पृथ्वी
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हे सौर-नीहारिका पुत्री पृथ्वी
विशाल ब्रह्मांड में
विज्ञान के कई रहस्यों से पर्दा हटाती एक बेहद महत्त्वपूर्ण पुस्तक हो तुम।
तुम अतीत में नहीं थी
डर लगता है इस बात से कि
कैसा होगा तुम्हारा भविष्य?
अपने अक्ष पर लम्बवत 23.5 डिग्री झुकी हुई तुम
विनम्रता का प्रतीक जैसी लगती हो।
तुम्हारे विशाल वक्ष में
पर्वत, पठार, महाद्वीप, द्वीप, नदियाँ, समुद्र सरंचनाएं सजी हुई है।
सौभाग्य सा लगता है
तुम्हारे आँचल में
सूरज का निकालना
दिन का ढल जाना
तुम्हारी गोद में बेफिक्र हो कर
रात का पसर जाना
तारों का फुसफुसाते हुए
झीलों में उतर जाना
बर्फीले ऊँचे पहाडों से
फिसलती हुई बर्फ का
नदियों में उतर समुंदर में मिल जाना।
हे पृथ्वी
मैं तुमसे ही पूछती हूँ
इस विशाल ब्रह्मांड में
क्या कोई और ऐसा ग्रह है
जो तुम्हारे अवशेष अस्तित्व की राख पर
हम मनुष्यों के जीने का विकल्प बन सके?
सच्ची स्वतंत्रता
आजादी के परिप्रेक्ष्य में
जब भी बात उठती है
देश को दासता से मुक्त कराने में
शहीदों की शहादत दिखती है।
उन्हें याद कर,नयी पीढ़ी को
गर्वीला इतिहास बताना कर्ज़ बनता है
देश हित प्रेरणा लेना
हम सभी भारतियों का फर्ज़ बनता है।
गुलामी और यातनाओं से आजाद हुए हमें वर्ष “76” हो रहे
परंतु वर्तमान परिस्थिति में
आजादी के सारे “सच्चे” मायने खो रहे।
परिस्थितियां बदली
“बदला” सोचने-समझने का दायरा भी
क्यों स्वतंत्रता के नाम पर ध्वस्त रहा
स्त्रियों के व्यक्तित्व का सरमाया भी।
ऐसा लगता हैं कि हम
एक नई गुलामी के युग में
फिर से प्रवेश करते जा रहे हैं,
आज़ादी के नाम पर स्त्रियों की
अदम्य गरिमा को श्राप रहे हैं।
आजादी के पैरोकार
नित नयी दलीलें गढ़ते हैं
स्त्री सशक्तीकरण बनाए क़ानून पर
अनेको खोखले दम भी भरते हैं।
कागज़ों में अधिकारों का
भ्रम तो ताउम्र बना रहता है,
पर ज़मीन पर असल तस्वीर
जस का तस धरा रहता है।
क़ागज़ी क़ानूनों और सच्चाई के बीच बस फर्क इतना होता है
हाथ से फिसलते चाय की प्याली
और होठों जितना होता है।
आज़ाद भारत में पली बढ़ी होने के नाते
मैं स्वयं से प्रश्न करती हूँ
और इस सभा में बैठे
आपसे सभी से भी यही सवाल धरती हूँ।
इंटरनेट और किताबों में इन सवालों का जवाब जब भी टटोली
स्त्री के स्वाभिमान और सक्षमता की
अदयम तस्वीरें खुली।
असल में भारत छोटे मझौले
ग्रामीण कस्बों में भी बसता है
जहां मान्यताओं की सोच
और विकास का स्तर
लोगो की नज़रों में सस्ता है।
जहाँ गाँधीजी की आधी आबादी की
क्षमताओं का शोषण हो रहा
जहाँ समाज़ के मुट्ठी भर ठेकेदारों का वर्चस्व बढ़चढ़ कर बोल रहा।
पर हमारी नजर आज़ादी के नाम
सिर्फ उन शहरी महिलाओं पे रुकती है,
जो आधुनिकता की दुनिया में
तरक्की की सीढ़ियाँ गुनती है।
नारीवाद और पुरुषवाद से परे स्त्री
स्वतंत्र कर्मठ होती है
संस्कारों को समेट दृढ़ मानसिकता से
संपूर्ण जिम्मेदारियों को ढोती होती हैं।
एक आज़ाद स्त्री मनुष्यता के संदर्भ में
स्वयं के समानता का इतिहास बुनती है
क्षमता,योग्यता,कौशलता का महा काव्य
अपने हिस्से की रचती है।
तो आइये हम सब मिल कर
अपने अंदर के शोर को अंजाम दें
भारत की शशक्त योग्यता और सच्ची स्वतंत्रता का
पूरे विश्व को पैगाम दें।
यक़ीन
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खुद को तराशा है मैंने
वक्त की कसौटी पर हर पल
टूटना या बिखरना अब फितरत में नहीं मेरे ।
मैं बन चुकी हूँ उस सूरजमुखी के फूल की तरह
जो सूरज की तमाम तपिशों को
अपनी पंखुड़ियों में समेट
स्वयं को आजमाता है सारी रात
और फिर खिल उठता है अगली ही सुबह
उसी तपिश से गुजरने के लिए
एक नई यक़ीन के साथ ।
कविता लिखना
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कविता लिखना
जैसे मानो स्वयं की पाँचों इंद्रियों का
इस्तेमाल कर
भावनाओं को जीवंत करना।
कविता लिखने का अर्थ है,
स्वयं के अंदर झाँकना
चारों ओर मौजूद दुनिया को देखना,
अहसासों की तस्वीर को शब्दों से उकेरना।
कविताएं ज़िंदगी का नज़र-ए-आईना होती हैं
हमारी संवेदनाओं की मित्र होती हैं
सौन्दर्य बोधक अनुभूति होती हैं।
कविता लिखना सम्पूर्ण सृष्टि से जुड़ने
उस पल उस काल को
अपना बना लेने का बोध है।
कविता शब्दोंं का मेल है
अर्थों का खेल है
भावनाओं की लय है
बिंबों की ताल है
संभावनाओं की तलाश है
कल्पना का साकार है
सोंच का आकार है
अनुभूति का निर्माण है
कवि की पहचान है।
कविता बाह्य प्रकृति के साथ
मनुष्य की अंतःप्रकृति का
सामंजस्य घटित करती हुई
एक भावात्मक सत्ता है
एक प्रतिक्रिया है
अनुभव की कल्पनाशीलता है।
कथ्य और विचार
जब भाव और कल्पना के
सूक्ष्म एवं तरल धरातल पर उगते है
तो सृजित होता है काव्य।
कविताएँ शब्द नहीं होतीं
हाड़ मास का जीता जागता अनुभव होती हैं भाव ,बुद्धि ,कल्पना, शैली तत्वों का महासमुद्र होती हैं।
शब्द सम्पदा जितनी विशाल होंगी
अभिव्यक्ति की संभावनाएं उतनी ही विस्तृत।
कविता लिखी नहीं
जीयी जाती है
कविता कवि आत्मा होती है
और आत्माएं कभी मरती नहीं
अमर होती हैं।
बेरोजगार
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वह देर रात बैठ
अखबारों के विज्ञापनों को पढ़ता
आवेदन पत्र लिखता…।
साक्षात्कार देता
नौकरी ना मिलने पर
पुनः रोजगार की तलाश में
फिर से भटकता फिरता…।
लोग समझते उसे निकम्मा
सगे सम्बन्धी नाकारा
समाज आवारा…।
आंसुओं के खारे पानी पीता
फटे अकेलेपन को सीता
डिग्रियां फाड़ जलाने को आतुर
उदास, भ्रमित सा जीता…।
रात की नीरव मिट्टी में
मौन व्यथा के बीज बोता
चादर की सिलवटों को थाम
बदल करवटें उनींदी आँखों से
निराशा की नींद सोता …।
हाँ वो है एक मूकदर्शक योद्धा
जो ओढ़ विवशता असफल
अपनी ही योग्यता से बेखबर
जूझ रहा हर पल
सब उसे जानते है
लोग पहचानते है
आप भी मानते है उसे
बेरोजगार …।
हैलुसिनेशन
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हैलुसिनेशन अर्थात मतिभ्रम
एक अनियन्त्रित मिथ्याभास
अनुभूति मिथ्या होने पर भी
वास्तविक जैसा प्रतीत होना
एक ऐसी मानसिक अवस्था
जिसमें विचार अव्यवस्थित
व्यवहार अपरिचित
बाहरी उत्तेजना की अनुपस्थिति में
एक असत्य धारणा…
भ्रम
मस्तिष्क की एक नियन्त्रित काल्पनिक अवस्था
स्वनिर्मित सोच का एक स्वरूप
मतलब बाहरी उत्तेजना की उपस्थिति में
एक धारणा
एक ऐसी मानसिक अवस्था
जिसमें विचार व्यवस्थित
व्यवहार परिचित….
भ्रम एक सामाजिक मानसिक विद्रूपता है
और मतिभ्रम आंतरिक मानसिक जटिलता
परंतु भ्रम एवं मतिभ्रम
दोनों ही अवस्था में शिकार होता है
मनुष्य का समूचा अस्तित्व ….
इंद्रधनुष
पानी की बूंदों में
प्रकाश के विक्षेपण
अर्थात
किरणों के बिखरने की
परावर्तन अपवर्तन की एक
अविस्मरणीय प्रक्रिया..
क्या सच में बिखरने की प्रक्रिया
इंद्रधनुषी होता है ?
और उसे देखने वाले
मात्र दर्शक….. ????
भूलना
याद करने की अक्षमता
मनोवैज्ञानिक शब्दों में ‘मेमोरी डिसऑर्डर’
अर्थात ‘स्मृतिलोप’
एक स्थायी या अस्थायी जैविक प्रक्रिया
परिणामस्वरूप एक असामान्यता …..
जी हाँ भूलना एक असामान्यता है
एक बीमारी का रूप है
परन्तु भूलना महत्वपूर्ण है….
भूलना, संग्रहित विकृतियों के दमन का
एकमात्र एकलौता प्रतिनिधि
और एक ऐसा रक्षात्मक तंत्र है
जिसमें दर्दनाक अनुभव और निषिद्ध इच्छाएं
चेतन से अचेतन में धकेल दी जाती हैं
और स्मृतिलोप की प्रक्रिया में संलग्न हो जाती है..
तो भूलना जरूरी है पीड़ा और दुख के क्षण
उस ईर्ष्या, झूठ और फरेब को
जो आंतरिक सुंदरता को बदसूरत कर दे..
तो हमे स्वीकारना होगा कि
भूल जाना एक सार्वभौमिक रक्षात्मक घटना है
ये घटना है, अप्रिय से प्रिय के सफर का
और संकेत है एक सुखद और सकारात्मक जीवन का….
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दमदम, मोतीझील, कोलकाता