1. जिंदगी की पढ़ाई
जो तुम कहते हो
उसी के आसपास रहते हो
जो तुम पढ़ते हो
वैसा ही बनते जाते हो
अगर पढ़ो
तो निरक्षर आदमी की तरह पढ़ो
वह समय और समाज को
सीधे पढ़ता है
वह उम्र की सीढ़ियां
धीरे धीरे चढ़ता है
वह लगातार पढ़ता है
चेहरों को
सुनी हुई खबरों को
अफवाहों को
माटी को हरियाली को
जंगल को पहाड़ को
सूरज को चांद को
आकाश को समंदर को
एक भाषा
जो उसे
विरासत में
मिली हुई होती है
वह उसी में पढ़ता है
वह
नानक रैदास
कबीर रामकृष्ण
की तरह पढ़ता है
किताबों से
पढ़े लिखे लोग
उसके यहां पढ़ने जाते हैं
उन्हें जाना भी चाहिए
परंपरा के पाटों के बीच
बहती आ रही
भाषा की नदी
उसके कानों में
जो भी कहती है
वह उसे जांच परख कर
दूध का दूध पानी का पानी
करता चलता है
और उसे उसी
अपनी भाषा में
कहता है रहता है सहता है
उसे ही जीता भी है
उसका कहा हुआ ही
दुनिया का
सबसे मौलिक और प्रामाणिक है
वह तुम्हारे
कंक्रीट के
जंगल को भी पढ़ता है
तुम्हारे विकास को भी पढ़ता है
और उसे
अपने जीवन जीने के तरीके से
खारिज भी करता चलता है
उसका पूछा हुआ
मौलिक सवाल
मौन में गूंजता है
शांति से जीने के लिए
यह विकास
कितना जरूरी है
2. चेतना में बहती हुई नदी
आदमी की चेतना में
जो नदी बहती है
कई कई बीती हुई
सहस्राब्दियों से अब तक
और अब से
आगे आने वाली सहस्राब्दियों
के पार तक
वही कविता है
3. वह जो निरंतर स्थिर में लगातार गतिमान है
एक कोई
ऐसा जरूर है
जो सब में
अर्थात
दृश्य अदृश्य सब में
अर्थात
सबके भीतर और बाहर
सब जगह
सर्वत्र
सदा से विद्यमान है
ब्रह्मांड के
जड़ चेतन अचेतन
अर्थात
space-time
मैटर एनर्जी कॉन्शसनेस
सब में
सब बिंदुओं पर
समान रूप से व्याप्त है
जिसके लिए कहा गया है
इशावस्यम इदं सर्वं
और वह जो
सदा निरंतर प्रतिक्षण
गतिमान है
जो पैदा होने के साथ-साथ
विलुप्त हो जाता है
जिसे जब तक हम
वर्तमान में देखते हैं
तब तक वह
अतीत हो चुका होता है
गत हो चुका होता है
बीत चुका होता है
और वह जो सदा गतिमान है
आगत के साथ साथ ही विगत है
वही तो जगत है
और यहां कुछ भी
अर्थात
उस बीत चुके हुए मे से
कुछ भी
भोगने की इच्छा
कहीं पैदा होती है
तो वह इच्छा तो
सदा से
उस सर्व विद्यमान मैं ही
पैदा हो रही है
और जो जगत है
वह तो विगत है
और विगत को
कोई कैसे भोग सकता है
उसका केवल
त्याग किया जा सकता है
उसके त्याग में ही
उसका भोग
निहित है
इसीलिए कहा गया
तेन त्यक्तेन भुंजीथा
सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है
कि यह संपदा किसकी है
और किसके लिए है
लेकिन मजेदार बात तो
पहले ही कही जा चुकी है
कि यह सब संपदा
जगत का हिस्सा है
जगत
जो पहले से ही गत है
विगत है
बीत चुका है
उसे भोग करने की इच्छा
उसे
रोककर रखने की इच्छा है
लेकिन वह तो
बीत चुका गतिमान जगत है
जिसके लिए शुरू में ही
कहा गया है
जगत्यां जगत
उसे
त्याग करने के अलावा
कोई विकल्प ही
कहां बचता है
इसीलिए तो पूछा गया
मां गृधह कस्यस्विद्धनम
इस धनसंपदा का
कोई भोक्ता कौन है
यह किस के लिए है
इस निरंतर गतिमान जगत में
जो वास्तव में विगत है
इस धनसंपदा को
जो वास्तव में विगत है
है ही नहीं
ना तो इसे ग्रहण करना संभव है
ना ही भोगना संभव है
स्पेस टाइम मैटर एनर्जी
और consciousness
के बारे में
क्वांटम फिजिक्स भी
लगभग ऐसे ही सोचता है
4. सारे महाकाव्य अधूरे हैं
अभी कितना
सारा लिखा जाना बाकी है
लाखों साल पुरानी है
इस धरती पर
सेपियंस की जात
हजारों साल पहले
सेपियंस के जंगलीपन से
उभरकर निकालकर पनपकर
सभ्यताएं पैदा हुई
पली-बढ़ी
फिर मानव कंठ की ध्वनियों से
अक्षर बने शब्द बने भाषा बनी
विचार आए
विचार भाषा में बांधे गए
भावसूचक शब्द पैदा हुए
अपने दुखों को
दूसरे के दुखों में
और दूसरों के दुखों को
अपने दुखों में देखना शुरू हुआ
दुनिया की सभी
विकसित अर्धविकसित
अविकसित भाषाओं मेंं
सभी क्षणिक सुखों को
दुखों के विस्तार में
गाया जाने लगा
इसे ही आगे चलकर
साहित्य कहा गया
सुख क्षणिक हैं
सामायिक है
और उनका अंत तय है
दुखों का
कोई अंत नहीं है
सभी भाषाओं में
दुखों को गाया गया
लेकिन यह गायन
अभी खत्म नहीं हुआ
अभी पूरा नहीं हुआ
इतने अलग-अलग तरीकों से
गाये जाने के बाद भी
अभी इन्हें
और गाया जाना बाकी है
इसीलिए तो
कोई भी कवि
अपनी रचनावली
कभी पूरी नहीं कर पाता
बीच में अधूरी छोड़ कर
चला जाता है
सारे महाकाव्य अधूरे है
इस धरती पर
जीवन के
कितने सारे दुखों को
अभी गाया जाना बाकी है
अभी कितना सारा
लिखा जाना बाकी है
5. संदर्भ भूमंडलीकरण
चाहता हूं बिना कुछ बोले
बयां हो जाऊं
बहती नदी में नहाकर
क्या से क्या हो जाऊं
तुम बस अखंड भारत की
बात करते हो
मैं तो सोचता हूं कि
सारा जहां हो जाऊं
6. यह जो समूचा आकाश है
यह जो समूचा आकाश है
दरअसल यह एक विराट रिक्तता है
इसको जितना भरा जाता है
इसका खालीपन
उतना ही बढ़ता जाता है
यही शून्य है
एक शाश्वत
अनिर्वाचनीय मौन का
स्थायी निवास स्थान है यह
इस में प्रवेश तो है
कोई निकास नहीं है
7. तुम कहां हो
तुम
वहां
नहीं हो
जहां तुम्हे लगता है कि तुम हो
दरअसल
तुम
इस प्रश्न से
जूझ रहे हो
कि
तुम हो कि
तुम हो ही नहीं
जन्म के पहले तुम नहीं थे
जब तक जीवित हो
तब तक
लगता है कि हो
मृत्यु के बाद नहीं होगे
नहीं होने से होने तक
और होने से
नहीं होने तक की यात्रा में
तुम पहचान के
मौलिक प्रश्न से
टकराते हो
क्या है
आखिरकार तुम्हारी पहचान
तुम्हारा होना
कि
तुम्हारा नहीं होना
8. ज्ञान से बड़ी
ज्ञान से बड़ी
कोई एलर्जी नहीं है
और ज्ञान से मुक्ति
अज्ञान नहीं है
बल्कि वह तो
सुख है
आनंद है
सुकून है
जीवन में
एक लंबी सांस लेने की
कितनी कम जगह
बच गई है
9. दूध के धुले लोग
दूध के धुले लोग
विचारों के खुले लोग
कभी दिया नहीं दिखता
देखते हर दिए के तले लोग
चटपटे चुटकुले लोग
सबसे मिले-जुले लोग
बिल्कुल नपे तुले लोग
अध मुंदे अध खुले लोग
दूध के धुले लोग
10. प्रेम कविता
प्रेम की कोई
परिभाषा नहीं हो सकती
परिभाषित करने का मतलब
परिसीमित करना होता है
किसी दायरे में
बांधना होता है
प्रेम पर भी
कविता
नहीं हो सकती
क्योंकि प्रेम और कविता को
अलग अलग
नहीं किया जा सकता
प्रेम में भी
कविता नहीं हो सकती
क्योंकि प्रेम में होना
दुख और सुख से
ऊपर उठकर
आनंद में होना है
आनंद में होना
स्वानुभूति में होना है
और स्वानुभूति में होना
कविता में होना है
कविता में होना ही
प्रेम में होना है
इसीलिए तो
प्रेम में होना ही
कविता में होना है
जितना हम
प्रेम में होते हैं
बस उतना ही
जीवन में होते हैं
बस उतना ही
हम कविता में होते हैं
प्रेम हो या कविता
बाहर के शब्द में
नहीं होते
हमारे भीतर के
शब्दातीत में
तन्मय होकर रहते हैं
प्रेन में होना ही
जीवन जीना है
जीवन की
कविता को जाना है
इसीलिए तो
जीवन जीना ही
प्रेम रूपी
कविता में होना है
प्रेम कविता को जीना है
11. यह बहस है
यह बहस है
यह लंबी बहस है
यह बहुत लंबी बहस है
यह सबसे लंबी बहस है
इस बहस में सब कुछ तहस-नहस है
फिर भी बहस तो बहस है
यह बहस
अंधों और गूंगे बहरों के बीच
चल रही है
सदियों से चल रही है
सदियों तक चलती रहेगी
कभी खत्म होती
नहीं सुनी गई यह बहस
किसी मुकाम पर भी पहुंचती
नहीं पाई गई अब तक
यह जो बहस है
उस नदी की तरह है
जो क्षितिज के एक छोर से
बहती हुई आती है
एक चौड़ी सी नदी
दूसरे छोर के क्षितिज को
तोड़ती हुई
आगे बढ़ती चली जाती है
बहस की इस नदी में
सभी कूदने को तैयार है
कोई कोई इसमें
डूब जाता है
कोई गोता लगाते लगाते
ऊब जाता है
कईयों को
सत्ता के घड़ियाल खा जाते हैं
कईयों को
सत्ता के दलाल पचा जाते हैं
कईयों को
मुफ्त में मिल जाता है
ढेर सारा माल
और उस पर बहस होती है
कईयों को
कुछ नहीं मिलने का
होता है मलाल
और उस पर भी बहस होती है
दरअसल हिमालय से भी
ऊंची है बहस
सागर से भी गहरी है
बहस कई बार तो
जहां से चली थी
वहीं पर ठहरी है
अब तो बहस में
संत भी है महंत भी हैं
बहस में गुणवंत भी है
धन्वंत भी है
होनी पर भी
होती है बहस
अनहोनी पर भी
होती है बहस
हम चारों तरफ से
बहस से घिरे हैं
इस बहस के
ना सिर है ना पैर हैं
न सिरे हैं
बहस से तर्क लगभग गायब है
बहस में कुतर्क हमेशा कायम है
बहस के नाम पर बहुत शोर है
है नहीं
केवल लगता है कि
बहस में बहुत जोर है
लेकिन बहस होनी चाहिए
बहस जरूरी है
दरअसल बहस किसी भी लोकतंत्र की मजबूरी है
अगर लोकतंत्र चाहिए तो
बहस का होना जरूरी है
बहस को
सिर पर ढोना जरूरी है
बहस का होते रहना
जरूरी है
बहस एक खेत की तरह है
इसे बोते रहना जरूरी है
बहस का कोई विकल्प नहीं है
लोकतंत्र का प्राण है बहस लोकतंत्र का आधार है बहस
लोकतंत्र की जीवनी शक्ति है
लोकतंत्र में बहस के अलावा कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं है
बहस का मतलब लोकतंत्र है
लोकतंत्र का मतलब बहस है
बेहिसाब बहस लगातार बहस
हम सब तो लोकतंत्र में जी रहे हैं इसलिए
बहस के अलावा सच तक पहुंचने का कोई रास्ता भी तो नहीं है
लोकतंत्र में सब को बोलने दिया जाएगा
भले कोई किसी की ना सुने
लेकिन बोलेंगे तो सब
यह हमारा मौलिक हक है
बहस में निर्णय जनमत के आधार पर नहीं
लोकमत के आधार पर भी नहीं
तर्क के आधार पर भी नहीं
सहमति के आधार पर भो नहीं
संख्या बल के आधार पर होंगे
इसीलिए बेमतलब हो जाती है बहस
फिर भी होनी चाहिए बहस
क्योंकि लोकतंत्र तक पहुंचने की सीढ़ी है बहस
वैसे तो बहस पर भी होनी चाहिए बहस
लंच तैयार होने में
समय लगता है
इसलिए लंच तक
होनी चाहिए बहस
लंच के बाद
बैठे-बैठे कैलोरी कैसे खर्च हो
इसलिए लंच के बाद भी होनी चाहिए और जोरदार बहस
और कभी मुद्दा बहुत गंभीर हो तो 24 घंटे चलनी चाहिए बहस
सब को बोलने का मौका तो मिलना ही चाहिए
गाड़ी जब लेट हो जाती है तो रफ्तार बढ़ाकर मेकअप करती है
बिजनेस बढ़ाना हो तो बहस टाली भी जाती है बहस खाली भी जाती है
सबको पता है लोकतंत्र में निर्णय संख्या बल पर ही होना है
फिर भी सफेद हाथी की तरह पाली जाती है बहस
काम करने के पहले भी होती है बहस
काम करते समय भी होती है
बहस
काम हो जाने के बाद भी होती है बहस
काम नहीं होने पर भी होती है बहस
काम खराब होने पर भी होती है बहस
काम अच्छा होने पर भी होती है बहस
पता नहीं यह लोकतंत्र की बदसूरती है कि खूबसूरती है
किस्मत है कि बदकिस्मती है
वरदान है कि अभिशाप है
पुण्य है कि पाप है
यह बताना मुश्किल है
क्योंकि बहस ही वादी है
बहस ही प्रतिवादी है
बहस ही जज है
बहस ही मुवक्किल है
हरे राम कात्यायन, कोलकाता