वसंत का बज्रनाद
एक छोटी सी जगह से उठने वाली चिनगारी राजनीति में किस तरह की धधक पैदा कर सकती है-राजनीतिक स्थितियों में यथास्थिति को तोड़कर व्यवस्था परिवर्त्तन की ज्वाला बन जाती है इसका सर्वोत्तम उदाहरण है नक्सलबाड़ी में गठित 67 के वसंत का बज्रनाद। नक्सलबाड़ी का यह सशस्त्र किसान आंदोलन भारतीय जनमानस में व्यवस्था परिवर्त्तन का एक नया रास्ता दिखला गया। इतिहास गवाह है कि यह छोटा सा आंदोलन निर्णायक वर्गयुद्ध के रूप में बदलता हुआ एक नए रूप में हमारे सामने आया। आशा की इस नई उम्मीद ने राजनीति के साथ-साथ कला, संस्कृति और ललित कलाओं के विभिन्न अवयवों को प्रभावित किया। दक्षिण भारत खासकर तेलंगाना का आंदोलन और पश्चिम बंगाल के इस नक्सलबाड़ी आंदोलन ने तेलुगू और बांग्ला साहित्य की अंतर्वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन ला दिया। जाहिर है अंतर्वस्तु में परिवर्तन होगा तो इसके पुराने रूप भी बदल जाएँगे। इसने कला साहित्य और संस्कृति को मुक्तिकामी जनसंघर्ष की चेतना से स्पंदित भी किया और उसे नई आजादी के संग्रामी साहित्य के रूप में परिणत भी कर दिया। चेरबंडा राजू, श्री श्री, गदर के साथ-साथ शक्ति चट्टोपाध्याय, द्रोणाचार्य घोष जैसे दर्जनों रचनाकार इस संग्रामी गीत के प्रणेता बने। कुछ ने तो किसानों के साथ सशस्त्र संघर्ष में हिस्सा भी लिया और शहीद भी हुए।
गगनघटा गहरानी
बिहार और हिन्दी की दूसरी पट्टी में थोड़े अंतराल के बाद यह चिनगारी पहुँची। भारत में आपातकाल की घोषणा के बाद एक मात्र प्रगतिशील लेखक संघ में जिस तरह संशय की भावना जगी और जनसंधर्षों से अलग हटकर उसने आपातकाल का स्वागत किया इसी समय क्रांतिकारी विचार रखनेवाले लेखक और संस्कृतिकर्मियों ने तत्कालीन कांग्रेसी तानाशाही और जयप्रकाश की अगुआई में उदय होती फासीवादी शक्ति की पहचान-पड़ताल की। बिहार में नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा बनाने की परिकल्पना की गई। संस्कृति की क्रांतिकारी धारा को तीसरी धारा के रूप में चिन्हित करने की बात की जाने लगी। साहित्य और संस्कृति को बिहार के खेत-खलिहानों में किसान संघर्ष की धधकती आग के साथ संस्कृति कर्म से जोड़ने की ईमानदार कोशिशें होने लगीं। जिन रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों की पहचान इस संगठन को मूर्त रूप देने में की जाती है उनमें बेगूसराय में कार्यरत अरुण प्रकाश का नाम भी मुख्य रूप से लिया जा सकता है। प्रगतिशील लेखक संघ से मोह-भंग और मुक्तिकामी संघर्ष के प्रति नई आस्था का नाम अरुण प्रकाश है। केशव रत्नम तथा सूर्यगढ़ा एवं अन्य जगहों से आए हुए संस्कृतिकर्मियों की अगुआई अरुण प्रकाश ने की थी और नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था। इस मोर्चा से जुड़कर अन्य लेखकों कवियों के साथ अरुण प्रकाश का पहला कविता संग्रह ’रक्त के बारे में‘ इसी मुक्तिकामी चेतना की कविताओं का संकलन है। यह कवि की गहरी संवेदना ही है कि इस मुक्ति संघर्ष में इन्हें चारों ओर प्यार ही प्यार नजर आ रहा था। जीवन और भविष्य के प्रति प्यार! ’प्यार को रोकना नामुमकिन है‘ जैसी लंबी कविता पाठकों को देखनी चाहिए।
सामंतवाद और पूंजीवाद का गठजोड़ःब्राह्मणवाद का मजबूत होता गढ़
भारत जैसा देश आर्थिक रूप से परतंत्र और परजीवी है। यह देश विकसित है कि विकासशील, पिछड़ा है कि गतिशील कह पाना मुश्किल है। अब भी यह देश अर्ध-सामंती अर्ध औपनिवेशिक और अर्ध-पूंजीवादी है। सामंतवाद और साम्राज्यवाद का गठजोड़ देखना हो, प्रगतिशीलता और कर्मकांड देखना हो, जातिनिरपेक्षता और ब्राह्मणवाद देखना हो तो इस देश को देखिए, आपकी नसें फट जाएँगी, विश्लेषण के सारे मापदंड क्षत-विक्षत हो जाएँगे। नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा का गठन और देशभक्त जनवादी मोर्चा के बीच से इंडियन पिपुल्स फ्रंट के निर्माण की प्रक्रिया का एक लंबा इतिहास है। इस इतिहास ने सांस्कृतिक कर्म और राजनीतिकर्म के द्वैत को अस्पष्ट-सा कर दिया था। नक्सलबाड़ी आंदोलन की वैचारिक पक्षधरता, नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा के संस्कृतिकर्मियों की प्रतिबद्धता थी। जनसंस्कृति मंच के गठन के पूर्व संस्कृतिकर्मियों में बहस छिड़ी थी कि पार्टी-संगठन को भूमिगत रहकर जनसंघर्ष के क्षेत्र को विस्तार देना है या भारतवर्ष के संसदीय ढांचे में इसे खुले रूप में चुनाव में हिस्सा लेना है।
मुक्तिकामी राजनीति की अंतर्धारा और संस्कृतिकर्मियों का आत्मसंघर्ष
इस बहस ने संस्कृतिकर्मियों के एक बड़े जत्थे को निराश और हताश कर दिया था कि जनसंघर्ष को विस्तार देने की बजाय हमें इस लुंज-पुंज संसदीय ढांचे के चुनाव में हिस्सा लेना चाहिए। नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा या बाद में जनसंस्कृति मंच कहने के लिए तो स्वतंत्र सांस्कृतिक संगठन था लेकिन इन संगठनों पर नियंत्रण सीपीआई-एम एल(लिबरेशन ग्रुप) का था। पार्टी के निर्णयों को ’रैंक एंड फाइल‘ तक लागू कराना एकमात्र सांस्कृतिक कार्य रह गया था। पार्टी के लिए फंड जुटाना, नौकरी पेशा लोगों से लेवी वसूलना, दीवारों पर नारा लिखना, भीड़ जुटाने के लिए प्रोपेगेंडा नाटक करना या नुक्कड़ों पर पार्टी के पक्ष में जनगीत गाना इस सांस्कृति संगठन के मुख्य कार्य-व्यपार बन गए थे। राजनीति और संस्कृति के अंतर्संबंधों पर न तो पार्टी में बहस होती थी और न सांस्कृतिक संगठनों में। इस अंतर्विरोध के कारण ढेर सारे संवेदनशील रचनाकार और संस्कृतिकर्मी इस सांस्कृतिक संगठन से या तो अलग हो गए या निकाल दिए गए या उन्होंने गहरी चुप्पी साध ली। अरुण प्रकाश ऐसे ही संस्कृतिकर्मी थे जो राजनीति और संस्कृति के घालमेल को एक शिरे से नापसंद करते थे। उनकी प्रतिबद्धता मुक्तिकामी जनसंघर्ष के साथ तो थी लेकिन वे संस्कृतिकर्म पर पार्टी का आवश्यक या अनावश्यक दबाव सहन कर पाने की स्थिति में नहीं थे। अरुण प्रकाश बाद में सांस्कृतिक संगठन के साथ संबद्ध तो नहीं रहे लेकिन लेखन में प्रतिबद्धता बरकरार रही। अत्यंत संवेदनशील रचनाकार अरुण प्रकाश ने अपने लेखन को सिर्फ प्रोपेगेंडा नहीं बनाया। इनकी रचनाओं में संवेदना के अलग-अलग तत्त्व जनसंघर्षों के प्रति प्रतिबद्धता को प्रदर्षित करते हैं।
मुक्तिकामी जनसंघर्ष और प्रतिबद्ध रचनाधर्मिता के बीच का संबंध हमेशा द्वंद्वात्मक होता है। जनसंघर्ष जितना तीव्र होता है प्रतिबद्ध रचनाकर्म उतना ही ऊर्जावान। पूरे विश्व का जनसंघर्ष इस बात का गवाह है कि इनसे जुड़े रचनाकार ही उच्चकोटि के साहित्य का सृजन कर सके हैं। कई बार कम्युनिस्ट पार्टियों की कोर कमिटी के रचनाकार भी महत्वपूर्ण और सर्वदा याद रखने योग्य रचनाकर्म कर सके हैं। माइकोवस्की, सार्त्र, आस्त्रोवस्की, पाब्लो नेरुदा, महान चित्रकार पाब्लो पिकासो से लेकर लू शून और हो ची मिन्ह तक इनमें से कई राजनीतिज्ञ, सक्रिय कार्यकर्ता, नेता यहाँ तक कि गुरिल्ला दस्ते के सिपाही तक थे। बड़े रचनाकार इस तरह की मुक्तिकामी राजनीतिक चेतना से अपने रचनाकर्म के कद को बढ़ाते ही हैं। लेकिन हिन्दी का दुर्भाग्य है कि मुक्तिकामी राजनीति के अपने अंतर्विरोधों और कमियों ने अपने लेखकों के लिए खाद पानी और मिट्टी तैयार ही नहीं की। नक्सलबाड़ी आंदोलन को केन्द्र में रखकर राजनीति करने वाली पार्टियों ने हमेशा ही अपने बीच के रचनाकार को दोयम दर्जे की नागरिकता प्रदान की। इस तरह की राजनीतिक चेतना वाले रचनाकार पार्टी संगठन के लिए सिर्फ टुल्स बने रहे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इससे जुड़े सांस्कृतिक संगठन सिर्फ प्रचार कार्य के लिए भोंपू बनकर रह गए। दूसरे लेखक संगठनों में जिस तरह पार्टियों का हस्तक्षेप या वर्चस्व रहता है वैसा ही हस्तक्षेप या वर्चस्व नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा और बाद में चलकर जनसंस्कृति मंच में भी रहा। इन राजनीतिक दलों ने अपने साथ के रचनाकारों को कोई भी स्वायत्तता प्रदान नहीं की।
पार्टी की केन्द्रीयता और केन्द्र का संस्कृतिकरण
पार्टी संगठन की तरह इस सांस्कृतिक मंच के केन्द्र में, पार्टी मेंबर जो पार्टी के एजेंडे को लागू करवा सकें, को ही रखा गया। यहाँ तक कि बिहार के बाहर से रचनाकार का मुखौटा धारण किए हुए पार्टी मेंबर को इस सांस्कृतिक संगठन का नेतृत्व प्रदान कर दिया गया। ऐसे लोग जो संवेदनशील और ईमानदार थे और जो पार्टी के मेंबर नहीं भी हो सकते थे तिरस्कृत किए जाने लगे। रचनाकार जो पार्टी मेंबर थे उन्हें दूसरे सांस्कृतिक कार्यो में झोंक दिया गया। पोस्टर बैनर बनवाना, चुनाव-प्रचार के लिए गीत-गायन मंडली का गठन करना और कभी-कभी अन्य गैर रचनात्मक कार्यों में उन्हें झोंक दिया गया। दूसरे सांस्कृतिक संगठनों की तरह यहाँ भी धीरे-धीरे ब्राह्मणवाद और सवर्णों का वर्चस्ववाद पनपने लगा था। चुन-चुन कर ऐसे रचनाकारों को, जो सवर्ण नहीं थे, सांगठनिक कार्यो से धीरे-धीरे दूर कर दिया गया।
अरुण प्रकाश पार्टी के इस रवैये से खिन्न थे। धीरे-धीरे वे सांगठनिक कार्यों से अलग हो गए। गीतकार, नचिकेता, शांति सुमन, संजीव, सृंजय, नीलाभ, अजय कुमार, कमलकिशोर श्रमिक, केशवरत्नम, राजकुमार, राणा प्रताप, अवधेश प्रधान और भी अनेक दर्जनों रचनाकार जिन्होंने इस सांस्कृतिक संगठन को खड़ा करने में भूमिका निभाई थी उन्हें अलग-थलग कर दिया गया। हाताशा और एक लंबी उदासी ने अरुण प्रकाश जैसे रचनाकार को दिल्ली का आदमी बना दिया।
प्यार को रोकना नामुमकिन है-इसका अर्थ यह नहीं कि यह पसर जाए दिल्ली की सड़कों पर
अरुण प्रकाश मूल रूप से कवि थे। उनकी गद्य रचनाओं में भी कविता की गंध दूर-दूर तक पसरती हुई नजर आती है। सभी तरह की कृत्रिमताओं से दूर और गहरी मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई हैं उनकी गद्य रचनाएँ। अरुण प्रकाश के दूसरे मित्र रचनाकार जनवादी रचना के नाम पर कृत्रिम और कई तरह के जार्गन्स के साथ लेखन कर रहे थे या अपनी रचनाओं को प्रमाणिक बनाने के लिए शोध-संदर्भों का अनावश्यक पैबंद लगा रहे थे, वहीं अरुण प्रकाश अपनी रचनाओं की गहरी और विश्वसनीय संवेदनाओं के चलते अधिक प्रभावी और पाठकीय विश्वसनीयता अर्जित कर रहे थे। वे ’कफन 1984‘ और ’भैय्या एक्सप्रेस‘ जैसी कहानियों के माध्यम से बिहार के मजदूरों के निरंतर पलायन और सामंती जकड़बंदी में उसके शोषण को बड़ी संवेदनशीलता से चित्रित कर रहे थे। इस शोषण से मुक्ति के लिए मजदूरों के भीतर उठने वाले संघर्ष हिन्दी आलोचकों को आलोचना के नए औजार गढ़ने को विवश कर रहे थे। ’जल-प्रांतर‘ में जड़-जमाए हुए ब्राह्मणवाद के मूल तत्त्व अंधविश्वास और कर्मकांड तथा उसकी भयावह त्रासदी को पाठक सहज ही अनुभव कर सकते हैं। समकालीन कथाकारों का एक वर्ग जिस तरह से विचारधारा को दरकिनार कर अपनी रचनाओं में भाषायी चमत्कार को नकली पॉलिश की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं अरुण प्रकाश की कहानियाँ इसका निषेध करती हैं। ’गजपुराण‘ जैसी कहानी वैश्वीकरण के दौर में सामंतवाद का पूंजीवादी रूपांतरण है। अंततः इस द्वंद्व को सहन नहीं कर सकने की स्थिति में एक खास तरह की विक्षिप्ततावस्था को प्राप्त कर लेना इस रूपांतरण की नियति बन गई है-कलात्मक और वैचारिक अंतर्संबंधों का इतना सुंदर समन्वय हिन्दी कहानी में बहुत कम देखने को मिलता है। ’रक्त के बारे में‘ संभवतः अरुण प्रकाश का पहला और अलग से रेखांकित करने योग्य काव्य-संकलन है। ’प्यार को रोकना नामुमकिन है‘ जैसी लंबी कविता में अरुण प्रकाश ने प्यार की उदात्तता को जो चित्रण किया है वह बरबस ही पाब्लो नेरुदा की लंबी कविता की याद दिला देती है। ’प्रेम और अप्रेम की कुछ कविताएँ(शायद जो किसी संकलन में नहीं आ पायी हैं) या किसान संघर्ष के बीच रचनाकार की संलिप्तता उनकी संवेदना को विस्तार देने वाली कविताएँ हैं। ऐसे जन-जुड़ाव वाले रचनाकार जब बिहार से हटकर दिल्ली जा बसते हैं तो उनकी रचनात्मकता, उनकी संवेदना और उनके स्वास्थ पर क्या प्रभाव पड़ सकता है-इसके उदाहरण हैं अरुण प्रकाश। दिल्ली में रहने के बाद कई तरह के रचनात्मक धंधों में फँस कर रह गए थे अरुण प्रकाश। दिल्ली में रहने के बाद उनकी कहानियों के जो संकलन आए उनमें लेखक की संवेदना धीरे-धीरे छीजती हुई सी नजर आने लगी थी। दूरदर्शन के लिए धारावाहिकों का पटकथा-लेखन, साहित्य अकादमी की पत्रिका का संपादन या ऐसे ही कुछ जरूरी-गैरजरूरी कार्यों ने अरुण प्रकाश को जर्जर बना दिया। उनकी सांसों की तकलीफ निरंतर बढ़ती चली गई थी। पिछले दो वर्षों से वे निरंतर कृत्रिम सांसों के सहारे बंध से गए थे। ’दिल्ली शहर तो लोहे का बना है‘-गोरख पांडेय ने लक्षित किया था कि ’यह तो शहर लोहे का बना है/फूलों से कटता जाए है।‘ गोरख पांडेय का अंत अत्यंत दुखद और हृदयभेदक था। अरुण प्रकाश का भी अंत कुछ ऐसा ही था।
बेगूसराय के कितने प्लेटफार्म पर घुमाते रहिएगा आप!
अपने अवसान के पूर्व अरुण प्रकाश निबद्ध थे वेंटीलेटर से। चौबीसों घंटे ऑक्सीजन सिलेंडर से जुड़े रहते थे। लोहे का यह सिलेंडर और लोहे की नगरी दिल्ली! कहते हैं जो दिल्ली में बस गया दिल्ली उसे छोड़ती नहीं डंस लेती है। अरुण प्रकाश अंत-अंत में करीब-करीब स्मृति-शून्य हो गए थे लेकिन उनके मन का पंछी गाँव-जवार के मुक्त आकाश में फिर से बिचरने लग गया था। अपने अत्यंत निकटतम और मैथिली एवं हिन्दी के युवा कथाकार गौरीनाथ से उन्होंने आग्रह किया था कि एक बार उनके गाँव ले चलेंगे। गौरीनाथ ने इन पंक्तियों के लेखक को दूरभाष पर बतलाया था कि अंत-अंत में अरुण प्रकाश उनसे ये पूछते रहे थे कि बेगूसराय के इस प्लेटफार्म से उस प्लेटफार्म तक कब तक घुमाते रहिएगा? गाँव तो ले चलिए!
अरुण प्रकाश गाँव तो नहीं आ सके वे वहाँ चले गए जहाँ से आज तक कोई लौटा नहीं है।
प्रिय भाई अरुण प्रकाश जी! आप एक बार पटना आइए तो! मेरे डाइनिंग टेबुल पर मछली और भात के साथ आलोका आपकी प्रतीक्षा कर रही है…।
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कवि परिचय
नाम- सुरेंद्र स्निग्ध
राज्य- बिहार
जन्म- 5 जून 1952 ई० में पूर्णिया जिले के सुदूर एक ठेठ देहात ‘सिंघियान’ में। शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से। पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन। 2015 में हिंदी विभाग, पटना विश्वविद्यलय के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त। प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी एवं लेखक संगठनकर्ता के रूप में भी पहचान। नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार तथा जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में एक। कई विवादास्पद मुद्दों पर अपनी स्पष्ट मान्यताओं के साथ आम पाठकों के बीच निरंतर उपस्थिति।
मूलतः कवि। उपन्यास और कई आलोचनात्मक गद्य रचनाएँ प्रकाशित तथा बहुचर्चित। ‘गांव-घर’ ‘भारती’ ‘नई संस्कृति’, ‘प्रगतिशील समाज’(कहानी विशेषांक) ‘उन्नयन’ के बहुचर्चित बिहार कवितांक का संपादन।
निधन- 18 दिसंबर 2017
पुरस्कार- ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी’ सम्मान, ‘बिहार राष्ट्रभाषा सम्मान’ 2017
कविता-संग्रह-
छह कविता-संग्रह प्रकाशित।
1. पके धान की गंध(1992), साहित्य संसद, नई दिल्ली
2. कई-कई यात्राएँ(2000), पुस्तक भवन, नई दिल्ली
3. अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता(2005), नई संस्कृति प्रकाशन
4. रचते-गढ़ते(2008), किताब महल, इलाहाबाद
5. मा कॉमरेड और दोस्त(2014),विजया बुक्स, दिल्ली
6. संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर(2016), अभिधा प्रकाशन, मुज़फ्फरपुर
गद्य रचनाएँ-
1. जागत नीद न कीजै (टिप्पणियों का संग्रह),2008, सुधा प्रकाशन, पटना
2. सबद सबद बहु अंतरा( टिप्पणियों का संग्रह), 2000, राजदीप प्रकाशन , नई दिल्ली
3. नयी कविताः नया परिदृश्य(आलोचना पुस्तक),2007, किताब महल प्रकाशन
4. प्रपद्यवाद और केसरी कुमार(आलोचना पुस्तक), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से
उपन्यास-
1. छाड़न(2005), पुस्तक भवन, नई दिल्ली से प्रथम संस्करण, बाद में किताब महल, इलाहबाद से
2. मरणोपरांत एक अपूर्ण उपन्यास ’कथांतर‘ पत्रिका के जुलाई 2018 अंक में
‘उस द्वीप की रूपक कथा’ नाम से प्रकाशित।
संपादित पुस्तक-
1. फणीश्वरनाथ रेणु : पहचान और परख, 2018, राजदीप प्रकाशन, नई दिल्ली