जैसी कि उम्मीद थी शाम को पटना एयरपोर्ट पर एयरबस के उतरते ही उसने चैन की साँस ली. मगर अभी तो बस शुरूआत थी. आगे के झंझावातों को भी तो उसे झेलना था. पंकज शर्मा की डेड बॉडी भी इस फ्लाइट से आई थी. और उसी के साथ उसे भी गाँव जाना था. पहली बार वह विमान पर चढ़ा था. मगर पहली बार फ्लाइट पर जाने का उसे कोई रोमांच या खुशी नहीं थी. पंकज जी एक शिपिंग कंपनी में मैरीन इंजीनियर थे और उनकी अच्छी-भली स्थायी नौकरी और तनख्वाह थी. फिर उनके परिवारवाले संपन्न किसान भी थे. उन्होंने ही अपने खर्च पर पंकज जी के शव को यहाँ मँगवाया था कि उनका दाह-संस्कार अपने ही गाँव पर हो. और इसी बहाने वह भी साथ आ गया था. पंकज जी के बड़े भाई और उनके दो भतीजे भी साथ थे. संभवतः वे वहीं समस्तीपुर से ही एम्बुलेंस की व्यवस्था कर पटना एयरपोर्ट आए थे. कोरोना के चक्कर में इस समय ऑक्सीजन और दवाओं के साथ अस्पतालों में बेड तथा एम्बुलेंस के लिए भी तो मारामारी थी.
कोरोना की जाँच और दूसरी सुरक्षा जाँच संबंधी औपचारिकताओं को पूरा करने में ही एक घंटा खर्च हो गये थे. फिर बाहर निकलते ही पंकज शर्मा के डेड बॉडी को एम्बुलेंस की छत पर रख कर बाँधा जाने लगा. वह चुपचाप सारी गतिविधियाँ देखता रहा. उनका सोलह वर्षीय बेटा अनूप अभी भी झार-झार रो रहा था. उनके बड़े भाई नारायण जी की भी आँखें नम थीं. शर्मा जी का भतीजा आलोक उसी की हमउम्र था और सभी कामों में काफी तत्परता दिखा रहा था. वैसे तो आलोक मैट्रिक तक उसी का क्लासमेट था. और वह उसकी प्रकृति को जानता था कि वह कितना कामचोर और आलसी है. मगर आज उसकी काम के प्रति तेजी देखते बनती थी. सच है, समय व्यक्ति को किस तरह बदल कर रख जाता है.
“अब खड़े क्या हो राजन, आगे जाकर बैठ जाओ” आलोक बोला- “हम अभी चलेंगे, तो सात बजे तक समस्तीपुर पहुँच ही जाएँगे. फिर वहाँ से अपने गाँव गणेशी पहुँचने में कितनी देर लगेगी!”
वह चुपचाप ड्राईवर के बगलवाली सीट पर बैठ गया.
एम्बुलेंस अपने गंतव्य की ओर दौड़ चली थी.
लॉकडाउन की वजह से सड़कें शांत थीं. पटना के हर प्रमुख चौराहे पर गश्ती पुलिस का पहरा था. वहाँ यह बताते ही कि वह एयरपोर्ट से आ रहे हैं, कोई कुछ कहता नहीं था. गंगा सेतु पार करते ही एम्बुलेंस पूरे रफ्तार में आ गई थी.
छः बजे तक वह समस्तीपुर में थे. वहाँ भी हर गली-चौराहे पर लॉकडाउन की वजह से पुलिस का पहरा था. साढ़े छः तक वह अब अपने गणेशी गाँव में थे और अब एम्बुलेंस ‘शर्मा भवन’ के आगे खड़ी थी. एम्बुलेंस देखते ही पंकज जी की पत्नी चित्कार मार बाहर निकली और उसके आगे पछाड़ खाकर गिर पड़ी. माँ और बहन अलग धाड़े मारकर रो रहे थे.
सबकुछ जैसे तैयार ही था. दरवाजे पर घंटे भर के लिए शव को रखा गया था और लोग मुँह पर मास्क लगाए अंतिम दर्शनों के लिए आ-जा रहे थे. वह चुपचाप अपना बैग सँभाले खड़ा रहा. छोटा भाई माखन आया और उसका बैग ले बोला- “अब घर चलिए भैया. माँ इंतजार कर रही है तुम्हारा.”
“अंत्येष्टि पूरी होने के बाद घर जाते” उसने जैसे खुद से कहा- “गाँव तो आ ही गया हूँ. थोड़ी देर और सही.”
“अभी यहाँ की औपचारिकता पूरी होने में देर तो लगेगी ही.” आलोक उसके असमंजस और कशमकश को देखते हुए बोला- “नहीं राजन, तुम घर हो आओ. तुम भी काफी थक गए हो. मैं समझ सकता हूँ. जब हम मुक्ति-धाम को चलेंगे, उसी समय आ जाना.”
उसे देखते ही माँ उससे चिपट कर रोने लगी- “मैं तो समझी कि सारा खेल खत्म हो गया. यह मेरे किसी पुण्य का प्रताप है कि तुम बचकर आ गए राजु. मेरा पुनर्जन्म हुआ है. सालभर पहले ही तुम्हारे पिता का देहांत हुआ था. कितनी मुश्किल से खुद को सम्हाला है मैंने.”
“अब बीती बातों को छोड़ो” उसकी भी आँख भर आई थी- “क्या करता, बाबूजी के जाने के बाद घर में एक चवन्नी तक नहीं थी. उल्टे उनके श्राद्ध-कर्म के नाम पर बिरादरी वालों ने कर्ज का पहाड़ चढ़ा दिया था. उसे उतारने के लिए ही तो मुझे मुंबई जाना पड़ गया.”
“मगर लौटे तो किस हालत में!” माँ रोते हुए कह रही थी- “अगर तुम्हें कुछ हो जाता, तो मैं जीते जी मर जाती.”
“अब ये बातें छोड़ो” वह बोला- “पंकज जी की अंत्येष्टि के लिए मुझे जाना ही होगा. यह उनका ही अहसान है कि मैं कुछ कमाने लायक बन पाया हूँ.”
माखन ने बाहर ही एक बाल्टी पानी और मग रख दिया था. वह वहीं अपने कपड़े उतार हाथ-मुँह धोने लगा था. “भैया, आप नहा लीजिए. दिनभर से आप दौड़धूप ही कर रहे होगे. नहाने से थोड़ी थकान मिट जाएगी. गर्मी बहुत है. मैं एक बाल्टी पानी और ला देता हूँ.”
उसने लगे हाथ नहा लेना ही उचित समझा. मई का मौसम वैसे ही गर्मी का है. थोड़ी तो राहत मिलेगी.
बाहर ही चौकी रखी थी. गर्मियों में आमतौर पर बिहार में चौकी-खाट वगैरा रात में पुरूषों-बच्चों के सोने के लिए निकाल दिये जाते हैं. वह वहीं आराम से बैठ गया. माँ उसपर ताड़ के पत्तों से बनी पंखा झलने लगी. नहाने के बाद माँ ने उसे चाय का गिलास और घर के बने नमकीन की तश्तरी उसके आगे धर दी थी. दोनों छोटे भाई-बहन भी वहीं आकर बैठ गए थे. उसने जल्दी-जल्दी चाय पी और नमकीन खत्म कर बोला- “शर्मा जी के घर होकर आता हूँ. तुम इंतजार करना. जल्दी ही लौट आऊँगा.”
रात लगभग नौ बजे अर्थी उठी और वह भी सभी के साथ श्मसान-घाट तक गया. दाह-संस्कार के बीच वह जैसे शून्य में खोया सा था. कि तभी आलोक आकर उससे बोला- “राजु भाई, यह अचानक क्या हो गया?”
“क्या कहूँ आलोक” वह फफक कर रो पड़ा- “मृत्यु नजदीक थी. कुछ को मुक्ति मिल गई. कुछ हमारे जैसे लोग भारतीय नौसेना के वजह से बच गए.”
“अब जो होना था, वो तो हो ही गया” आलोक उसे सांत्वना देते हुए कहने लगा- “कुछ-कुछ जानकारी हमें भी हुई है. तुम बहुत थके हो और परेशान भी रहे. अब घर वापस लौट जाओ. यहाँ हम कई लोग हैं देखने के लिए.”
उसके मन में वापस लौटने की इच्छा थी. मगर वह संकोचवश उठ नहीं रहा था. भारी मन लिए वहाँ से उठा और घर चला आया. एक बार पुनः स्नान कर वह ताजा-दम हुआ और बेमन से खाना वगैरा खाकर बाहर बिछी चौकी पर लेट गया. छोटा भाई आकर पैर दबाने लगा. उसने उसे मना किया तो वह मनुहार भरे स्वर में बोला- “इसी बहाने तुम्हारे पास हूँ भैया. यहाँ माँ और दीदी कितना रोती है!”
“क्यों-क्यों, क्या बात हुई” वह उठकर बैठ गया- “फिर तुम तो घर पर ही हो.”
“मगर मैं क्या कर सकता हूँ. मैं तो बहुत छोटा हूँ.” वह सुबकता हुआ बोला- “एक तो तुम इतनी दूर चले गए. उसपर ये तूफान वाला हादसा हुआ, तो हम बहुत डर गए.”
“डरने की कोई बात नहीं. मैं हूँ ना. अब बाहर नहीं जाता, तो घर के खर्चे कैसे चलते?” वह उसे समझाते हुए बोला- “अब तुम जाओ. रात बहुत हो गई है. इसलिए जाकर सो जाओ. मुझे भी नींद आ रही है. कल ढेर सारी बातें करूँगा.”
“नहीं, मैं तुम्हारे साथ ही सोऊँगा.”
“ठीक है, सो जा.” उसने उसे अपने बगल में सुलाते हुए कहा.
अब वह सोने का प्रयास करने लगा था. मगर नींद थी, वो अब आँखों से कोसों दूर थी. उपर आसमान तारों से सजा था, जिसे वह निहार रहा था. वह उनमें कहीं पंकज शर्मा को खोज रहा था शायद, कि उसे अपने दिवंगत पिता की याद आ गई.
विगत वर्ष जब उसके पिता का देहांत हुआ था, तो इसी प्रकार के भयावह शून्य को देखकर घबराया था. उनके अंतिम-क्रिया संपन्न होने के बाद समस्या यह थी कि अब रोजमर्रा के खर्च कैसे चलेंगे. तिसपर बिरादरी वालों ने श्राद्ध के नाम से अलग शाही-खर्च करा उसके घर को कर्ज में डूबा गये थे. उसकी भी उसे भरपाई करनी थी. थोड़ी सी खेती थी, दरअसल उसी पर सभी की दृष्टि लगी थी. मगर माँ उसे किसी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं थी.
बहुत भाग-दौड़ की उसने. उसने तीन साल पहले ही आईटीआई से वेल्डर का सर्टिफिकेट हासिल कर लिया था. मगर सरकारी तो दूर, कोई प्राइवेट नौकरी भी उसे नहीं मिल रही थी. वह वहीं समस्तीपुर में एक ग्रिल बनाने वाली दुकान में बतौर वेल्डर लग गया था कि घर बैठने से अच्छा है कि कुछ किया जाए. इससे काम में हाथ भी साफ रहता और परिपक्वता भी आती.
उन्हीं दिनों पंकज शर्मा छठ त्योहार के अवसर पर घर आये थे. वह मुंबई में किसी शिपिंग कंपनी में मैरीन इंजीनियर के अच्छे पद पर थे. एक दिन वह किसी काम के सिलसिले में उनके छोटे भाई आलोक से मिलने गया, तो उनसे भेंट हो गई. वह उसके घर का हालचाल पूछने लगे, तो जैसे दिल का दर्द बाहर उमड़ आया – “आपसे कुछ छुपा तो है नहीं. दाने-दाने तक के मोहताज थे हम. तभी मैं समस्तीपुर में उस ग्रिल बनाने वाली दुकान जाने लगा. इस लॉकडाउन में तो हमारी क्या, सभी की हालत खराब रही. वे बस कुछ खाने-पीने भर को दे देते हैं. छोटे भाई को अगले साल बारहवीं की परीक्षा देनी है. पता नहीं, वह पैसों के चलते फॉर्म भर पायेगा कि नहीं. वह इसीलिए विक्षिप्त सा हो रहा है. छोटी बहन को भी दसवीं की परीक्षा देनी है. उसकी पढ़ाई में कुछ खर्च तो होता नहीं. मगर भोजन-पानी तो चाहिए ही चाहिए ना. उधर गोतिया-देयाद हमारी थोड़ी सी बची जमीन पर गिद्ध-दृष्टि लगाए बैठे हैं. वो कैसे बचेगा, और बड़ी बात हम कैसे बचें, समझ नहीं पाता हूँ.
“आप तो मुंबई में अच्छे पद पर हैं. वहाँ कुछ जुगाड़ हो पाता मेरा, तो बहुत अच्छा रहता. न हो, तो अपनी शिपिंग कंपनी में ही मुझे रखवा लें.”
“अरे, मैं भी उस कंपनी में मुलाजिम ही हूँ” वह हँसे थे- “मैं वहाँ क्या कर सकता हूँ?” थोड़ी देर ठहरकर कुछ याद करते से बोले- “तुमने वेल्डिंग ट्रेड से आईटीआई पास किया है ना. कैसा काम है तुम्हारा?”
“अब मैं अपने मुँह से अपनी प्रशंसा क्या करूँ. मैं जिस दुकान में काम करता हूँ, उन्हीं से पूछ लीजिएगा. इस फिनिशिंग से काम करता हूँ कि सभी मेरी वेल्डिंग की प्रशंसा करते हैं.”
“मैं जिस जहाज पर काम करता हूँ, उसके कैप्टेन ने मुझसे किसी अच्छे वेल्डर के बारे में बात की थी. मगर भाई, सागर में जहाज की नौकरी रहेगी. पता नहीं , तुम्हें पसंद आये या नहीं? वैसे पैसे अच्छे मिलेंगे. संभवतः बीस हजार महीने के दें.”
उसने उनके पैर पकड़ लिये थे- “मुझे मंजूर है समुद्र के जहाज पर रहना. कम से कम मेरी माँ तो ठीक से रहेगी. भाई-बहन थोड़ी पढ़ाई तो कर पाएँगे. आप मुझे साथ ले चलिए.”
और इस प्रकार वह पंकज शर्मा के साथ मुंबई आ गया था. वहाँ पहले उसे शिपिंग कंपनी के तकनीकी विभाग में रखा गया. फिर वह जहाजों पर ही काम करने लगा था. कैसा नीरस जीवन था यहाँ का. समुद्र-तट से सैकड़ों मील दूर स्थित जहाजों में टूट-फूट होती रहती थी और उसके साथ ही मरम्मत का काम भी चलता था. चूँकि जहाज लोहे-इस्पात के ही बने होते हैं. और इसके लिए कुशल तकनीशियनों की जरूरत पड़ती ही थी. शीघ्र ही उसने अपने काम से सभी का दिल जीत लिया था.
पंकज शर्मा का जीवन तो समुद्र में खड़े जहाजों के बीच ही गुजरता था. फिर भी उन्होंने मुंबई के उपनगर अंधेरी में एक कमरा ले रखा था. वेतन मिलते ही वह वहाँ जाते और कुछ आवश्यक खरीददारी के साथ घर पैसा भेज देते थे. अगले माह जब वेतन मिला, तो वह उसे भी साथ ले गये.
वह तो अपने वेतन के बीस हजार रूपयों को एक साथ घर भेजने पर उतारू था. उन्होंने उसे समझाया कि अब तो उसे यहीं रहना है. इसलिए जरूरी सामान और कपड़े खरीद लो. और इस प्रकार उसे जूते-कपड़े आदि के साथ ब्रश-मंजन से लेकर शेविंग-किट्स तक की खरीददारी कराई, जिसमें उसके आठ हजार निकल गये थे. वह उससे हँसकर बोले- “यह मुंबई पैसों की नगरी है. यहाँ सारा खेल पैसों का ही है. अभी अपने पास दो हजार रखो और बाकी दस हजार घर भेज दो.”
शर्मा जी के एकाउंट के मार्फत ही वह माँ के पास दस हजार रूपये भिजवा निश्चिंत हो पाया था. लगे हाथ उन्होंने उसका वहीं उसी बैंक में एकाउंट भी खुलवा दिया था.
नवंबर में वह यहाँ मुंबई आया था. जहाज का यह समुद्री जीवन अजीब था. चारो तरफ समुद्र की ठाटें मारती खारे पानी की लहरें और बजरे का बंद जीवन. दिनभर किसी जहाज में काम करो और फिर शाम को बजरे में बंद हो जाओ. हजारों-लाखों लोगों का जीवन इसी समुद्र के भरोसे चलता है. विशालकाय व्यापारिक जहाजों से लेकर सैकड़ों छोटी-बड़ी नौकाएँ अपने मछुआरों के संग जाल या महाजाल बिछाये मछली पकड़ती व्यस्त रहती हैं. ऐसे में वह कोई अनोखा तो नहीं, जो यहाँ रह नहीं पाये. उसे अभी मौज-मस्ती की क्या जरूरत. उसे तो अभी अपने परिवार के अभावों के जाल काटना है. यहाँ खाने-पीने की समस्या नहीं. ठेकेदार की तरफ से यहाँ सभी के लिए निःशुल्क भोजन की भी व्यवस्था है. पंकज शर्मा ने उसे अपना छोटा मोबाइल दे दिया था, जिससे वक्त-जरूरत माँ से, भाई-बहन से बात कर लिया करता था.
जिस जहाज पर पंकज शर्मा तैनात थे, उसी पर उसका काम चल रहा था. उस जहाज पर उसे लेकर कुल चौबीस लोग थे. शाम को वह वापस बजरे पर आ जाते, जहाँ उनकी रिहाइश थी. बजरा एक सपाट डेक वाली नौका को कहते हैं, जो सिर्फ पानी के सतह पर तैरती रहती है. कुछ बजरों में उसे चलाने के लिए इंजन भी लगा रहता है. लेकिन आमतौर पर बिना इंजन वाले इन बजरों को जहाजों द्वारा खींचकर ही इधर-उधर लाया या ले जाया जाता है. इस समय ओएनजीसी के ऑयल रिंग प्लेटफॉर्म पर कुछ काम चल रहा था. शाम में सभी ‘राजहंस’ नामक इस बजरे पर चले जाते और वहाँ के लगभग ढाई सौ छोटे-बड़े दड़बेनुमा केबिनों में समा जाते. वहीं खाना-पीना-नहाना-धोना होता और अगले दिन के लिए सो जाना होता था. यहाँ से बहुत जरूरी होने पर ही लोग मुंबई समुद्र-तट का रूख करते थे. क्योंकि आने-जाने में ही दिनभर लग जाता था. आमतौर पर महीने-पखवाड़े ही कोई उधर जाता था.
विगत दिनों का वह मनहुस दिन उसके सामने दृश्यमान सा खड़ा था, जब वह पंकज शर्मा के साथ बजरे पर शाम को वापस लौटा था. समुद्र किसी कुपित बाघ की भांति दहाड़ रहा था. शर्मा जी पिछले अठारह साल से यहाँ इसी समुद्री-तल पर काम करते आए थे. उन्होंने समुद्र के विविध रंग बदलते तेवरों को देखा ही नहीं, झेला भी था. “अरे, कुछ नहीं” वह बेफिक्री से बोले थे- “तूफान आते-जाते रहते हैं. मनुष्य को अपना काम करते रहना चाहिए.”
“फिर भी सर, इस बार खतरा कुछ ज्यादा ही दिख रहा है” उनका सहायक मनीश पाटिल सशंकित शब्दों में बोला- “चारो तरफ से वार्निंग की खबरें आ रही हैं. सभी छोटे-बड़े जहाज किनारों की ओर चले गये हैं. हमें रिस्क नहीं लेनी चाहिए.”
“अब जो होगा, कल ही होगा न” वह निश्चिंत भाव से बोले- “अब आराम से खाना खाओ और सो जाओ. कल सुबह देखा जाएगा.”
“एक कोरोना से कम तबाह थे क्या, जो ये तूफान आया है” शिवजी वानखेड़े बोला- “पूरे मुंबई में लॉकडाउन लगा है. और यहाँ ये हाल है कि क्या होगा, क्या पता!”
“इसलिए तो मैं कहता हूँ कि हम सुरक्षित जगह में आइसोलेटेड हैं, कोरोन्टाइन हैं.”
“आप भी सर, गंभीर बातों को हँसी में उड़ा देते हैं” मनीश पाटिल के यह बोलने पर वह हँसते हुए बोले- “सोच लो, आज से हजार साल पहले जब वास्को-डि-गामा समुद्री मार्ग से आया होगा, तो क्या हाल होगा! अभी तो ढेर सारी सुविधाएँ हैं, सुरक्षा के इंतजाम भी हैं. अरे, हम जहाजियों का जीवन ही खतरों से खेलने के लिए बना है.”
खैर रात नौ बजे तक सभी खा-पीकर अपने-अपने केबिनों में सोने चले गये. वह यूँही डेक पर टहलने जाने का विचार कर ही रहा था. मगर हवा काफी तेज थी. समुद्री लहरें जैसे हर किसी को लपकने के लिए आसमान चूमना चाह रही थीं. वह अपने केबिन में जाकर लेट रहा. बजरा और दिनों की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा ही हिचकोले खा रहा था. चूँकि समुद्री जीवन जीने को अभ्यस्त लोग इसे देखने को आदी हैं, उन्हें बजरे के हिलने-डुलने से विशेष फर्क नहीं पड़ना था.
अचानक तीखी आवाज से बजते सायरन को सुन वह चौंक पड़ा. सभी को लाइफ जैकेट पहनने और तैयार रहने को कहा जा रहा था. फोन, पर्स आदि जरूरी सामान के साथ वह लाइफ जैकेट पहने ऑफिस की ओर आया. वहाँ वरिष्ठ अधिकारियों के साथ पंकज शर्मा भी गंभीर मुद्रा में लाइफ जैकेट पहने खड़े थे. वे बोले- “सचमुच हमने तूफान की गंभीरता समझने में भूल की. मगर अब तो बचाव का रास्ता ढूँढ़ना ही एकमात्र उपाय है. बजरे के लंगर टूटते जा रहे हैं. आठ में से तीन टूट चुके. और अन्य भी कमजोर पड़ रहे हैं. हमें डर है कि लंगर से मुक्त होते ही यह अनियंत्रित बजरा हिलते-डुलते, तूफान के लहरों के साथ बहते, ऑयल रिंग के प्लेटफॉर्म से न जा टकराए. प्लेटफॉर्म पर तेल और गैस की पाइप लाइनें हैं, जो टकराने पर फट कर विस्फोट कर सकती है. ऐसे में बचने की सारी संभावना खत्म हो जाएँगी.
वे सभी लोग नौसेना अधिकारियों, तटरक्षकों, अपने-अपने मुख्यालयों में हाहाकार भरा त्राहिमाम् संदेश फोन से, रेडियो द्वारा और वाट्सएप से भी भेज रहे थे. उधर तूफान क्षण-प्रतिक्षण विकराल हुआ जाता था. कमजोर पड़ते लंगरों के टूटने के साथ बजरे का हिलना-डुलना बेतरह बढ़ता जाता था. और अंततः वही हुआ, जिसकी आशंका थी. लंगर विहीन बजरा अनियंत्रित हो ऑयल रिंग के प्लेटफॉर्म की तरफ बढ़ने लगा, जिसे देख सभी का कलेजा मुँह को आने लगा था.
ऑयल रिंग प्लेटफॉर्म के पास क्रूर लहरों ने बजरे को पटक सा दिया था. उससे बजरा जोर से टकराया जरूर, मगर कोई विस्फोट नहीं हुआ. लेकिन इस टक्कर से बजरे के पेंदी में एक छेद हो गया था, जिससे उसमें पानी भरना आरंभ हो गया था. मतलब एक मुसीबत से बचे, तो दूसरी मुसीबत में घिर गये थे. रबर के राफ्ट निकाले जाने लगे. उन्हें तैयार कर नीचे समुद्र में किया गया. मगर थोड़ी ही देर बाद देखे कि राफ्ट किसी नुकीली चीज से पंक्चर हो गया था. और उसमें बैठे लोग समुद्री लहरों के बीच लापता हो चुके हैं.
“घबराना नहीं राजन, हिम्मत रखना” पंकज शर्मा जैसे उसके बहाने खुद को दिलासा दे रहे थे, हौसला बढ़ा रहे थे- “नौसेना का जहाज अब पहुँचने ही वाला है. अब हम सभी बच जाएँगे.”
सचमुच नौसेना का जहाज ज्यादा दूर नहीं, दो-चार मील के अंदर ही रहा होगा. मगर भयंकर तूफान और गहन अंधकार के बीच कम विजिबिलिटी की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वहाँ से लगातार संदेश आ रहे थे कि ‘थोड़ा इंतजार करो. क्योंकि खराब विजिबिलिटी के वजह से नजदीक आने पर नेवी शिप की बजरे से टक्कर हो सकती है.’
और इसी इंतजार के बीच बजरा पानी में तेजी से धँसता चला जा रहा था. लगभग आधे से अधिक बजरे के पानी में समाने पर ही सभी एक-एक कर पानी में कूदने लगे. वे जो तैरना नहीं जानते थे, वे कूदने में ज्यादा झिझक रहे थे. हाँलाकि उन्हें यहाँ आने पर लाइफ जैकेट पहनकर तैरने का प्रशिक्षण दिया गया था. कुछ कूदे भी. मगर जो भयवश नहीं कूद पाए, उन्होंने बजरे के साथ ही जल-समाधि ले ली.
तैराकी में उसकी सदैव रूचि रही थी. गाँव के समीप बहनेवाली बूढ़ी गंडक हो अथवा मामा के गाँव के किनारे बहनेवाली बागमती, वह नहाने के बहाने काफी देर तक तैराकी करता, करतब दिखाता रहता था. यहाँ तक कि बाढ़ के दिनों में भी उसे कभी डर नहीं लगा. मगर नदी में तैरना एक बात है और अनंत समुद्र में तूफान का मुकाबला करना बिल्कुल दूसरी बात है. वह भी आधी रात के इस गहन अंधेरे में, जब एक हाथ को दूसरा हाथ नहीं सूझ रहा हो, तैरना असंभव को संभव बनाने जैसा है. समुद्र के नमकीन, खारे पानी से आँखों में जलन हो रही थी. तूफानी लहरें शरीर को कभी हवा में उछालती, तो कभी गहरे पानी में खींच ले जाती थी.
मगर मनुष्य की जिजीविषा भी तो बड़ी है. वह इसी के बदौलत प्रकृति से, समय और समाज से संघर्ष करता है. हार होती है. मगर कभी-कभी वह जीत भी जाता है. और जो जीतता है, वो इतिहास रचता है. यथार्थ तो यही है कि वह इतिहास रचने के लिए संघर्ष नहीं करता, बल्कि खुद को बचाने के लिए संघर्ष करता है. आनेवाला समय उसे विजेता घोषित कर देता है.
यह सब तो बाद की बात, अभी तो वह खुद को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है ताकि वह भविष्य में अपनी माँ को, अपने छोटे भाई-बहन का भरण-पोषण कर सके, उन्हें सही शिक्षा दिलवा सके. यही तो उसके जीवन का मकसद है. उसे और क्या चाहिए?
उसके इर्द-गिर्द अनेक लोग तैर रहे हैं, डूब या उतरा रहे हैं. लाइफ जैकेट उन्हें डूबने नहीं दे रहा. उनके लाइफ जैकेट में लगी बत्ती जल रही हैं, जिससे उनके अस्तित्व का पता चल रहा है. जो तैरना नहीं जानते, वे जोर-जोर से हाथ-पैर चलाते खुद को थकाये दे रहे हैं. उनके भय और लाचारगी की कोई सीमा नहीं थी. और यहाँ सभी को अपनी जान के लाले पड़े थे. इस अथाह समुद्र में मौत से लड़ते लोगों को कोई पहचान कर भी क्या कर पाता!
इसी तरह तैरते चारेक घंटे के बाद नौसेना का जहाज दिखा, तो जैसे आशा की किरण फूटी. पूर्व दिशा में भी लालिमा दिखने लगी थी. सूर्योदय होने को था. सभी उस जहाज की दिशा की ओर तैरने लगे.
मगर यह क्या! देखते-देखते आसमान काले-काले बादलों से भर गया था. और उसी के साथ पुनः अंधकार छा गया था. मूसलाधार वर्षा होने लगी थी. आशा की जो एक धूमिल किरण थी, वह धुँधली पड़ने लगी थी. समुद्री लहरें पुनः काल समान अट्टहास करते सभी को कभी आकाश की ओर उछालती, तो कभी गर्दन दबा खारे पानी के भीतर खींच ले जाती थी. प्रकृति के इस रौद्र खेल को खेलने को वे अभिशप्त से थे. समय का ध्यान कहाँ था! कौन समय का ध्यान रख पाया है?
अचानक आकाश में बादल छँटे. उपर सूर्य मुस्कुराया, तो सबने देखा कि ठीक बगल में नौसेना का जहाज खड़ा है. जहाज में बैठे नौसैनिक चिल्लाते हुए निर्देश दे रहे थे. वे हर संभावित व्यक्ति की तरफ रोप लैडर (रस्सी की सीढ़ियाँ) फेंक उसे पकड़ने के लिए इशारे कर रहे थे. कोई जैसे ही उसे पकड़ता, वह उसे खींच जहाज के अंदर कर लेते. न जाने कहाँ से अचानक उसमें इतनी ताकत आ गई थी कि अंततः उसने एक रोप लैडर को पकड़ लिया था.
अब वह नौसेना के जहाज में था. उसका रोआँ-रोआँ अभी तक काँप रहा था. भय और आशंकाएँ जैसे पीछा नहीं छोड़ रही थीं. नौसैनिक वहीं डेक पर उसे लिटा उसका प्राथमिक उपचार कर रहे थे. लेकिन उसकी चेतना उसी तरह उपर-नीचे हो रही थीं, जैसे कि वह लहरों के द्वारा उपर-नीचे उछाला जा रहा हो. डेक पर सैकड़ों लोग पड़े थे. उनमें कौन जिंदा है और कौन मर गया, कहना मुश्किल था. फिर भी नौसैनिक भाग-दौड़ करते मेडिकल ट्रीटमेंट दे रहे थे. उनका एक दूसरा दल अभी भी समुद्र में निगाहें टिकाए देख रहा था कि शायद कहीं कोई भूला-भटका दिख जाए. इसलिए नेवी शिप से बँधे रोप लैडर अभी तक पानी में तैर रहे थे.
अगले दिन वह चैतन्य हुआ, तो खुद को आर्मी अस्पताल में पाया. बजरे में फँसे अनेक लोग उस वार्ड में भर्ती थे.
“यह सौभाग्य की बात है कि आप ठीक हैं” एक डॉक्टर कह रहा था- “आप मेरे सामने थोड़ा चलने-फिरने का प्रयास करें.”
वह उठा और कुछ कदम चलकर वापस अपने बेड पर आ गया.
दोपहर को उसे भोजन कराने के बाद एक नौसैनिक अधिकारी उसके पास आया और उससे बोला- “मुझे आपका सहयोग चाहिए. आशा है, आप ‘ना’ नहीं करेंगे.”
जिन लोगों के वजह से वह जिंदा है, उनका सहयोग कर खुशी ही मिलेगी. मगर अभी तो वह खुद अशक्त है.वह किसी की क्या मदद कर सकता है!
“बस कुछ नहीं. कुछ लोगों की शिनाख्त करनी है.” नौसैनिक अधिकारी कह रहा था- “डेड बॉडी विकृत से हो गये हैं. आप उन्हें पहचान सकें, तो बेहतर. ताकि उनके घर खबर भिजवाई जा सके.”
“ओह! तो यह काम है!” उसने विचार किया – “अब जब वह बच गया है, तो बचाने वाले का सहयोग करना उसका फर्ज बनता है.”
आर्मी अस्पताल के बाहर खुले में अनेक शव सफेद चादरों में लिपटे पड़े थे. उन्हें देखना यंत्रणादायक था. मगर एक शव के पास आते ही वह चित्कार भरकर रो पड़ा. वह पंकज शर्मा का शव था. वह वहाँ से दौड़कर भागा और खुले में लोट गया. उसके पीछे जब वह सैन्य अधिकारी आया, तो उसने उससे फोन माँगकर पहले शिपिंग कंपनी में फोन कर उन्हें इसकी जानकारी दी. फिर गाँव में आलोक को फोन कर जानकारी देने लगा था.
और इसके बाद तो जैसे गाँव से फोन पर फोन आने लगे थे. पंकज जी के भैया नारायण चाह रहे थे कि पंकज का शव गाँव आये और वहीं उसकी अंत्येष्टि हो. शीघ्र ही शिपिंग कंपनी का मैनेजर भी आ गया. और उससे जानकारी लेने लगा था. अब वह उनके शव को उनके गाँव भिजवाने की तैयारी में लग गया था.
“उनके शव के साथ तुम जाओगे” मैनेजर उससे कह रहा था- “अभी तुम्हें भी आराम की जरूरत है. और यह तुम्हें अपने घर पर ही मिल सकता है. एकाध माह वहीं घर पर अपने लोगों के बीच रहोगे, तो इस त्रासदी को भूलने में तुझे सुविधा रहेगी. इसके बाद सुविधानुसार आ जाना.”
अचानक उसे लगा कि पंकज शर्मा उसके पास खड़े कह रहे हैं – “देखा, मैंने कहा था ना कि हम बच जाएँगे. देखो हम बचकर वापस गाँव आ गये हैं.” अचानक फिर उसके सामने एक और दृश्य उभरा. सफेद चादरों में लिपटे कुछ शव उसकी ओर देख रहे थे. उन्हीं के बीच जाकर पंकज जी पुनः लेट गये थे. वह चीख मारकर उठा. बगल में लेटा उसका भाई सकते में था और पूछ रहा था- “क्या हुआ भैया, कोई खराब सपना देखा क्या?”
“हाँ रे, बहुत खराब सपना था.”
सुदूर पूर्व में सूर्योदय हो रहा था. अंदर से माँ आ रही थी. वह माँ से लिपट कर रो पड़ा.
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चितरंजन भारती,
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