1.
उतनी ही दूर देखा है, जितनी दूर नज़र आता है
क्या सिर्फ चाहने से चाँद ज़मीं पे उतर आता है 1
वो आदमी तो बहुत अच्छा है सर से पाँव तलक
बस वो जो बोलता है, उससे ही मुकर जाता है 2
हमने निगाहों से इश्क़ का इज़हार कर दिया है
देखें जवाब में जाम आता है कि जहर आता है 3
गाँव सभी जन्नत हो गए हैं आंकड़ों में, अब देखें
कि विकास की राह में कौन सा शहर आता है 4
हम नौसिखिए नहीं, सधे हुए आशिक़ हैं जनाब
नज़र वही पड़ती है, जिस पेड़ पे मंज़र आता है 5
इतनी जल्दी ना कीजे खारिज हमें किसी गुमाँ में
हम भी कलाकार हैं, हमें भी अपना हुनर आता है 6
2.
मेरे हक़ की बात आप करेंगे
फिर कैसे खुद को माफ़ करेंगे
सारी कायनात ही मेरी हमनशीं* है
आप किस-किस को खिलाफ करेंगे
उधेड़ रखा है ज़मीं के बदन को
आप कितना इसका लिहाफ** करेंगे
खूं का रंग मिटाए नहीं मिटता है
आप किस तरह से दामन साफ करेंगे
हँसी आती है मगर आती नहीं
आप ही कातिल है, आप ही इंसाफ करेंगे
कुछ और नहीं किताबें ही इंसान बनाती हैं
आप कब तक ऊँच-नीच का इख्तिलाफ*** करेंगे
* साथी
** रजाई
*** फर्क
3.
हम जनता हैं, हम भूख और प्यास लिख रहे हैं
और जो सत्ताधारी हैं, नया इतिहास लिख रहे हैं 1
हम पढ़- लिख कर नसीब में कोठरी लिख रहे हैं
और राजपुत्र जायदाद में राजनिवास लिख रहे हैं 2
हम अनपढ़ हैं, सूखी ज़मीन पर घास लिख रहे हैं
और जो रसूखदार हैं, इसे ही विकास लिख रहे हैं 3
शहर से बची हुई रोशनी ही गाँवों तक आ पाती है
और राजधानी वाले इसे खुला आकाश लिख रहे हैं 4
वो जितना छोड़ देते हैं , हम उतने में ढाँप* लेते हैं
जरूरत की बात है, जिसे हम लिबास लिख रहे हैं 5
हमें छद्म है कि वो हमारे लिए उच्छ्वास* लिख रहे हैं
सच ये है कि जातीय व्याकरण का समास लिख रहे हैं 6
*ढाँप – ओढ़ना, छिपाना
*उच्छ्वास – ऊँची या बढ़ती हुई श्वास
4.
शाख वही, गुल वही, पर वही खुशबू तो नहीं,
कहने को है चमन में सब कुछ, पर तू तो नहीं 1
सियासत, पुलिस, अदालत के सामने
होता है सब कुछ, पर होता है कुछ यूँ तो नहीं 2
है तो अब भी कुछ भी नहीं पास मेरे
पर तुझे देखूँ मुड़ के, अब वो जुनू तो नहीं 3
अब कोई कहाँ तक निभा पाएगा
कहने को वो सब कुछ है, पर अपना खूं तो नहीं 4
अखबार में, भाषण में और राशन में
हूँ मैं सब कुछ, पर मैं कहीं भी हूँ तो नहीं 5
दौलत, शोहरत, मुकाम सब कुछ पा लिया है
कुछ तो खो गया है कि अब वो शुकून तो नहीं 6
सलिल सरोज, दिल्ली