1.
देखिये कैसा ये मंज़र हो गया ।
आज का इंसान पत्थर हो गया।
किससे मिलिये आज के इंसा का दिल।
नफ़रतों का इक समंदर हो गया।
मैं लकीरें हाथ की पढ़ता रहा ।
फितरतों से वो सिकंदर हो गया।
आधियां काली हवायें गर्म हैं ।
हर कोई दूजे को खंज़र हो गया ।
‘धीर’ काँटों के उगे जंगल घने ।
रंग खुशबू फूल बेघर हो गया ।
2.
लगता है, कुछ, टूट,रहा है।
कुछ तो था जो छूट रहा है।
धर्म, जोड़ता है, इन्सां को।
क्या, ये भी,इक झूट रहा है।
खौल रहा था जो सदियों से
लावा ,रह रह फूट,रहा है।
एम.ए.पास ,किया है, इसने।
ये जो, पत्थर, कूट रहा है।
“धीर” देश का, हाल न ,पूछो।
जिसको, देखो, लूट रहा है।
3.
दोस्त भी, अब दोस्ती, अपनी निभाते इस तरह।
खानदानी दुश्मनी ,दुश्मन निभाते ,जिस तरह।।
हादसों के दौर में, कुछ भी, अजूबा ,अब नहीं।
आग उगले चांद या सूरज दे ,ठंडक, जिस तरह।
इस धुआंती आग का तय है धधकना एक दिन।
आसमां तक, ये उठेगी, तेज़ लपटें ,जिस तरह।।
चीख , सन्नाटे की, मुझको बेधती है , रात दिन।
एक, गूंगे की जुबानी, बोलती हो ,जिस तरह।।
धीर, मन के, दर्द को, मुश्किल छिपाना है, बहुत।
ढ़ल ही जाता है, ग़ज़ल के शेर में, कुछ इस तरह।
4.
चिलचिलाती धूप में तपती नदी है।
निर्दयी चट्टान से लड़ती नदी है।।
दे रही है आग का आभास ही।
प्यास के विश्वास को छलती नदी है।
कर दिया है स्वार्थ ने ही सोम को विष।
गन्दगी के जहर से मरती नदी है।
फूल पत्थर पाप अत्याचार शोले।
आप कहिए क्या नहीं सहती नदी है।
धीर का कब बांध टूटे कौन जाने।
दर्द की, हर आंख में, पलती नदी है।
5.
दोस्त है दुश्मन भी मेरा हमसफ़र हमराज़ भी।
आप अपने पर फिदा मगरूर सा अंदाज़ भी।।
ये अदब की सरजमीं है इसकी एक तहज़ीब है।
बेअदब लोगों को मिलता है कहां ऐजाज़ भी।।
मीर-ओ-ग़ालिब से सुख़नवर शायरी इक़बाल की।
फ़िक्रो- फ़न की हैं मिसालें वाइसे एजाज़ भी।
बालो -पर काफी नहीं होते उड़ानों के लिए।
हौसला भी चाहिए औ कूवते परवाज़ भी।।
वक्त की आहट समझ अब भी बदल अपना मिज़ाज।
ये बदलने की फिज़ा है हो चुका आग़ाज़ भी।
6.
शाम फिर पीते पीते सहर हो गई।
जि़न्दगी प्यास क्या तेरी सर हो गई।
ज़िन्दगी, दर्दो- ग़म की हुई दास्तां।
बेसहारा हुई, दर – बदर हो गई।
एक तूफ़ा उठा, तेज़ आंधी चली।
जानलेवा हवाएं, क़हर हो गई।
अब परिंदे भी हैं, जी रहे खौफ़ में।
इस चमन की हवा भी, ज़हर हो गई।
धीर, तन मन सुलगता लगे हर घड़ी।
ज़िन्दगी, जून की दोपहर हो गई।
7.
सुहानी शाम का मंज़र, घने पेडो़ं का वो साया।
वो इक लम्हा है, मेरी जि़ंन्दगी का अब भी सरमाया।
तेरी सरगोशियां हैं गूंजती अब भी फिजा़ओं में।
जिन्हें मेरे सिवा ना दूसरा कोई भी सुन पाया।
झरे जब शाख से पत्ते खि़जा का आ गया मौसम।
बहारों का ज़माना वह सितमगर याद फिर आया।
चले थे साथ दोनों जि़न्दगी की राह पर लेकिन।
न समझे वो कभी मुझको न उनको मैं समझ पाया।
मुझे चाहो न चाहो तुम गिला शिक़वा नहीं कोई।
अनां की बात थी ये “धीर” मैं कुछ भी न कह पाया।
8.
हो गया कैसा ज़माना आजकल।
अब कहां मिलना मिलाना आजकल।
चोंच में तिनका लिए पंछी फिरे।
उजडा़ उजडा़ सा ठिकाना आजकल।
ढूढने से भी निशां मिलते नहीं।
अब कहां घर औ घराना आजकल।
नींद की खुशबू को तन छूता नहीं।
हादसों का है ज़माना आजकल।
रोटियों की आग में जलता नगर।
धीर क्या नग्मा तराना आजकल।
9.
अंधेरों से अभी तक लड़ रहा हूं।
उजालों की इबारत पढ़ रहा हूं।
जो सीना चीर दे मक्कारियों का।
वहीं लफ़्ज़ों में,अपने गढ़ रहा हूं।
खरी मैं बात कहता हूं इसी से।
नज़र में हर किसी के गड़ रहा हूं।
सफर टेढ़ा,कठिन है राह, लेकिन।
इरादा हौसला है बढ़ रहा हूं।
सजा क्या और देगी ज़िन्दगी ये।
मैं सुबहो-शाम सूली चढ़ रहा हूं।
10.
दूसरों के ऐब, तो हैं खूब गिनवाए जनाब।
क्या कभी अपना गिरेबां देख भी पाए जनाब।
यूं हवा में भांजने से कुछ नहीं होगा मियां।
बात है तब जो कहे वो करके दिखलाए जनाब।
बन्द कमरे में ग़ज़ल पढ़ने से क्या होगा भला।
लिखते हैं जिनके लिए उन तक तो ये जाए जनाब।
नापते हैं, दूसरों का , कद, नहीं अपनी ख़बर।
ऐसे लोगों को भला अब कौन समझाए जनाब।
फ़िक्रो-फ़न के इस जहां में धीर की औकात क्या।
बात कहने के लिए ही हम ग़ज़ल लाए जनाब।
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जितेन्द्र धीर
कोलकाता