न। वहॉं बहुत मजा आयेगा।”
“नहीं वहॉं मुझे डर लगता है” मैं अभिनय करता- “तुमलोग ही तो मना करती हो। वहॉं बाघ और हाथी मिल सकते हैं।”
दरअसल मम्मी की सख्त हिदायत थी कि उधर जाना तो दूर की बात सोचना तक नहीं है। और मुझे मम्मी से हमेशा डर लगता रहा है।
“वह सब फाल्तु बात है। लैंटिना तो अक्सर जाती है। वहॉं कुछ नहीं होगा। चलो न हम जल्दी लौट आएँगे।”
लैंटिना मुझे दिन-प्रतिदिन आकर्षित करती जाती थी। वह मुझे काफी खूबसूरत दिखती। जबकि वह अपने काम में मशगूल रहती थी। मैं किसी न किसी बहाने उसे देखना चाहता था। अक्सर ही कापी-किताबें खुली रहतीं और मैं किसी दिवा-स्वप्न में डूबा रहता। जबकि वह या तो झरने से पानी ला रही होती, या चूल्हे में लकड़ियॉं झोंक रही होती। सब्जियॉं काट रही होती अथवा भोजन बना रही होती। हड्डियॉं जमा देने वाली ठंढ में भी वह उसी फूर्ती से कपड़े धोती और सुखाती थी।
उसके हर काम में तन्मयता और लयात्मकता होती थी। इस बीच वह कभी निशा को मम्मी के पास से ले जाती अथवा पहुँचा जाती। कभी उसे कमर में, तो कभी पीठ पर बांधती। जब निशा उसके पास होती, तो जाने उससे क्र्या-क्या बात करती रहती। शायद एक निशा ही धी, जिससे वह खुलकर बात करती थी। निशा को भी उसकी बातों में बहुत मजा आता रहा होगा। इसलिए वह उसके साथ बात करते हमेशा हँसती-खिलखिलाती रहती थी। दिशा से उसका वास्ता कम ही पड़ता था। मगर दिशा के हर सवाल का जवाब उसके पास होता था। लैंटिना उसकी हर बात का राजदार थी। वैसे वह मुझे भी कुछ-कुछ बताती थी और अंत में यह जुमला अवश्य जोड़ती-“तुम्हें तो कुछ मालूम नहीं। लैंटिना को सब मालूम है। वह सब जानती है। तुम बेकार विद्यालय में पढ़ते हो।”
लैंटिना का तालीमेरेन जी के परिवार से लगभग अनबोला रिश्ता था। वहॉं सारा कुछ समय पर हाजिर मिलता था। फिर सवाल-जवाब के लिए जगह ही कहॉं बचती थी। चूँकि मम्मी सारा दिन घर पर रहती थी, उससे उसकी कुछ बातें अवश्य होती थी।
ऐसे में मैं लैंटिना से बात करूँ भी तो क्या और कैसे! क्योंकि एकाध बार मौका आया भी, तो मुझे बस ‘हॉं’ अथवा ‘ना’ में संक्षिप्त सा जवाब मिला।
वह सर्दियों के दिन थे। दिसंबर का माह था। क्रिसमस की तैयारी जोरों से चल रही थी। मैं विद्यालय आते-जाते चर्च में चल रहे क्रिसमस की तैयारियों को देखता-महसूस करता। एक दिन दिशा मुझसे फुसफुसाकर बोली- “जानते हैं भैया, जंगल में एक पेड़ पर मधुमक्खियों का बहुत बड़ा छत्त लगा है।”
“है, तो है” मैंने उसे झिड़का- “हमें उससे क्या।”
“मुझे दिखा दो ना” वह मचलकर बोली- “मुझे उसे देखने का बड़ा मन है।”
“बाप रे! मैं नहीं जाता जंगल में उसे देखने। वह भी तुम्हारे साथ।” मैं बोला- “मम्मी मुझे मार डालेगी।”
“मुझे पता है. तुम जंगल जाते हो” वह ठुनककर बोली- “तुम अक्सर लैंटिना के पीछे जंगल जाते हो।”
मैं जैसे आसमान से नीचे गिरा। तो इसे पता है। यह बात और किन-किन लोगों को मालूम है, यह पता नहीं! दरअसल पिछले कुछ समय से यह मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया था। अगर मम्मी को यह पता चल गया तो घोर अनर्थ हो जाएगा। पता नहीं वह क्या कर बैठे।
“निशा तो लैंटिना के साथ जाकर उसे देख भी आई है”दिशा बोली- “अब तुम मुझे भी दिखा दो।”
पहाड़ की चोटी पर हमारा गॉंव था। उसके आगे सफेद रंग का विशालकाय भव्य चर्च खड़ा था। उसी से सटा हमारा विद्यालय भी था। उसी के बगल से एक पगडंडी घने जंगलों की ओर जाती थी। मैंने भी अपने सहपाठियों से उस मधुमक्खी के छत्ते के संबंध में सुना था। सो उसे देखने की उत्सुकता मुझमें भी थी। क्योंकि वह छत्ता अब कभी भी निकाला जा सकता था।
अगला दिन रविवार का था। पूरी बस्ती मे अपने-अपने काम-धाम शीघ्रतापूर्वक निपटाए जा रहे थे। ताकि चर्च के साप्ताहिक प्रार्थना में वे सभी शामिल हो सकें। तालीमेरेन जी के परिवार के साथ लैंटिना भी चर्च जा रही थी। मैं भी दिशा और निशा के साथ उधर घूमने को निकल गया। मुझे चर्च तो जाना नहीं था। सो मैं जंगल की ओर आगे बढ़ लिया। घनी झाड़ियों से घिरे एक विशाल वृक्ष पर बहुत बड़ा मधुमक्खियों का छत्ता टंगा था।
मैं उसे एकटक देखता रह गया।
“लैंटिना बोली है कि वह इस छत्ते को तोड़कर ढेर सारा मधु निकालेगी”निशा बोली- “वह मुझे भी ढेर सारा मधु देगी। भैया, फिर मैं तुझे मधु खिलाऊँगी।”
“वह लड़की है” मैं हँसते हुए बोला- “वह पेड़ पर कैसे चढ़ेगी। फिर मधुमक्खियॉं बुरी तरह काटती हैं।”
‘ऊंहूँ’ दिशा मुंह बनाकर बोली- “तुम्हें सचमुच कुछ नहीं मालूम। लैंटिना लड़की है, तो क्या हुआ। वह सब काम कर सकती है। पेड़ पर भी चढ़ सकती है। और मधु भी निकाल सकती है। तुम कुछ करते-धरते तो हो नहीं, खाली फालतु बात बोलते रहते हो।”
“अगर भैया मधु निकाल पाते तो कितना अच्छा होता” निशा बोली- “तब लैंटिना को मेहनत नहीं करनी पड़ती। हम लैंटिना को मधु देते। वह मुझे कितना कुछ खाने के लिए देती है। मैंने आजतक उसे कुछ नहीं दिया।”
“मम्मी तो देती ही है”
“मम्मी न देती है। मैंने तो कुछ नहीं दिया।”
अचानक ही एक खिलखिलाहट से हमारा ध्यान भंग हुआ। लैंटिना कुछ लड़कियों के साथ उधर ही आ पहुँची थी। वह निशा को गोद में उठाकर बोली- “मुझे तो कुछ नहीं चाहिए बेबी। मुझे तो सिर्फ मेरी बेबी चाहिए।”
निशा तो जैसे उसको पा कर निहाल हो गई!
जंगल से आते-जाते लोगों का वह विश्राम-स्थल था। लैंटिना भी अक्सर वहॉं आती-जाती थी। यह सब मुझको उसी दिन पता चला। आखिर वह कौन सा मंत्र-सिद्ध सम्मोहन था कि मैं दोपहर में भोजन करने के बाद पुनः उधर चला आया। ठंढी हवा बदन में सिहरन पैदा कर रही थी। मैं चमड़े का जैकेट पहने सर को मफलर में छुपाए उसी पेड़ के नीचे बैठा था। आसमान में सफेद-स्याह बादल तैर रहे थे। तभी सिर के सहारे शंक्वाकार टोकरी लटकाए लैंटिना उधर से गुजरी। मेरी तो जैसे तपस्या पूर्ण हो गई हो, इस पुलक के साथ मैं खड़ा हो गया। मगर यह क्या, वह तो अचानक गायब हो गई। अरे इतनी जल्दी, वह भी अचानक कहॉं अंतर्धान हो गई! कहीं उसने मेरे बारे में कुछ ऐसा वैसा तो नहीं सोच लिया। कौन जाने, इसलिए वापस लौट गई हो।
अचानक झाड़ियों के बीच उसकी घनी केश-राशि दिखी। ओ.. तो यह यहॉं बैठी है। शायद यह कुछ संकोच कर रही है कि एकांत में क्या बात करनी है। लेकिन आज अच्छा अवसर है इससे बात करने का। मैं उसके समीप आकर उसके बालों को छूना ही चाहता था कि एक भयानक गुर्राहट के साथ पूरा जंगल थर्रा उठा।
वह एक भारी-भरकम काला-कलूटा भालू था, जो मधुमक्खी के छत्ते की ताक में घात लगाए बैठा था। उसने अपना जबड़ा खोल, पंजा बढ़ाकर मुझपर झपट्टा मारा। मेरी भयानक चीख निकली और मैं गिर पड़ा। अब मैं उसकी चपेट में था। मैं उसके चंगुल से छूटने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था। मुझे साक्षात् मौत दिख रही थी। फिर भी मैं संघर्ष कर हा था।
वह विशालकाय भालू अचानक एक बार फिर जोर से गुर्राया। मगर इस बार उसके आवाज में दर्द छिपा था। पता नहीं कब लैंटिना वहॉं आ गई थी। उसने उसपर अपने दाव का भरपूर वार चलाया था। इससे मैं उसके चंगुल से छूट गया था। मैं भागने के लिए मुड़ा। मगर भालू ने मुझपर फिर एक बार झपट्टा मारा। उसके नाखुन मेरे चमड़े के जैकेट को फाड़ते हुए मेरी पीठ पर धँस गए। मेरी तो जैसे जान निकल गई। तबतक लैंटिना ने ताबड़तोड़ दाव के कई वार भालू पर कर डाले थे। भालू घायल होकर जंगल की ओर भागा। मैं भी वहॉं से बेतहाशा गाँव की ओर भाग छूटा। रास्ते में कितनी बार मैं गिरा, कितनी ही बार झाड़ियों में उलझा, कितने कांटों से मेरे पैर लहुलूहान हुए, मुझे इसका अहसास तक न था। घर पहुँचकर बिछावन पर गिरते ही मैं बेहोश हो गया।
जब मेरी बेहोशी टूटी, उस समय लैंटिना मेरे जख्मों पर कोई लेप लगा रही थी। निशा का रोते-रोते बुरा हाल था और वह उसकी पीठ पर बंधी थी।
दिशा ने मुझे होश में आया देख मम्र्मीपापा को बुला लाई। मम्मी का चेहरा तमतमाया हुआ था। जबकि पापा का चेहरा पूर्ववत् सपाट था। इनके पीछे तालीमेरेन जी और उनका परिवार भी चला आया था।
“लैंटिना जंगल से ही ये जड़ी-बूटियॉं लेती आई थी” तालीमेरेन जी बोले- “उसके पिताजी एक अच्छे वैद्य थे। सो उसे भी जड़ी-बूटियों की अच्छी जानकारी है। उसने खुद इन्हें कूट-पीसकर यह लेप बनाया है। देखिए खून का बहाव रूक गया है। घाव भी जल्द ही भर जाएँगे। चिंता मत कीजिए।”
“चिंता कैसे न करें-” मम्मी क्रोधित स्वर में बोलीं- “एक ही लड़का है और उसके ये लक्षण हैं। कुछ हो हवा जाता, तो हम तो कहीं के नहीं रहते। कितनी बार मना किया है कि जंगल में न जाया करो। मगर मेरी कोई सुने तब तो। यह लड़का दिन-प्रतिदिन आवारा और बदमाश होता जा रहा है। खुद तो जाता ही है, बहनों को भी साथ ले जाता है जंगल में।”
“जाने दीजिए” तालीमेरेन जी के आवाज में थी- “अभी तो बच्चा ही है। गलती कर जाता है।”
“यह अभी तक बच्चा है। दो माह बाद मैट्रिक की परीक्षा देने वाला है।”
“अब चुप भी रहो” पापा चिल्लाए- “लड़का वैसे ही तकलीफ में है और डरा हुआ है। जो हुआ सो हुआ। अब आगे का ख्याल रखना है।”
सबके जाने पर निशा आ कर मेरे कानों में फुसफुसाकर बोली- “भैया तुम मधु लाने मत जाना। मैं लैंटिना से मँगवा दूँगी।”
उस दर्द और दहशत के बीच मैं मुस्कुरा पड़ा।
अब मैं उस सबसे उबर चुका हूँ। मगर मेरी आँखों में वह भयानक दृश्य आज भी ताजा है। मेरी पीठ पर भालू के पंजों के वे निशान अभी तक हैं। आप चाहें तो मैं उसे दिखा सकता हूँ।
आज, अभी, इसी वक्त !
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चितरंजन भारती,
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